मंटो मामूं की मौत: एक आज़ाद परिंदे की दर्दनाक मौत की दास्तां

यह साल हिंदुस्तानी अदब के अज़ीम अफ़सानानिगार सआदत हसन मंटो की मृत्यु का 68वां साल है। 68 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप अपने इस फ़नकार को उसी तरह याद करता है, जैसे रशियन चेख़व को, अंग्रेज शेक्सपियर को और जर्मन बर्लोख्त ब्रेख्त को। मंटो और उनकी रचनाओं के बारे में हम सब कमोबेश कुछ न कुछ जानते हैं। मगर उनकी मृत्यु से संबंधित हमारे पास ज़िक्र करने लायक शायद ही कुछ हो! हममें से किसी को नहीं पता कि अपनी सारी ज़िंदगी मुंबई की गलियों, पुणे फिल्म सिटी के स्टूडियों और दिल्ली के रेडियो स्टेशन पर रोज़ी-रोटी की जुस्तजू में लगे मंटों का आख़िर समय कैसा था? नए-नए बने पाकिस्तान में उनके हालात कैसे थे और अपनी मृत्यु के वक्त उन पर क्या गुज़री थी? इन सब सवालों के जवाब हमें बहुत हद तक मंटो के भांजे हामिद जलाल के लिखे लेख ‘मंटो मामूं की मौत’ में मिल जाते हैं, जो मंटो की मौत पर लाहौर से निकलने वाली ‘नुक़ूश’ पत्रिका के 49-50, 1955 नंबर अंक में प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशन से लेकर आज तक विभिन्न लेखकों ने अपने लेखों और मंटो पर होने वाले सेमिनारों में अपनी ज़रूरत के हिसाब से इस लेख के कुछ-कुछ हिस्सों का बार-बार उल्लेख किया है, मगर कभी भी इस लेख को पूरा अनुवाद करने की कोशिश नहीं की। हिंदी में मंटो साहित्य पर इस कमी को पूरा करने के लिए अनुवाद-संवाद ने अपने पाठकों के लिए इस लेख का अनुवाद किया है।

मंटो मामूं की मौत: एक आज़ाद परिंदे की दर्दनाक मौत की दास्तां

 

अनुवाद: शहादत
स्त्रोत: नुक़ूश, लाहौर- अंक 49-50 ‘मंटो नंबर’

कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मंटो मामूं मियानी साहब के क़ब्रिस्तान से उठकर घर चले आए तो मैं उनसे क्या कहूंगा? मुझे यक़ीन है कि मैं उनकी हयात-ए-सानी के मौज्ज़े (ज़िंदगी के चमत्कार) को नजरअंदाज़ करके उनसे सिर्फ इतना कहूंगा, “मंटो मामूं! आपने आज तक जितनी ग़ैर-ज़िम्मादाराना हरकतें की हैं, उनमें सबसे ज़्यादा ग़ैर-ज़िम्मादाराना हरकत आपकी मौत थी।”

बहावलपुर में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच क्रिकेट का दूसरा टेस्ट मैच हो रहा था और मैं स्टेडियम में बैठा ताल्ले यार ख़ां को मैच का चशमदीद हाल सुनाने में मदद कर रहा था कि लाहौर से मेरे नाम एक ट्रंक काल आई और मुझे बताया गया कि आज सुबह सआदत हसन मंटो का इंतिक़ाल हो गया।

मैं फ़ौरन ग़म से बेकाबू नहीं हो गया, बल्कि मुझमें बुरी तरह बैचेनी पैदा हो गई। मुझे मंटो मामूं पर इंतिहाई शदीद ग़ुस्सा आ रहा था कि वह अपने बीवी बच्चों के साथ यह सुलूक किस तरह कर सकते हैं? लेकिन मैंने उसका इज़हार नहीं किया। और जब मैं बोला तो मेरी आवाज़ से ग़ैरमामूली घबराहट ज़ाहिर हो रही थी

मैंने पूछा, “कहां इंतिक़ाल हुआ?’

जवाब मिला, “घर पर।”

इस जवाब से मुझे बड़ा इत्मिनान हुआ, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं वह अचानक घर से बाहर किसी और जगह मौत से हम-आग़ोश न हो गए हों। ऐन-मुमकिन था कि किसी तांगे पर, किसी रेस्तरां में, किसी पब्लिशर के दफ़्तर में बैठे-बैठे या किसी फ़िल्म स्टूडियो में उन्हें अचानक मौत आ गई हो...।

जब मैं अपनी जगह पर वापस गया तो मैच का आंखों देखा हाल बयान करने वाले साथियों ने इशारों से पूछा कि क्या बात थी? मैंने एक काग़ज़ पर ये जुमला लिख दिया,

“एम्पायर ने सआदत हसन मंटो को आख़िर आउट दे ही दिया। आज सुबह उनका इंतिक़ाल हो गया।”

मंटो मामूं को आउट देने के लिए एम्पायर से कई बार अपीलें की जा चुकी थीं लेकिन हर बार अपील रद्द कर दी गई थी। अब उनकी बेसब्र और डांवांडोल सांसे ख़त्म हो गई थी। वह क्रिकेट के खिलाड़ी होते तो मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि वह कभी हनीफ़ मुहम्मद की तरह होशियार और चौकन्ने खिलाड़ी नहीं बन सकते थे, जिसे वह लाहौर के तीसरे टेस्ट मैच में खेलते हुए देखने के बेहद मुश्ताक़ (ख़ाहिशमंद) थे। इसकी जानकारी मुझे उनकी मौत के चौबीस घंटे बाद घर पहुंच कर हुई। दरहक़ीक़त उनकी ज़िंदगी की आख़िरी दो ख़्वाहिशों में से एक ख़ाहिश यह भी थी। अपनी मौत से एक दिन पहले उन्होंने एक रेस्तोरां में अपने दोस्तों से कहा था,

“हामिद जलाल को वापस आ जाने दो। मैं इसी के साथ टेस्ट मैच में हनीफ़ का खेल देखने जाऊंगा।”

उनकी दूसरी ख़ाहिश उस बेयार-ओ-मददगार (जिसका कोई मददगार न हो) औरत की मौत पर अफ़साना लिखने की थी जिसकी ब्रहना (नग्न अवस्था, निर्वस्त्र) लाश गुजरात में सड़क के किनारे पाई गई थी। अख़बारों में छपने वाली ख़बरों के मुताबिक़ उस औरत और उसकी नन्ही-सी बच्ची को बस अड्डे से अग़वा किया गया था और आधा दर्जन के क़रीब हवस परस्तों ने अपनी हवस को पूरा किया और जब वह कड़कड़ाती सर्दी में उनके चंगुल से निकल कर भागी तो उसके जिस्म पर लिबास का एक तार भी न था। चुनांचे दोनों मां बेटी ने जमा देने वाली सर्दी में दम तोड़ दिया। इस घटना से मंटो मामूं बेहद प्रभावित हुए थे। उसी रोज़ शाम को गुजरात से कुछ लोग उनके पास आए थे और उन्होंने उन्हें इस हादसे को और विस्तार से बताया था। इससे उनमें ज़रूर उत्तेजना और बेचैनी पैदा हुई होगी और मेरा ख़्याल है कि इसके बाद मंटो मामूं ने ज़्यादा शराब पी ली होगी, जो उनके लिए जानलेवा साबित हुई।

वह काफ़ी शाम गुज़रने के बाद घर वापस आए। थोड़ी देर बाद उन्हें ख़ून की उल्टी हुई। मेरे छः साल के बच्चे ने, जो उनके क़रीब ही खड़ा था, ख़ून की धारियों की तरफ़ उनका ध्यान दिलाया तो मामूं ने यह कहकर टाल दिया कि कुछ नहीं, ये तो पान की पीक है। उन्होंने उसे यह हिदायत भी कर दी कि वह उसका किसी से ज़िक्र न करे। इसके बाद उन्होंने हमेशा की तरह खाना खाया और सो गए।

घर भर में किसी को एहसास तक भी न था कि कोई बात खिलाफ-ए-मामूल हुई है, क्योंकि मेरे लड़के ने मंटो मामूं का राज़ किसी पर ज़ाहिर नहीं किया था। मुम्किन है ख़ुद मंटो मामूं को भी इसके बारे में कोई फ़िक्र न हुई हो। यूं भी वह घर वालों को ऐसे मामलों से बे-ख़बर रखना ही पसंद करते थे, क्योंकि हर तरफ़ से शराब छोड़ देने का मुतालबा (आग्रह) शुरू हो जाता था।

रात का पिछ्ला पहर था कि उन्होंने अपनी बीवी को उठाकर बताया कि वह शदीद दर्द महसूस कर रहे हैं और अब तक बहुत-सा ख़ून बह चुका है। उनका ख़्याल था कि उनका जिगर फट गया है। उनकी बीवी ने जब यह देखा कि वह इस सूरत-ए-हाल का अकेले मुक़ाबला नहीं कर सकतीं तो उन्होंने घर के दूसरे लोगों को जगाया और उन्हें मौत के मुंह से निकालने की जद्द-ओ-जहद शुरू हो गई।

इससे पहले कई गंभीर बीमारियों के बाद वह सेहतमंद हो चुके थे। इसलिए किसी को यह ख़्याल तक नहीं हो सकता था कि अब वह सिर्फ़ चंद घंटों के मेहमान हैं। लेकिन हक़ीक़त यह थी कि उन्हें आउट देने के लिए एम्पायर की उंगली उसी वक़्त से फ़िज़ा में बुलंद होना शुरू हो गई थी, जब मंटो मामूं को ख़ून की पहली उल्टी लगी थी।

मंटो मामूं के आख़िरी लम्हात के बारे में मैंने जो सुना, उससे मैं यही अंदाज़ा लगा सका हूं कि काफ़ी देर तक उन्हें ख़ुद भी यक़ीन नहीं था कि उनका वक़्त अब आ गया है। डॉक्टर के इंजेक्शन वग़ैरा लगाने के घंटा डेढ़ बाद तक वह मायूस नहीं हुए थे, लेकिन उस इलाज के बाद भी उनकी हालत खिलाफ-ए-मामूल नहीं संभली। उनकी नब्ज़ बराबर डूबती गई और दर्द में लगातार इज़ाफ़ा होता रहा। ख़ून की उल्टी भी बंद नहीं हुई। सुबह को डॉक्टर ने राय दी कि मंटो मामूं को हस्पताल पहुंचाया जाये।

उस वक़्त मंटो मामूं के होश-ओ-हवास बिल्कुल दुरुस्त थे, इसलिए हस्पताल का नाम सुनते ही वह बोल उठे,

“अब बहुत देर हो चुकी है। मुझे हस्पताल ना ले जाओ और यहीं सुकून से पड़ा रहने दो।”

घर की औरतों के लिए यह मंज़र नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त था। उन्होंने रोना शुरू कर दिया। यह देखकर मंटो मामूं फ़ौरन उत्तेजित हो गए और उन्होंने ग़ज़बनाक आवाज़ में कहा, “ख़बरदार, जो कोई रोया।”

यह कहकर उन्होंने अपना मुंह रज़ाई से ढांप लिया।

मंटो का यह असली रूप था। जिस शख़्स की ज़िंदगी का कोई गोशा (कोना) आज तक दुनिया की नज़रों से छिपा नहीं रहा था, वह किस तरह बर्दाश्त कर सकता था कि लोग उसे मरता हुआ देखें। मंटो मामूं इंतिहा के गुस्से और कहर के पुतले बने हुए थे। मालूम नहीं, वह अपने आपसे नाराज़ थे या शराब से... जो उनकी वक़्त से पहले मौत की ज़िम्मेदार थी।

एम्बुलेंस आने से पहले सिर्फ एक या दो बार उन्होंने अपने मुंह से रज़ाई हटाई। उन्होंने कहा,

“मुझे बड़ी सर्दी लग रही है। इतनी सर्दी शायद क़ब्र में भी नहीं लगेगी। मेरे ऊपर रज़ाइयां डाल दो।”

कुछ देर बाद उनकी आंखों में एक अजीब-सी चमक नमूदार हुई। उन्होंने आहिस्ता से कहा, “मेरे कोट की जेब में साढे़ तीन रुपये पड़े हैं। उनमें कुछ और पैसे मिला कर थोड़ी-सी व्हिस्की मंगा दो...”

शराब के लिए उनका इसरार जारी रहा और उनकी तसल्ली के लिए एक पव्वा मंगा लिया गया। उन्होंने बोतल को बड़ी अजीब और तृप्त निगाहों से देखा और कहने लगे, “मेरे लिए दो पैग बना दो।”

और यह कहते हुए वह बहुत ज़ोरदार तरीक़े से तड़पा देने वाले दौरे से कांप उठे।

मंटो मामूं की आंखों में उस वक़्त भी अपने लिए रहम का कोई निशान मौजूद न था। उन्हें मालूम था कि उनका वक़्त आ पहुंचा है। लेकिन एक-बार भी और एक लम्हे के लिए भी उन्होंने अपने ऊपर जज़्बातियत (रहम) नहीं तारी होने दी।

उन्होंने अपने बच्चों या किसी और को अपने पास नहीं बुलाया। वह निगाह-ए-वापसीं (आखिरी नजर) या वसीयत के कभी क़ाइल नहीं थे। उन जैसी शख़्सियतों के लिए ज़िंदगी और मौत के दरमियान हद-ए-फ़ासला बहुत ही मुबहम (मामूली) और ग़ैर-वाज़ह (अस्पष्ट) होता  है और यही होना चाहिए, क्योंकि उनकी ज़िंदगी और रूह तो पहले ही उनके जिस्म से उनकी किताबों में मुंतक़िल की जा चुकी होती है... वहां पहुंचकर उन्हें ग़ैर-फ़ानी (अनश्वर) होने का यक़ीन हो जाता है। वहां वे अबद (अनंत काल तक) तक ज़िंदा रहते हैं। हंसते-बोलते रहते हैं। मुहब्बत करते हैं।

बिस्तर-ए-मर्ग (मृत्युशय्या) पर मंटो मामूं ने शराब के सिवा कोई और चीज़ नहीं मांगी। उन्हें पहले मालूम हो चुका था कि शराब उनकी जानी दुश्मन है और वह उसे मौत का वाहक समझने लगे थे, जिस पर जिस्मानी फतह किसी सूरत भी मुमकिन नहीं है। जिस तरह मौत के आगे कोई इन्सान कुछ नहीं कर सकता, उसी तरह मंटो मामूं शराब के सामने बिल्कुल बेबस होते थे। लेकिन उनकी फ़ितरत चूंकि हमेशा से बाग़ी क़िस्म थी, इसलिए उन्होंने मौत से भी बग़ावत की थी। उन्हें शिकस्त (हार) से भी सख़्त नफ़रत थी। चाहे वो मौत के हाथों ही क्यों न हो, और यही वजह थी कि वह मौत से तन्हाई में आंखें चार करना चाहते थे, जहां कोई उन्हें मरता न देख सके, जहां कोई उनकी शिकस्त का नज़ारा न कर सके।

उनसे कम दर्जे का आदमी शायद ड्रामाई मौत की दुआ करता, जिससे उसके मरने के बाद लोग उसकी चर्चा करें। उस पर लेख लिखे जाएं और उसके आज़ा-ओ-अहबाब (खानदान वाले) कह सकें कि उसकी ज़िंदगी ज़रूर ऐसी थी, जिसे हम नापसंद करते थे लेकिन मरने से पहले वह सुधर गया था और अच्छा आदमी बन गया था। लेकिन मंटो मामूं रियाकार (धोखेबाज़) नहीं थे। उन्होंने इस ख़ाहिश का सख़्ती से मुक़ाबला किया। उनकी मौत के वक़्त सिर्फ एक पहलू ड्रामाई था यानी शराब तलब करने का मंज़र। लेकिन इसका फ़ायदा भी मुख्य किरदार को पहुंच सकता था, क्योंकि उसका सही मतलब सिर्फ़ वही समझा था।

मैं उस वक़्त मौजूद होता तो मुझे यक़ीन है कि अपने ज़हन को एक हद तक मेरे सामने बे-नक़ाब कर देते और यह कुछ मुश्किल भी नहीं था, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना कहने की ज़रूरत थी कि सांप और इन्सान की कहानी न भूलना। मैं अपने सिर को हां में जुंबिश देता और शराब का आख़िरी जाम उन्हें पीने को दे देता। सिर्फ यही एक जुमला हर बात का खुलासा कर देने के लिए काफ़ी होता।

सांप और इन्सान की कहानी सिर्फ इतनी है कि एक आदमी ने अपने दोस्तों के मना करने के बावजूद एक ज़हरीला सांप पाल रखा था। और एक दिन सांप ने अपना सारा ज़हर उसके जिस्म में उतार दिया, तो उसने भी सांप को पकड़ लिया और उसका सिर काट कर फेंक दिया।

एम्बुलेंस जैसे ही दरवाज़े पर आकर खड़ी हुई, उन्होंने शराब का फिर मुतालबा किया। एक चम्मच व्हिस्की उनके मुंहं में डाल दी गई। लेकिन शायद एक क़तरा मुश्किल से उनके हलक़ से नीचे उतर सका होगा। बाक़ी शराब उनके मुंह से गिर गई और वह बेहोश हो गए। ज़िंदगी में यह पहला मौक़ा था कि उन्होंने अपने होश-ओ-हवास खोए थे। उन्हें इसी हालत में एम्बुलेंस में लिटा दिया गया।

एम्बुलेंस हस्पताल पहुंची और डॉक्टर उन्हें देखने के लिए अंदर गए तो मंटो मामूं मर चुके थे। दोबारा होश में आए बग़ैर रास्ते में उनका इंतिक़ाल हो चुका था।

 

 

 

हामिद जलाल
हामिद जलाल

हामिद जलाल सआदत हसन मंटो के भांजे थे। हामिद जलाल सआदत हसन मंटो के भांजे थे।