क्या आप अराजकतावादी हैं? जवाब आपको विस्मय में डाल सकता है

अपने सबसे सरल रूप में अराजकतावादी धारणाएं दो मूल मान्यताओं पर टिकी हैं। पहली यह कि इंसान एक-दूसरे के प्रति उतने उचित और सभ्य तरीके से पेश आते हैं जितना उनकी परिस्थितियों में संभव हो, और वे अपने आप को और अपने समाज को खुद से व्यवस्थित करने की काबिलियत रखते हैं, इसके लिए उन्हें किसी आदेश की जरूरत नहीं पड़ती। दूसरी यह कि दूसरों पर राज करने की शक्ति मिल जाने पर इंसान भ्रष्ट हो जाता है। मूल तौर पर, जिन शिष्टाचार के सिद्धांतों से हम सब अपना आम जीवन यापन करते हैं, उनको उनके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने की हिम्मत रखना ही अराजकतावाद है। चाहे सुनने में कितना भी अजीब लगे, सारे महत्वपूर्ण तरीकों से आप शायद पहले से ही अराजकतावादी हैं—बस आपको अभी तक इस बात का आभास नहीं हुआ है।

क्या आप अराजकतावादी हैं? जवाब आपको विस्मय में डाल सकता है

पटचित्र: N.O. Bonzo 

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्तोत्र: davidgraeber.org 

संभावनाएं हैं कि आपने पहले से अराजकतावादियों के बारे में कई सारी बातें सुन रखी होंगी, जैसे कि अराजकतावादी कौन होते हैं, उनका किन चीजों में विश्वास होता है, वे क्या करते हैं, इत्यादि। इसकी भी अधिक संभावना है कि आपने अराजकतावादियों के बारे में जो भी सुना और सोचा है, वह सब बकवास है। बहुत लोगों का मानना है कि अराजकतावादी हिंसा, अव्यवस्था और तबाही का समर्थन करते हैं, कि वे हर तरह के अनुशासन और संगठन के खिलाफ होते हैं या फिर वे सनकी शून्यवादी होते हैं, जो बस हर चीज को बम से उड़ा देना चाहते हैं। ये सब एकदम बकवास है। अगर कम शब्दों में कहा जाए तो अराजकतावादी वे लोग हैं जो मानते हैं कि बिना किसी बाहरी बाध्यता के भी इंसान एक-दूसरे के साथ उचित व्यवहार करने की काबिलियत रखते हैं। असल में यह बहुत ही सरल विचार है, लेकिन इससे अमीर और शक्तिशाली लोगों को बहुत डर लगता है।

अपने सबसे सरल रूप में अराजकतावादी धारणाएं दो मूल मान्यताओं पर टिकी हैं। पहली यह कि इंसान एक-दूसरे के प्रति उतने उचित और सभ्य तरीके से पेश आते हैं जितना उनकी परिस्थितियों में संभव हो, और वे अपने आप को और अपने समाज को खुद से व्यवस्थित करने की काबिलियत रखते हैं, इसके लिए उन्हें किसी आदेश की जरूरत नहीं पड़ती। दूसरी यह कि दूसरों पर राज करने की शक्ति मिल जाने पर इंसान भ्रष्ट हो जाता है। मूल तौर पर, जिन शिष्टाचार के सिद्धांतों से हम सब अपना आम जीवन यापन करते हैं, उनको उनके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने की हिम्मत रखना ही अराजकतावाद है। चाहे सुनने में कितना भी अजीब लगे, सारे महत्वपूर्ण तरीकों से आप शायद पहले से ही अराजकतावादी हैं—बस आपको अभी तक इस बात का आभास नहीं हुआ है।

रोजमर्रा की ज़िंदगी से कुछ उदाहरण लेते हैं।

अगर बस में घुसने के लिए लाइन लगी है और आस-पास कोई पुलिस वाला नहीं है, तो क्या आप धक्का-मुक्की करके लाइन तोड़ कर सबसे आगे निकलने की बजाय अपनी जगह पर खड़े होकर अपनी बारी आने का इंतज़ार करते हैं? 

अगर इस सवाल का जवाब आपने “हां” में दिया, तो आप अराजकतावादी व्यवहार करने के आदि हैं! अराजकतावाद का सबसे मूल सिद्धांत है स्वयं-व्यवस्था: यह मान्यता कि एक-दूसरे के साथ औचित्य बिठाने और एक-दूसरे के प्रति सभ्य और आदरपूर्ण व्यवहार करने के लिए इंसानों को पुलिस के डंडे और डर की जरूरत नहीं होती।

सब यह मानते हैं कि वे खुद दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने की काबिलियत रखते हैं। लोगों को कानून की जरूरत सिर्फ़ इसलिए महसूस होती है क्योंकि उन्हें लगता है कि बिना पुलिस के डर के दूसरे लोग उनके साथ उचित व्यवहार करने की काबिलियत नहीं रखते। लेकिन अगर आप इसके बारे में ध्यान से सोचें, तो क्या वे सारे लोग आपके बारे में भी बिल्कुल यही मान्यता नहीं रखते—कि आप भी बिना पुलिस के डर के दूसरों के साथ उचित व्यवहार नहीं करेंगे? अराजकतावादियों का कहना है कि वह सारा समाज विरोधी व्यवहार, जिसके कारण हमें लगता है कि हमारे जीवन का नियंत्रण करने के लिए हमें सेना, पुलिस, जेल और सरकार की जरूरत है, वह असल में इन्हीं सेना, पुलिस, जेल और सरकार द्वारा बनाई गई व्यवस्थित असमानता और अन्याय का फल है। यह सब असल में एक कुचक्र है। जब लोगों को ऐसा लगता है कि उनकी राय का कोई महत्व नहीं है तो वे क्रोधित और कुटिल हो जाते हैं, यहां तक कि हिंसा पर भी उतर आते हैं। और इसी क्रोध और हिंसा के आधार पर सत्ताधारी आसानी से यह दावा कर पाते हैं कि इस तरह के क्रोधी और हिंसक लोगों की राय का कोई महत्व नहीं हो सकता। एक बार उनको समझ आ जाए कि उनकी राय का उतना ही महत्व है जितना किसी और की भी, तब वह बड़ी ही समझदारी से पेश आते हैं। अगर संक्षिप्त में कहा जाए तो: अराजकतावादियों का मानना है कि सत्ता खुद या सत्ता के प्रभाव ही अधिकतर समय लोगों की मूर्खता और गैर जिम्मेदारी का कारण बनते हैं।

क्या आप किसी क्लब या टीम या किसी भी तरह के स्वैच्छिक संगठन के सदस्य हैं, जहां निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं और किसी लीडर द्वारा नहीं थोपे जाते?

अगर आपने इस सवाल का जवाब “हां” में दिया तो आप एक ऐसे संगठन से जुड़े हैं जो अराजकतावादी सिद्धांतों से चलता है! एक और मूल अराजकतावादी सिद्धांत है स्वैच्छिक सहभागिता। यह सामान्यतः लोकतांत्रिक मूल्यों को आम ज़िंदगी में उतारने की बात है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि अराजकतावादी यह मानते हैं कि इस तरह का समाज बनाना मुमकिन है जहां लोग लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर अपने आपको व्यवस्थापित कर पाएं, जहां हर इंसान किसी भी संगठन का सदस्य अपनी स्वेच्छा के मुताबिक बने, ना कि जोर जबरदस्ती से; यानी जहां ऑर्डर लेने-देने से चलने वाली नौकरशाही, फौज, बड़ी कंपनियां आदि जैसी सारी टॉप-डाउन श्रेणीबद्ध संस्थाओं की जरूरत खत्म हो जाए। आप इसको मुमकिन माने या नहीं, उससे फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि हर बार जब आप किसी के साथ डर या धमकी के बिना किसी समझौते पर सहमति से पहुंचते हैं, हर बार जब आप किसी और की मर्जी को ध्यान में रखते हुए किसी तरह का प्रबंध करते हैं, हर बार जब आप किसी की निजी परिस्थितियों और जरूरतों को ध्यान में रख कर समझौते पर पहुंचते हैं, तब आप अराजकतावादी की तरह व्यवहार करते हैं—फिर चाहे आप को इसका आभास हो या नहीं।

अराजकतावादी व्यवहार केवल वह है जो एक आज़ाद इंसान दूसरे आज़ाद इंसान के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियां समझते हुए करता है। यह अराजकतावाद के एक और महत्वपूर्ण बिन्दु को दर्शाता है: जिन लोगों को हम बराबरी की भावना के साथ देखते हैं उनके साथ हम उचित और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं; लेकिन इंसानी फितरत ऐसी है कि इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि अपने से अधीनों के साथ भी हम ऐसा ही व्यवहार करेंगे। किसी को अधीन बनाते ही इंसान उसके ऊपर अपनी शक्ति का किसी न किसी तरह से दुरुपयोग करना शुरू कर ही देता है। 

क्या आपका मानना है कि अधिकतर नेता स्वार्थी एवं अहंकारी सूअर होते हैं, जिनको जनता के हित से तनिक भी फ़र्क नहीं पड़ता? क्या आपको लगता है कि हम ऐसी आर्थिक व्यवस्था में रहते हैं, जो मूढ़ और अनुचित है?

अगर आपने इन सवालों का जवाब “हां” में दिया तो आप समकालीन समाज की अराजकतावादी आलोचना से मोटा-मोटी तो वास्ता रखते ही हैं। अराजकतावादी मानते हैं कि सत्ता मनुष्य को भ्रष्ट कर देती है और जो लोग अपनी पूरी ज़िंदगी सत्ता की भूख मिटाने में लगा देते हैं, वे सत्ता संभालने के सबसे कम योग्य होते हैं। अराजकतावादी मानते हैं कि मौजूदा आर्थिक ढांचा स्वार्थी और अनैतिक व्यवहार करने वालों के लिए ज्यादा हितग्राही है, बजाय उन लोगों के जो सभ्य और विवेकशील व्यवहार का अनुसरण करते हैं। अधिकतर लोगों को ऐसा ही लगता है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि अधिकतर लोगों को ऐसा भी लगता है कि इसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। या जैसा कि सत्ता के नौकर दोहराते रहते हैं, कम से कम ऐसा तो कुछ नहीं किया जा सकता जिससे चीजें और ज्यादा ना बिगड़ें।

पर अगर यह सच ना हुआ तो?

क्या ऐसी मान्यता रखने का कोई असल कारण है भी? जब आप असल में उनकी जांच करते हो तो पता लगता है कि वह अधिकतर भविष्यवाणियां गलत साबित होती हैं जो बताती हैं कि राज्यों और पूंजीवादियों की गैर-मौजूदगी में क्या होगा। हजारों सालों तक लोग बिना सरकारों के जी रहे थे। आज भी दुनिया के बहुत से हिस्सों में लोग सरकारों के नियंत्रण से बाहर जीवन जीते हैं। वे लोग सब एक-दूसरे की हत्या नहीं कर देते। आम तौर पर वे अपनी ज़िंदगी जीने में मग्न रहते हैं, जैसा कि हम में से कोई भी रहता है। अवश्य ही हमारे जटिल, शहरी और प्रौद्योगिक समाज में यह करना ज्यादा पेचीदा होगा: पर टैक्नोलॉजी के माध्यम से यह सब मुश्किलें ज्यादा आसानी से हल भी हो सकती हैं। सही मायनों में हमने अभी तक सोचना शुरू भी नहीं किया है कि अगर टैक्नोलॉजी को मानव जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो हमारी ज़िंदगियां कैसी होंगी। अगर हम वे सारे निरर्थक या विनाशकारी व्यवसाय खारिज कर दें, जैसे टेले-मार्कटर, वकील, जेल के गार्ड, वित्तीय विश्लेषक, जनसंपर्क विशेषज्ञ, नौकरशाह, पेशेवर नेता इत्यादि, और अपने सबसे होनहार वैज्ञानिकों से अंतरिक्ष हथियार और शेयर बाजार बनाने-चलाने के बजाय अधिक खतरनाक या कष्टकर कामों का मशीनीकरण करवाएं, जैसे कोयले की खुदाई या बाथरूम साफ करना, और बाकी बचे हुए काम को सब में समान रूप से बांट दें, तो समाज को चलाने के लिए जो चीजें जरूरी हैं, उनको करने के लिए हमें कितने घंटे काम करने की जरूरत है? पांच घंटा प्रति दिन? चार? तीन? दो? कोई नहीं जानता, क्योंकि कोई इस तरीके के सवाल भी नहीं उठा रहा। अराजकतावादियों का मानना है कि यही वे सब सवाल हैं जिनको हमें पूछने कि जरूरत है। 

क्या आप सच में उन चीजों पर विश्वास करते हैं जो आप अपने बच्चों को बताते हैं (या जो आपके मां-बाप ने आपको बताईं थीं)?

“फ़र्क नहीं पड़ता किसने लड़ाई शुरू की।” “किसी ग़लत काम के जवाब में किया गया ग़लत काम सही नहीं होता।” “अपनी गंदगी खुद साफ करो।” “दूसरों के साथ वैसा ही करो जैसा तुम चाहते हो कि दूसरे तुम्हारे साथ करें।” “किसी के अलग होने के कारण उसके साथ दुर्व्यवहार मत करो।” शायद हमें यह निर्धारित कर लेना चाहिए कि जब हम अपने बच्चों को सही-गलत का ज्ञान दे रहे होते हैं तो हम उनसे झूठ बोल रहे होते हैं या हमें अपनी खुद की दी हुई हिदायतों पर अमल करना हैक्योंकि अगर आप इन नैतिक सिद्धांतों को इनके तार्किक निष्कर्षों तक ले कर जाएंगे, तो आप अराजकतावाद तक ही पहुंचेंगे।

इस सिद्धांत का उदाहरण लेते हैं कि किसी ग़लत काम के जवाब में किया गया ग़लत काम सही नहीं होता। अगर आप इसको ही सही में मान लें तो यह अकेला ही युद्ध और अपराधिक न्याय प्रणाली के आधार को नेस्तनाबूद करने के लिए काफी है। “साझा करने” के सिद्धांत को ही ले लीजिए: हम हमेशा बच्चों से कहते रहते हैं कि उन्हें अपनी चीजें दूसरों के साथ साझा करना सीखना चाहिए, उन्हें दूसरों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए, इत्यादि; और फिर हम बाहरी दुनिया में जाकर दुनियादारी के वही घिसे-पिटे उसूल मान लेते हैं कि हर इंसान प्राकृतिक रूप से स्वार्थी और प्रतिस्पर्धात्मक होता है। लेकिन एक अराजकतावादी की नजर से असल में अपने बच्चों को हम जो बताते हैं, वही सही है। सहकारिता और परस्पर-सहायता के दम पर ही मानव इतिहास में अधिकतर महान उपलब्धियां, सफलताएं एवं आविष्कार हुए हैं, जिनसे हमारे जीवन में सुधार आया है। आज के वक्त में भी हम में से अधिकतर लोग ज्यादा से ज्यादा पैसा अपने ऊपर नहीं बल्कि अपने दोस्तों और परिवारों के ऊपर खर्चते हैं। यह सच हो सकता है कि कुछ प्रतिस्पर्धात्मक लोग हमेशा हमारे बीच रहेंगे, मगर इसका यह मतलब नहीं कि हमारे समाज का आधार इस तरीके के व्यवहार को बढ़ावा देना होना चाहिए या फिर ऐसा कि जिसमें लोगों को जीवन-यापन की मूल आवश्यकताओं को पाने के लिए होड़ लगानी पड़े। ऐसा समाज सिर्फ सत्ताधारी लोगों के हित में है, जो चाहते हैं कि हम एक-दूसरे से डर कर रहें। इसीलिए अराजकतावादी एक अलग तरह के समाज की स्थापना चाहते हैं, जिसका आधार सिर्फ स्वैच्छिक सहभागिता ही नहीं, बल्कि परस्पर-सहायता भी हो। सच तो यह है कि अधिकतर बच्चे अराजकतावादी नैतिकता को मानते-निभाते बड़े होते हैं और उन्हें समय के साथ मजबूरन यह सीखना पड़ता है कि वयस्क दुनिया वैसे काम नहीं करती। इसीलिए इतने बच्चे किशोरावस्था में विद्रोह या अलगाव की भावना से ग्रसित हो जाते हैं, यहां तक कि आत्महत्या करने की भी सोच लेते हैं, और बालिग होकर निराशा और कड़वाहट से भर जाते हैं। अकसर उनको केवल एक ही चीज सांत्वना देती है और वह है अपने खुद के बच्चों को बड़ा कर पाना और उनके सामने ढोंग करना की दुनिया न्यायोचित है। लेकिन क्या हो अगर हम सच में न्याय के सिद्धांतों के आधार पर दुनिया का निर्माण करना शुरू कर दें? क्या अपने बच्चों को देने के लिए इससे बेहतर कोई तोहफा हो सकता है?

क्या आपका ऐसा मानना है कि इंसान मूल रूप से भ्रष्ट और दुष्ट होते हैं, या फिर कुछ प्रकार के लोग (जैसे औरतें, अलग रंग के लोग, आम जन जो ना अमीर हैं और ना बहुत पढ़े-लिखे) निचली नस्ल के हैं, जिनके ऊपर उच्च वर्ग के लोगों को राज करना चाहिए?

अगर इस सवाल का जवाब आपने “हां” में दिया तो फिर शायद आप आखिरकार अराजकतावादी नहीं ही हैं। लेकिन अगर आपने इसका जवाब ‘ना’ में दिया तो संभावना है कि आप पहले से ही नब्बे प्रति शत अराजकतावादी सिद्धांतों से वास्ता रखते हैं और ज़्यादातर अपना जीवन उन्हीं के आधार पर जी भी रहे हों। हर बार जब आप किसी इंसान के प्रति इज्जत से या सहानुभूति के साथ पेश आते हैं तो आप अराजकतावादी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हर बार, जब आप अपने बीच के मतभेदों को सुलझाने के लिए एकतरफा निर्णय थोपने के बजाय सब की बात सुन कर उचित समझौते पर पहुंचते हैं तो आप अराजकतावादी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हर बार, जब आपके पास किसी से मजबूरन कुछ कराने का मौका होने के बावजूद, आप उनके विवेक पर भरोसा करते हैं या उनसे न्याय के आधार पर तर्क करते हैं तो आप अराजकतावादी की तरह व्यवहार कर रहे हैं। हर बार, जब आप अपने किसी दोस्त के साथ कुछ साझा कर रहे होते हैं, या तय कर रहे होते हैं कि बर्तन कौन धोएगा, या कोई भी कार्य निष्पक्षता के साथ कर रहे होते हैं तो आप अराजकतावादी की तरह व्यवहार कर रहे हैं।

अब आप यह आपत्ति उठा सकते हैं कि छोटे समूहों में हंसी खुशी रहने के लिए तो यह सारी बातें जायज बैठती हैं, लेकिन किसी बड़े शहर या देश को चलाना एक अलग ही मसला है। आवश्यक ही इस आपत्ति में कुछ सच्चाई है। अगर आप समाज का विकेंद्रीकरण कर भी दें और ज्यादा से ज्यादा निर्णय लेने की शक्ति छोटे समूहों में बांट दे, फिर भी बहुत-सी ऐसी चीजें बचेंगी जिनको समन्वित करना पड़ेगा, जैसे रेलगाड़ियां चलाना, मेडिकल रिसर्च की दिशा चुनना, इत्यादि। लेकिन कोई चीज जटिल है तो उसका मतलब यह नहीं कि वह लोकतांत्रिक तरीके से नहीं हो सकती। बस उसका समाधान भी जटिल होगा। असल में, अराजकतावादियों के पास तरह-तरह के विचार, सुझाव और योजनाएं हैं, जिनके तहत एक जटिल समाज ख़ुद अपना संचालन कर सकता है। हालांकि उन सब का यहां पर वर्णन करना इस परिचयात्मक लेख के दायरे के बाहर है। इतना कहना काफी होगा कि एक तो बहुत से लोगों ने अपना बहुत-सा वक्त यह सोचने में लगाया कि असल में लोकतांत्रिक और स्वस्थ समाज कैसे चल सकता है; और दूसरा, किसी भी अराजकतावादी ने कभी यह दावा नहीं किया कि उसके पास समाज चलाने की कोई सिद्ध और निष्कलंक विधि  है। हम समाज पर पूर्व निर्मित मॉडल जबरदस्ती थोपना नहीं चाहते। सच तो यह है कि लोकतांत्रिक समाज को बनाने और चलाने में जो ढेरों समस्याएं आएंगी, हम उनमें से आधी के बारे में भी पहले से नहीं सोच सकते। लेकिन फिर भी हमें पूरा भरोसा है कि मानव कौशलता इतनी सजग है कि इन समस्याओं का हल जरूर निकाल लेगी, बशर्ते वे हल हमारे मूल सिद्धांतों से मेल खाते हों। और हमारे मूल सिद्धांत क्या हैं? कुछ और नहीं, सिर्फ़ शिष्टता, शालीनता, भद्रता इत्यादि।                     

    

 (इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

 

डेविड ग्रेबर
डेविड ग्रेबर

अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान... अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान अनुसंधान किया और 1996 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह 1998 में येल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गए। ग्रेबर ने आर्थिक नृविज्ञान में अपनी मशहूर पुस्तकें 'डेट: द फर्स्ट 5,000 इयर्स' (2011) और 'बुलशिट जॉब्स' (2018) लिखीं। उन्होंने ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट के दौरान सबसे प्रसिद्ध नारा "हम 99 प्रतिशत हैं," दिया। 2 सितंबर 2020 को इस आंदोलनकारी का देहांत हो गया।