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अंबेडकर को ‘राष्ट्रीय हीरो’ की उपाधि देते वक्त हमें उनके मुख्य कथन को नहीं भुलाना चाहिए

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April 14, 2022

अंबेडकर को ‘राष्ट्रीय हीरो’ की उपाधि देते वक्त हमें उनके मुख्य कथन को नहीं भुलाना चाहिए

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Archival image of Dr. B.R. Ambedkar. Credit: Flickr/Public Resource.org CC-BY-2.0

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्त्रोत: The Wire

हाल के समय में भारतीय राष्ट्र राज्य बाबा साहब अंबेडकर के महापुरुष होने का जश्न बड़े ही गर्व से मना रहा है। अंबेडकर को सदाचारिता की मूर्ति बताया जा रहा है। राज्य ने उन्हें एक प्रमुख राष्ट्रवादी की प्रतिमूर्ति के रूप में अंगीकार कर लिया है।

हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथियों ने भी अंबेडकर को हिन्दू समाज सुधारक के रूप में खड़ा कर उनके साथ औचित्य बिठाने और उन्हें हिन्दू सांस्कृतिक विविधता की मिसाल बताकर उनका आलिंगन करने का प्रयत्न किया है। एक नई किस्म की वामपंथी-उदारवादी सोच है, जो अंबेडकर को राष्ट्र निर्माता के रूप में दर्शाती है। उनके प्रभाव को भव्य दर्शनशास्त्र या बौद्धिक परंपरा के दायरे में ही बनाए रखना चाहती है। कुछ लोगों द्वारा अंबेडकर को तंग दलित बस्तियों से आजाद कर महान बुद्धिजीवियों की संगति में या सार्वभौमिक दर्शन के कार्यक्षेत्र में रखने की पहल की जा रही है।

पर शायद ये लोग भूल रहे हैं कि अंबेडकर मात्र एक दलित नेता या सामाजिक न्यायप्रद राजनीति में भावात्मक आवाज़ नहीं थे। वे निःसंदेह ही इस तरह के वर्गीकरण से परे थे। उन्होंने श्रमिक वर्गों के ज्वलंत मुद्दों पर सराहनीय नेतृत्व क्षमता दिखाई और मार्क्सिस्ट-वामपंथी विचारधारा के ऊपर महत्वपूर्ण शोध भी प्रस्तुत किया। वायसराय की काउंसिल में बतौर लेबर मिनिस्टर के रूप में अधीनस्थ उन्होंने श्रमिक वर्गों की कई मांगों को पूरा किया, जैसे कि दिन में आठ घंटा काम, बराबर की तनख्वाह और मैटरनिटी लीव।

इसके अलावा, भारत में महिलाओं की उन्मुक्ति के संघर्ष को बढ़ावा देने में उनकी बहुमूल्य भूमिका रही है। संविधान के अभिवक्ता अंबेडकर ने हिंदुस्तान को आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप मे खड़ा करने में अद्भुत प्रतिभा और राजनीतिक समझ का शानदार प्रदर्शन किया है। आवाम के साथ जुड़े हुए बुद्धिजीवी होने के नाते नागरिकता, स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे बुनियादी राजनीतिक सिद्धांतों को समझने के लिए उनके विचार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं।

उनके संबंध मे दिए गए प्रस्ताव आकर्षक हैं और इससे कोई मतभेद होना भी मुश्किल है। हालांकि, सहज रूप से पनपता हुआ एक डर भी है, जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। अंबेडकर को राष्ट्रीय हीरो या राजनीतिक दार्शनिक बनाने की पहल में उनकी ज़िंदगी के मूल सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्य अकसर कहीं खो जाते हैं। अंबेडकर द्वारा दलितों को छुआछूत की बेड़ियों से मुक्त कराने की लड़ाई और उनके ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष ने ही उनकी बौद्धिक और राजनीतिक छवि को आकार दिया है।  

राष्ट्र निर्माण, संविधानवाद और नियामक दर्शन से ज़्यादा वह जाति प्रथा से ग्रस्त समाज की क्रूर वास्तविकता को सुधारने में लगे हुए थे जिससे इंसानों के रहने के लिए मौलिक रूप से बेहतर संसार की दिशा में आमूल-चूल परिवर्तन हो। अगर हम जाति व्यवस्था और छुआछूत की प्रथा के मूलभूत सवालों को नज़रंदाज़ करके अंबेडकर को सिर्फ एक राष्ट्रीय हीरो की तरह देखेंगे तो यह अंबेडकर और उनके बौद्धिक उद्यम के प्रति नाइंसाफी होगी।

जाति प्रथा आज भी हिंदुस्तान के राजनीतिक और सामाजिक जीवन की क्रूर वास्तविकता है। एक पुराने ढर्रे के धार्मिक मानक के तौर पर जाति व्यवस्था इंसानों के बीच औपचारिक समानता को ठुकराती है; उसकी जगह वह पारिवारिक और नागरिक संबंधों को विभिन्न भागों में श्रेणीबद्ध करती है। हर जाति का गौरव और सामाजिक हैसियत जन्म से ही तय किया जाता है, न कि उसकी प्रतिभा, कौशल और आर्थिक स्थिति से।

अंबेडकर जाति व्यवस्था की रुग्णता को दूर करने में एक केन्द्रक की तरह विराजमान थे। दलितों को सामाजिक भेदभाव, आर्थिक अलगाव और राजनीतिक बहिष्करण से स्वतंत्र कराने में उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी खपा दी। वह आधुनिकता के बड़े हिमायती थे और उनकी आशा थी कि आने वाले औद्योगिक विकास, लोकतांत्रिक संस्थानों और गणतांत्रिक मूल्यों के बल पर एक ऐसे नायाब परिवेश की रचना होगी जिसमे अछूतों को स्वतंत्रता जरूर मिलेगी।

उन्हें आशा थी कि आधुनिक समाज सेक्यलर होगा और पुराने सामाजिक पदनाम धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो जाएंगे। ऐसा माना गया कि संवैधानिक दिशा-निर्देश से परिपूर्ण और आधुनिक संस्थानों से संरक्षित, दलित आधुनिक नागरिक के रूप में उभर कर आएंगे और बिना किसी पूर्वाग्रह के उदारवादी लोकतंत्र का निडरता से लाभ उठा पाएंगे।

लेकिन सेक्यलर जीवन के इस प्रगतिशील मूल्यांकन पर अंबेडकर को यकीन नहीं था। इसके विपरीत, उन्होंने ब्राह्मणवादी समाज और नए सेक्यलर राजनीतिक समाज के बीच मतभेदों को परख लिया। भारतीय गणराज्य की स्थापना पर उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया, ‘आज के भारतीय नागरिक दो अलग-अलग विचारधाराओं के तहत शासित हो रहे हैं। एक तरफ संविधान की प्रस्तावना में लिखित स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को वह अपना राजनीतिक स्तम्भ मानते है, जबकि दूसरी तरफ उनके धर्म से निकले हुए सामाजिक स्तम्भ हैं, जिसमें सांविधानिक मूल्यों को ठुकराया गया है।’

अंबेडकर ने चेताया था कि अगर सामाजिक व्यवस्था को सुधारा नहीं गया तो जाति प्रथा नई सेक्यलर दुनिया की क्रांतिकारी क्षमता को ध्वस्त कर देगी। अगर हिन्दू समाज में मौलिक बदलाव नहीं किए गए तो यह बेहद मुश्किल होगा कि लोकतांत्रिक प्रगति एक मील का पत्थर साबित हो। सामाजिक व्यवस्था को उन मानवतावादी विचारों और लक्ष्यों का समर्थन करना होगा जो हमारे आधुनिक संविधान ने बड़ी मुश्किल से बनाए हैं। जाति व्यवस्था को ठुकराकर हमें एक मानवतावादी समाज को गढ़ना होगा, जिसमें हर व्यक्ति के पास अपनी ज़िंदगी के उद्देश्यों को हासिल करने की समान क्षमता, स्वतंत्रता और शक्ति होगी।

अंबेडकर का मानना था कि बौद्ध दर्शन नैतिक तौर पर दूसरों से बेहतर है और आधुनिक समाज के नैतिक मूल्यों से सामंजस्य रखता है। अंबेडकर ने सैद्धांतिक तौर पर “बंधुता” को नई सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था का पथ-प्रवर्तक बताया। 14 अक्टूबर, 1956 को अंबेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया और गतिमान तौर पर धार्मिक एवं सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में नए प्रकरण की शुरुआत की। इस धार्मिक परिवर्तन का मुख्य उद्देश्य जाति व्यवस्था का खंडन करना था।

आज़ादी के बाद देश में कई तरह के सकारात्मक बदलाव देखने को मिले, जिनके कारण प्रगतिशील कानून, सकारात्मक विभेद की नीतियां और धार्मिक एवं सामाजिक सुधार संभव हो सका। शहरीकरण एवं शिक्षा के स्तर में बढ़ोतरी के चलते पूर्व में अछूत रहे लोग नागरिकता के और करीब आ पाए हैं। 1990 के बाद अगर दलितों के हालातों पर सतही स्तर से भी नज़र डाली जाए तो यह मालूम पड़ता है कि छोटा ही सही लेकिन प्रत्यक्ष रूप में कुछ लोग अपनी सामाजिक और वर्गीय स्थिति में सुधार लाने में सक्षम रहे हैं। कुछ मध्यम-वर्ग में भी घुस पाए हैं। दलितजन ज़्यादा खुलकर अपनी राजनीतिक मांगें रख पा रहे हैं और उन्हें मनवाने में प्रभावशाली भी हुए हैं। हालांकि, यह दलित समुदाय में एक बहुत छोटे वर्ग की सच्चाई को ही दर्शाता है।

दलितों की आबादी बहुत बड़ी है और उनमें से मुट्ठी भर को ही संविधानिक बदलावों का लाभ मिला है। ज़्यादातर का अभी भी पूर्ण नागरिक बनना बाकी है, क्योंकि उनका ऐतिहासिक उत्पीड़न एवं उनके काम को मलिनता से देखा जाना अभी भी उनको मानसिक प्रताड़ना देता है। दलित आबादी का अधिकतर हिस्सा आज भी सबसे पिछड़े हालातों में जीवन गुजार रहा  है, उन्हें गांवों और शहरों में आज भी हिंसा और जाति-संबंधित अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है। अधिकतर वक्त राज्य उनकी तरफ आपराधिक लापरवाही से पेश आता है।     

हिन्दुस्तान की सामाजिक व्यवस्था में दलित को बराबर का अधिकार प्राप्त नागरिक के रूप में अभी तक नहीं स्वीकारा गया है। बड़ी जाति के लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि थोड़ा बहुत पैसा कमाने या शिक्षा पा लेने से  दलित जाति व्यवस्था में बदलाव ला सकते हैं। इसीलिए, मानवाधिकार, सामाजिक गरिमा और राजनीतिक समानता की उनकी मांगें भेदभाव और दमन के नीचे दबा दी जाती हैं। दलितों का सवाल सुनते ही बड़ी जाति के लोगों में नफरत और घृणा के भाव पैदा होते हैं, खासकर तब जब बातचीत शादी या धर्म की हो, या फिर नौकरी के लिए सही उम्मीदवार को चुनने की।

जाति संबंधी अत्याचारों की सतही समीक्षा से ही मालूम पड़ता है कि बड़ी जाति के लोग दलितों के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल तीन मुख्य कारणों से करते हैं। पहला, दलित पुरुष को सत्ताधारी जातियों की मान-मर्यादा पर खतरे के रूप में देखा जाता है। दलित मर्द के ‘उच्च’ जाति की लड़की से प्यार करने की संभावना उनकी सामंती शक्ति और सामाजिक हैसियत को चुनौती देती है।

दूसरा, दलित जब अपने  साधारण आर्थिक अधिकार, भू-अधिकार या फिर केवल उचित वेतन की मांग करता है तो इसको गांव की परंपरा और सामंती व्यवस्था के खिलाफ चुनौती के रूप में देखा जाता है। 1990 के दशक में बिहार में माओवादियों ने दलितों को कृषि-संबंधी मुद्दों पर एकजुट किया था और सामंती जमींदारों से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। हालांकि, इस लामबंदी का अंत जातीय हिंसा और हत्याकांडों में ही हुआ।

तीसरा, दलित संविधान में दी गई सुविधाओं का इस्तेमाल सार्वजनिक संस्थानों में दाखिला पाने के लिए करते हैं और अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कठोर श्रम करते हैं। बावजूद, आज भी उन्हे वर्तमान के शहरी संस्थानों में जातीय भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। दो प्रतिष्ठित महाविद्यालयों में रोहित वेमुला और पायल तंडवी की सरेआम हुई भयानक मौतें इस तरह की अदंडित आपराधिक कार्यवाहियों की गवाही देती हैं।

दलित औरतें अकसर सबसे बुरे हालात झेलती हैं| दलितों के खिलाफ हुए अपराधों में दलित औरतों के बलात्कार और यौन उत्पीड़न जैसे जघन्य अपराधों के किस्से भारी मात्रा में हैं। 29 सितंबर 2006 के दिन महाराष्ट्र के भंडारा जिले के एक छोटे से गांव खैरलांजी में महार जाति के भोतमंगे परिवार के चार सदस्यों का कत्ल कर दिया गया। कत्ल करने से पहले परिवार की औरतों को गांव में नंगा घुमाया गया। हादसे के लगभग दो महीने बाद खबर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर जोरों से फैल गई और देश के सभी बड़े शहरों में दलित भारी संख्या में इस तरह के अत्याचारों का विरोध करने सड़क पर उतार आए। अधिकारियों ने सिर्फ तभी कार्यवाही शुरू की जब खबर दुनिया भर में फैल गई और सरकार पर कुछ करने के लिए अत्यधिक  दबाव पड़ने लगा।

राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो के 2016 के डेटा के अनुसार, अनुसूचित जातियों के खिलाफ जितने भी अपराध किए गए, उनमें सबसे ज़्यादा संख्या दलित औरतों की थी। आंकड़ों के अनुसार लगभग चार दलित औरतों का हर रोज बलात्कार किया जाता है। हालांकि, संविधान के हिसाब से दलितों को इन अत्याचारों से बचाने  और उन्हे  सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य की है, फिर भी अकसर ऐसा देखने को मिलता है। कई बार तो राज्य उल्टा अत्याचार करने वालों का ही साथ देता है।

हमारा राष्ट्र भले ही अपने गणतंत्रवादी मूल्यों का जश्न मना रहा हो और आबादी लोकतंत्र के नाम पर चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हो, लेकिन हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश अभी भी अपने पारंपरिक और रूढ़िवादी अवतार में ही है। दलित अभी भी बाकी सब से अलग बनी बस्तियों में ही कैद हैं और उनकी मानवाधिकार की मांगें अभी भी ठुकराई जाती हैं। हिन्दू समाज की ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के लिए बाबा साहब अंबेडकर ने एक प्रेरणादायक लड़ाई का नेतृत्व किया था। उनका कहना था कि किसी भी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था की वैधता का आकलन स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल नैतिक सिद्धांतों से होता है। एक बंधुत्व युक्त सामाजिक ज़िंदगी के लिए जरूरी है कि लोग जाति के आधार पर ऊंच-नीच करना बंद करें और भेदभाव सिखाने वाली संस्कृति का त्याग करें।

समय-समय पर दलितों के द्वारा किए गए जोरदार संघर्ष यह दर्शाते हैं कि उनकी सक्रिय मौजूदगी ब्राह्मणों की समाज पर आपराधिक पकड़ को टिकने नहीं देगी। दलित सामाजिक न्याय और मानवाधिकार की सभी लड़ाइयों में अर्थ और प्रेरणा के स्त्रोत अंबेडकर को ऊर्जा का मुख्य केन्द्र मानते हैं। उनका नाम, तस्वीर और प्रतिमा दलितों के संघर्ष का प्रतीक हैं।

जब तक दलित मूल रूप से अवैध सामाजिक असमानताओं और धार्मिक दबावों से स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते, तब तक अंबेडकर की जरूरत किसी और जगह की बजाय सामाजिक न्याय की लड़ाइयों में ज्यादा रहेगी।

                  

 (इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

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हरीश एस. वानखेड़े
हरीश एस. वानखेड़े

लेखक

हरीश एस. वानखेड़े जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीस में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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