स्त्रोत: Frontline 2006 में प्रकाशित
अनुवाद: मानस अग्रवाल
भारतीय बुद्धिजीवियों के बीच अमेरिका शायद ही कभी अच्छी नज़रों में देखा जाता है। उनके हिसाब से भारत को अमेरिका के कटु पूंजीवाद, दिखावटी विदेश नीति और लुभा देने वाले पॉप कल्चर का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
परन्तु, कम से कम एक ऐसे चर्चित मुद्दे पर, जो अकसर भारतीय विवाद का विषय रहा है - कि उत्पीड़ित समाज की वृद्धि कैसे की जाए - अमेरिका के सुझाव काफी लोगों को पसंद आते दिख रहे हैं। विशेष रूप से उनका अफर्मटिव एक्शन (एए) या सकारात्मक प्रयास का प्रोग्राम हाल ही में प्रशंसा का विषय बन गया है।
अफर्मटिव एक्शन या एए राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन के चलाए गए ग्रेट सोसाइटी इनिशिएटिव के तहत 1965 में निकले गए एक कार्यकारी आदेश का नाम है। यह आदेश उद्योगों और शिक्षा संस्थानों में अश्वेत अमेरिकियों को नौकरी व दाखिला दिलाने के लिए प्रोत्साहन करने का एक नव प्रयास था।
भारत में इन दिनों सभी जन एए के पक्ष में होने का दावा कर रहे हैं। कई लोग इससे “दलित पूंजीवाद” के लिए नए विचार खोजने की कोशिश कर रहे हैं। उनका मानना है कि इससे प्रेरणा लेकर दलित पूंजीवाद विश्वविद्यालयों और प्राइवेट सेक्टर में “जातिगत विविधता” को बढ़ावा देगा। और-तो-और ऐसे उद्योगपति, जो आरक्षण के सख्त खिलाफ हैं, वे भी अमेरिकी शैली के सकारात्मक प्रयास को अपनाने के लिए तैयार हैं, क्योंकि उनके मुताबिक़ यह प्रयास “पूरी” तरह से स्वैच्छिक और कोटा मुक्त है। ऐसा कहा जा सकता है की उनकी नजर में आरक्षण की तुलना में सकारात्मक प्रयास कम हस्तक्षेप करने वाली और अधिक स्वैच्छिक नीति है।
इस लेख में यह बात रखी गयी है कि एए की यह लुभाने वाली तस्वीर की वह स्वैच्छिक और कोटा मुक्त है, केवल अर्धसत्य है। ठीक उसी तरह जैसे दलित पूंजीवाद की तस्वीर जो ऐतिहासिक तौर से उत्पीड़ित समाजों को ऊपर उठाने की बात करती है।
एए के अमेरिकी प्रयासों को करीब से परखने पर पता लगता है कि भारतीय उद्योग इसका एक सतही और पक्षपातपूर्ण नजरिया सामने ला रहे हैं, जिससे वे एए का अपना मनगढ़ंत संस्करण बेच सकें, जो की वादों से संपन्न और किसी भी तरह की जवाबदेही और परिवर्तन से विपन्न है।
परन्तु, अमेरिकी अनुभव पहचान की राजनीति और समूह अधिकार की सीमाओं के सन्दर्भ में एक चेतावनी भी है। अश्वेत लोगों का रंग के माध्यम से अमेरिकी मध्यम वर्ग में समावेश लाखों गरीब अश्वेत और गोरे लोगों के प्रति आंख मूंद कर किया गया है, जो सभ्य शिक्षा, पर्याप्त चिकित्सा और जीवनयापन योग्य वेतन के अधिकारों से वंचित हैं। यह बात सही है की नस्ल के आधार पर सकारात्मक भेदभाव से एक अच्छी मात्रा में अश्वेत लोगों का मध्यम वर्ग बना है। पर इसकी वजह से अश्वेत लोगों का एक ऐसा वर्ग भी बन गया है, जो बेहद गरीब हैं और अपने आप को समाज से बाहर पाते हैं। इसके परिणाम में निचले वर्ग के गोरों का भी समूह बन गया है जिनमें अवसर न मिलने का आक्रोश उबल रहा है। सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वाले लोग पहचान-आधारित पुनर्वितरण कार्यक्रमों के इस पहलू के प्रति अपनी आंखें बंद नहीं कर सकते।
प्राइवेट सेक्टर में सकारात्मक प्रयास जाति न्याय में बढ़ती क्रांति के दो मोर्चों में से एक है, दूसरा मोर्चा मंडल 2 है।
नव-उदारवादी वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में दलित उन्नति का एक बड़ा मुद्दा प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण है। दलित कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा 2002 में अपनाया गया “भोपाल डिक्लेरेशन” काफी चर्चा का विषय रहा है। इसमें वे मांग करते हैं की “प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण उतनी ही मात्रा में अनिवार्य होना चाहिए जितना सरकारी संस्थाओं में होता है”। यह मुद्दा UPA सरकार के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का हिस्सा बन गया, जिसके तहत यह वादा किया गया कि “अनुसूचित जातियों और जनजातियों के युवा के सत्कार के बारे में तात्कालिक प्रभाव से उद्योगों के साथ एक संवाद शुरू किया जाएगा”। एए पर वर्तमान फोकस इस राष्ट्रीय संवाद का एक परिणाम है। कॉर्पोरेट सेक्टर ने मंडल जैसे कोटे का विरोध किया है। इसके स्थान पर, भारतीय उद्योग के कर्णधारों ने, अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए अमेरिकी योजना के अनुरूप, दलितों के लिए स्वेच्छा से एए अपनाने की पेशकश की है।
दूसरी तरफ मंडल 2 का विवाद है, जो मंडल आयोग द्वारा अनिवार्य ओबीसी के लिए किए गए 27 प्रति शत आरक्षण को केंद्रीय सहायता प्राप्त प्राइवेट विश्वविद्यालयों और इंजीनियरिंग एवं चिकित्सा में पेशेवर डिग्री प्रदान करने वाले संस्थानों तक विस्तारित करने की बात करता है। केंद्र सरकार की नौकरियों में दलितों और आदिवासियों के लिए पहले से मौजूद 22.5 प्रति शत आरक्षण के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण 1990 में मंडल 1 में स्थापित किया गया था। भले ही सरकार ने विश्वविद्यालयों में सीटों की कुल संख्या बढ़ाने का वादा करके मंडल 2 विरोधी आंदोलन को शांत करने की कोशिश की है, लेकिन आरक्षण के खिलाफ सड़क पर विरोध प्रदर्शन अभी भी जारी है।
मौजूदा बहस भारत की अर्थव्यवस्था के बढ़ते निजीकरण और वैश्वीकरण के संदर्भ में हो रही है। सरकारी नौकरियों की संख्या और प्रतिष्ठा, दोनों ही कम होती जा रही है। आज के नए आर्थिक माहौल में, प्राइवेट सेक्टर में आईटी, जैव-प्रौद्योगिकी, विपणन और फाइनेंस जैसी नौकरियां संपन्नता का नया रास्ता बन गई हैं। दरअसल, अमेरिकी-उच्चारण वाली अंग्रेजी में बोलने की क्षमता ही हमारी कॉल-सेंटर अर्थव्यवस्था में एक आर्थिक संपत्ति बन गई है।
दलितों, आदिवासियों और ओबीसी वर्ग के "सबसे पिछड़े" लोगों को धर्म और परंपरा द्वारा बनाई गई हजारों वर्षों की पूर्वाग्रह की विरासत का सामना करना पड़ता है, जो नई अर्थव्यवस्था में उनके प्रवेश को रोकती है। अपने अमीर, द्विज शहरी समकक्षों के विपरीत, उनके पास कंप्यूटर चलाने और अंग्रेजी बोलने वाली "योग्यता" प्राप्त करने के लिए आर्थिक और सांस्कृतिक संसाधन नहीं हैं, जिसकी नई अर्थव्यवस्था मांग करती है।
जैसा की कांचा इल्लाहिय ने कहा है, जब तक एक अमीर ब्राह्मण और गरीब दलित बच्चा एक अंग्रेजी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे, तब तक ‘योग्यता’ की बात हमेशा दलित बच्चे को हाशिये पर ढकेलेगी। और जैसा लिंडन जॉनसन ने एए की स्थापना के वक़्त अपनी प्रसिद्ध 1965 के भाषण में कहा था: “सालों से जंजीरों से बंधे इंसान को रेस में खड़ा करके यह बोलना की अब तुम सब के समान रेस में भाग ले सकते हो, यह अपर्याप्त है। बस अवसरों के लिए दरवाज़े खोल देने से काम नहीं चलेगा, हमारे सभी नागरिकों के पास उन दरवाजों के पार जाने की क्षमता भी होनी चाहिए।” क्योंकि "पिछड़ी" जातियों के अधिकांश बच्चे, जो पढ़ाई नहीं छोड़ते हैं और किसी तरह रेस में हिस्सा लेने पहुंच जाते हैं, वे पर्याप्त शिक्षा के लाभ के बिना और सांस्कृतिक पूंजी के बिना वहां पहुंचते हैं, जो चीजें "उच्च" जाति के बच्चों को मानो खैरात में मिलती हैं, इस कारण से उनके पक्ष में सकारात्मक भेदभाव करना नैतिक रूप से उचित है।
भारतीय प्राइवेट सेक्टर ने मंडल जैसे सभी आरक्षण का भारी विरोध किया है। परन्तु प्रभावशाली उद्योगपति यह संकेत देते हैं कि वे इसकी बजाय एए को अपना सकते हैं। उनका मानना है कि अमेरिका में ये प्रोग्राम कोटा को अनिवार्य नहीं करता है और पूरी तरह से स्वैच्छिक हैं। बजाज ऑटोस के चेयरमैन राहुल बजाज का यह बयान स्वाभाविक है: “लोगों को एए और आरक्षण को एक नहीं समझना चाहिए। जब लोग एए की बात करते हैं, जो आईबीएम जैसी संस्थाओं ने अपनाया है, वे इस बात को नहीं समझते की वहां पर एए अनिवार्य नहीं है। वह पूरी तरह से स्वैच्छिक है। उसका मतलब आरक्षण नहीं है।” एए पर थोड़ी पैनी नज़र डालने पर पता चलता है कि उसको देखने का यह नजरिया कितना गलत है।
प्राइवेट सेक्टर ने जिन कारणों से कोटा को अस्वीकार किया है, पहले उन कारणों की जांच कर लेते हैं। बड़े उद्योगों का मानना है की जाति के आधार पर दाखिला “दक्षता को खत्म” और "प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमज़ोर” कर देगा। उनका कहना है कि आज की "ज्ञान अर्थव्यवस्था" में जाति मानदंड "काम नहीं करते"। बहुतों ने तो यह भी तर्क दिया है कि जाति के आधार पर आरक्षण पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को स्वीकार्य नहीं होगा और वह अपना व्यवसाय दूसरे देशों में ले जाएंगे।
विडंबना यह है कि जिन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मकता और दक्षता की नकल करने के लिए भारतीय व्यवसाय इतने उत्सुक हैं, उन्होंने भरती में नस्लीय, जातीय और लैंगिक विविधता को इसलिए अपनाया है क्योंकि यह उद्योग वृद्धि के हित में है। अमेरिकी कंपनियों के सर्वेक्षण दर सर्वेक्षण से पता चला है कि 95 प्रति शत से अधिक सीईओ एए को स्वीकार करते हैं। वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उनके दिल में करुणा भाव या सामाजिक न्याय के लिए कोई दृढ़ समर्पण है। वे बस इसीलिए एए के समर्थन में हैं क्योंकि यह एक अच्छी व्यापार और जनसंपर्क नीति है।
अमेरिकी उद्योगों, विश्वविद्यालयों और कारखानों को यह समझ आ गया है की जाति और रंग की विविधता को बढ़ावा देने से विभिन्न नव दृष्टिकोण और सोचने की शैलियां सामने आती हैं, जो नवीनता और रचनात्मकता को भी बढ़ावा देती हैं। अब भले ही इसके बदले कुछ उच्च ग्रेड और मजबूत शैक्षणिक रिकॉर्ड वाले श्वेत पुरुष उम्मीदवारों को न चुना जाए। अमेरिकी कंपनियों ने अपने काम की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए “योग्यता” की परिभाषा का विस्तार करते हुए विविधता के लिए जगह बनाई है: वे न केवल स्कूलों और कॉलेजों में प्राप्त अंकों को देखते हैं, बल्कि पहल, दृढ़ता और मौलिकता के अन्य कम औपचारिक, कम मूर्त संकेतकों के लिए प्लस अंक देते हैं। "प्रतिस्पर्धात्मकता को कमजोर" और "कुशलता को खत्म करने" से कहीं दूर, दुनिया की सबसे प्रतिस्पर्धी कंपनियां सक्रिय रूप से अफ्रीकी-अमेरिकियों, हिस्पैनिक्स और महिलाओं को भरती करने के कारण अधिक प्रतिस्पर्धी हो गई हैं।
प्राइवेट सेक्टर द्वारा फैलाया दूसरा मिथक यह है की एए स्वैच्छिक है और इसमें कोटे की मांग नहीं है। भले ही इसने बड़े व्यवसाय का उत्साही अनुपालन जीता है, लेकिन अमेरिका में एए कभी भी स्वैच्छिक नहीं रहा है। और भले ही 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम और सितंबर 1965 में एए बनाने वाले कार्यकारी आदेश 11246 ने संख्यात्मक लक्ष्य निर्धारित नहीं किए, लेकिन प्रवर्तन एजेंसियां और निगम स्वयं नियमित रूप से संख्यात्मक लक्ष्यों - हां, कोटा - का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए करते हैं कि क्या वे कानून का अनुपालन कर रहे हैं।
पहले इस मिथक को परख लेते हैं की एए स्वैच्छिक है। नागरिक अधिकार अधिनियम और एए के प्रावधान को लागू करना कभी भी निजी क्षेत्र के अच्छे इरादों और दयालुता पर नहीं छोड़ा गया। शुरू से ही, इन दोनों कानूनों को सरकार की पूरी ताकत का समर्थन प्राप्त था। किसी भी उद्योग या विश्वविद्यालय को अगर सरकार से जुड़कर काम करना है या फिर कर-सहायता और सब्सिडी की मांग करनी है, तो यह जरूरी है कि वह नागरिक अधिकार अधिनियम के तहत अपनी सारी कार्य शैलियों का पुनर्निर्माण करें और अश्वेत लोगों को दाखिल करने के लिए भारी बदलाव करें। एए के अनुसार उद्योगों को कार्य की हर सीढ़ी पर शिक्षित और ट्रेन किए हुए अश्वेत लोगों को दाखिल करने के प्रयास दिखाने अनिवार्य हैं। इसमें मेनेजमेंट के पद भी शामिल हैं। संस्थाएं बस सतही प्रयास, जैसे अश्वेत लोगों का मजदूरी या सफाई कर्मचारी आदि के पदों पर दाखिला करके ऐसा नहीं कर सकतीं। उद्योगों के पास यह विकल्प या “स्वेच्छा” ज़रूर है कि वह ये सारे कदम न उठाएं, परंतु फिर सरकार भी अपनी “स्वेच्छा” से इनके साथ काम नहीं करेगी। सरकारी अनुबंधों और अनुदानों में लाखों डॉलर शामिल होने के कारण, कानून का अनुपालन करने के मामले में कोई अधिक स्वतंत्र विकल्प नहीं है। “स्वैच्छिकता” की सतही तस्वीर के पीछे सरकारी कोष की शक्ति हमेशा से रही है।
अमेरिकी सिस्टम में कोटा नीति का मुद्दा भी इतना सरल नहीं है जितना भारतीय उद्योग दर्शाना चाहते हैं। यह सत्य है कि नागरिक अधिकार अधिनियम के अध्याय-7 में किसी भी जाति, समूह या आदमी के प्रति पक्षपात प्रतिबंधित है। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य किसी भी अश्वेत व्यक्ति के खिलाफ खुले और जानबूझकर किए गए भेदभाव को ख़त्म करने का था। (गौर करने की बात है कि यह नियम तब लागू हुआ था जब अश्वेतों को बस में पीछे की ओर बैठना अनिवार्य था, गोरों के भोजनालयों में अश्वेतों को खाना नहीं परोसा जाता था और उनके स्कूल और विश्वविद्यालय भी अलग-अलग बंटे हुए थे। 1964 का नागरिक अधिकार अधिनियम सिविल राइट्स आंदोलन के जवाब में लागू किया गया था। यह वह आंदोलन था जो 28 अगस्त 1963 में वाशिंगटन के मार्च पर जाकर समाप्त हुआ, जहां मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने अपना प्रसिद्ध भाषण “आई हैव अ ड्रीम” दिया।)
लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि सिर्फ खुले भेदभाव से छुटकारा पाना ही अश्वेतों को अर्थव्यवस्था में उचित हिस्सेदारी दिलाने या नागरिक समाज में उनके साथ होने वाले दोयम दर्जे के व्यवहार को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। (भारत भी ऐसी ही दुर्दशा का सामना कर रहा है: जाति भेदभाव को संविधान में गैर क़ानूनी करने से समाज में जाति-आधारित भेदभाव खत्म नहीं हुआ) लिंडन जॉनसन ने "समानता को एक तथ्य और परिणाम के रूप में" चाहा, न कि केवल अच्छे इरादों के कानूनी बयान के रूप में। यह उनके कार्यकारी आदेश का आधार बना जिसने एए की नींव रखी। सतह पर, एए ने भी संख्यात्मक कोटा नहीं लागू किया। उसमें बस इतना बोला गया कि जो कंपनियां सरकार के साथ काम कर रही हैं, उन्हें अश्वेत अमेरिकी कर्मचारियों को ढूंढने का अधिक प्रयास करना होगा और उन्हें विकसित होने के मौके देने होंगे।
लेकिन वास्तविक परिणामों पर एए के जोर को सरकारी प्रवर्तन एजेंसी (ईईओसी, या समान रोजगार अवसर आयोग) और व्यवसायों एवं विश्वविद्यालयों द्वारा बहुत जल्द संख्या के आधार पर नियुक्ति की अनिवार्यता के रूप में समझा गया। कोई भी व्यवसाय जिसका कार्यबल समाज की नस्लीय संरचना के अनुपात में नहीं है, उसे मुकदमों के जोखिम का सामना करना पड़ता है, जिन्हें शुरू करने का अधिकार ईईओसी और श्रम विभाग के पास है। परिणामस्वरूप, स्पष्ट रूप से कोटा की मांग किए बिना भी नस्लीय कोटा हमेशा एए प्रवर्तन तंत्र का एक हिस्सा रहा है। कोटे के इस्तेमाल के बारे में सब को जानकारी भी है और इसका कोर्ट में कई दफा विरोध भी किया गया है। हर बार, अमेरिकी अदालतों ने स्पष्ट कोटा खारिज किया, लेकिन हर बार वे प्रवर्तन के लिए वस्तुनिष्ठ मानकों के रूप में पिछले दरवाजे से वापस आ गए।
गौर करने की बात यह है कि अमेरिकी प्राइवेट सेक्टर ने सरकारी आरक्षण के साथ बस जीना ही नहीं सीखा है, बल्कि उसका सकारात्मक इस्तेमाल करना भी सीख लिया है। दूसरी ओर, भारत का प्राइवेट सेक्टर उसके सारे प्रवर्तन तंत्र हटा कर एए को बस एक कागज़ी तरीके से अपनाना चाहता है। सरल शब्दों में कहें तो इन्हें बिना किसी सरकारी दखल के बस थोड़ा-मोड़ा मनचाहा दलित ‘उत्थान’ करना है। सोचने की बात है कि ये सारे उद्योगपति इतने सालों से किधर थे। जो करने का वे अब वादा कर रहे हैं, उन्हें वह सब ‘स्वैच्छिक’ रूप से करने से कौन रोक रहा था? इनका इस मामले में घटिया रिकॉर्ड देखकर नहीं लगता की ये एए को गंभीरता से अपनाने की इच्छा शक्ति रखते हैं।
दलित, ओबीसी और इनके साथी भी अमेरिकी नीति के प्रशंसक बन गए हैं। दो चीजें हैं जो सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करती हैं: एक, अमेरिका के कॉर्पोरेट बोर्डरूम, कार्यस्थलों और विश्वविद्यालयों में नस्लीय और जातीय विविधता के प्रति स्पष्ट रूप से वास्तविक और गहरी प्रतिबद्धता; और दो, केन्द्रीय और राज्य सरकारों द्वारा अल्पसंख्यक स्वामित्व वाले व्यवसायों के लिए अलग से रखे गए कान्ट्रैक्ट और टेन्डर। इन दोनों उपायों को अमेरिका में एक संपन्न अश्वेत मध्यम वर्ग के निर्माण में महत्वपूर्ण माना जाता है। यह आश्चर्य की बात बिलकुल नहीं है कि यह दोनों प्रावधान 2002 में पास किए गए दलित पूंजीवाद के संस्थापक चार्टर भोपाल डेक्लेरेशन के भाग हैं।
अश्वेत अमेरिकियों के अनुभव को करीब से देखा जाए तो एए की कुछ गंभीर कमियां सामने आती हैं।
यह सच है कि एए की वजह से अश्वेत लोगों ने कॉर्पोरेट दुनिया में काफी वृद्धि की है और मध्यम वर्ग में अश्वेतों की संख्या भी काफी बढ़ गयी है। जैसा कि दलित पूंजीवाद के अथक समर्थक चंद्रभान प्रसाद ने सावधानीपूर्वक दस्तावेज़ीकरण किया है, प्रमुख अमेरिकी कंपनियों ने वास्तव में ऐसे बोर्डरूम बनाए हैं जो अमेरिका की नस्लीय विविधता को दर्शाते हैं। प्रसाद उदाहरण के रूप में लॉकहीड मार्टिन की बात करते हैं, जो एक एयरोस्पेस विक्रेता और जानी-मानी डिफेन्स कांट्रेक्टर है। लॉकहीड मार्टिन में 124,000 लोग नौकरी करते हैं, जिनमें से 21 प्रति शत अल्पसंख्यक समुदाय के लोग हैं। और तो और उनकी कंपनी में अच्छी तादाद में अश्वेत अमेरिकी सीनियर लेवल सीईओ और बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर के सदस्य हैं। ऐसे कई अन्य अमेरिकी निगम हैं जिनके कार्यबल में समान स्तर की नस्लीय विविधता प्रदर्शित होती है।
हां, एए अश्वेतों के लिए “काम” आया है, पर सारे अश्वेतों के लिए नहीं। इन पक्षपात नीतियों के लागू होने के 50 साल बाद, अश्वेत दो अलग दलों में बट गए हैं। एक तरफ ‘अफ़्रीस्टोक्रेसी’ यानी अमीर अश्वेत हैं, और दूसरी तरफ बेहद गरीब ‘घेटोक्रेसी’ यानी ऐसे अश्वेत जो छोटी, न्यूनतम वेतन वाली नौकरियों में फंसे हैं। (ऐसे अश्वेत और गोरे जिनके पास कॉलेज शिक्षा नहीं थी, वे कारखानों, डाटा एंट्री या कॉल सेंटर की नौकरियां करके गुज़ारा करते थे, लेकिन अब इनमें से अधिकतम नौकरियां देश के बहार जा चुकी हैं।)
त्रासदी यह है की जैसे-जैसे अश्वेत ऐलीट मध्यम वर्ग की तरफ बढ़ते है, वे गरीब अश्वेतों की ओर उसी तरीके के पूर्वाग्रह रखना शुरू कर देते हैं जो गोरे रखते हैं: अधिकतम मध्यमवर्गीय गोरों की तरह वे भी गरीब अश्वेतों के रहन सहन को उनकी गरीबी का कारण ठहराते हैं। ‘अफ़्रीस्टोक्रेसी’ और ‘घेटोक्रेसी’ के बीच दूरियां इतनी बढ़ गई हैं की 2004 में, विख्यात अश्वेत हास्य-अभिनेता बिल कॉस्बी ने सिविल राइट्स के जश्न में दिए गए भाषण में खुले तौर पर गरीब अश्वेतों की फूहड़ता से बेइज़्ज़ती की थी, यह बताते हुए की गरीब अश्वेत अपनी गरीबी के लिए खुद ज़िम्मेदार हैं, और इस बात पर उनके अमीर अश्वेत दर्शकों ने ठहाके मारे थे। जिस अश्वेत समुदाय ने एक साथ गुलामी झेली और साथ में गुलामी के खिलाफ सिविल राइट्स की लड़ाइयां लड़ी, वह आज आर्थिक वर्गों में बंट गया है: आज एक गरीब अश्वेत अमेरिकी अपने अमीर भाई-बहनों से उतना ही कटा हुआ महसूस करता है जितना वह किसी मध्यम वर्ग के गोरे से हमेशा से करता आ रहा था।
त्रासदी यह भी है की गरीब अश्वेत अमेरिकी दूसरे गरीब अरबी, एशियाई या गोरों के साथ कभी भाईचारा नहीं बना पाए, क्योंकि अश्वेत क्रांति रंग के माध्यम से आगे बढ़ी है। हर समुदाय के गरीब अकेले पीड़ा झेल रहे हैं, जबकि हर समुदाय के अमीर एक दूसरे के साथ जुड़ रहे हैं—अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा हो रहा है—और यह सब बस अमेरिकी अति-पूंजीवादी जीवन की खोज में किया जा रहा है। नस्ल-आधारित विविधता वैश्विक पूंजीवाद के ऊपर समावेशिता का पर्दा चढ़ाने का एक वैचारिक उपकरण बन गई है। जबकि असल में वह दुनिया भर में कामकाजी लोगों द्वारा बनाई जा रही संपत्ति से कामकाजी लोगों के बड़े से बड़े हिस्से को बाहर रख रही है।
अधिकतम अश्वेत और गोरे बुद्धिजीवी यह मानते हैं की एए के कारण एक बड़ा और संपन्न अश्वेत मध्यम वर्ग बन पाया है। पर यह नहीं भूलना चाहिए की एए रंग को तो देखता है लेकिन आर्थिक वर्ग को नहीं। जब दलित पूंजीवाद के समर्थक नस्लीय विविधता को अपनाने के लिए अमेरिकी कंपनियों की सराहना करते हैं, तो वे भूल जाते हैं कि ये कंपनियां तथाकथित क्रीमी लेयर से विविधता कोटा भरने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र हैं: अमेरिकी व्यवसायों और विश्वविद्यालयों पर गरीब बस्तियों के स्कूलों में जाकर वहां के बच्चों के कौशल को बढ़ावा देने का कोई कानूनी दबाव नहीं है। और असल तौर पर इन बच्चों के हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं। (हां, कई निगम छात्रवृत्तियां देते हैं और कुछ सामान्य प्रकार के "उत्थान-समबंधित" स्वयंसेवी कार्यों को प्रोत्साहित भी करते हैं। भारतीय प्राइवेट सेक्टर इस तरह का बिना किसी कानूनी शर्त के किया गया स्वैच्छिक "उत्थान" ही करने के लिए तैयार दिखता है।) जब दलित पूंजीवाद के समर्थक अमेरिकी सरकार की उन नीतियों की वाह-वाही करते हैं जिनके तहत अल्पसंख्यक स्वामित्व वाले छोटे व्यवसायों की मदद की जाती है, तो वे यह भूल जाते हैं कि यह सारी स्कीमें उन व्यवसायों के पास ही पहुंचती हैं जिनकी गाड़ी पहले से ही बढ़िया चल रही है।
इसी तरह, जो लोग रचनात्मक, बाजार-उन्मुख सुधारों के लिए अमेरिका की ओर देखते हैं, उन्हें अमेरिकी पब्लिक स्कूलों में क्रूर असमानताओं पर भी ध्यान देना चाहिए, जो श्वेत और अश्वेत आधारों पर फिर से अलग हो रहे हैं। औद्योगिक दुनिया में अमेरिका की शिक्षा प्रणाली की गिनती सबसे असमान में होती है। एक तरफ गरीब बस्तियों के स्कूल हैं, जहां अधिकतर अश्वेत अमेरिकी पढ़ते हैं। यह सारे स्कूल आर्थिक, तकनीकी और अन्य ज़रूरी संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। और दूसरी तरफ चमकते धमकते 5 सितारा स्कूल हैं, जो हर छात्र पर 10 गुना पैसा लगा रहे हैं। यहां उच्च-मध्यम वर्ग के गोरे, अश्वेत, भारतीय, चीनी, पश्चिम एशिया के बच्चों को शिक्षा दी जा रही है। समाज में विविधता के विकास के बावजूद, कड़वी सच्चाई यह है कि अमेरिकी स्कूल वर्ग के आधार पर ज्यादा अलग होते जा रहे हैं, ना की कम। और यह वर्ग अभी भी काफी हद तक नस्ल के ऊपर ही आधारित हैं। इसका मतलब यह कि गरीब बच्चों को अमीर बच्चों के एवज खराब शिक्षा मिल रही है और आज भी गरीबों में अश्वेतों की संख्या कहीं ज्यादा भारी है।
जातिगत न्याय के लिए लड़ने वाले अमेरिकी अनुभव से क्या सबक ले सकते हैं?
एक चीज़ साफ़ है: भारतीय प्राइवेट सेक्टर ने अमेरिकी एए की सच्चाई को गलत तरीके से समझा और दर्शाया है। अमेरिकी सकारात्मक प्रयास के नाम पर, भारतीय उद्योग एक ऐसा दलित ‘उत्थान’ का तरीका बेचना चाहते हैं, जो किसी भी सरकारी हस्तक्षेप से परे है और जिसका कोई संख्यात्मक मोल नहीं किया जा सकता। यह बस दिखावे के लिए रखा जा रहा है।
आरक्षण के लिए किए जा रहे दलित-बहुजन आंदोलनों को अमेरिकी शैली की सकारात्मक कार्रवाई के लिए कितना जोर लगाना चाहिए? अगर दलित मध्यम वर्ग बनाने का उद्देश्य है तो अमेरिकी अनुभव से अच्छे सुझाव लिए जा सकते हैं। अमेरिका की तरह भारतीय सरकार भी उद्योगों के लिए यह शर्त रख सकती है कि अगर उन्हें सब्सिडी या सरकारी कॉन्ट्रैक्ट चाहिए तो उन्हें गरीब दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों को नौकरी देनी होगी। राष्ट्रीय और राजसिक सरकारें अमेरिकी अनुभव के पदचिन्ह पर चलकर ऐसी जातियों के उद्योगों को कॉन्ट्रैक्ट और डीलरशिप दे सकती है जिन्हें मदद की जरूरत है। अमेरिकी राष्ट्रीय और राजसिक सरकारों ने ऐसे कई रचनात्मक तरीके खोजे हैं जिनसे चुनिंदा नस्लीय अल्पसंख्यकों और औरतों तक मदद पहुंचाई जा सके। ऐसा कोई कारण नहीं है कि ऐसे तंत्र भारत में भी काम नहीं कर सकते।
पर अगर दलित-बहुजन क्रांति का उद्देश्य एक सामाजिक बदलाव लाना है, "जाति के उन्मूलन" के लिए परिस्थितियां बनाना है, जैसा कि बाबासाहब अम्बेडकर ने कल्पना की थी, तो एए काम नहीं करेगा। यह इसलिए काम नहीं करेगा क्योंकि इसमें अमेरिका में रंग और भारत में जाति के परे जा कर सभी के लिए न्याय का प्रावधान नहीं है। सैद्धांतिक रूप से, शिक्षा और आर्थिक अवसरों में सुधार की चिंता सभी गरीब और वंचित लोगों तक समान रूप से पहुंचनी चाहिए, भले ही वे दलित हों या सर्वोच्च ब्राह्मण हों। पर चूंकि हिन्दू समाज ने कभी सार्वभौमिक न्याय के इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया है, और वास्तविक व्यवहार में कई तरीकों से और कई शताब्दियों तक इसका खंडन किया है, इसलिए आने वाले कुछ समय के लिए जातिगत विकलांगता के लिए अधिमान्य उपचार को स्वीकार करना होगा। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट जस्टिस हैरी ब्लैकमुन के शब्दों में “नस्लवाद से आगे बढ़ने के लिए, पहले हमें नस्लवाद को समझना ज़रूरी है।” यह बयान भारत में जातिवाद के संदर्भ में उतनी ही लागू होता है।
पर हमें इस बात को पक्के तरीके से समझ लेना है की सकारात्मक प्रयास सारी बुराइयों के लिए रामबाण नहीं है। बल्कि यह एक कड़वी दवाई है जो भारतीय समाज को लेनी होगी जिससे दलितों और दूसरी उत्पीड़ित जातियों को उनकी दुखद परिस्थिति से बाहर निकाला जा सके। इसके बिना, दलितों और ओबीसीओं की आने वाली कई पीढ़ियों को भी देश की पूंजी में उनका वैध अधिकार नहीं मिल पाएगा।