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पटचित्र: TRT World
अनुवाद चीनी से अंग्रेजी में: सिंडी एम कार्टर
अनुवाद अंग्रेजी से हिन्दी में: नित्यानंद राय
स्त्रोत: The Guardian
मेरे खानदान के लोगों के लिए ब्रिटिश साम्राज्य एक बलगम भरे खखार की तरह है। मुंह में भरा ऐसा थूक, जिसे कभी बाहर नहीं थूका जा सकता।
मेरे दादा को ही देख लीजिए। बानबे साल की उम्र में अपनी मृत्यु के दिन तक वह उस दूर पश्चिम के द्वीप इंग्लैंड के महज ज़िक्र भर से इस तरह प्रतिक्रिया देते थे, जैसे सार्वजनिक शौचालय के दरवाज़े से कोई तीव्र दुर्गंध आई हो। हर बार, जब वह इंग्लैंड का नाम लेते तो अपना सिर घुमाकर गाली देते- छी! और गुस्से में ज़मीन पर थूक देते।
इंग्लैंड की अपनी पहली यात्रा पर जाने से पहले मैंने अपने गृहनगर लौटकर बूढ़े दादा से मिलने का फैसला किया। मेरे पिता शहर में काम करते हैं, लेकिन मेरी मां ने अपना सारा जीवन हमारे छोटे से समुद्र तटीय गांव में ज़मीन का रखरखाव और मेरे बूढ़े दादा की देखभाल करते हुए बिताया है। मेरे बचपन में भी मेरे दादा बहुत प्राचीन दिखते थे: एक जिद्दी किस्म का विद्वान-एक वृक्ष, जिसकी शाखाएं मुड़ी हुई हैं। झुका हुआ शरीर, जिस पर उम्र के साथ झुर्रियां पड़ गई हैं। मैं अपने बूढ़े दादा को हर रोज़ समुद्री नमकीन हवा में सांस लेते और गांव वालों से गपशप करते, अपनी वक्रकार छड़ी के सहारे गांव की सड़कों पर लंगड़ाते हुए घूमते देखता। कभी वह किसी संग्रहालय की वस्तु के तौर पर प्रतीत होते तो कभी यादों के खजाना के तौर पर। वह एक जीवंत सचित्र क्षेत्रीय इतिहास थे। मेरे दादाजी इस धरती पर मौजूद किसी भी चीज़ के बारे में तब तक बात कर सकते थे, जब तक कोई भी उन्हें सुनने के लिए तैयार हो। वह विशेष रूप से उस इंग्लैंड के बारे में चर्चा करने में रुची रखते थे, जिसे किसी भी गांव वाले ने नहीं देखा था, और उन लंबी नाक, नीली-आंखों वाले अंग्रेजों के बारे में, जिससे गांव का कोई भी व्यक्ति-कम से कम कोई भी जीवित व्यक्ति-कभी मिला नहीं था।
मैं जब लड़का था, मेरे दादाजी मेरा सिर थपथपाते हुए दूर घुमावदार पर्वतों की ओर इशारा करते और उन रेलगाड़ियों के बारे में बताते जो उन पर्वतों में बनी सुरंगों से होते हुए गांव के बंदरगाह तक पहुंचती थीं। नजदीक के खदानों से निकलने वाले सोने और तांबे के अयस्कों से भरी ये रेलगाड़ियां सफेद धुएं के गुब्बार छोड़ते हुए अपना माल लंगर डाले बड़े-बड़े जहाजों तक लाया करती। दादाजी कहा करते कि ये जहाज हमारे राष्ट्र का सारा खजाना उस मनहूस ब्रिटिश साम्राज्य के सुदूर कोनों तक ले जाया करते थे। वह दावा करते कि ब्रिटिश जहाजों की धुआं उगलने वाली चिमनियां इतनी ऊंची हुआ करती थीं कि इन विदेशी निर्माणों से अनभिज्ञ समुद्री पक्षी अक्सर उड़ते हुए सीधे उनसे टकराते और अपने सिर के चिथड़े कर देते।
दादाजी का कहना था कि इन पक्षियों की मृत्यु में एक किस्म की खुद्दारी झलकती थी, जिससे चीनी लोग भी कुछ सीख सकते थे।
लेकिन जब तक वह कहानी के सबक तक पहुंचते, दादाजी का उत्साह समाप्त हो जाता। वह दुख के साथ अपने दादा को याद करते, जो उत्तरी चीन से आए एक व्यापारी थे। उनके दादा ने गांव में पहली तांबे की खदान शुरू की थी, लेकिन अपनी अफीम की लत के चलते उन्हें वह खदान एक ब्रिटिश व्यापारी को बेचनी पड़ी। इसके बाद मेरे दादा के दादा ने परिवार की सारी संपत्ति धुएं में उड़ा दी। उन्होंने हमारे घर को ही नहीं बल्कि सड़क के दोनों तरफ स्थित हमारी सारी दुकानों को भी बेच दिया। एक-एक करके हमारी संपत्तियों की चाबियां दूसरों के हाथों में जाती गईं। जैसे-जैसे बंदरगाह बड़ा हुआ पर्वत का पेट अयस्कों से खाली होता गया और मेरे दादा के दादा की संपत्तियां घटती गईं। अंतत: किसी ज़माने में अमीर और सम्मानित हमारा परिवार एक टूटे-फूटे आंगन वाले घर में रहने को मजबूर हो गया। हमारे खानदान के पूर्वजों का ऊंचा नाम मिट्टी में मिल गया। आखिर में उन्होंने अपनी वो घोड़ा-गाड़ी भी बेच डाली जिसका उपयोग वह दशकों से खदान से ताम्र अयस्क ढोने के लिए किया करते थे। इसके बाद वह नजदीक के अफीम के अड्डे पर गए और उनके शरीर और आत्मा में जो कुछ बचा था, उसे भी धुएं में उड़ा दिया। वहां से लौटकर उन्होंने अपने ही घर के मुख्य द्वार से लटककर आत्महत्या कर ली।
दो दशक पहले, जब मैं बीजिंग की यूनिवर्सिटी के लिए निकलने वाला था, मेरे दादाजी मेरा हाथ पकड़कर मुझे हमारे घर के बाहर वाली गली में ले गए। एक इमारत की तरफ इशारा करते हुए, जहां एक समय रंगरेजी का कारखाना हुआ करता था, उन्होंने मुझसे कहा, “अगर तुम्हारे परदादा के पिता को अफीम की लत न होती तो वह संपत्ति आज हमारी होती।” फिर एक अन्य मकान की तरफ इशारा करते हुए, जो कभी किराने की दुकान हुआ करता था: “अगर अंग्रेज अपना अफीम बेचने चीन नहीं आते तो वह इमारत भी हमारी होती।” नीचे की ओर जाती सड़क की तरफ, जो कभी हमारे परिवार का गौरव हुआ करती थी, हाथ झटककर दादाजी ने गाली देते हुए कहा, “गर्त में जाएं वो बड़ी नाक वाले हरामी कुत्ते के पिल्ले!” और उन्होंने अपना पांव ज़मीन पर पटका, चेहरा घुमाया और थूक दिया।
उसके बाद जब हम एक पुरानी पत्थर की पुलिया के ऊपर खड़े थे, दादाजी ने दूर पर्वत श्रृंखलाओं की तरफ इशारा किया, जो बेहद मुश्किल से नज़र आ रही थी, और कहा, “वहां, उस जगह खदानें हुआ करती थीं। क्या तुम्हें वह सबसे ऊंची चोटी दिख रही है? रेलगाड़ी उसके ठीक भीतर से गुजरा करती थी।”
मैंने उस दिशा में देखा, जिधर दादाजी इशारा कर रहे थे। मुझे वहां सिवा खेत, पर्वत, वादी और गीली समुद्री हवा के कुछ भी नहीं दिखा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं, मैंने उनसे एक बेवकूफी भरा सवाल पूछा, “क्या आप ... इंग्लैंड से नफ़रत करते हैं?”
दादाजी ने मेरी ओर आश्चर्य से देखा, और ऐसा लगा, जैसे उनके चेहरे पर आशा की एक टिमटिमाहट झलकी हो।
“तुम्हें पता है इस परिवार का सबसे बड़ा पछतावा क्या है?” उन्होंने कड़वी हंसी के साथ पूछा। फिर मेरे बालों में हाथ फेरते हुए कहा, “यह नहीं कि तुम्हारे पर-परदादा को अफीम की लत लगी थी या अंग्रेज हमारा सारा सोना और तांबा लूट ले गए थे। हमारा सबसे बड़ा पछतावा यह है कि हम में से किसी को भी कभी किसी अंग्रेज़ के दिल में खंज़र घोंपने का मौका नहीं मिला।”
* * *
इंग्लैंड के लिए फ्लाइट पकड़ने के तीन दिन पहले मैं अपने गृहनगर गया। वहां समुद्र से ज़िंदा मछलियां और केकड़े आदि पकड़ कर लाए गए थे। गांव की गलियों में ताजे समुद्री खाने की टोकरियां सजी थीं और मछलियां अपने-अपने हौदों में उछल-कूद रही थीं। हालांकि, हवा में सड़ती मछलियों की गंध थी, मृत्यु और सड़न की गंध। पिछले दो दशकों में बदलाव की आंधी के चलते उन अधिकांश पुरानी इमारतों और गोदामों को ढहा दिया गया था, जो सौ साल पहले तक मेरे परिवार की संपत्ती हुआ करती थीं। उनकी जगह ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेंट और शॉपिंग माल खुल गए थे। वे एक जैसे शीशे और सफेद सेरेमिक टाइल्स के बने थे। ऐसा लग रहा था, जैसे हमारे प्राचीन गांव को और हमारे प्राचीन राष्ट्र को पूरी तरह से सपाट शीशे और शौचालयों में लगने वाली चीनी-मिट्टी में पैक कर दिया गया है।
सौभाग्य से हमारा पुराना, टूटा-फूटा और खुरदरे तराशे गए पत्थरों से बना आंगन वाला घर अभी भी वैसा ही था। गांव के पूर्वी कोने में कई विशाल वृक्षों की छांव में वह किसी सांस्कृतिक अवशेष की तरह खड़ा था। मेरे बानबे वर्षीय दादा, जो अब स्वंय ही एक सांस्कृतिक अवशेष बन चुके थे, हमारे आंगन में एक सम्मानित स्थान में स्थित थे, उस एक कमरे में, जिसमें वह पिछले तीन साल से बिस्तर पर शय्याग्रस्त थे।
मैंने जब उन्हें बताया कि मैं इंग्लैंड जा रहा हूं तो उनकी बुझी हुई आंखें एकाएक चमक उठीं। हालांकि वह अभी भी मुझे ऐसे घूर रहे थे, जैसे मैं कोई अजनबी हूं। थोड़ी देर बाद खिड़की से आ रही धूप की तेज रौशनी में देखने पर ऐसा लगा, जैसे वह अपने बगल में खड़े व्यक्ति को अपने सबसे बड़े पोते के रूप में पहचानने में सक्षम हो गए थे। वह व्यक्ति, जो बीजिंग गया था और वहीं रह गया था, और जो अब काल्पनिक कथाएं लिखकर अपना गुजारा करता है।
“तुमने क्या कहा, तुम कहां जा रहे हो?” दादाजी ने पूछा।
“इंग्लैंड।” मैंने जवाब दिया।
दादाजी को यह विश्वास दिलाने के लिए कि मैं सच बोल रहा हूं और मैं सचमुच इंग्लैंड जा रहा हूं, सवाल-जवाब का लंबा सिलसिला चला। उन्हें जब इस बात का एहसास हुआ तो उनके चेहरे का रंग उड़ गया। उनके हाव-भाव एकदम कठोर हो गए, किसी शव की तरह। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे तख्ती के सहारे बैठा वह बूढ़ा व्यक्ति कोई इंसान नहीं, रक्तरहित मोम का पुतला है। वह लंबे समय तक ऐसे ही, बिना हिले-डुले बैठे रहे। एक-एक करके लम्हे गुजरते गए।
फिर, आहिस्ते से उन्होंने अपने शरीर को घुमाया और अपने बिस्तर के ऊपर स्थित दराज़ तक पहुंचे। मैं उनके जोड़ों की चरमराहट की आवाज़ सुन सकता था, जैसे उनका शरीर कोई पुरानी जंग लगी मशीन हो, जो लंबे अरसे से चली न हो। दराज़ से उन्होंने एक लाल चंदन का बक्सा निकाला, जिसमें से उन्होंने उसी पदार्थ का बना एक छोटा बक्सा निकाला। वह लगभग आठ इंच लंबा, दो इंच ऊंचा और दो इंच चौड़ा बक्सा था। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर उस बक्से के ऊपर रख दिया। चमचमाती आंखें और कांपते होठों के साथ दादाजी बोले: “आखिरकार, हमारे खानदान से कोई व्यक्ति इंग्लैंड जा रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, मृत्यु से पहले हम यही एक आखिरी इच्छा दोहराते आए हैं: कि एक दिन, हम में से किसी को एक अंग्रेज के दिल में खंज़र घोंपने का मौका मिलेगा।”
दादाजी के शरीर में झटके आ रहे थे। उनके दोनों हाथ तेजी से गल रही मोमबत्ती की तरह फड़फड़ा रहे थे। उनकी पीठ की प्रचीन रक्त धमनियां, जिथर (एक तंतु वाद्ययंत्र) के तार की तरह फड़क रहीं थीं। इस हालात में मैने उन्हें अपने पूर्वजों की आवाज़ को दोहराते सुना। वह वसीयत में मुझे एक दुश्मनी सौंप रहे थे, जो एक सदी से ऊपर से चली आ रही थी: “तुम अब उनके देश जा रहे हो, इंग्लैंड, और यह तुम्हारा कर्तव्य है... इस खंजर को उन अंग्रेज़ के दिलों में घोंप देना!”
* * *
इंग्लैंड की मेरी यात्रा बस दस दिन की रही।
लंदन साउथ बैंक सेंटर के चाइना नाउ (आज का चीन) उत्सव में भाषण और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ ईस्ट एशियन स्टडीज द्वारा आयोजित व्याख्यान और साहित्यिकारों की बैठक के अलावा, लंदन में मेरा अधिकांश समय सांस्कृतिक आदान-प्रदान और वहां के दर्शनीय स्थलों की यात्राएं करने में गुजरा। मैने खालिश ब्रिटिश व्यंजनों का स्वाद लिया। वहां मैं एक तीन सितारा होटल में रहा और एक पेशेवर दुभाषिया, अपने सम्मानित साहित्यिक अनुवादक, प्रकाशक और संपादक के साथ बाहर घूमने गया। मैं एक प्रतिभावान ब्रिटिश जोड़े से भी मिला - एक कवि और उपन्यासकार, जो अपने दो छोटे बच्चों के साथ स्टोनहेंज के निकट एक फार्म हाउस में रह रहे थे। उनके मेहमान के रूप में उन अखंड चट्टानों के इर्द-गिर्द से गुजरते हुए मैंने एक ऐसे भौतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य की अनुभुति की, जैसा चीन में मैंने कहीं नहीं देखा था। बाद में वे मुझे अपने निर्देशन में एक दौरे पर ले गए, जिसमें लंदन के संग्राहलय, कला दिर्घाएं और गिरजाघर शामिल थे। इस दौरे में हम कुछ समय के लिए चाइना टाउन, मार्क्स के मकबरे और मार्क्स के करीबी मित्र और साथी फ्रेड्रिक एंगेल्स के पुराने निवास स्थान पर भी रूके। संक्षेप में, मैंने वह हर काम किया, जो पहली बार लंदन आया कोई भी आम चीनी करेगा: मैं विस्मित और अचंभित हुआ, तस्वीरें खींची और स्मृति चिन्हों की खरीददारी की। आम चीनी यात्रियों और मेरी यात्रा में जो एकमात्र अंतर था, वह थी मेरे दादाजी की आवाज़, जो हर समय मेरे दिमाग़ में कहीं न कहीं गूंज रही थी: “तुम अब उनके देश जा रहे हो, इंग्लैंड, और यह तुम्हारा कर्तव्य है...”
यही वो शब्द थे, जिन्होंने मुझे अपनी वापसी से एक रात पहले अपने होटल से अकेले, बिना किसी की निगाह में आए चुपके से निकल जाने के लिए प्रेरित किया। शहर अंधकार में डूबा हुआ था और उसके निवासी गहरी नींद में सो रहे थे। मैं उन सड़कों पर घूमता रहा, उन इमारतों को निहारते हुए जो सदियों, यहां तक की सहस्राब्दियों तक लोगों को विस्मय और श्रद्धा के लिए प्रेरित करती रहीं हैं; मैं उन टूटे-फूटे पुराने पथरीले रास्ते पर चल कर, जो अनगिनत पथिकों के पांव पड़ते रहने से घिस चुके थे, टेम्स नदी की दिशा में जा रहा था। लंदन की चौड़ी सड़कों पर मेरे गृहनगर में आने वाली सड़ी मछली की दुर्गंध नहीं थी, न ही पेड़ों और खेतों से आने वाली वह मिट्टी की गंध, जो विशेष रूप से उत्तरी चीन में महसूस होती है। नम समुद्री हवा और टेम्स नदी से उठ रही नमी के बीच मुझे ऐसा लगा, जैसे मैंने ईंटों और पुराने तराशे हुए पत्थरों की सड़न से निकलने वाली गंध के झोंके को पकड़ लिया है। सड़क से इक्का-दुक्का टैक्सी गुज़र रही थीं। कभी किशोरों का कोई समूह, जो रात भर के आमोद-प्रमोद या पार्टी के बाद घर लौट रहा था। क्या वह महज़ मेरी कल्पना थी या फिर सचमुच मेरे निकट से गुज़रते वक्त उनकी रफ्तार थोड़ी धीमी हो जाती, वे सख्त निगाहों से मुझे घूरते, जैसे मेरा विदेशीपन, मेरा उनसे अलग दिखना, मेरे प्रति उनके अविश्वास को निमंत्रण दे रहा था।
और यह इसी प्रकार चलता रहा, जब तक कि मैं टेम्स नदी के पुराने पत्थरों वाले एक पुल पर नहीं पहुंच गया। रेलिंग पर बैठ कर मैं नदी के दूसरे किनारे पर स्थित विशालकाय चर्खी-झूला देख पा रहा था - जिसके बारे में मुझे बताया गया था कि उसे लंदन की आंख कहा जाता है। मैं शायद सदियों तक ऐसे ही बैठे रहता, लंदन की उस आंख में देखते और विचारों में डूबे हुए, अगर गुलाब बेचने वाली एक मध्य-पूर्वी छोटी बच्ची ने मेरे विचारों में खलल न डाला होता। वह जाने कहां से अचानक सामने आ खड़ी हुई थी। उसने मेरे चेहरे के आगे अपने आखिरी कुछ बचे गुलाब के गुच्छों में से एक गुच्छा लहराया और पूछा कि क्या मैं उन्हें खरीदने का इच्छुक हूं।
वहां, सड़क के लैंप की रोशनी में, इशारों में संवाद करते हुए मैंने उस बच्ची से कहा कि मैं उसके बचे हुए सभी फूलों को खरीदना चाहता हूं। उन फूलों की कीमत चुका देने और उस बच्ची के चले जाने के बाद मैं पुल के ऊपर खड़ा हो गया और उन गुलाबों को एक-एक कर नीचे बह रहे स्याह पानी में फेंकने लगा। मैं नदी की रेलिंग पर झुका और उन्हें दूर तक बहते देखता रहा, टेम्स में गुम हो जाते हुए, उनकी सुगंध मेरी नाक में तब भी ताज़ी रही। जैसे-जैसे उनकी आकृति धूमिल होती गई और लाल पंखुड़ियां काली दिखने लगी तो वे मुझे बरसात के दिनों में चीन की किसी नदी में चलने वाली छोटी-छोटी ढकी हुई नावों जैसी प्रतीत होने लगे।
* * *
मेरे इंग्लैंड के लिए रवाना होने के कुछ देर बाद ही मेरे दादाजी का देहांत हो गया।
बानबे वर्ष की उम्र में वह शांति से नींद में चल बसे। जब तक मैं वापस बीजिंग लौटा और अपने गृहनगर के लिए फ्लाइट की व्यवस्था की, दादाजी को एक पर्वत के शिखर पर दफना दिया गया। वह वही पर्वत था, जिसे बचपन में उन्होंने मुझे दिखाया था। पर्वतों की श्रृंखला तट के किनारे-किनारे एक लंबी अटूट कड़ी की भांति घुमाव लेते हुए बनी हुई थी। पश्चिम की दिशा में वृहद और असीम सागर था; पूर्वी दिशा में कभी बेहद जीवंत रहने वाला हमारा छोटा-सा गांव था। और उन ऊबड़-खाबड़ पर्वतों के नीचे गहराई में अंग्रेजों द्वरा बनाया गया भूमिगत रास्ता था। वे तांबे की खदानें थीं, जिन्हें खोखला करके त्याग दिया गया था।
उस पर्वतीय भूमि, और उस परिदृश्य के बीच, जिसकी कहानियां सुनाई जाया करती थी, दादाजी की कब्र थी। वह एक साधारण, सामान्य दिखने वाली कब्र थी। पीली मिट्टी का एक ढेर, जिस पर उगने के लिए अभी घास को समय नहीं मिला था।
मैं अपने दादाजी की कब्र के पांव के पास बैठा, मेरे हाथ में वह पतला चंदन की लकड़ी का बक्सा था, जो उन्होंने मेरी इंग्लैंड यात्रा से पहले मुझे सौंपा था। ताबूत की आकृति, जैसे उस बक्से के अंदर एक खंजर था, जो चमड़े के कवच में रखा हुआ था। मुझे बताया गया था कि अपने पिता की आत्महत्या के बाद इसी खंजर को लेकर मेरे परदादा एक या दो अंग्रेज़ की हत्या करने के इरादे से सारे गांव, खदान और बंदरगाह में भटके थे। अंत में वह खाली हाथ लौट आए। शायद इसलिए कि उन्हें कोई अंग्रेज़ नहीं मिला था, या फिर इसलिए कि यह कार्य करने के लिए वह खुद को तैयार नहीं कर सके थे। सालों बाद अपनी मृत्युसैय्या पर परदादा ने यह हथियार और इससे संबंधित खानदानी दुश्मनी, अपने पुत्र यानी मेरे दादा के हाथों में सौंप दी।
दशकों बाद दादाजी ने वह खंज़र मुझे सौंप दिया, इन शब्दों के साथ: “तुम अब उनके देश जा रहे हो, इंगलैंड, और यह तुम्हारा कर्तव्य है...” लेकिन उस खंज़र को पास रखने के बजाए मैंने उसे परिवार के पुराने घर के एक कोने में छुपा दिया और दादा जी से झूठ बोल दिया।
“चिंता न करें,” मैने उनसे कहा, “मैं इसे अपने साथ इंग्लैंड ले जाउंगा। और मैं इसकी यह यात्रा व्यर्थ नहीं जाने दूंगा।” इन शब्दों को सुनकर दादाजी ने स्नेह से मेरे हाथ को दबाया और आंखें बंद कर लीं।
जिस रात मैं इंग्लैंड के लिए रवाना हुआ, वह नींद में गुजर गए।
इस दुनिया को उन्होंने संतुष्ट और शांत मन से छोड़ा।
अपने दादाजी की कब्र के पास बैठ कर - मीलों दूर से आ रही समुद्री हवा में सांस लेते, अपने गांव को निहारते हुए, जहां कभी मेरे परिवार के पास अपार संपत्ति हुआ करती थी, और गोद में लाल चंदन की लकड़ी का एक बक्सा लिए, जिसमें एक प्राचीन खंजर रखा था, और एक जंग खाई हुई दुश्मनी - मुझे महसूस हुआ कि मुझे कहानी लिखनी चाहिए। एक ऐतिहासिक गल्प, मेरे परिवार और दूर कहीं बसे एक देश की दुश्मनी और मेल-जोल की कथा। मैने उसे शीर्षक भी दिया: “इंग्लैंड और मेरा खानदान।”
(इस कहानी को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)