श्रमिक वर्ग का अभिशाप - दूसरों की बहुत ज़्यादा परवाह करना !

हमें निरंतर याद दिलाया जाता है कि श्रमिक वर्ग के लोग कानून और नैतिक शिष्टाचार को लेकर इतने सावधान नहीं होते जितने कि उनसे ‘उच्च’ लोग होते हैं, लेकिन यहां यह कहने की भी जरूरत है कि श्रमिक वर्ग के लोग स्वयं की चिंताओं में उतने डूबे हुए भी नहीं होते जितने उनसे 'उच्च' लोग होते हैं। वे अपने दोस्तों, परिवारों और समाजों की ज़्यादा रिआयत करते हैं। कम से कम सामूहिक तौर पर तो वे ज़्यादा सभ्य होते हैं।

श्रमिक वर्ग का अभिशाप - दूसरों की बहुत ज़्यादा परवाह करना !

पटचित्र: मैट केनयन

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्तोत्र: The Guardian

‘मुझे यह समझ नहीं आता कि लोग सड़कों पर दंगा करने के लिए क्यों उतारू नहीं हो रहे हैं?’

कभी-कभार मुझे अमीर और रसूखदार लोगों से यह सुनने को मिल ही जाता है। यह एक तरह का अविश्वास है। उनके इन शब्दों के पीछे छुपा एक और मतलब है, ‘हम लोग तो थोड़ा टैक्स बढ़ने पर भी हुड़दंग मचा देते हैं; भगवान ना करे, अगर कोई हमारे खाने या रहने में अड़चन डाले, तब तो हम बैंक जला डालें, लोकसभा पर चढ़ाई कर दें। ये लोग ऐसा क्यों नहीं कर पाते, आखिर दिक्कत क्या है?’

सवाल अच्छा है। अगर इसके बारे में सोचा जाए तो कोई भी यही कहेगा कि ऐसी सरकार जिसने बिना आर्थिक व्यवस्था को सुधारे उन लोगों को इतना कष्ट दिया है, जो विरोध करने की सबसे कम क्षमता रखते हैं, वह राजनीतिक आत्महत्या का जोखिम उठा रही है। लेकिन इसके बजाय, सभी ने संयमता के मूल तर्कों को मान लिया है। क्यों? क्यों लगातार बेरहमी परोस रहे नेता श्रमिक जनता की स्वीकृति और यहां तक कि उनका समर्थन भी जीत लेते हैं?

मुझे लगता है कि इस सवाल का आंशिक जवाब उस संदेहशीलता में है जिसके साथ मैंने इस लेख की शुरुआत की थी। हमें निरंतर याद दिलाया जाता है कि श्रमिक वर्ग के लोग कानून और नैतिक शिष्टाचार को लेकर इतने सावधान नहीं होते जितने कि उनसे ‘उच्च’ लोग होते हैं, लेकिन यहां यह कहने की भी जरूरत है कि श्रमिक वर्ग के लोग स्वयं की चिंताओं में उतने डूबे हुए भी नहीं होते जितने उनसे 'उच्च' लोग होते हैं। वे अपने दोस्तों, परिवारों और समाजों की ज़्यादा रिआयत करते हैं। कम से कम सामूहिक तौर पर तो वे ज़्यादा सभ्य होते हैं।

एक हद तक यह सार्वभौमिक सामाजिक विधि-विधान को दर्शाता है। नारीवादी बहुत समय से यह बतलाते आए हैं कि किसी भी गै़र-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था में, जो लोग निचले स्तर पर होते हैं वे अपने से ऊपर के लोगों के बारे में ज़्यादा सोचते हैं, इसलिए उनकी ज़्यादा परवाह भी करते हैं। दुनिया में हर जगह औरतें मर्दों के बारे में ज़्यादा सोचती हैं, इसलिए उनकी ज़िंदगी के बारे में ज़्यादा जानती भी हैं। यही गोरों और कालों, मालिकों और कर्मचारियों एवं अमीरों और गरीबों के बीच का भी हाल है, जिसमें ‘निचला’ वर्ग हमेशा ‘उच्च’ वर्ग के बारे में ज्यादा सोचता और जानता है।

क्योंकि इंसान स्वभाव से ही सहानुभूतिपूर्ण जीव है, इसलिए उसके अंदर किसी के बारे में जानकारी प्राप्त होने पर उसके प्रति करुणा भाव जाग ही उठता है। अमीर और शक्तिशाली लोग बेखबर और बेपरवाह रह सकते हैं, क्योंकि उनकी ज़िंदगी में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। काफी सारे मनोवैज्ञानिक अध्ययनों ने हाल ही में इस मत की पुष्टि की है। श्रमिक वर्ग में जन्म लेने वाले लोग दूसरों की भावनाओं को भांपने वाले टेस्ट में अमीरों के वंशजों या व्यवसायी वर्ग में जन्म लेने वाले लोगों से सर्वदा ही ज़्यादा नंबर लाते हैं। एक तरीके से देखा जाए तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। आखिरकार, “शक्तिशाली” होने का मतलब ही तो यही है: अपने आस पास घट रही चीजों पर ज्यादा ध्यान न देना कि कौन क्या सोच रहा है या महसूस कर रहा है। शक्तिशाली लोग यह सब करवाने के लिए दूसरों को नियुक्त करते हैं।

और ये दूसरे कौन हैं, जो इन कामों के लिए नियुक्त होते हैं? श्रमिक वर्ग में जन्म लेने वाले बच्चे। मेरा विश्वास है कि हम सिर्फ फैक्ट्रियों में होने वाले काम को ही “असली काम” मानने की विचारधारा में इतने विलीन हो गए हैं कि हम इस विषय में अंधे हो चले हैं। मैं तो यहां तक भी कहूंगा कि हम फैक्ट्री में होने वाले काम का रूमानीकरण कर बैठे हैं। इस सबके चलते हम भूल गए हैं कि ज़्यादातर काम असल में फैक्ट्रियों के बाहर होता है।

कार्ल मार्क्स और चार्ल्स डिकिन्स के ज़माने में भी श्रमिक वर्ग की कॉलोनियों में कोयले की खदानों, कपड़ा मिलों और ढलाई घरों में काम करने वालों के मुकाबले नौकरानियां, मोची, स्वीपर, रसोइया, नर्स, टैक्सी ड्राइवर, टीचर, वेश्या और ठेले वाले कहीं अधिक संख्या में थे। और आज के समय मे तो यह और भी जाहिर बात है। जिन कामों को हम मुख्य रूप से महिलाओं का समझते हैं—जैसे लोगों की देखभाल करना, उनकी जरूरतें पूरी करना, उनको समझाना, आश्वस्त करना, बॉस की चाहतों और विचारों का पूर्वानुमान लगाना और पेड़-पौधों, जानवरों, मशीनों और अन्य वस्तुओं की निगरानी एवं रखरखाव करना—ये सारे काम असल में श्रमिक वर्ग के लोग भारी मात्रा में करते हैं; उन सब कामों से कहीं ज़्यादा जिनको आम चलन में मर्दों का काम बोला जाता है—जैसे कंस्ट्रक्शन, नक्काशी, भारी समान उठाना या फिर फसल काटना इत्यादि।

यह सिर्फ इसलिए सच नहीं है, क्योंकि श्रमिक वर्ग में अधिकतर औरतें  हैं (क्योंकि औरतों की जनसंख्या वैसे भी ज़्यादा है)। यह सच इसलिए भी है, क्योंकि मर्द जो काम करते हैं उसके बारे में हमारी जानकारी बहुत संकरी है। उदाहरण के तौर पर लंदन में हड़ताल पर बैठे मेट्रो के कर्मचारियों को क्रोधित यात्रियों को समझाना पड़ा था कि टिकट चेक करने वालों का अधिकतर वक्त असल में टिकट चेक करने में नहीं लगता: उनका ज़्यादातर वक्त लगता है लोगों को चीजें समझाने में, टूटी हुई चीज़ों की मरम्मत करने में, खोए हुए बच्चे ढूंढने में और बूढ़े, बीमार एवं घबराए हुए लोगों की देखभाल करने में।

अगर इसके बारे में आप खुले दिमाग से सोचेंगे तो क्या यही जिंदगी का असली मतलब नहीं है? इंसानों का सबसे अहम काम एक-दूसरे का निर्माण करना है। अधिकतर काम हम एक-दूसरे का और एक दूसरे के लिए ही करते हैं। श्रमिक वर्ग बस इसका ज़्यादा भार उठाता है। वह देखभाल करने वाला वर्ग है, और हमेशा से रहा है। बात बस वही है कि जिन लोगों को इस वर्ग से सबसे ज्यादा फायदा मिलता है, वही लोग इस वर्ग का लगातार तिरस्कार करते हैं। इसी वजह से श्रमिक वर्ग के इन कामों को सामान्य मंच तक लाना कठिन होता है।

एक श्रमिक वर्ग के परिवार में जन्म लेने के नाते मैं इस बात की संपुष्टि कर सकता हूं कि हम लोगों को सबसे ज़्यादा गर्व इसी चीज का था। हम लोगों को लगातार बताया जाता था कि कर्म ही अपने आप में सदाचार है, या मनुष्य के चरित्र को आकार देता है या ऐसा कुछ। मगर हम में से कोई इस बात का विश्वास नहीं करता था। हम में से अधिकतर को यही लगता था कि काम से जितना बचा जा सके उतना अच्छा है। सिर्फ वही काम करने लायक है, जिससे किसी दूसरे को लाभ हो रहा हो। लेकिन जो भी काम तुम करते हो, चाहे वह पुल का निर्माण करने का हो या मलपात्र साफ करने का, उस पर गर्व किया जा सकता है। और भी एक ऐसी चीज है जिस पर हम सभी को बहुत गर्व था, कि हम ऐसे लोग थे जो एक-दूसरे की देखभाल करते थे। यही वो चीज थी, जो हमें अमीरों से अलग करती थी। ऐसे अमीर से जो, जहां तक हमें समझ में आ रहा था, आधे से ज़्यादा समय तो अपने बच्चों की भी देखभाल करने में अक्षम थे।

यह बस ऐसे ही नहीं हुआ कि पूंजीपतियों के हिसाब से मितव्ययता परम गुण है और श्रमिक वर्ग के हिसाब से एकजुटता, ऐसा होने के अच्छे कारण हैं। लेकिन यकीनन यही वह रस्सी भी है जिससे आज के वक्त में श्रमिक वर्ग टंगा हुआ है। एक समय था जब अपनी कौम की देखभाल करने का मतलब था पूरे श्रमिक वर्ग के हकों के लिए लड़ाई करना। उन दिनों हम सामाजिक प्रगति की बातें किया करते थे। आज हम उस युद्ध का नतीजा देख रहे हैं, जो श्रमिक वर्ग की राजनीति या श्रमिक वर्ग की एकजुटता के विचार भर के भी खिलाफ निरंतर चल रहा है। इसके कारण यह हुआ है कि श्रमिक वर्ग के लोगों के पास देखभाल करने के भाव को प्रकट करने का कोई रास्ता नहीं बचा है, सिवाय किन्हीं गिनी-चुनी परिकल्पनाओं के: “हमारे नाती पोते”; “हमारा राष्ट्र”; चाहे वह कट्टर देशभक्ति के द्वारा हो या फिर सामूहिक बलिदान के।

फलस्वरूप, सब कुछ पीछे की ओर जाने लगा है। सदियों की राजनीतिक हेरफेर ने उनके एकजुटता के भाव को विपत्ति में बदल दिया है। हमारी एक-दूसरे की देखभाल करने की प्रवृत्ति को हमारे ही खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक कि वामपंथी, जो कि श्रमिक वर्ग की तरफ से बोलने का दावा करते हैं, इस बात को मद्देनज़र रखते हुए गंभीरता से रणनीति नहीं बना लेते कि आखिर अधिकतर श्रम होता क्या है, और जो यह श्रम कर रहे होते हैं वह उसके बारे में क्या पसंद करते हैं।                              

(इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

डेविड ग्रेबर
डेविड ग्रेबर

अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान... अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान अनुसंधान किया और 1996 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह 1998 में येल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गए। ग्रेबर ने आर्थिक नृविज्ञान में अपनी मशहूर पुस्तकें 'डेट: द फर्स्ट 5,000 इयर्स' (2011) और 'बुलशिट जॉब्स' (2018) लिखीं। उन्होंने ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट के दौरान सबसे प्रसिद्ध नारा "हम 99 प्रतिशत हैं," दिया। 2 सितंबर 2020 को इस आंदोलनकारी का देहांत हो गया।