'मी टू' की पृष्ठभूमि में पूंजीवादी मीडिया, अरबपति व्यवसायी और होटल कर्मचारियों का यौन उत्पीड़न

मैं नारीवादी सिद्धांतों में दक्ष वामपंथी बुद्धिजीवी हूं। फिर भी मैंने इस विचार का हमेशा विरोध किया कि अमीर और शक्तिशाली मर्द नियमित रूप से औरतों का बलात्कार करते हैं, या करने की कोशिश करते हैं। मुझे इस बात की समझ नहीं थी कि बलात्कार कितने व्यापक स्तर पर किया जाता है। फिर मेरा ऊपर पहाड़ गिर पड़ा।

'मी टू' की पृष्ठभूमि में पूंजीवादी मीडिया, अरबपति व्यवसायी और होटल कर्मचारियों का यौन उत्पीड़न

Dominique Strauss-Kahn Photograph: Julien Warnand/EPA


अनुवाद: अक्षत जैन
स्त्रोत: The Guardian

मेरे लिए यह लेख लिखना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह मेरी मां के बारे में है।

2011 में न्यू यॉर्क के एक आलीशान होटल में कमरे साफ करने वाली का यौन उत्पीड़न करने के जुर्म में आईएमएफ के डायरेक्टर डोमिनिक स्ट्रॉस-कान के गिरफ्तार किए जाने के एक या दो हफ्ते बाद एक और मामला सामने आया, जिसमें मिस्र के व्यवसायी को न्यू यॉर्क के ही एक और आलीशान होटल में ऐसे ही उत्पीड़न के आरोप में कुछ समय के लिए गिरफ्तार किया गया।

पहले तो इस सब ने मुझे हैरान कर दिया। यह कॉपी-कैट अपराध तो नहीं हो सकता था; डोमिनिक स्ट्रॉस-कान की गिरफ़्तारी और उससे जुड़ी तकलीफों के ड्रामा को मद्देनजर रखते हुए यह समझ के परे है कि किसी ने उसे देख कर यह कहा हो,

‘यह मजेदार लग रहा है। मैं भी होटल में काम करने वाली पर हमला करता हूं।’   

मुझे फिर आखिर में मामला समझ में आया।

इस सबका एक ही तर्कसंगत मतलब निकल सकता था: व्यवसायी, राजनेता, अफसर और अन्य अमीर एवं शक्तिशाली लोग हर समय होटल में काम करने वालों का बलात्कार करते हैं, या बलात्कार करने का प्रयास करते रहते हैं। बात बस इतनी सी है कि आम तौर पर जिन लोगों पर हमला किया जाता है,उन्हें यह अच्छे से पता होता हैं कि वे इस बारे में कुछ नहीं कर सकते।

डोमिनिक स्ट्रॉस-कान के मामले में किसी ने—किन्हीं भी पेचीदा राजनीतिक कारणों से—हमेशा की तरह फोन कॉल करने से इनकार कर दिया और कांड हो गया। नतीजतन, जब अगला हमला हुआ तो पीड़ित ने अपने आपसे यह कहा होगा,

‘ओह, तो क्या इसका मतलब यह है कि अगर कोई ग्राहक हमारा बलात्कार करने की कोशिश करे तो हमें असल में पुलिस को बुलाने की अनुमति है?’

फिर इस सोच पर अमल किया होगा। जैसा कि हमें मालूम पड़ा है कि असल में बिल्कुल ऐसा ही हुआ था। (आख़िर में दोनों औरतों को चुप करा दिया गया और दोनों में से एक भी मर्द अपराधी सिद्ध नहीं हुआ।)

मैं जिस चीज पर ध्यान केंद्रित करना चाहता हूं, वह है मेरी अविश्वास की प्रारम्भिक प्रतिक्रिया: ‘चीज़ें बुरी ज़रूर हैं; मगर वे इतनी बुरी नहीं हो सकतीं।’

नारीवादी सिद्धांतों में दक्ष वामपंथी बुद्धिजीवी भी स्वाभाविक रूप से इस विचार का विरोध करता है कि अमीर और शक्तिशाली मर्द नियमित रूप से अपना कमरा साफ करने वाली औरतों का बलात्कार करते हैं, या बलात्कार करने की कोशिश करते हैं, कि यह बहुत ही व्यापक रूप से किया जाता है, कि होटल इंडस्ट्री में सब जानते हैं कि ऐसा होता है (क्योंकि उन्हें कैसे नहीं पता होगा), और वे अमीर और शक्तिशाली मर्द जानते हैं कि वे आसानी से बच जाएंगे, क्योंकि अगर किसी औरत ने आवाज़ उठाई भी तो बाकी पूरी दुनिया एक साथ वह सब करने को तैयार हो जाएगी, जिससे समस्या को दबाया जा सके।

यह जाहिर है कि हमारे अविश्वास के कारण ही ऐसी चीजें हो पाती हैं। हम यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि जिन लोगों से हम परिचित हैं, वे इस तरह के खुलेआम आक्रमण करने की क्षमता रखते हैं। इसी तरह से बुली भी लोगों को प्रताड़ित करके बच निकलते हैं। मैंने इसके बारे में भी लिखा है।

बुलीइंग सिर्फ बुली और पीड़ित के बीच का संबंध नहीं है। वह असल में तीन तरफा संबंध है—बुली, पीड़ित और उन सब लोगों के बीच का जो आक्रमण के बारे में कुछ करने से इनकार करते हैं; वे सारे लोग जो कहते हैं कि ‘लड़के तो ऐसे ही होते हैं’, या फिर वे जो ढोंग करते हैं कि उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच किसी तरह की समानता है। वे जो टकराव को देखते हैं और कहते हैं, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता कि शुरू किसने किया था।’

उन मामलों में भी, जहां असल में उससे ज्यादा मायने किसी और चीज के नहीं होते।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दर्शक असल में जिस्मानी रूप में मौजूद हैं, या फिर वे सिर्फ पीड़ित के मस्तिष्क में ही हैं। आपको पता है कि क्या होगा अगर आप लड़ने की कोशिश करोगे। आपको पता है कि लोग आपके बारे में क्या बोलेंगे। आप इन सब चीजों को आत्मसात कर लेते हो। थोड़े ही समय में, अगर कोई कुछ बोलता नहीं है तो भी आप यह सोचने लगते हो कि वे चीजें, जो वे कहते हैं, असल में सच हो सकती हैं।

यौन उत्पीड़न बुलीइंग की विशिष्ट श्रेणी है, लेकिन बुलीइंग के हर प्रकार की तरह यह भी पीड़ित की स्व की भावना का विनाश करके ही कार्यरत होती है।

ऐसा ही हूबहू भयाकुल करने वाला एहसास मुझे डेम एम्मा थॉम्पसन की हार्वे विंस्टीन के ऊपर लिखी टिप्पणी को पढ़ कर हुआ था। केवल इसलिए नहीं कि उन्होंने बताया कि विंस्टीन का उत्पीड़न ‘बड़ी पिक्चर का छोटा ट्रेलर था’—यह हकीकत है लेकिन कोई नई बात नहीं है; मुझे सबसे ज्यादा हैरान उनके दो शब्दों ने किया। उन्होंने विंस्टीन के बर्ताव को उस ‘उत्पीड़न, नीचा दिखाने, धमकाने और दखल अंदाजी के सिस्टम’ का ठेठ उदाहरण बतलाया, जिसे औरतें अनादि काल से झेल रही हैं।

वे दो शब्द, जिन्होंने मुझे स्तब्ध छोड़ दिया , ‘नीचा दिखाना’ थे।

यहां से कहानी व्यक्तिगत हो जाती है।

मैं आपको अपनी मां के बारे में बताता हूं। मेरी मां प्रौडिजी थी। वह दस साल की थी, जब अमरीका आई। अंग्रेजी का एक शब्द जाने बगैर उसने अपनी पढ़ाई इतनी तेजी से की कि वह 16 साल की उम्र तक कॉलेज में दाखिल हो गई। फिर उसने परिवार की आर्थिक कठिनाई के समय (वह डिप्रेशन का वक्त था) में मदद करने के लिए कॉलेज छोड़ा और ब्लाउस सिलाई की फैक्ट्री में नौकरी कर ली।

यूनियन को सनकी विचार आया कि उन्हें संगीतमय कॉमेडी नाटक आयोजित करना चाहिए, जिसकी सभी भूमिकाएं कपड़े फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर निभाएंगे। उस नाटक (पिन्स एण्ड नीडल्स) ने ब्रोडवे पर हिट होकर सबको हैरान कर दिया। मां (जिनका नाम उस समय रूथ रूबेनस्टाइन था)  उस नाटक की मुख्य अभिनेत्री थी।

उनकी कॉमेडी करने में कुशलता को बहुत सराहा गया। मैं भी इस बात की पुष्टि कर सकता हूं। उनकी फोटो लाइफ मैगजीन में छपी, वह अमरीका के राष्ट्रपति एफडीआर से और मशहूर कलाकार जिप्सी रोज़ ली से मिलीं और तीन साल तक वह सेलिब्रिटी बन गई। फिर वह वापस फैक्ट्री में काम करने लौट आई।  

अंततः वह मेरे पिता से मिली, जो उस वक्त नाविक थे; उनको प्रकाशन उद्योग में काम मिल गया और मां मुझे और मेरे भाई को पालने-पोसने में लग गई। साथ ही वह कुछ स्थानीय परियोजनाओं में हिस्सा लेती और पार्ट-टाइम नौकरियां करती।

जब मैं छोटा था तो मेरे दिमाग में कभी यह ख्याल नहीं उठा कि उनसे पूछूं कि उन्होंने नाटक करना क्यों छोड़ा, जबकि उन्हें नाटक देखने का बहुत शौक था; या फिर वह वापस कॉलेज क्यों नहीं गई, जबकि उन्होंने हमारे पूरे घर को किताबों से भर दिया था; या फिर उन्होंने अपना कोई करियर क्यों नहीं बनाया 

जब मैंने बड़े होकर यह सवाल किया तो वह बस इतना कह देती, ‘मुझमें आत्म-विश्वास की कमी थी।’

पर एक बार मुझे याद है कि ‘कास्टिंग काउच’ की चर्चा उठी थी और मैंने उनसे पूछा था कि क्या ऐसी चीजें उनके समय में भी होती थीं। उन्होंने मेरी तरफ देखा और कहा, ‘तुम्हें क्या लगता है मैंने शो बिजनेस क्यों छोड़ दिया? हममें से कुछ प्रोड्यूसर के साथ सोने को तैयार थी। बस, मैं नहीं थी।’

यही कारण है कि मैं अपने हाथों से हार्वे विंस्टीन की गर्दन दबाना चाहता हूं। मामला सिर्फ इतना सा नहीं है कि उसके जैसे घटिया लोगों ने मेरी मां को स्टेज से भगा दिया। बात यह है कि ऐसा करने की प्रक्रिया में उन्होंने उसके अंदर कुछ तोड़ भी दिया। मुझे नहीं पता कि असल में हुआ क्या था, या फिर कोई चीज हुई भी थी कि नहीं; लेकिन उसका नतीजा यह था कि वह इस सोच के साथ निकलीं कि वह अयोग्य थी; बौद्धिक रूप से छिछली थी; वास्तव में प्रतिभाशाली नहीं थी; सरल थी; फ्रॉड थी।

जैसे होटलों के साथ जुड़े सब लोग एकजुट होकर काम करने वालियों को यह बताते हैं कि वे बलात्कारियों से सुरक्षित किए जाने के अयोग्य हैं, बिल्कुल वैसे ही मेरी मां के साथ उनको यह बताने के लिए सब ने साजिश रची कि अगर वह निजी तौर पर सेक्स वर्कर के रूप में काम करने को तैयार नहीं है तो अपनी सारी उपलब्धियों के बावजूद वह स्टेज पर अभिनय करने के अयोग्य है।

नतीजतन, उनकी स्व की भावना भस्म हो गई।

हम सब हजारो प्रकारो की हिंसा के उत्तराधिकारी हैं। उनमें से बहुत-सी हमारी ज़िंदगियों को कुछ इस तरह के तरीकों से आकार देती हैं, जिसके बारे में हमें कभी पता भी नहीं चलता। मेरी मां एक बहुत महान इंसान थी, जो एक बहुत छोटे बक्से में अटकी थी। ज़िंदगी में आगे चलकर भी वह बेहद हास्यजनक थी; लेकिन वह ऐसे तौलिए भी इकट्ठा करती थी जिनके ऊपर लिखा होता था, ‘चमत्कार की अपेक्षा मत करो।’

उन्होंने मुझे इस भाव के साथ बड़ा किया कि मेरी किस्मत में कुछ बड़ा करना लिखा है (उन्हीं की तरह मुझे भी प्रौडिजी समझा जाता था)। फिर वह बिना किसी कारण के कई दिनों तक डिप्रेशन में चली जाती थी, जिनके अंत में हमेशा वह मुझ पर मेरा कमरा साफ न कर पाने के लिए चिल्लाती थी कि मैं बेहद ही बेकार, स्वार्थी और लापरवाह व्यक्ति हूं।

मुझे अब समझ आया कि असल में वह मुझ पर नहीं बल्कि अपनी परिस्थितियों पर चिल्लाती थी, कि उनको मेरे कमरे के बारे में सोचने पर मजबूर भी क्यों किया जा रहा था। बाद में वह आंशिक तौर से मेरे माध्यम से भी जी, लेकिन—मुझे ऐसा मानना ही पड़ेगा—वह इस आत्मग्लानि में भी थी कि उन्हें वह ज़िंदगी जीने का, जो उनकी होनी चाहिए थी, सिर्फ यही तरीका मिल पाया।

शक्तिशाली मर्दों की हिंसा हमारी आत्माओं को सैकड़ों तरीकों से आघात पहुंचाती है। उसके कारण हम एक-दूसरे पर वार करने लगते हैं। मेरी मां के लिए तो अब बहुत देर हो गई है। वह दस साल पहले मर गई और उनके शरीर के संग उनके साथ जो हुआ वह भी दफन हो चुका है। लेकिन अगर हम उनके लिए अभी भी कुछ कर सकते हैं तो वह यह है कि हम शक्तिशाली लोगों को बचाना बंद कर दें।

हमें यह ढोंग करना बंद करना पड़ेगा कि ये सब चीजें वास्तव में नहीं हो सकती। फिर जब हो जाती हैं तो जिनके साथ बीती है, उनको यह कहना बंद करना पड़ेगा,

‘तो तुमको क्या लगा था, और क्या होगा?’   

        

 

डेविड ग्रेबर
डेविड ग्रेबर

अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान... अमरीकी मानवविज्ञानी और अनार्किस्ट एक्टिविस्ट (अराजकतावादी कार्यकर्ता) डेविड रॉल्फ ग्रेबर का जन्म 12 फरवरी 1961 को न्यूयॉर्क में श्रमिक वर्ग के यहूदी परिवार में हुआ था। ग्रेबर ने अपनी पढ़ाई पर्चेज कॉलेज और शिकागो यूनिवर्सिटी से की, जहां उन्होंने मार्शल सहलिन्स के तहत मेडागास्कर में नृवंशविज्ञान अनुसंधान किया और 1996 में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह 1998 में येल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गए। ग्रेबर ने आर्थिक नृविज्ञान में अपनी मशहूर पुस्तकें 'डेट: द फर्स्ट 5,000 इयर्स' (2011) और 'बुलशिट जॉब्स' (2018) लिखीं। उन्होंने ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट के दौरान सबसे प्रसिद्ध नारा "हम 99 प्रतिशत हैं," दिया। 2 सितंबर 2020 को इस आंदोलनकारी का देहांत हो गया।