गिरवी अंगूठी

"मैं अदालत में मौजूद जज को कैसे इस बात को मानने के लिए राज़ी कर सकूंगा कि मुझे इस समाज ने मजबूर और पागल बनाकर मुझसे मेरी इन्सानियत छीन ली है।" क्या अपने बीवी-बच्चों का पेट भरना जुर्म है? हां, हमारे समाज में है। सब जानते हैं कि बेरोजगारी बहुत ज्यादा है। इसका मतलब आदमी काम चाहे भी तो नही कर सकता। और कोई उसकी मदद करने के लिए भी तैयार नही है क्योंकि हमारी इंसानियत हमें यह सिख कर हमसे चीन ली गई है कि हमें किसी और की कोई परवाह करने की जरूरत नही है। ऐसी स्थिति में वह चोरी न करे तो आखिर क्या करे? मरने दे अपने बच्चे को? शायद वही सही होगा। क्योंकि बाकी सब वो जो भी कर सकता है वो तो जुर्म है।

गिरवी अंगूठी

 

 अनुवादक: शहादत खान

अब तक आप ऐसी कहानियां पढ़ने के आदी होंगे, जिनकी शुरुआत रुमानवी किस्म के जुमलों से होती है। जैसे- “नरम और ख़ुनक हवा चल रही थी... यह एक महकती हुई गुलाबी शाम थी... या जब हम आपस में मिले तो...”

मगर मेरी कहानी की शुरुआत इस ख़ूबसूरत रिवायत से बिलकुल अलग है। वह मेरी ज़िंदगी का एक अंधकारमय दिन था, जब एक सांड जैसे पुलिस अफ़सर ने हथकड़ियां डालकर मुझे हवालात में धकेल दिया। मुझे जिस थाने में बंद किया गया, वहां शदीद सर्दी थी, थाने के अमले के चेहरों से भी सर्दी के आसार नमूदार हो रहे थे। सच पूछे तो मुझे बचपन ही से पुलिस वालों की शक्ल देखने से भी नफ़रत रही है। उन्हें भी मेरे जैसे बेघर मज़दूर से कैसे मुहब्बत हो सकती है, जो उनके किसी काम का नहीं। अगर देखें तो मेरे ज़िंदादिल और तमीज़दार होने की वजह से ज़्यादातर लोग मुझसे मिलकर ख़ुश होते हैं। उन्हें मेरा इल्म और ज़हानत पसंद है, लेकिन एक पुलिस वाला मेरे जैसे आम आदमी को कैसे एक काबिल-ए-ज़िक्र शख़्सियत जान सकता है।

हमारे इलाक़े का पुलिस स्टेशन गांव के केंद्रीय चौक में स्थित है। जिस गली से मुझे गिरफ़्तार किया गया, वह उस चौक से तक़रीबन पांच सौ मीटर के फ़ासले पर है। यहीं बदशक़्ल पुलिस अफ़सर ने मेरे हाथों में हथकड़ी डाली और धक्का देते हुए ग़ुस्से से चिल्लाया,

“तेज़ी से क़दम उठाओ!”

मुझसे चुप नहीं रहा गया। मैंने जवाब में कहा,

“और तुम! अल्लाह तुम्हारी अपनी ज़िंदगी का सफ़र तेज़ करे, ताकि मौत की मंज़िल तक आसानी से पहुंच सको।”

मेरी बात सुनकर उसने ज़ोर से अपनी लात मेरी कमर पर रसीद की। इसके बदले में मुझसे कुछ न हो पाया तो इंतिक़ामी कार्रवाई के तौर पर मैंने भी अपना सिर इसी ज़ोर से ज़मीन पर दे मारा

“तुम्हें कम-से-कम बदला लेने का तरीक़ा मुझसे सीखना चाहिए।”

क़ानून लागू करने वाले गै़र-क़ानूनी शख़्स ने मुझे एक और लात रसीद की। जवाबी हमले के तौर पर मैंने भी अपनी लात ज़मीन पर दे मारी।

“क्या हम सब मिट्टी के बने हुए नहीं हैं? और हमें कीड़े-मकोड़ों का रिज़्क़ नहीं बनना?”

मैंने ज़मीन पर थूका और उस जगह को अपने पांव की एड़ी से मसल दिया।

पुलिस अफ़सर ने मेरी हथकड़ी को और कस दिया, वह सख़्ती से मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा था।

मैंने पुलिस वाले की शक्ल को गौर से देखा। वह मुझे हजम्री का हमशक्ल लगा। आप हजम्री को नहीं जानते। यह वही शख़्स था, जिसका मैंने भूखमरी की हालत में गधा चुराया था। मैं आसानी से अपना काम कर चुका था। मौत आए उसकी बीवी को जो बे-वक़्त नींद से जाग गई और उसने चीख़ना-चिल्लाना शुरू कर दिया। शोर की आवाज़ें सुनकर लोग इकट्ठे हो गए और मेरी पोल खुल गई, तो मैं यह कह रहा हूं: यह पुलिस वाला भी हजम्री की तरह छोटे माथे वाला था, बिल्कुल जैसे किसी यतीम बच्चे का छोटा माथा होती है। मेरे पांव की उंगलियां मेरे जूतों से बाहर निकल रही थीं।

यह सूरत-ए-हाल मेरे लिए ख़ासी परेशानकुन थी। मैं वहां से फ़रार होने का सोचने लगा। मेरा दिमाग़ बड़ी तेज़ी से काम कर रहा था। ख़ुदा-ना-ख़ास्ता अगर मैं फ़रार की इस कोशिश में नाकाम हो जाता तो फिर मुझे सारी उम्र जेल में गलते-सड़ते गुज़ारनी पड़नी थी। मेरी बेगुनाही से किसी को कोई ग़रज़ न थी। क़ानून अंधा होता है और अदालत भी उस क़ानून की पाबंद होती है। एक जज हर मामले में तहरीर-शुदा दस्तावेज़ को सामने रखता है, सबूत मांगता है, चाहे वह झूठ का पुलिंदा ही क्यों न हों।

मैं चूंकि पागलों की जन्नत में रहता हूं, इसलिए पूरी तरह अपने हवास खो चुका हूं। अब मुझे इक़रारी मुजरिम क़रार दे देना चाहिए, क्योंकि मुझे अब अपने किसी भी जुर्म का इक़रार करते हुए ज़रा भी ख़ौफ़ या शर्मिंदगी नहीं होती। मुझे पांच साल की सज़ा तो अपने पहले जुर्म पर ही मिल सकती थी, वही गधा चुराने का जुर्म।

दूसरा जुर्म यह था कि मैंने मुक्का मारकर सर्राफा बाज़ार के एक सूदखोर ज्वैलर के अगले दो दांत तोड़ दिए थे। उसने अपनी दुकान पर मेरी बीवी की शादी की गिरवी रखी हुई सोने की अंगूठी वापस करने से इनकार कर दिया था। यह सच है कि मुझे उधार ली गई रक़म वापस करने में कुछ देर हो गई थी लेकिन इसमें मेरा कोई क़सूर नहीं था। मेरे पोलिश नस्ल के इज़राइली मालिक ने मुझे तनख़्वाह देने में अच्छी-ख़ासी देर कर दी थी। मेरे इस जुर्म की सज़ा भी कम-से-कम पांच साल मिलेगी।

इस वक़्त मुझे अपनी बीवी और छोटे बच्चे की याद भी आ रही थी। मुझे उन दोनों से सख़्त नफ़रत है। बच्चे से ख़ास तौर पर, क्योंकि वह सख़्त सर्दी में पैदा हुआ था। उसकी पैदाइश के दूसरे ही दिन मैं एक लॉन्ड्री से बच्चों का ऊनी कम्बल चुराते हुए पकड़ा गया था। लॉन्ड्री के बड़ी तोंद और भारी जेब वाले मालिक ने मेरे ख़िलाफ़ शिकायत कर दी थी। इतने बड़े जुर्म की सज़ा कम-से-कम उम्रकैद तो होती है।

सच पूछिए तो मैं अब पागलों की तरह हर जुर्म को कुबूल करने का आदी हो चुका हूं। इस वक़्त मेरी दिली-ख़्वाहिश थी कि अपनी बीवी से मिलूं और उसे उस खु़फ़िया जगह के बारे में बताऊं जहां मैंने इन जुर्म से हासिल होने वाला अरबों रुपये का माल छुपाया हुआ है, ताकि वह मेरी गैर-मौजूदगी के दिनों में अपनी और बच्चे की देख-भाल कर सके।

पुलिस स्टेशन का फ़ासला अब दो सौ मीटर रह गया था। मैंने कनखियों से पुलिस अफ़सर की ओर देखा तो वह बड़ी हिक़ारत से मेरी ही तरफ़ देख रहा था। मैंने किसी मेमने की तरह कांपते हुए गुज़ारिश की,

“क्या तुम मुझ पर एक एहसान कर सकते हो। मैं इसके बदले मैं तुम्हें दस पाऊंड दूंगा।”

“मुझे मेरे बीवी-बच्चों की क़सम मैं अपना वादा पूरा करुंगा।”

“मुझे थोड़ी देर के लिए घर जाने दो। मैं वापस आ जाऊंगा।”

“तुम एक पुलिस वाले को रिश्वत दे रहे हो। इस की सज़ा जानते हो? यह तो बहुत बड़ा जुर्म है।”

यह बात करके उसने अपनी रफ़्तार तेज़ कर ली। हथकड़ी की वजह से मुझे भी तेज़-तेज़ चलना पड़ा।

रास्ते में सड़क पर गाड़ियों का तेज़ शोर था। फ़ुटपाथ पर पैदल चलने वालों की आर-जार जारी थी।

ओह मेरे ख़ुदा बे-जान मशीनों को सड़कों पर चलने की पूरी आज़ादी है, और एक इनसान हैं जो इस मुल्क में नस्ल-दर-नस्ल ग़ुलाम बना लिए गए हैं। एक मैं हूं कि ज़िंदगी की बुनियादी जरूरतों से महरूम कर दिया गया हूं। मेरी आज़ादी की कोई क़दर नहीं। मेरी निजी ज़िंदगी में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं।

मैं अदालत में मौजूद जज को कैसे इस बात को मानने के लिए राज़ी कर सकूंगा कि मुझे इस समाज ने मजबूर और पागल बनाकर मुझसे मेरी इन्सानियत छीन ली है।

मैंने अपनी बीवी और बच्चों का पेट भरने के लिए गधा चोरी किया, क्योंकि मैं पागल था।

मैंने अपने छोटे बच्चे को सर्दी की शिद्दत से बचाने के लिए कम्बल चोरी किया, क्योंकि मैं पागल था।

मैंने लड़ाई में ज्वैलर के दो दांत इसलिए तोड़ दिए थे कि वह अपने पास गिरवी रखी हुई मेरी अंगूठी वापस नहीं कर रहा था। उस दिन वह अंगूठी बेचकर मैं अपने घर का राशन लेना चाहता था। मेरे बेटे को स्कूल की नई वर्दी चाहिए थी और मेरी बीवी का जूता पुराना होकर बेघारा बन गया था।

हम पुलिस स्टेशन के क़रीब पहुंचे तो मैं पूरी तरह अपने आने वाले कल से मायूस हो चुका था। अब कोई भी यहां मेरी ज़मानत देने के लिए नहीं आएगा। शायद मेरे बीवी-बच्चों को भी मुझसे मिलने की इजाज़त न होगी। मुझे ज़िंदगी के बचे-खुचे दिन एक बदबूदार क़ैद-ख़ाने में गुज़ारने पड़ेंगे। अंधेरा और वीरान क़ैदख़ाना।

मैं ख़्यालों के ये ताने-बाने बुन ही रहा था कि अचानक दूर से तेज़ रोशनी चमकी, जिससे हमारी आंखें चुंधिया गईं। ये एक तेज़-रफ़्तार कार की हेडलाइट्स थीं, जो बड़ी तेज़ी से हमारी तरफ़ बढ़ रही थी। पलक झपकते ही वह हमारे क़रीब आ पहुंची। मैंने मौक़ा देखते ही पुलिस वाले को जो मेरे आगे-आगे चल रहा था, ज़ोर से गाड़ी की तरफ़ धक्का दिया। मुझे उसकी ख़ौफ़नाक चीख़ सुनाई दी। तेज़-रफ़्तार कार की टक्कर से वह बेहोश हो चुका था। मैंने हथकड़ी उतारी और तेज़ी से भागना शुरू कर दिया।

अब मैं हथकड़ी से ज़ख़्मी होने वाली अपनी कलाई पर मरहम-पट्टी करवाने के लिए हस्पताल में मौजूद हूं और यहां अपने बीवी और बच्चे का इंतज़ार कर रहा हूं।

 


 

रियाज़ हुसैन महमूद
रियाज़ हुसैन महमूद

रियाज़ हुसैन महमूद फ़िलिस्तीन के प्रमुख कहानीकारों में से हैं। 1936 ई. में उनका जन्म हुआ। शुरुआती शिक्षा वहीं से हासिल की। बाद में उनके अम्मी-अब्बी हिजरत करके ईरान आ गए। उन्होंने वहां से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य में एमए किया। उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत अरबी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में की। महमूद... रियाज़ हुसैन महमूद फ़िलिस्तीन के प्रमुख कहानीकारों में से हैं। 1936 ई. में उनका जन्म हुआ। शुरुआती शिक्षा वहीं से हासिल की। बाद में उनके अम्मी-अब्बी हिजरत करके ईरान आ गए। उन्होंने वहां से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य में एमए किया। उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत अरबी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में की। महमूद ने अपनी कहानियों में इज़राइल में मौजूद ज़ालिमाना कानून और आम फ़िलिस्तीनी शहरियों की बदहाली का व्यापाक चित्रण किया है। 2000 ई. में उनका निधन हो गया।