पैसे का मतलब क्या है?

हम सब पैसे का रोज इस्तेमाल करते हैं, यहां तक कि हम में से अधिकतर लोगों की अधिकांश ज़िंदगी पैसे के बारे में सोचते-सोचते कट जाती है। यह कितनी आश्चर्यजनक बात है कि ऐसा होने के बावजूद हम पैसे का मतलब सही से समझते भी नही है। इसी कारण इस लेख में डेविड ग्रेबर पैसे के मतलब के ऊपर विचार करते हैं।

पैसे का मतलब क्या है?

Detail from an alternative banknote conceived by Will Self and drawn by Martin Rowson

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्तोत्र: The Guardian 

यह हमारी ज़िंदगी के लगभग सभी पहलुओं को छूता है, अक्सर इसे सारी बुराइयों की जड़ कहा जाता है, और अर्थव्यवस्था नाम की जिस दुनिया के विश्लेषण को यह संभव बनाता है, वह हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि अर्थशास्त्री हमारे समाज के सबसे प्रभावशाली पंडित बन चुके हैं। कितनी अजीब बात है कि फिर भी अर्थशास्त्रियों के बीच इस सवाल पर आम सहमति नहीं है कि पैसा असल में है क्या?

कुछ लोग इसको मुख्य तौर पर उपयोगी वस्तुओं के व्यापक कारोबार में महज़ एक उपयोगी वस्तु के रूप में देखते हैं तो बाकी लोग इसको वादे या सरकारी फरमान या राशन कूपन के रूप में देखते हैं। अधिकतर लोग पैसे को इन सभी चीजों का एक अस्त-व्यस्त मिश्रण मानते हैं। अर्थशास्त्र की पुस्तकें, जिनका उद्देश्य हमको यह आश्वासन दिलाना है कि सब कंट्रोल में है, पैसे की परिभाषा को तीन कार्यों में सीमित करती हैं: विनिमय का माध्यम, मूल्य मापक और मूल्य संचय का साधन। यहां समस्या यह है कि अर्थशास्त्रियों के बीच मूल्य की परिभाषा पर भी कोई सहमति नहीं है।

शायद यह इतना आश्चर्यजनक नहीं है। अगर अर्थशास्त्री पंडित हैं, तो क्या किसी मौलिक रहस्य के ऊपर एकाधिकार जमाना पंडिताई की अहम भूमिका नहीं है? सत्ता व्यवस्था पर निर्विवाद अधिकार जमाने के लिए जरूरी है कि सत्ता किसी ऐसी चीज पर आधारित हो जो लाख कोशिशों के बावजूद भी किसी को समझ न आए। इस मुहीम की प्रभावशीलता इस बात से आंकी जा सकती है कि मौजूदा आर्थिक व्यवस्था के आलोचकों को किसी तरह का ठोस विकल्प देने में कितनी मुश्किल हो रही है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूंजीवाद के तरफ़दारों ने बहुत पहले ही यह कहना छोड़ दिया है कि पूंजीवाद बहुत अच्छी आर्थिक व्यवस्था है, जो व्यापक तौर से समाज में खुशी, सुरक्षा या साझी संपन्नता को बढ़ावा देने की संभावना पैदा करती है। अब उनके पास सिर्फ एक ही दलील रह गई है और वह यह है कि कोई भी दूसरी व्यवस्था इससे भी बुरी होगी; अब तो वे यह भी कहने लगे हैं कि किसी और तरह की व्यवस्था संभव ही नहीं है। उनकी चुनौती हमेशा यह होती है: ‘हमें विस्तार से बताओ इससे अलग व्यवस्था आखिर कैसे काम कर पाएगी?’

इस सवाल का जवाब देना खासा मुश्किल है जब हमें यही नहीं पता कि मौजूदा व्यवस्था भी कैसे चल रही है (अगर किसी ने मौजूदा पूंजीवाद व्यवस्था में लगे किसी ऐसे व्यक्ति को समझाने की कोशिश की होती, जिसने इसका कभी अनुभव नहीं किया है तो वे भी यह कल्पना नहीं कर पाते कि इसका चलना संभव भी कैसे है) क्रांतिकारियों और पूंजीवाद-विरोधियों के लिए पैसा हमेशा से एक समस्या के रूप में रहा है। ‘क्रांति के बाद’ पैसे का चरित्र कैसा होगा? वह कैसे काम करेगा? क्या पैसा होगा भी? इन सवालों का जवाब देना मुश्किल है, अगर हम यह तक नहीं जानते कि पैसा असल में है क्या। इसको पूरी तरह से खारिज करना बेहद आशावादी और कुछ हद तक मूर्ख विचार लगता है। लेकिन यह कहने से कि पैसा क्रांति के बाद भी रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है कि किसी तरीके के बाजार की अनिवार्यता को स्वीकार लिया जा रहा है। क्रांतिकारी प्रयोगों का अनुभव इस बात पर साफ नहीं है—किसी समाजवादी राज्य ने अपने शासन में पैसे को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश भी नहीं की (पोल पोट की कंबोडिया के अलावा, लेकिन उनसे कौन प्रेरित हो रहा है)। यहां तक कि किसी ने दिहाड़ी मजदूरी तक खत्म करने की कोशिश नहीं की।

एक तरह से यह भी आश्चर्यजनक नहीं है। कार्ल मार्क्स के लिए पैसा अंततः मानव श्रम के मूल्य का प्रतिनिधित्व है, उन ऊर्जाओं का जिनसे हम दुनिया का निर्माण करते हैं। पैसा ऊर्जाओं को मापने और बांटने का तरीका है, अलबत्ता ऐसा जो मापने और बांटने की प्रक्रिया के दौरान संसाधनों के नियंत्रण कर्ताओं को भांति-भांति के छल-कपट करने का मौका दे। चूंकि समाजवादी व्यवस्थाओं ने इस बात पर जोर दिया कि श्रम सही में पूजनीय और सारे मूल्य का स्रोत है, इसलिए उनके लिए लोगों को श्रम के लिए वेतन देने की प्रथा को बंद करना मुश्किल है। आम विचार यही है कि पैसे को रखो, बस छल-कपट को रोको। अधिकतर प्रयोगात्मक मौद्रिक व्यवस्थाएं, जैसे स्थानीय विनिमय व्यापार प्रणालियां (Local Exchanging Trading Systems) या अर्जेन्टीना का ट्रूके सिस्टम, समान सिद्धांतों का पालन करता हैं: इलेक्ट्रॉनिक या भौतिक चिट श्रम के घंटों का प्रतिनिधित्व करती हैं और कई तरीके के साधनों से यह निश्चित किया जाता है कि सिस्टम का फायदा न उठाया जा सके। उदाहरण के तौर पर, ऐसा करने के लिए ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराया जाता है या चिट को समय-सीमा में बांध दिया जाता है, जिससे उसको जमा न किया जा सके और कोई हर-फेर न हो सके।

लेकिन श्रम से शुरुआत करने की कोई जरूरत नहीं है। पैसे को राशन चिट के तौर पर भी उतने ही अच्छे से समझा जा सकता है। एक कूपन रोटियों के लिए; एक मक्खन के लिए; एक जिससे कुछ भी लिया जा सकता है। इसके बहुत अलग मायने निकल कर आएंगे। जिसको वह ‘मुक्त बाजार’ कह रहे हैं, वह कुछ और नहीं बस एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें हर चीज राशन होती है। शायद ऐसे समाज की कल्पना करना नामुमकिन है जहां कुछ राशन न होता हो, लेकिन क्या हम ऐसी चीजों को ज्यादा से ज्यादा सीमित नहीं करना चाहेंगे? तो हम निश्चित तौर पर पैसे की परिधि को जितना हो सके सीमित करना चाह रहे हैं: शायद ज्यादा जरूरत की चीजों को बिल्कुल मुफ़्त में उपलब्ध कराना और बाकी कम जरूरत वाली चीजों के लिए कूपन उपलब्ध कर दिए जाना, जिससे लोगों को जो खेल खेलने हैं, वे चिट के साथ खेलें और अपने आप को ज्यादा गंभीर समस्याओं में न उलझाएं। या फिर शायद बहुत सारे अलग-अलग तरीके के कूपन भी दिए जा सकते हैं।

मगर इन कूपनों को कौन जारी करेगा? कोई केन्द्रीय संस्था? यह अगला मसला है। आखिरकार, पैसे की एक और परिभाषा है, आईओयू (IOU) या वादा—पैसा एक तरीका है जिससे हम ऐसे वादों की उत्पत्ति करते हैं जिनकी मात्रा निश्चित रूप से निर्धारित की जा सके, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें वितरित किया जा सके। पर ऐसे वादे करने का अधिकार किसके पास होगा? मौजूदा व्यवस्था में यह अधिकार सरकार के पास नहीं बल्कि अमरीका के फेड्रल रिजर्व या बैंक ऑफ इंग्लैंड या रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया जैसे केन्द्रीय बैंकों के पास है। आखिरकार, यह माना गया कि इस पूरी पेचीदा मशीनरी को अधिकृत करने वाली जो चीज है, उसका नाम है ‘जनता’। इस तरह देखा जाए तो हक़ीक़त में पैसे बनाने का अधिकार हम सब ही देते हैं, लेकिन हम को यह समझ में भी नहीं आना चाहिए कि यह सब काम कैसे करता है। जिससे यह निश्चित हो सके कि इस पैसे में, जिसको जादू से बनाने का अधिकार हम ही ने अभी-अभी बैंकों को दिया था, उनसे जो उधार हमने लिए हैं, उनको चुकता करना हम ऐसा धार्मिक कर्तव्य माने जिसको कोई भी सभ्य व्यक्ति ठुकरा न सके। तो अब सवाल यह है: एक बार हम सयाने बनकर सारे बैंकों को बम से उड़ा दें, तो यह वादे करने का अधिकार किसके पास होगा? सब के पास?

इसकी हमारे पास कई मिसालें हैं। एक समय था जब इंग्लैंड में भी अधिकतर नकद राशि दुकानदारों, व्यापारियों, यहां तक कि छोटे-मोटे काम करने वाली विधवाओं द्वारा जारी किए गए टोकन के रूप में होती थी। और एक वास्तविक स्वतंत्र समाज में किसी को अपने हिसाब से चिट या टोकन बनाने से आखिर कौन रोक सकेगा? कई चीनी कस्बों में महजोंग के टोकन बाजार में नकद की तरह इस्तेमाल किए जाते थे। और क्यों न किए जाएं? लोकल कैसीनो में वह हमेशा स्वीकार किए जाते थे।

लोग हमेशा खेल खेला करेंगे। कुछ खेलों में ऐसा कहा जाएगा कि इस चीज के 12 उस चीज के पांच के बराबर हैं, और एक बार आपने ऐसा कहा तो पैसे का एक प्रकार ईजाद हो गया। शायद सबसे उत्तम समाधान यह निश्चित करना होगा कि हर किसी के पास अपने मन मुताबिक खेल बनाने की आजादी हो, जिसका एक मतलब शायद यह होगा कि पैसे के ढेरों प्रकार बनते ही जाएंगे, लेकिन जिसका एक और मतलब यह होगा कि खेल हारने वालों को सोने के लिए रूई के तकियों की और पेट भरने के लिए अच्छे खाने की कभी कमी नहीं होगी।    

 (इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

डेविड ग्रेबर
डेविड ग्रेबर

अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान... अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान अनुसंधान किया और 1996 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह 1998 में येल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गए। ग्रेबर ने आर्थिक नृविज्ञान में अपनी मशहूर पुस्तकें 'डेट: द फर्स्ट 5,000 इयर्स' (2011) और 'बुलशिट जॉब्स' (2018) लिखीं। उन्होंने ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट के दौरान सबसे प्रसिद्ध नारा "हम 99 प्रतिशत हैं," दिया। 2 सितंबर 2020 को इस आंदोलनकारी का देहांत हो गया।