क्या कर्ज़ से आंदोलन भड़क सकता है?

‘अगर कब्ज़ा आंदोलन कर्ज़-विरोधी आंदोलन में बदल जाता है तो परिणाम विस्फोटक हो सकते हैं।’

क्या कर्ज़ से आंदोलन भड़क सकता है?

पटचित्र: Rania Adamczyk

 अनुवाद: अक्षत जैन
स्त्रोत: The Nation

‘99 प्रति शत’ के विचार ने वह कर दिखाया जो अमेरिका में ग्रेट डिप्रेशन (1928-1934) या महामंदी के बाद से कोई नहीं कर पाया है: यानी सामाजिक वर्गों की अवधारणा को राजनीतिक मुद्दे के रूप में पुनर्जीवित करना। यह इस देश में वर्ग शक्ति की प्रकृति में सूक्ष्म बदलावों के कारण संभव हो सका। मेरी नज़र में इन बदलावों के पीछे कर्जे का बदलता स्वरूप है।

‘हम 99 प्रति शत हैं’ नारे को ईजाद करने वाली टीम के सदस्य के रूप में मैं इस बात की पुष्टि कर सकता हूं कि हम असमानता या केवल वर्ग के बारे में नहीं बल्कि विशेष तौर से वर्ग शक्ति के बारे में सोच रहे थे। अब यह साफ है कि 1 प्रति शत कर्ज़दाता हैं: वे लोग, जो अपनी संपत्ति को राजनीतिक शक्ति में बदल सकते हैं और उस राजनीतिक शक्ति को वापस संपत्ति में। सरकारी नीति व्यापक तौर पर किसी भी तरह से और हर तरह के यंत्रों—वित्तीय, आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि सैन्य भी—का इस्तेमाल करके शेयर के भावों को गिरने से रोकने की रणनीति से संचालित होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य का अस्तित्व सबसे पहले केवल यह सुनिश्चित करने के लिए है कि संपत्ति का प्रवाह जनसंख्या के उस छोटे से समूह तक बना रहे, जिसके पास वित्तीय पूंजी है। ऐसा करने से यह सुनिश्चित होता है कि अधिक से अधिक संपत्ति उस कानूनी घूसखोरी की प्रणाली में फिर से लगती रहे, जो अमेरिकी राजनीति प्रभावी रूप से बनकर रह गई है।

अगस्त 2011 में जब हम कब्ज़ा विरोध का आयोजन कर रहे थे, हमें कोई अंदाजा नहीं था कि हमारे साथ कौन जुड़ेगा और कोई जुड़ेगा भी या नहीं। लेकिन लगभग तुरंत ही हमने एक पैटर्न देखना शुरू किया। कब्ज़ाधारियों में अधिकतर लोग अमेरिकी लोन सिस्टम के शरणार्थी थे। शुरुआत में इसका मतलब था स्टूडेंट लोन: आम शिकायत यह थी कि “मैंने मेहनत की और सभी नियमों का पालन किया और अब मुझे अपने स्टूडेंट लोन को चुकाने के लिए नौकरी नहीं मिल रही है—जबकि जिन वित्तीय अपराधियों ने आर्थिक व्यवस्था को बर्बाद किया, उन्हें सरकार पैसे देकर बचा रही है।”

यह उल्लेखनीय नहीं था कि हमारा शिविर इतने सारे ऋण शरणार्थियों से भरने लगा। उल्लेखनीय यह था कि राजनीतिक स्पेक्ट्रम के हर कोने से एक ही मांग की जा रही थी। 1960 या 80 के दशक में तक लोन संभालते कॉलेज स्टूडेंट्स की पीड़ा मेट्रो एवं सफाई कर्मचारियों का दिल नहीं छू सकती थी। लेकिन कब्ज़ा आंदोलन को संगठित मजदूरों का समर्थन मिला। इससे स्पष्ट हुआ कि कुछ बदला था। हम सब लोग अपनी पहचान एक ही डेब्टर क्लास में कर रहे थे।

यह केवल अमेरिकी पूंजीवाद में आए कुछ बदलावों के कारण संभव हो पाया। कई दशकों से हम ‘पूंजीवाद के वित्तीयकरण’ के बारे में सुन रहे हैं। लेकिन इसको हमेशा एक अमूर्त प्रक्रिया के तौर पर दर्शाया जाता है, लगभग जादू-टोने की तरह, जिसके तहत वॉल स्ट्रीट अपना अधिकतर प्रॉफ़िट व्यवसायों एवं उद्योगों से नहीं निकालता, बल्कि इसके लिए उसने एक अलग ही तरीका ढूंढ निकाला है, जिससे वह केवल सट्टेबाजी से संपत्ति बनाता है। इस दौरान, वित्तीय उद्योग हमें उन वास्तविक सामाजिक संबंधों की सक्रिय रूप से जांच करने से हतोत्साहित करते हैं जिनके ऊपर संपत्ति आधारित है। हमें बताया जाता है कि जो वॉल स्ट्रीट पर होता है, वह आम नागरिकों की समझने की शक्ति से परे है।

कब्ज़ा आंदोलन की वृद्धि से हमें इस पूरी प्रणाली को साफ-साफ देखने की अनुमति मिली है: यह सिस्टम और कुछ नहीं बल्कि ऋण निष्कर्षण का विशाल इंजन है। कर्जे के जरिये अमीर लोग हम सबसे, चाहे अमेरिका में या बाहर, पैसा और संपत्ति अपनी ओर खींचते हैं। अमेरिका के भीतर अमीर लोग देश के कानूनी ढांचे को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर यह सुनिश्चित करते हैं कि अधिक से अधिक लोग ज्यादा से ज्यादा कर्जे में डूबे रहेंगे। यह लिखते समय अमेरिका में चार में से तीन लोगों के पास किसी ने किसी तरह का कर्ज़ है, और सात में से एक के पीछे लोन कलेक्ट करने वाले लगे हैं। यह पता लगाने का कोई तरीका नहीं है कि एक औसत परिवार की आय का कितना हिस्सा ब्याज भुगतान, फीस और जुर्माने के रूप में वित्तीय सेवा उद्योग जब्त कर लेते हैं। जो आंकड़े हमारे पास हैं, उनसे यह पता लगता है कि यह हिस्सा लगभग 15 से 20 प्रति शत के बीच है—और हां अगर आप उस एक-चौथाई जनसंख्या को हट दें जो कर्ज़ लेने के लिए या तो बहुत अमीर हैं या बहुत गरीब, तो फिर यह हिस्सा कहीं ज्यादा बढ़ जाता है।

इसका मतलब यह कि ‘वित्तीयकरण’ सिर्फ पैसे का हेरफेर ही नहीं है। आखिर में, यह राज्य शक्तियों को अपने हिसाब से चलाने की शक्ति है, जिसके द्वारा दूसरों की आमदनी को जब्त किया जा सके। दूसरे शब्दों में, वॉल स्ट्रीट और वाशिंगटन एक हो गए हैं। वित्तीयकरण, सुरक्षाकरण और सैन्यकरण एक ही प्रक्रिया के अलग-अलग पहलू हैं। अमेरिका के शहरों में चमकते-धमकते बैंक ऑफिसों की अनंत बढ़ोतरी—सिक्यॉरिटी गार्ड की निगरानी में बेदाग स्टोर जो कुछ नहीं बेचते—केवल उस चीज का सबसे प्रत्यक्ष और दिमाग भेद देने वाला प्रतीक है जो हम एक राष्ट्र के तौर पर बन चुके हैं।

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इतिहास में हर तरह के उपनिवेश-विरोधी विद्रोह सहित ग्रीक लोकतंत्र का निर्माण करने वाली बगावत से लेकर अमरीकी क्रांति तक, अधिकतर क्रांतियां, विद्रोह और आंदोलन किसी न किसी हद तक कर्जे के इर्द-गिर्द ही रहे हैं। हो सकता है कि हम ऐसे ही मुकाम पर आज फिर से खड़े हों।

इतिहास यह दिखलाता है कि कर्ज़दारों को सुसंगत आंदोलन में एकत्र करना बेहद मुश्किल साबित होता है; कर्ज़दारी का स्वभाव ही इंसान को अलग करना और अकेला बना देना है। कर्जे में होने से जिस तरह की व्याकुलता और अपमान का भाव इंसान के दिलोदिमाग में पैदा होता है, उसने कर्जे को शक्तिशाली वैचारिक उपकरण बना दिया है। लेकिन इतिहास यह भी दिखलाता है कि जब ऐसे आंदोलन खड़े होने में कामयाब हो जाते हैं तो नतीजे विस्फोटक होते हैं।

अगर कब्ज़ा आंदोलन स्पष्ट तौर पर कर्ज़ विरोधी आंदोलन में तब्दील हो जाता है तो उससे क्या उम्मीदें रखी जा सकती हैं? अगर वैसा होता है तो लड़ाई महज नीतियों में बदलाव करके नहीं जीती जाएगी। कब्ज़ा आंदोलन की शक्ति हमेशा से अन्याय की पहचान कर उसे अवैध ठहरने की रही है: यह अधिकतर अमेरिकियों की साझा भावना का आह्वान है कि हमारा राजनीतिक वर्ग इतना भ्रष्ट हो चुका है कि वह दुनिया की तो छोड़ो, खुद अमेरिका के आम नागरिकों की तकलीफें दूर करने योग्य भी नहीं बचा है। एक वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने के लिए हमें सब कुछ हटाकर शुरू से शुरुआत करनी होगी।

वित्तीय व्यवस्था भी कुछ खास अलग नहीं है। पहला कदम समस्या को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करना है: हमारी मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को ठीक तौर पर ‘पूंजीवाद’ भी नहीं कहा जा सकता; ज्यादा से ज्यादा यह एक तरह का माफिया पूंजीवाद है, जो सूदखोरी, जबरन वसूली और सट्टेबाजी की फिक्सिंग पर आधारित है। दूसरा कदम लोगों के दिमाग में यह बात बैठाना है कि इस व्यवस्था की अवैधता किस हद तक अमेरीकियों के ऊपर बने हुए कर्ज़ के नैतिक बल को कमजोर करती है, जिससे इस व्यवस्था के प्रति लोगों की सहमति धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। हममें से बहुत से लोग स्वेच्छा से या मजबूरी में कर्ज़ चुकाने से इनकार करके ऐसा पहले से ही कर रहे हैं।

शीश पर बैठे लोग भी निजी बातचीत में यह मानने तैयार हैं कि मौजूदा स्थिति ज्यादा समय तक नहीं टिक सकती। किसी न किसी तरह कि कर्ज़-माफी तो की ही जानी पड़ेगी (बड़े बैंकों के साथ हम यह होता देख चुके हैं)। असली संघर्ष इस बात का होगा कि यह कर्ज़-माफी क्या रूप लेगी—क्या यह माफिया पूंजीवाद की व्यवस्था को बचाने का आखिरी लाचार प्रयास होगा या फिर हमें किसी एकदम ही अलग दिशा में ले जाने की कोशिश (शायद हम आइसलैंड से कुछ सीख सकते हैं, जिसने अपनी तीन-चौथाई से भी ज्यादा जनसंख्या का कर्ज़ माफ कर दिया)।

कर्ज़-माफी आखिरकार केवल आर्थिक नवीनीकरण का ही नहीं बल्कि बौद्धिक और आध्यात्मिक नवीनीकरण की भी संभावना पैदा करती है। इस तरह कि संभावना की केवल कल्पना करना ही हमें यह बोध करने की शक्ति देती है कि कर्ज़ महज एक वादा है जो हम एक-दूसरे से करते हैं। इसके अलावा, सच्चा लोकतंत्र वही है जिसमें समाज के बड़े सवालों में हम सबका मत लिया जाए। एक समाज के तौर पर हम किस तरह के वादे करना और करवाना चाहते हैं? इस दृष्टि में, जिस समस्या को अर्थशास्त्री ‘डेट ओवर्हैंग’ कहते हैं (यानी जब कर्जे इतने ज्यादा बढ़ गए हों कि समझदार निवेशों के लिए भी उपलब्ध न हो पाएं), वह असल में बहुत गहरी है। जो कर्ज़ हमने सामूहिक तौर पर ले रखा है, वह हमें ऐसे वादे करने पर मजबूर करता है जिन्हें हम नहीं निभा सकते। हम उत्पादन का दर, शोषण का स्तर, और इनके साथ-साथ पर्यावरण की तबाही की गति बढ़ाते जा रहे हैं, जबकि मौजूद स्तरों पर भी यह सब अस्थिर बना देने वाला है—और यह सब हम सिर्फ इसलिए कर रहे हैं जिससे लेनदार वर्ग को ब्याज दे सकें। इस वक्त इससे ज्यादा पागलपन और क्या हो सकता है?

इसीलिए जन-प्रतिरोध के आंदोलन को आयोजित करना इतना जरूरी है। हमारे नेताओं ने बहुत पहले ही यह साफ कर दिया था कि वह बड़ा सोचने की काबिलियत नहीं रखते। टेक्नॉलोजी के हेर-फेर से अब कुछ नहीं होगा। सिर्फ एक सामाजिक आंदोलन ही संभावनाओं के नैतिक और राजनीतिक दायरे को बदल सकता है—और इस दायरे को बदलने की सख्त जरूरत है।

ठोस मांगें पेश करने के लोभ से बचकर कब्ज़ा आंदोलन ने सही किया। लेकिन अगर मुझे आज कोई मांग स्पष्ट करनी होती, तो मैं यही मांग आगे रखता कि जितना कर्ज़ माफ किया जा सकता है उतना माफ कर दिया जाना चाहिए। फिर सामूहिक तौर पर काम करने के वक्त को कम किया जाना चाहिए—दिन में केवल पांच घंटे काम या फिर हर साल पांच महीने की छुट्टी। अगर यह सुझाव बेतुका या बेहिसाब लग रहा है, तो यह सिर्फ इस बात का संकेत है कि हमारी सोच और कल्पना का दायरा कितना संकीर्ण हो चुका है। आखिरकार, पचास साल पहले, अधिकतर लोगों को लगा था कि आज हम इस मुकाम पर खड़े होंगे। केवल निष्कर्षण के इंजन की शक्ति का विनाश करके ही हम एक बार फिर उस विशालता और वैभव के साथ सोच सकते हैं जो हमारे समय के अनुकूल है।                      


 

 

डेविड ग्रेबर
डेविड ग्रेबर

अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान... अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान अनुसंधान किया और 1996 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह 1998 में येल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गए। ग्रेबर ने आर्थिक नृविज्ञान में अपनी मशहूर पुस्तकें 'डेट: द फर्स्ट 5,000 इयर्स' (2011) और 'बुलशिट जॉब्स' (2018) लिखीं। उन्होंने ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट के दौरान सबसे प्रसिद्ध नारा "हम 99 प्रतिशत हैं," दिया। 2 सितंबर 2020 को इस आंदोलनकारी का देहांत हो गया।