उन्होंने हमें ज़मीन दी

हिंदुस्तान में हम अच्छे से वाकिफ हैं कि कैसे किसानों से अच्छी ज़मीनें हड़प कर सरकार उन्हें मुआवजे के नाम पर बंजर ज़मीनें दे देती है| ऐसी ही घटनाएँ दुनिया के अन्य देशों में भी होती आई हैं| इस कहानी में ऐसे घटनाक्रम के बारे में मेक्सिको के किसानों के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है|

उन्होंने हमें ज़मीन दी
उन्होंने हमें ज़मीन दी

पटचित्र: रवि कावड़े

स्पैनिश से अनुवाद अंग्रेजी में: लान स्टीवन्स और हैरल्ड औगेनब्रोम
अंग्रेजी से अनुवाद हिन्दी में: अक्षत जैन और अंशुल राय 
स्त्रोत: The short story project
औडियो: अमीत कुमार

जब आप घंटों ऐसी बंजर ज़मीन पर चल चुके हों जहां ना पेड़ की छाया हो, ना ही पेड़ का बीज, और ना ही किसी पेड़ की जड़ें, तब आपको कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनाई देगी। 

इस अथाह सड़क पर चलते हुए आपको कभी-कभार ऐसा प्रतीत होगा कि इसके आगे कुछ नहीं है; कि आपको दूसरी ओर, इन दरारों और सूखी हुई धाराओं से कटे हुए मैदान के अंत में, कुछ भी नहीं मिलेगा। मगर हाँ, वहाँ कुछ है। वहाँ एक गाँव है। आप कुत्तों का भौंकना सुन सकते हैं, हवा में फैले धुएं को महसूस कर सकते हैं एवं इंसानों की गंध से तर हो सकते हैं, मानो वह आशा की कोई किरण हो। मगर गाँव अभी बहुत दूर है। ये तो बस हवा है जो उसे समीप ला रही है।

हम लोग भोर से पैदल चल रहे हैं। अभी अपराह्न के लगभग चार बजे हैं। कोई अपनी आँखों को आसमान में टंगे हुए सूरज की ओर ले जाकर बोलता है: 

‘लगभग चार बजे हैं।’ 

ये कहने वाला मेलितों है। उसके साथ हैं फ़ाउसतीनो, एस्तेबान और मैं। हम चार हैं। मैं गिनती करता हूँ—दो आगे, दो पीछे। मैं थोड़ा और भी पीछे देखता हूँ, मगर कोई दिखाई नहीं पड़ता। फिर मैं अपने आप से कहता हूँ: ‘हम चार हैं।’ कुछ देर पहले, ग्यारह बजे के आस-पास, बीस से ज़्यादा लोग थे, मगर धीरे-धीरे वे छितराते गए और अब बस हमारी ये छोटी सी टोली ही बची है।

फ़ाउसतीनो कहता है:

‘बारिश हो सकती है।’ 

हम अपने चेहरे उठाकर एक काले घने बादल को ऊपर गुज़रते हुए देखते हैं| हमें लगता है: ‘शायद बारिश के आसार बन भी जाएँ।’ 

किस बेहुदे ने इस मैदान को इतना बड़ा बनाया होगा?
यह किस काम के लायक है?
 

पर हम अपने मन की बात ज़बान पर नहीं लाते। हमने कुछ देर पहले ही गर्मी के चलते अपनी बोलने की इच्छा खो दी। बातचीत का जो लुत्फ आप अन्य जगहों पर उठा पाते हैं, वह यहाँ दूभर है। अगर आप यहाँ बात करेंगे तो बाहर की गर्मी आपके शब्दों को मुंह में ही तपा देगी और सांस उखड़ने तक सभी शब्द एक-एक कर आपकी जीभ पर सूखते चले जाएंगे।

यहाँ हालात ऐसे ही हैं। इसलिए कोई बात नहीं करना चाहता। 

तभी पानी की एक बड़ी एवं मोटी बूंद टपकती है और ज़मीन पर छेद बनाते हुए एक गूमड़ा पाड़ देती है, जैसे कि थूकने पर बनता है। वह एक अकेली बूंद ही नीचे टपकती है। हम और बूंदों के गिरने का इंतज़ार करते हैं, लेकिन बारिश नहीं होती। अब आकाश की ओर देखने पर हम उस तूफानी बादल को आसमान में सरपट तेजी से दूर भागता हुआ पाते हैं। गाँव की हवा उसे पहाड़ों की नीली परछाइयों की ओर धकेल रही है। और जो बूंद गलती से गिर भी गई थी, उसे धरती ने तुरंत अपने अंदर समाहित कर लिया है, जैसे कि वह अपनी प्यास बुझाने के लिए सदियों से बेचैन हो। 

किस बेहुदे ने इस मैदान को इतना बड़ा बनाया होगा? यह किस काम के लायक है?   

हम फिर चलने लगे हैं। हम लोग बस बारिश को देखने के लिए रुके थे। बारिश हुई नहीं। अब हमने वापस चलना शुरू कर दिया है। और मुझे ख्याल आता है कि हम जितनी देर चलें हैं, उतनी दूर पहुँचे नहीं हैं। अगर बारिश हुई होती, तो शायद कुछ और बातें मेरे ज़ेहन में आती। सौ की एक बात, मैं ये जानता हूँ कि बचपन से लेकर आज तक मैंने इस मैदान पर कभी बारिश या उसके जैसी किसी चीज को गिरते नहीं देखा है। 

नहीं, इस मैदान का कुछ नहीं किया जा सकता। यहाँ ना तो खरगोश दिखाई पड़ते हैं और ना ही कोई पंछी। यहाँ कुछ नहीं है। यहाँ ले-देकर बस थोड़े बहुत बबूल के वृक्ष और कुम्हलाई हुई ज़काटे घास के अलावा कुछ नहीं है। 

और यहाँ हम चल रहे हैं। हम चार, पैदल। पहले हम घोड़ों पर सवार थे और हमारे पास राइफल थी। अब हमारे पास राइफल भी नहीं बची है। 

मुझे शुरुआत से लगा है कि हमारे हाथ से राइफल छिन जाना अच्छा ही था। यहाँ पर हथियारबंद होना खतरे से खाली नहीं है। अगर उन्होंने आपको ‘द थर्टी’ के साथ देख लिया तो आप मौके पर ही बिना किसी चेतावनी के मारे जा सकते हैं। मगर घोड़ों का साथ होना अलग कहानी है। अगर हम घोड़ों पर आये होते तो अभी तक नदी का हरा पानी पी रहे होते और खाना पचाने के लिए सड़कों पर अपने पेट की प्रदर्शनी लगाये फिर रहे होते। हम ये सब कुछ बहुत पहले ही कर चुके होते, अगर अभी हमारे पास वे घोड़े होते जो कि शुरुआत में थे। लेकिन उन्होंने हमारी राइफल के साथ हमारे घोड़े भी ले लिए। 

मैं चारों ओर मुड़ता हूँ, और मैदान पर अपनी नजरें दौड़ाता हूँ। इतनी विशालकाय ज़मीन और रत्ती-भर भी काम की नहीं! यहाँ आँखें चारों ओर चक्कर काटती हैं, लेकिन उन्हें कहीं कुछ ऐसा दिखाई नहीं पड़ता जो उन्हें रोक कर रख सके। सिर्फ कुछ छिपकलियाँ ही बिलों से अपना सिर बाहर उघाड़ती हैं, और जलते हुए सूरज की तपन महसूस करने के बाद तुरंत ही छोटी चट्टानों की परछाई तले दुबक जाती हैं। मगर हम, जब हमें यहाँ पर काम करना पड़ेगा, तो हम सूरज की मार से बचने के लिए कहाँ जाएंगे? क्योंकि हमें तो ये ज़मीन के टुकड़े फसल उगाने के लिए दिए गए हैं।  

ये लिखित में दे दो।
और चलते बनो।

उन्होंने हम से कहा था:

‘गाँव से लेकर यहाँ तक, सब तुम्हारा है।’ 

हमने पूछा: 

‘ये मैदान?’   

‘हाँ, ये मैदान, ये पूरा विशालकाय मैदान।’ 

हम स्तब्ध थे, जैसे कहना चाह रहे हों कि हमें मैदान नहीं चाहिए। हमें तो नदी के बगल वाली ज़मीन चाहिए थी। नदी से लेकर धाराओं तक का वह क्षेत्र जहां आपको सरू एवं परानेरस के पेड़ मिलते हैं और जहां अच्छी ज़मीन है। यह गाय की चमड़ी नहीं, जिसको मैदान बोला जाता है। 

मगर हमें इन सब बातों को रखने की इजाज़त नहीं थी। सरकारी दलाल हमसे बात करने नहीं आया था। उसने हमारे हाथ में कागज़ थमाये और कहने लगा:

‘अपने पास इतनी सारी ज़मीन होने से घबराना मत।’ 

‘मगर बात ऐसी है साहब जी कि ये मैदान . . .’

‘यहाँ पर हज़ारों प्लाट हैं।’ 

‘मगर पानी बिल्कुल भी नहीं है। मुट्ठीभर भी नहीं।’ 

‘और वर्षा ऋतु का क्या? किसी ने ऐसा तो नहीं कहा था कि तुम्हें सिंचित ज़मीन दी जाएगी। जैसे ही यहाँ पर बारिश होगी, मकई अपने आप धरती से फूटने लगेगी।’

‘मगर साहब, ज़मीन सूखी और सख्त है। हमें नहीं लगता कि हल से इस चूना पत्थर की खदान को खोदा जा सकेगा। बीज बोने के लिए हमें कुदाली से गड्ढे खोदने पड़ेंगे, और तब भी शर्तिया तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि यहाँ कुछ उगेगा; यहाँ पर मक्का तो क्या, कुछ और भी नहीं उगेगा।’ 

‘ये लिखित में दे दो। और चलते बनो। तुम्हें जमींदारों के ऊपर चढ़ाई करनी चाहिए, ना कि सरकार पर जो तुम्हें ज़मीन दे रही है।’ 

‘रुकिए, साहब| हमने केन्द्रीय सरकार के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा। हम तो बस मैदान के बारे में बोल रहे हैं . . .  जिस चीज़ का कुछ नहीं किया जा सकता, उसका कुछ नहीं किया जा सकता। हम तो बस यही कह रहे हैं . . .  कृपया रुकिए, जिससे हम आपको समझा सकें। देखिए, शुरुआत से शुरू करते हैं . . .’ 

मगर वह सुनना नहीं चाहता था।

और इस तरह उन्होंने हम पर ये ज़मीन थोप दी। और वे चाहते हैं कि हम इस मिट्टी के तवे पर किसी चीज़ के बीज बोएँ, यह देखने के लिए कि इस पर कुछ उगता है कि नहीं। लेकिन यहाँ कुछ नहीं उगेगा। यहाँ से तो गिद्ध भी अपना पीछा छुड़ाता है। आपको वे हर थोड़ी देर में यहां दिख जाएंगे, बहुत ऊपर, तेज़ी से उड़ते हुए; जल्दी से जल्दी इस सफेद कठोर मिट्टी से दूर जाते हुए, जहाँ कुछ भी नहीं हिलता और आप ऐसे चलते हैं मानो सबसे पीछे छूटते जा रहे हों। 

मेलितों कहता है: 

‘ये ही वह ज़मीन है जो उन्होंने हमें दी है।’ 

फ़ाउसतीनो कहता है: 

‘क्या?’ 

मैं कुछ नहीं कहता। मैं सोचता हूँ: ‘मेलितों सटक गया है। शायद वह गर्मी के चलते यह सब बक रहा है। गर्मी उसकी टोपी के अंदर घुसकर उसकी खोपड़ी को गरम कर चुकी है। और अगर ऐसा नहीं है, तो वह ये सब अंट-शंट बातें क्यों कर रहा है? उन्होंने हमें ऐसी कौन-सी ज़मीन दी है मेलितों? यहाँ तो इतनी मिट्टी भी नहीं है कि हवा से धूल तक उड़ सके।‘

मेलितों फिर वही राग अलापता है: 

‘ये ज़मीन किसी चीज़ में तो कारगर होगी ही! शायद ये घोड़े दौड़ाने के काम आए।’ 

‘कौन से घोड़े?’ एस्तेबान पूछता है| 

मैंने एस्तेबान की तरफ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। अब जबकि वह बात कर रहा है, तो मैं उसकी तरफ देखता हूँ। उसने एक जैकिट पहनी हुई है जो उसकी नाभि तक पहुंचती है, और उसकी जैकिट से कोई मुर्गी जैसी चीज़ बाहर झाँकते हुए नज़र आ रही है। 

हाँ, वह एक लाल मुर्गी है, जिसे एस्तेबान अपनी जैकिट के अंदर दबाए हुए है। आप उसकी सुस्ताई आँखें और खुली हुई चोंच को देख सकते हैं, जैसे कि वह उबासी ले रही हो। 

मैं उससे पूछता हूँ:

‘अरे, तेबान, तुमने यह मुर्गी कहाँ से उठाई?’ 

‘ये मेरी है।’ वह कहता है। 

‘ये तुम्हारे पास पहले तो नहीं थी। कहाँ से खरीदी?’ 

‘मैंने ये खरीदी नहीं, ये मेरे बाड़े की ही मुर्गी है।’

‘तो तुम इसे हमारे खाने के लिए लाए हो, है ना?’ 

‘नहीं, मैं इसको अपने साथ लाया हूँ ताकि इसकी देखभाल कर सकूँ। मेरा घर एकदम सूना था और इसे खिलाने वाला कोई नहीं था; इसलिए मैं इसे साथ ले आया। मैं जब भी कहीं दूर जाता हूँ तो हमेशा इसे साथ ले जाता हूँ।’ 

‘वह ऐसे अंदर सिकुड़ी हुई घुटकर मर जाएगी। बेहतर होगा उसे बाहर निकालकर थोड़ी खुली हवा में सांस लेने दो।’ 

वह उसे अपने बगल में दबाकर उसके ऊपर गर्म हवा फूंकने लगता है और फिर कहता है:

‘हम कगार तक पहुँचने वाले हैं।’ 

मुझे अब एस्तेबान का कहा कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है। चट्टान से नीचे उतरने के लिए हम ने एक कतार बना ली है, जिस में एस्तेबान सबसे आगे है। मैं देखता हूँ कि उसने मुर्गी को उसके पैरों से पकड़ रखा है और वह उसे हर थोड़ी देर में इधर से उधर झुलाता है, जिससे कि उसका सिर पत्थरों से ना टकराए। 

उन्होंने हमें जो ज़मीन दी है,
वह हमारे पीछे है, चट्टान के ऊपर।

जैसे-जैसे हम नीचे उतरते हैं, ज़मीन ठीक होती जाती है। धूल ऐसे उठने लगती है, मानो खच्चरों की टोली यहाँ से उतर रही हो। लेकिन हमें धूल में लिपटना पसंद है। सूखे मैदान पर ग्यारह घंटे घिसटने के बाद धरती के स्वाद वाली इस धूल में लिपटने में हमें बहुत आनंद आता है। 

नदी के पास, सरू पेड़ की हरी पत्तियों के ऊपर, हरी चाचालका चिड़ियों के झुंड उड़ते नज़र आते हैं। हमें यह भी खासा भाता है। 

अब आप निकटता से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुन सकते हैं, और ऐसा इसलिए क्योंकि गाँव की हवा चकराते हुए तंग घाटी में प्रवेश करती है एवं उसको गाँव की आवाज़ों से भर देती है। जैसे ही हम शुरुआती घरों तक पहुँचने लगते हैं, एस्तेबान फिर अपनी मुर्गी को गले लगा लेता है। वह उसके पैर खोल देता है, जिससे वह उन्हें हिलाकर अपनी अकड़न दूर कर सके। फिर वह और उसकी मुर्गी चंद मेसकाइट वृक्षों के पीछे ओझल हो जाते हैं। 

एस्तेबान हमसे कहता है, ‘अपना साथ बस यहीं तक!’

हम आगे बढ़ते जाते हैं, गाँव के और भीतर। 

उन्होंने हमें जो ज़मीन दी है, वह हमारे पीछे है, चट्टान के ऊपर।   

 

(इस कहानी को एडिट करने में कुमार उन्नायन ने मदद की है)

हुआन रूलफ़ो
हुआन रूलफ़ो

हुआन रूलफ़ो (1917–1986) मेक्सिको के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक हैं| उन्होंने अपनी कहानियों में ग्रामीण मेक्सिको को इस तरह दर्शाया है कि वहाँ के लोगों को दुनिया में कहीं भी समझा जा सके| रूलफ़ो ने लिखना किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में नहीं सीखा, बल्कि खुद ही किताबें पढ़ के और अपने आसपास कि दुनिया... हुआन रूलफ़ो (1917–1986) मेक्सिको के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक हैं| उन्होंने अपनी कहानियों में ग्रामीण मेक्सिको को इस तरह दर्शाया है कि वहाँ के लोगों को दुनिया में कहीं भी समझा जा सके| रूलफ़ो ने लिखना किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में नहीं सीखा, बल्कि खुद ही किताबें पढ़ के और अपने आसपास कि दुनिया में दिलचस्पी ले के सीखा| उनका लिखने का स्टाइल इतना नायाब था कि वह बाकी लेखकों और समीक्षकों को पसंद आने के साथ-साथ आम जनता को भी खूब लुभाया| वह पहले उन लेखकों में से थे जो अपनी लिखाई में प्रचलित भाषा का इस्तेमाल इस तरह कर पाए कि उसको समझने के लिए शब्दकोश का इस्तेमाल न करना पड़े| उनको कई लोग तो लैटिन अमेरिका से निकले 'मैजिक रियलिस्म' या 'जादुई यथार्थवाद' साहित्यिक शैली का जन्मदाता भी मानते हैं| जॉर्ज लुइस बोर्गेस और गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ जैसे महान लैटिन अमरीकी लेखकों ने रूलफ़ो की खूब प्रशंसा की है और उनको अपना प्रेरणास्त्रोत भी बताया है| रूलफ़ो के दो काम प्रमुख हैं—एक लघु कहानियों का संग्रह जिसका नाम है ‘द बर्निंग प्लेन एण्ड अदर स्टोरीज़’ और एक उपन्यास जिसका नाम है ‘पेड्रो परामो’|