दलितों का असली प्रतिनिधि बनने की लड़ाई में गांधी ने अम्बेडकर को खलनायक कैसे बनाया

जब गांधी से अपनी बात नहीं मनवाई गई, तो उन्होंने जेल से अनशन शुरू कर दिया। यह उनके अपने सत्याग्रह के सिद्धांतों के बिल्कुल खिलाफ था – यह तो सीधा ब्लैकमेल था।

दलितों का असली प्रतिनिधि बनने की लड़ाई में गांधी ने अम्बेडकर को खलनायक कैसे बनाया

 

स्रोत: The Print
अनुवादक: अक्षत जैन 

(यह अरुंधति रॉय की 'द डॉक्टर एंड द सेंट' से लिया गया एक अंश है।)

लंदन में गोलमेज सम्मेलन के दौरान, गांधी और अंबेडकर आमने-सामने आ गए, दोनों यह दावा कर रहे थे कि वे ही अछूतों के असली प्रतिनिधि हैं।

सम्मेलन कई हफ्तों तक चला। अंततः गांधी ने मुसलमानों और सिखों के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों पर सहमति जता दी, लेकिन अंबेडकर की अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग को नहीं माना। उन्होंने अपने परिचित बयान का सहारा लिया: “मैं हिंदू धर्म को मरते देखना ज्यादा पसंद करूंगा, बजाय इसके कि छुआछूत जीवित रहे।”

गांधी ने अंबेडकर के अछूतों का प्रतिनिधित्व करने के अधिकार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। अंबेडकर भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे, और उनके लिए ऐसा करने की कोई मांग भी नहीं थी। पूरे भारत से अछूत समुदायों ने, जिसमें आद धर्म आंदोलन के मंगू राम भी शामिल थे, अंबेडकर के समर्थन में तार भेजे।

आखिरकार, गांधी ने कहा, “जो लोग अछूतों के राजनीतिक अधिकारों की बात करते हैं, वे भारत को नहीं जानते, वे यह नहीं जानते कि आज भारतीय समाज कैसे बना हुआ है, और इसलिए मैं पूरी ताकत के साथ कहना चाहता हूं कि अगर मुझे अकेले भी इसका विरोध करना पड़े, तो मैं अपनी जान से इसका विरोध करूंगा।”

अपनी धमकी देने के बाद, गांधी भारत वापस लौटने के लिए नाव पर सवार हो गए। रास्ते में, वे रोम में मुसोलिनी से मिले और उनसे बेहद प्रभावित हुए, खासकर उनके “गरीबों की देखभाल, शहरीकरण के खिलाफ उनके विरोध, और पूंजी व श्रम के बीच तालमेल लाने के उनके प्रयासों” से।

एक साल बाद, राम्से मैकडोनाल्ड ने साम्प्रदायिक प्रश्न पर ब्रिटिश सरकार का फैसला घोषित किया। इसमें अछूतों को बीस साल के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान दिया गया। उस समय, गांधी पुणे के यरवदा सेंट्रल जेल में सज़ा काट रहे थे। जेल से उन्होंने घोषणा की कि जब तक अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान वापस नहीं लिया जाता, वे अनशन करेंगे और अपनी जान दे देंगे।

उन्होंने एक महीने तक इंतजार किया। जब उनकी बात नहीं मानी गई, तो गांधी ने जेल से अनशन शुरू कर दिया। यह अनशन पूरी तरह उनके स्वयं के सत्याग्रह के सिद्धांतों के विपरीत था। यह खुला ब्लैकमेल था, एक तरह का जनता के सामने आत्महत्या करने का मनोवैज्ञानिक दबाव था। ब्रिटिश सरकार ने कहा कि यह प्रावधान तभी वापस लिया जाएगा जब अछूत समुदाय इसे स्वीकार कर ले। देश में हंगामा मच गया। सार्वजनिक बयानों, हस्ताक्षरित याचिकाओं, प्रार्थनाओं, सभाओं और अपीलों की बाढ़ आ गई।

यह पूरी स्थिति अत्यंत बेहूदा थी: सवर्ण हिंदू, जो हर संभव तरीके से अछूतों से खुद को अलग रखते थे, जो उन्हें मानव संपर्क के लायक नहीं समझते थे, जो उनके छूने तक से बचते थे, जो अलग खाना, पानी, स्कूल, सड़कें, मंदिर और कुएं चाहते थे, अब कह रहे थे कि अगर अछूतों को अलग निर्वाचन क्षेत्र मिला, तो भारत बिखर जाएगा। और गांधी, जो इस विभाजनकारी व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे, अपने जीवन को संकट में डालकर अछूतों को अलग निर्वाचन क्षेत्र से वंचित करने के लिए भूख हड़ताल कर रहे थे।

सार यही था कि जाति-प्रधान हिंदू अछूतों के प्रति दरवाजे बंद करने की शक्ति अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन किसी भी स्थिति में अछूतों को खुद पर दरवाजे बंद करने की शक्ति नहीं दी जा सकती थी। प्रभुत्व रखने वाले जानते थे कि चुनाव करने की क्षमता ही असली ताकत होती है।

जैसे-जैसे यह उन्माद बढ़ता गया, अम्बेडकर को खलनायक, गद्दार और भारत को तोड़ने की कोशिश करने वाला व्यक्ति बना दिया गया वह व्यक्ति जिसने गांधी को मारने का प्रयास कर रहा था। गरम दल और नरम दल के राजनीतिक दिग्गज, जैसे टैगोर, नेहरू और सी. राजगोपालाचारी, गांधी के पक्ष में खड़े हो गए। गांधी को शांत करने के लिए, सवर्ण हिंदुओं ने सड़कों पर अछूतों के साथ भोजन साझा करने का दिखावा किया और कई हिंदू मंदिर उनके लिए अस्थायी रूप से खोले गए। लेकिन इन समझौतावादी संकेतों के पीछे तनाव की दीवार भी खड़ी हो रही थी। कई अछूत नेताओं को डर था कि अगर गांधी की भूख हड़ताल के कारण उनकी मृत्यु हो गई, तो इसके लिए अम्बेडकर को दोषी ठहराया जाएगा, जिससे आम अछूतों की जान भी खतरे में पड़ सकती है। घटनाओं के चश्मदीद गवाहों के अनुसार मद्रास के अछूत नेता एम.सी. राजा ने कहा:

हजारों वर्षों से हमें अछूत, पीड़ित, अपमानित और तिरस्कृत किया गया है। महात्मा हमारे लिए अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं, और अगर उनकी मृत्यु हो गई, तो हम अगले हजार वर्षों तक वहीं रहेंगे जहां हम पहले थे, शायद उससे भी बदतर स्थिति में। पूरे हिंदू समुदाय और सभ्य समाज में हमारे प्रति इतनी नफरत होगी कि हमने महात्मा की जान ली, कि वे हमें और नीचे धकेल देंगे। मैं अब और आपके साथ खड़ा नहीं रहूंगा। मैं सम्मेलन में शामिल होकर कोई समाधान ढूंढूंगा और आपसे अलग हो जाऊंगा।

अम्बेडकर क्या कर सकते थे? उन्होंने तर्क और बुद्धि का सहारा लेने की कोशिश की, जैसा वे हमेशा करते थे, लेकिन यह स्थिति उन साधनों से परे थी। उनके पास कोई मौका नहीं था। गांधी की भूख हड़ताल के चार दिन बाद, 24 सितंबर 1932 को, अम्बेडकर ने येरवदा जेल में गांधी से मुलाकात की और पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए। अगले दिन बॉम्बे में, उन्होंने एक सार्वजनिक भाषण में गांधी के बारे में असामान्य रूप से उदार बातें कहीं: "मैं हैरान था कि राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में जिनकी मेरे विचारों से बिल्कुल भिन्न राय थी, वही व्यक्ति तुरंत मेरी मदद के लिए आगे आए, न कि दूसरी तरफ के बचाव में।" हालांकि, बाद में, जब उन्होंने इस सदमे से उबर लिया, तो अम्बेडकर ने लिखा:

“इस उपवास में कुछ भी महान नहीं था। यह एक गंदा और घिनौना कृत्य था... यह एक लाचार समुदाय के खिलाफ सबसे खराब प्रकार का दबाव था, जिससे उन्हें प्रधानमंत्री के अवार्ड के तहत मिले संवैधानिक अधिकार छोड़ने पड़े और हिंदुओं की दया पर जीने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह एक नीच और अमानवीय कृत्य था। अछूत ऐसे व्यक्ति को ईमानदार और सच्चा कैसे मान सकते हैं?

पैक्ट के अनुसार, अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बजाय अछूतों को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षित सीटें मिलेंगी। प्रांतीय विधानसभाओं में उनके लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाई गई (अठहत्तर से 148), लेकिन उम्मीदवारों को अब सवर्णों के प्रभुत्व वाले निर्वाचन क्षेत्रों के लिए स्वीकार्य होना जरूरी था, जिससे उनकी ताकत कमजोर पड़ गई। 'अंकल टॉम' ने जीत हासिल की। गांधी ने यह सुनिश्चित किया कि नेतृत्व सवर्णों के हाथों में ही रहे।

 

 

अरुंधती रॉय
अरुंधती रॉय

अरुंधति रॉय (1961 - ) लेखिका और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जो पुरस्कार विजेता उपन्यास 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' (1997) और पर्यावरण एवं मानवाधिकारों के मुद्दों में उनकी भागीदारी के लिए जानी जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कई कानूनी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। अरुंधति रॉय (1961 - ) लेखिका और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जो पुरस्कार विजेता उपन्यास 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' (1997) और पर्यावरण एवं मानवाधिकारों के मुद्दों में उनकी भागीदारी के लिए जानी जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कई कानूनी समस्याओं का सामना करना पड़ा है।