जातिय हिंसा, हिंदू विनम्रता और ग्रामीय शांति

जातिगत व्यवस्था को लागू करने के लिए ज़रूरी नहीं युद्ध किए जाएँ या हिंसा का सहारा लिया जाए। जातिगत व्यवस्था को शांति और विनम्रता द्वारा भी क्रियाशील रखा जा सकता है। इसी प्रक्रिया को समझने के लिए पढ़िए यह लेख।

जातिय हिंसा, हिंदू विनम्रता और ग्रामीय शांति

ग्रामीण भारत में एक सड़क / Photo: Flickr/McKay Savage CC BY

अनुवाद: नित्यानंद राय
स्त्रोत: The Wire

ग्रामीण भारत में अनुसूचित जातियों के खिलाफ बार-बार होने वाली जातिगत हिंसा ग्रामीण शांति की क्षणभंगुर प्रकृति को उजागर करती है। माराठवाड़ा के ग्रामीण क्षेत्रों  में जाति, सत्ता और अंबेडकरीकरण के विषयों पर शोध करते हुए मैंने जातिवाद और जातिगत संबंधों के गठन एवं पुनर्गठन में हिंसा की भूमिका के विभिन्न अयामों का अध्ययन किया। इस अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में यह तर्क गढ़ना अभी भी मुश्किल है कि ‘जातिप्रथा समाप्त हो गई है’  या श्रमिकों के बढ़ते आवागमन/पलायन और खेती में घटते लाभ के कारण ‘ग्रामीण संस्कृति बिखर रही है।’ गांवों में सांस्कृतिक दमन बढ़ते शहरीकरण के बावजूद बरक़रार ही नहीं, बल्कि उसके साथ कदमताल करते हुए पहले से कहीं ज्यादा मजबूत और विकसित हुआ है। हालांकि सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्था में स्पष्टतः नजर आने वाले परिवर्तन भी हुए हैं। 

इसलिए यह जरूरी है कि जातिगत हिंसा के साथ-साथ ग्रामीण शांति को भी परखा जाए। इसके तहत अंतरजातीय मित्रताएं, राजनीतिक गठजोड़ और उन दबंग जातियों की छिपी या दबी हुई इंसानियत को समझा जाए जो एक समय अछूत रहीं (पूर्व अछूत) जातियों के खिलाफ हिंसा में लिप्त रहती हैं। दबंग जाति से मेरा इशारा उन जातियों की तरफ़ है जिनकी संख्या सार्थक है। यही जातियां भूमि के स्वामित्व को नियंत्रित करती हैं और आमतौर पर गांव के प्रमुख होने का दावा भी पेश करती हैं। हालांकि राजनीतिक हिंसा का सहारा लेने वाली अधिकांश जातियां- जैसे लिंगायत, वोक्कालिगास, माराठा-कुनबी, पाटीदार, कम्मास, रेड्डी, जाट, थेवार या गाउंडर मध्यम स्तर की होती हैं। वहीं हिंसा और शांति दोनों के निर्माण में स्थानीय परिस्थितियों की अहम भूमिका होती है। उन गांवों में जहां पूर्व-अछूत की संख्या दबंग जातियों से अधिक हैं, वहां जातीय हिंसा की गिनी-चुनी घटनाएं ही दिखाई पड़ती हैं।

हाशिए की जातियों का विश्लेषण करते समय ग्रामीण सामाज में नए तरीकों से होने वाले सामाजिक और राजनीतिक समावेशन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जातिगत व्यवस्था को लागू करने के लिए ज़रूरी नहीं युद्ध किए जाएँ या हिंसा का सहारा लिया जाए। जातिगत व्यवस्था को शांति और विनम्रता के द्वारा भी क्रियाशील रखा जा सकता है।

 

हिन्दू विनम्रता

माराठवाड़ा के गांवों में शांति की क्षणभंगुर प्रकृति को समझने में हिन्दू विनम्रता की अवधारणा सहायक है। हिंदू विनम्रता गांवों में जाति से परे उभर रही हिंदू एकता को समझने का ज़रिया है। इस उभार की बुनियाद में सत्ता प्रदत्त शक्ति की चाह है लेकिन इसमें उत्संस्करण (एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय की संस्कृति को आत्मसात करने की प्रक्रिया, जहां दूसरा समुदाय अक्सर प्रभुत्वशाली समुदाय होता है) भी शामिल रहता है। यहां वे जातियां, जिन्हें आमतौर पर शुद्ध नहीं समझा जाता, वे अपनी शुद्धता का दावा पेश करती हैं। साथ ही प्रमाणिक हिन्दू बनने की कोशिश करती हैं। ये ऐसे गांव हैं, जहां ब्राह्मण न के बराबर हैं; लेकिन धर्म फिर भी एकजुट होने का अहम ज़रिया बना हुआ है। गांव में मंदिरों के साथ-साथ बाबा, गुरू या सप्ताह भी शुद्धता और एकजुटता को प्रोत्साहित करने में बढ़ावा देते हैं। नियमित धार्मिक जुटान शक्ति प्रदर्शन के साथ-साथ एकजुटता बढ़ाने के भी अवसर उपलब्ध कराते हैं। शुद्धता के सार्वभौमीकरण की इन प्रक्रियाओं में पूर्व-अछूत हमेशा बराबर के भागीदार नहीं होते, लेकिन उन्हें इन प्रक्रियाओं से पूरी तरह बाहर भी नहीं किया जाता। इन प्रक्रियाओं को हम चुनाव के मौसम में आसानी से समझ सकते हैं। भारतीय लोकतंत्र में चुनाव अलग प्रकार की अंतरजातीय राजनीतिक एकजुटता के अवसर प्रदान करते हैं- जहां पैसा और शराब लामबंदी और उत्सव की धूरि बन जाते हैं। 

हिन्दू विनम्रता का अर्थ नए सभ्य हिन्दू नागरिक का जन्म भी है, जो सिद्धांत के स्तर पर ही सही पूर्व-अछूतों को सार्वजनिक ग्रामीय जीवन में कुछ गरिमा और बराबरी प्रदान करता है (हालांकि यह जरूरी नहीं कि यह विनम्रता औरतों के प्रति भी जताई जाए)। यह तथाकथित हिन्दू विनम्रता फुले-अंबेडकरवादी आंदोलन और उनके द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति उत्पीड़न संबंधी कानून के उपयोग और गांवों में भेदभाव के खिलाफ एकल परिवारों के संघर्षों का भी परिणाम है।

पुराने तरह की जातिगत अशिष्टता के घटने के साथ पूर्व-अछूतों के विरुद्ध घृणा का सामान्यीकरण होता गया। इसके साथ ही पूर्व-अछूतों के प्रति हिंसा भी घटी। हालांकि, इस कड़ी में गैर-दबंग जातियों में नए ‘दयालु’ हिन्दूओं के निर्माण को खारिज नहीं किया जा सकता। मराठा जैसी दबंग जातियों के लिए पूर्व-अछूत जातियों, यहां तक कि बंजारा जनजातियों और निम्न पिछड़ी जातियों को बराबरी का नागरिक स्वीकार कर लेना बेहद मुश्किल रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके सामंती स्वाभिमान के प्रतिपादन की बुनियाद हाशिए की जातियों के ग्रामीण सामाजिक जीवन में आधीनता पर आधारित है। 

ग्रामीण मराठवाड़ा में पूर्व-अछूत जातियों के विरुद्ध हिंसा का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे हिन्दू विनम्रता की सीमाओं के विपरीत निरंतर आपत्ति दर्ज करा रही हैं- स्थानीय पंचायतों में सत्ता पर दावा करना, गैरान भूमि का अतिक्रमण या उनमें खेती करना, स्वाभिमान की मांग करना या सबसे बुरा- किसी दबंग जाति की लड़की के साथ प्रेम संबंध बनाना। ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक संघर्ष और सशक्तिकरण के नए नायकों (जैसे बी. आर. अंबेडकर) के सार्वजनिक जीवन में प्रदर्शन ने सार्वजनिक स्थानों को लोकतांत्रिक बनाया है। इस प्रक्रिया में उन नए हिंदू नागरिकों का निर्माण होता रहा है, जो सार्वजनिक स्थानों में आधिकारिक समानता के प्रति सहनशील हो। 

बाबासाहेब अंबेडकर का एक पोस्टर 

हिंसा और नए नियम

ग्रामीण समाज में दबंग जातियों के लिए हिंसा अक्सर एक ऐसा माध्यम होता है जिसके जरिए वे नए नियम और उससे उत्पन्न समानता, जिसमें पूर्व-अछूत जातियों की मांगें और दावे समाहित होते हैं, के प्रति अपनी असहमति जताते हैं। हालांकि, उन गांवों में जहां दमित समुदाय कानूनी कार्रवाई का सहारा ले सकते हैं या पुलिस की भूमिका सुनिश्चित करवा सकते हैं, वहां कानूनी प्रयोग के कारण सहिष्णुता और समावेशन की नई सीमाएं उभरी हैं। कानूनी भय के कारण दबंग जातियों ने खुद को सीमित किया है, जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक स्थानों पर जातीय अहंकार और अशिष्टता में गिरावट आई है। जात की मर्यादा को बचाने के क्रम में दबंग जातियां अपने राजनीतिक और सामाजिक नेटवर्क के माध्यम से जातीय हिंसाओं में होने वाली दोषसिद्धि के दर को प्रभावित करती हैं। यह सीमित तौर पर ही है, लेकिन दमित जातियों द्वारा कानूनी प्रक्रियाओं के प्रयोग ने उस पारंपरिक और एकपक्षीय न्यायिक व्यवस्था को चुनौती दी है जो दबंग जातियों द्वारा लागू और नियंत्रित की जाती रही हैं।

इन कारणों से हिन्दू विनम्रता ग्रामीण दबंगों का अब पसंदीदा चेहरा बन गई है। यहां जाति व्यवस्था अर्थहीन या व्यर्थ नहीं हो रही है, क्योंकि व्यक्ति अभी भी अपनी पहचान जात से ही कर रहा है। इसके बावजूद, यह नए किस्म की विनम्रता उन अंतरजातीय संबंधों को निर्धारित कर रही है, जो जाति और खासकर पूर्व-अछूतों के प्रति घृणा पर एक किस्म का पर्दा डालने का काम करती है। हालांकि, इस तरह की विनम्रता केवल ग्रामीण शांति और समानता की गलतफहमी ही पैदा करती है, जो पूर्व-अछूत जातियों द्वारा नए आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक दावे पेश करते ही हिंसा में बदलने को तत्पर रहती है। हिंसा जातीय ध्रुवीकरण करती है, जिसके बाद ग्रामीण शांति और हिंदू विनम्रता ताख पर रख दी जाती है। यहां तक कि दबंग जाति के वे लोग जो पूर्व-अछूत समूहों के दुखों के प्रति सहानुभूति रखते हैं, वे भी अपने जातीय अहं पर सवार होकर एक योद्धा में तब्दील हो जाते हैं।

इस वजह से शायद हिंदू विनम्रता, सच्ची नागरिक शिष्टता और ठोस ग्रामीण समानता से भिन्न है। हालांकि, यह एक नए प्रकार की हिन्दू एकजुटता के निर्माण में प्रक्रियावादी लोकतंत्र और संरक्षणवादी व्यवस्था के साथ-साथ सामंजस्य स्थापित करती है, जिसका आधार अस्थायी शांति और हाशिए की जातियों का विपरीत परिस्थितियों में समावेशन होना है। हम ग्रामीण भारत में भले ही प्रक्रियात्मक लोकतंत्र और सांस्कृतिक एकता का उत्सव मनाते हो, लेकिन नागरिक अशिष्टता की समस्या अभी भी पहले की तरह ही फल-फूल रही है।

 

(इस लेख को एडिट करने में अंशुल राय और शहादत खान ने मदद की है)

सूर्यकांत वाघमोरे
सूर्यकांत वाघमोरे

सूर्यकांत वाघमोर आईआईटी बॉम्बे में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सूर्यकांत वाघमोर आईआईटी बॉम्बे में समाजशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।