एक पाकिस्तानी सिपाही की डायरी

इंसान इतिहास से ज्यादा उसकी गाथा में रूची रखता है। उसका इंसानियत से ज्यादा शैतान में भरोसा होता है। उसे शांति से ज्यादा विध्वंस पसंद है। इतिहास भी युद्धों को याद रखता है, उनमें शहीद होने वाले को नहीं। विजेता सेनापतियों को तमगे मिलते हैं और उन्हें विजेता बनाने वाले सैनिक खाक में मिल जाते हैं। युद्धों की यही हकीकत है। 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच हुई युद्ध की गाथा सुनाती एक पाकिस्तानी सिपाही की यह डायरीनुमा रचना एक ऐसे सैनिक की कहानी है, जो घर की मजबूरियों के चलते सेना में शामिल होता है और युद्ध में अपने मासूम और निर्दोष भांजे को हमेशा के लिए खो देता है।

एक पाकिस्तानी सिपाही की डायरी

पटचित्र: Bangla Gallery

अनुवाद: शहादत खान
स्त्रोत: Laaltain.pk  

सिपाही तनवीर हुसैन की डायरी

3 दिसंबर 1971—ऐलान-ए-जंग

आज दिन की शुरुआत ही बहुत हंगामे से हुई। फ़ार्मेशनों को बाक़ायदा जंग के ऑर्डर मिल गए। सुबह की फ़ालनी (विकृत अंग्रेजी शब्द “फॉल इन”। यानी इकट्ठा करना।) के बाद ल्फ़ा, चार्ली, डेल्टा और हेडक्वार्टर कंपनी को हिन्दुस्तानी बॉर्डर की तरफ़ मूव करने का हुक्म मिला। हम यहां कैप्टन दुर्रानी साहब की कमान में बारहवीं कंपनी के साथ रहेंगे और रहीमपुर गांव होल्ड करने का हुक्म है। मैंने अज्जू टिंट साहब से गुज़ारिश की कि पुन्नो को यहीं रहने दें। मुझे घर वालों ने सख़्त ताकीद (हिदायत) कर रखी है कि उसे अपने साथ रखो और उसका ख़्याल रखो, क्योंकि वह इस कमउम्री में मेरे साथ रहने के शौक़ में ही फ़ौज में भर्ती हुआ है।

जाने वाली पलटूनें बहुत ख़ुश थीं कि अब उन्हें बॉर्डर पर दुश्मन से खुलकर लड़ने का मौक़ा मिलेगा। सच तो यह है कि हम भी आस-पास के देहातों में मुक्ती वाहिनी से बेढंगी लड़ाइयां लड़-लड़कर ऊब गए हैं। उस्ताद नौबहार ख़ान बहुत ख़ुश थे, जाते हुए मुझसे कहने लगे,

“रटानी बाबू, तुम मुक्ती वाहिनी से लड़ो, हम तो शास्त्री को जंग का मज़ा चखाएगा।”

हवलदार साहब अब भी शास्त्री को दुश्मन मुल्क का वज़ीर-ए-आज़म समझते हैं। रात को राशन गार्ड की डयूटी थी। सीएचएम साहब बता रहे थे कि राशन की बहुत कमी है, ख़ास ख़्याल रखा जाए। वह बता रहे थे आज शाम को हमारी एयरफ़ोर्स ने दुश्मन पर तबाहकुन हमले किए हैं और दुश्मन की कमर तोड़कर रख दी है। अब जब बंगाली हमारे साथ रहना भी नहीं चाहते और दुश्मन के हाथ में हाथ डालकर हमारे ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं तो इस जंग के बाद ये लोग किस मुंह से हमारे साथ रहेंगे? ख़ैर, यह जरनलों और लीडरों के सोचने की बातें हैं।

रात गए तक डयूटी पर खड़ा रहा। सफ़र में ख़्याल आया कि अब तक घर से कोई अच्छी ख़बर आ जानी चाहिए थी। आख़िरी ख़त सितंबर के अंत में या अक्तूबर में मिला था, जिसमें रिहाना ने लिखा था,

“तीन माह बाद तुम्हारी यह शिकायत भी ख़त्म हो जाएगी कि हमारा बेटा आंगन में अकेला क्यों खेलता है?”

मेरी ख़ाहिश है कि अबकी बार अल्लाह हमें बेटी दे। मेरी ख़ाहिश है कि मैं बेटी का नाम सलमा रखूं। मरहूमा बहन की रूह को इससे बहुत सुकून मिलेगा।

हल्की-हल्की बारिश हुई तो इधर-उधर के मेंढ़कों ने आसमान सिर पर उठा लिया। बांसों के जंगल तो रात को बहुत भयानक लगते हैं। बंगाली लोग उन्हें मूली-बांस भी कहते हैं।

4 दिसंबर 1971गिरफ्तारियां

सुबह देर से जागा। वर्किंग लगी थी लेकिन कैप्टन दुर्रानी साहब ने बुलवा लिया। उन्होंने कहा कि मैं उनके साथ रनर डयूटी करूं। वह मुझ पर बहुत मेहरबान हैं और शायद मेरी पढ़ाई की वजह से मुझ पर ख़ास नज़र रखते हैं।

आज सुबह हेडक्वार्टर कंपनी भी मूव कर गई और सीओ साहब भी आगे चले गए। दोपहर को अलबदर के रज़ाकार आए थे, उन्होंने बताया कि घनश्याम घाट वाले रास्ते पर मुक्ती वाहिनी की रेकी हुई है। हमारी दो पलटूनें तैयार हुईं और दिन के बारह बजे हमने घनश्याम घाट वाले रास्ते पर रेड किया। यहां से सात बाग़ी गिरफ़्तार हुए। सारी रात यहां कैंप में हलचल मची रही। इन बंगालियों को नारियल के दरख़्तों से बांध दिया गया और रात-भर ड्यूटी संतरी चौकस रहे। बंगालियों के पास से भारतीय फ़ौज वाली एक राइफ़ल भी पकड़ी गई थी जिसे मैंने भी देखा। मेरा ख़्याल है रूसी बनावट है। इन लोगों के पास बहुत सारा बारूद ऐसा है जो भारतीय फ़ौज से उन्हें साल की शुरूआत में हासिल हुआ था। बाबू लोग तो शिकार के सिवा बारूद और हथियार रखते ही नहीं थे, भारतीय फ़ौज ने उन्हें क्लाशिनकोव से लेकर रिकायल लेस होने तक की ट्रेनिंग दी है बल्कि कुछ जगहों पर तो उन्होंने बाक़ायदा ऐंटी टैंक हथियार इस्तेमाल किए हैं। ये लोग हिंदुस्तान से ट्रेनिंग भी लेकर आ रहे हैं।

रात देर तक गिरफ़्तार होने वाले बंगालियों से कैप्टन दुर्रानी साहब पूछताछ करते रहे और वे शोर मचाते रहे। वे लोग हमारी फ़ौज को ‘ख़ान सेना’ कहते हैं और सभी फ़ौजियों को कैप्टन साहब कहकर पुकार रहे थे। उनमें एक मेरा हमनाम भी था लेकिन सब उसे ‘तनवीरुल हक़’ पुकार रहे थे।

पुन्नो को सज़ा के तौर पर सात दिन का पिट्ठो (पीठ पर सामान लादकर मैदान का चक्कर लगाने की सजा) लगा हुआ था, लेकिन बटालियन के मूव कर जाने की वजह से कैप्टन साहब ने माफ़ कर दिया और मुझे कहा कि अपने भांजे साहब को डिसिप्लीन सिखाओ। उसने चंद दिन पहले कमांडिंग अफ़सर साहब की जीप के टायरों से हवा निकाल दी थी। शुक्र है कि पकड़ा तो गया, लेकिन किसी को वजह न बताई। बेवक़ूफ़ मुझे कहने लगा कि चूंकि सीओ साहब बंगाली हैं। लिहाज़ा उसने अपनी नफ़रत का इज़हार किया था। मैंने उसे डांटकर समझाया कि बाबाजी अच्छे बंगाली हैं और गद्दार नहीं हैं।

5 दिसंबर 1971मां का ख़त

मैं अभी सोया ही हुआ था कि जी.थ्री के फ़ायर की आवाज़ ने जगा दिया। बाहर निकलकर देखा तो मैं घबराकर रह गया। कैप्टन साहब ने कल गिरफ़्तार होने वाले सात बंगालियों में से तीन को शूट करने का हुक्म दे दिया था। बाक़ी लोग बूढ़े थे और एक तो शक्ल से भी बंगाली नहीं लग रहा था और वह था भी गूंगा। दरख़्तों से बंधे इन बाग़ियों को नायक सरदार साहब और उस्ताद फय्याज ने फ़ायर मारे। यह ख़ुदाई फ़ौजदार... जी.थ्री नया हथियार है और बड़ा ज़ालिम है। इन बाग़ियों के ख़ून के छींटे दूर-दूर तक उड़े और नारियल के दरख़्तों के तने छलनी हो गए। पुन्नो उस वक़्त राशन गार्ड था और देख रहा था। वह यह मंज़र देखकर चकरा गया और क़ै (उल्टी) करने लगा। नर्सिंग अर्दली ने उसे दवा दी जबकि उस्ताद ने उसे बहुत गालियां दीं।

तीन बजे सर्च पार्टी इकट्ठा हुई। कैप्टन साहब बता रहे थे कि फ़ॉरवर्ड डिपो से राशन आ रहा है जिसे मुक्ती वालों ने घात लगाकर तबाह कर दिया है और नसीब शाह भी शहीद हो गया है। कैप्टन साहब बहुत गुस्से में थे आज। ब्रिगेड हेडक्वार्टर से डी.आर आया था। उसके पास मेरा एक ख़त भी था। काफ़ी पुरानी तारीख़ का था। मां ने लिखा है कि मैं नाद-ए-अली पढ़ा करूं और पुन्नो को भी पढ़ाऊं, क्योंकि बंगाली औरतें मर्दों पर काला जादू कर देती हैं। अब मैं अपनी सीधी-सादी मां को क्या बताता कि वाक़ई सीएमएच ढाका की एक बंगालन नर्स ने तो अगस्त में कुछ दिन के लिए मुझ पर जादू ही कर दिया था, यह तो शुक्र है कि मैं वहां चंद दिन ही रहा।

इक़बाल भाई की हेडमास्टर के ओहदे पर तरक़्क़ी की ख़बर पढ़ कर ख़ुशी हुई। घर के क़रीब, चकवाल के ही एक स्कूल में तबादला हुआ है उनका। उन्होंने लिखा था कि बच्चे की पैदाइश का दिन क़रीब हैं लेकिन फ़िक्र करने की कोई बात नहीं, भाई सब मामलात संभाल लेंगे। मेरी तनख़्वाहें घर पहुंच गई हैं।

6 दिसंबर 1971छापा और पीछा

फ़ज्र की नमाज़ के लिए जागा। अभी नमाज़ के लिए हाथ बांधे ही थे कि कैंप एक ज़ोरदार धमाके से गूंज उठा और फिर फायरिंग शुरू हो गई। मैं नमाज़ तोड़ के भागा और मोर्टर वालों की ख़ंदक़ में कूद गया। दस पंद्रह मिनट तक अजीब हलचल रही। सभी संतरी अंधेरे में फ़ायर करने लगे। फिर कैप्टन साहब ने होल्ड ऑन का हुक्म दिया तो फ़ायरिंग रुकी। सूरज उभरा तो मुझे सूरत-ए-हाल का अंदाज़ा हुआ कि फ़ज्र के वक़्त मुक्ती वाहिनी ने कैंप पर रॉकेट मारा था जिससे एक स्कूल की लाइब्रेरी की दीवार गिर गई और राशन वाला डंप भी जल गया। लाइब्रेरी की किताबों ने जो आग पकड़ी तो राशन की दालें तक भून दीं, लेकिन शुक्र है एमुनेशन को जल्दी से निकाल लिया गया वर्ना तबाही होती।

आज नाश्ता भी न कर सके। रेकी पार्टी ने फ़ौरी तौर पर मुक्ती वालों के फ़रार का रास्ता छान मारा, लेकिन बेसूद। कैंप से पचास गज़ के फ़ासले पर एक हथियारबंद बाग़ी मुर्दा हालत में पाया गया जो कि हमारी अंधेरे में फायरिंग से मरा था। नर्सिंग अर्दली जब उसका मुआयना कर रहा था तो मैंने भी उसे दूर से देखा। उसने धोती बांध रखी थी और क़मीज़ पर भारतीय फ़ौज के स्पलाई इशू वाला कीमो फ़लाज जैकेट पहन रखा था।

सारा दिन व्यस्त रहे। कैप्टन साहब के दफ़्तर में, जो कि दरअसल हेडमास्टर ऑफ़िस था, ले जाने का हुक्म मिला तो सारा हथियार और एमुनेशन यहां जमा कर दिया। रात सोने से पहले घर से आने वाले ख़त का जवाब लिखा, लेकिन संभालकर रख दिया, क्योंकि सुनने में आया है कि ख़तों पर सेंसर लग गया है। यूं भी बड़ी पक्की ख़बर है कि पश्चिमी पाकिस्तान से डाक का संपर्क ख़त्म हो गया है। सच तो यह है कि ख़त-ओ-किताबत बंद होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान ज़्यादा ही अजनबी-सी धरती महसूस होने लगा है।

ब्रिगेड से वायरलेस आया था कि सूबेदार बख़्तियार साहब के वालिद सीएमएच ढाका में मारे गए हैं। मैंने सूबेदार साहब को बताया जिस पर शाम को कैप्टन साहब से बहुत डांट पड़ी कि मैंने उनकी इजाज़त के बग़ैर सूबेदार साहब को क्यों ख़बर दी।

7 दिसंबर 1971—सच या झूठ

आज सारा दिन हम लोग तैयार रहे लेकिन किसी मूव का हुक्म मिला न कोई नागवार वाक़िया हुआ। पुन्नो मेरे पास रहा। बेचारा पिछले कुछ दिन के हादसों से बहुत घबराया हुआ था मुझसे अपने ख़ौफ़ का इज़हार करके रोने लगा। मैंने उसे समझाया कि घबराने की कोई बात नहीं, मैं भी जब रिंगरावटी पास करके पलटन में आया था तो पैंसठ की जंग छिड़ गई थी, लेकिन सब ख़ैर-ख़ैरियत से गुज़र गया। उसे हौसला और दिलासा दिया और कुछ लतीफ़े सुनाए तो हंसते हुए उसके सांवले गालों पर दो गड्ढ़े से बन गए। सलमा बाजी कहती थीं कि जब मेरा बेटा पुन्नो जवान होगा तो उसकी हंसी और गालों के ये गड्ढ़े कितनी ही छोरियों को उसका दीवान कर देंगे। काश वह ज़िंदा होतीं तो देखतीं कि पुन्नो हंसते हुए कितना प्यारा लगता है।

कैप्टन दुर्रानी साहब ने दोपहर को हमें कतारबद्ध होने को कहा। वह बहुत ग़ुस्से में थे। हमसे ख़िताब करते हुए बोले कि रेडियो और दूसरे ज़रियों से अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं कि पाक फ़ौज के जवान बंगाली औरतों की इज़्ज़त लूटने में शामिल हैं वग़ैरा। उन्होंने कहा कि ये ख़बरें झूठी हैं और रज़ाकारों, मुक्ती वाहिनी, सैंटर्ल पीस कमेटी और दूसरी आवारा तन्ज़ीमों की ग़लत कार्रवाइयों का इल्ज़ाम हम पर लगाया जा रहा है और अगर कोई जवान इन ख़बरों पर चर्चा करता हुआ पाया गया तो उसका फ़ौरी तौर पर कोर्ट मार्शल किया जाएगा। उन्होंने हमारे रेडियो सुनने पर भी पाबंदी लगा दी। लांस नायक ग़ुलाम शब्बीर साहब उर्फ चमड़ा, जो कि गाने के बहुत शौक़ीन हैं, यह सुनकर कहने लगे कि सर अब इन तमाम जवानों को गाने सुनाने की डयूटी मेरे जिम्मे लगाई जाए। दुर्रानी साहब मुस्करा उठे और कहा,

“ताकि जवानों को दोगुनी बोरियत हो?”

हम लोग हंस दिए और माहौल कुछ हल्का हुआ।

शाम के वक़्त कैप्टन साहब ने हुक्म दिया कि खाना उनके साथ खाऊँ। आज पूरे कैंप ने सिर्फ़ शाम का खाना ही खाया। मैंने डरते-डरते दिन की अफवाह के बारे में पूछ लिया तो कैप्टन साहब ने कहा “सब बकवास है यार। देखो तनवीर, तुम बच्चे नहीं, बारह जमातें पास हो, हम इन हालात में जिस तरह दुश्मनों में घिरे हैं, क्या हमारे पास इन कार्यवाइयों की फ़ुर्सत है?

फिर कुछ देर ख़ामोश रहकर दोबारा बोले, “तनवीर हुसैन, जंग में सबसे पहला क़त्ल सच का होता है। कुछ भी मुम्किन है।”

8 दिसंबर 1971—पुन्नो की सुपारी

फ़ज्र की नमाज़ के बाद लंगर कमांडर से मिला। उसने बताया कि अभी जयकीव साहब और कैप्टन साहब की बात हुई है, आज पूरी पलटन को नाश्ता मिलेगा, लेकिन दोपहर के खाने का मसला सामने है। एक अफ़सर के लिए अपने जवानों को खाना न दे पाना बहुत बड़ी शर्म की बात होती है। साहब आज सीओ साहब और ब्रिगेड से भी मश्वरा करेंगे। नाश्ते के वक़्त भी यही बातचीत का विषय था। सरदार साहिबान की बातें सुनकर पता चला कि हमारी फ़ौज ने छिम्ब और हुसैनीवाला फ़तह कर लिए हैं।

दोपहर को एक और पलटून मोर्चे की तरफ़ जाने के लिए तैयार थी, लेफ़्टिनेंट उस्मान भट्टी आज ही पहुंचे थे, पलटून का नेतृत्व उनके हवाले करके उन्हें आगे भेज दिया गया। आज कई दिनों बाद दुर्रानी साहब को भट्टी साहब के गले लगकर ख़ुदा-हाफ़िज़ कहते देखा, दरअसल भट्टी साहब को छः महीने पहले ढाका में दुर्रानी साहब ने शराब पीकर गालियां दी थीं जिसके बाद उनके ताल्लुक़ात ठीक न थे। उस्मान साहब कई नस्लों से सोल्जर हैं और बहुत ही क़ाबिल अफ़सर हैं, लेकिन वह दुर्रानी साहब की बहुत ज़्यादा किताबें पढ़ने की आदत को ज़नाना सिफ़त (औरतों की आदत) क़रार देते हैं इसी बात पर उनकी लड़ाई हुई थी। वे दोनों कोर्समेट हैं लेकिन उस लड़ाई की वजह से भट्टी साहब की कप्तानी आने में सज़ा के तौर पर छह माह की देर कर दी गई। भट्टी साहब से सुना है कि फ्रंट पर हिली, सीतापुर और आस-पास के इलाकों में बहुत ज़्यादा लड़ाई हो रही है। दुर्रानी साहब बता रहे थे कि इसी वजह से सीओ और ब्रिगेड से संपर्क हो सका है न राशन का मसला हल हुआ है।

ज़ोहर के वक़्त हमारी एक पार्टी आयोजित की गई जिसकी मेज़बानी ख़ुद दुर्रानी साहब कर रहे थे। मैं और पुन्नो भी उसमें शामिल थे। हम पंद्रह लोग कैंप से निकले और साथ के गांव पहुंचे जो कि आधे से ज़्यादा ख़ाली हो चुका है। यहां बाज़ार में चंद बड़ी दुकानें थीं जो कई दिनों से बंद थीं। हमने वहां जाकर उनके ताले तोड़े और उनमें से जितनी दालें और चावल मिल सका, सब उठा लिया। कुछ लोगों ने विरोध करने की कोशिश की लेकिन दुर्रानी साहब ने सीधी फायरिंग करके उन्हें ऐसा ख़ौफ़ज़दा किया कि वह तितर-बितर हो गए। उनका एक आदमी ज़ख़्मी होकर सड़क के किनारे गिरा और देर तक मदद के लिए पुकारता रहा।

देर तक हम “माल-ए-ग़नीमत” (लूट का माल) को राशन कैंप लाने में लगे रहे। रात को पुन्नो मेरे पास आया तो सुपारी चबा रहा था। मैंने पूछा कि कहां से ली, तो कहने लगा मामू, वो बाबूओं की दुकान से उठाई है।

9 दिसंबर 1971बुरी ख़बरें

आज कैप्टन दुर्रानी साहब अपने दफ़्तर में ही रहे। उन्होंने क़ुव्वत नायक साहब को बाहर भेज दिया। मैं भी शाम तक उनके साथ रहा। लिखने का काफ़ी सारा काम उन्होंने मुझसे करवाया। मेरे काम से बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जंग के बाद वह मुझे लॉंन्ग कोर्स के इम्तिहान में ज़रूर बिठवाएंगे। मैंने उनको बताया कि मैं घरेलू हालात की वजह से अगर एफ़ए के दौरान ही फ़ौज में भर्ती न होता तो भाई इक़बाल मुझे भी प्राइमरी मास्टर लगवा देना चाहते थे। कैप्टन साहब अच्छे मूड में थे तो मैंने उन्हें अपनी ताज़ा शायरी भी सुनाई। वह कहते थे कि मैं इश्क़िया शायरी की बजाय गद्य लिखा करूं, बेहतर होगा। क्योंकि इश्क़िया शायरी का शौक़ सोल्जर को बुज़दिल बना देता है।

मैंने उनसे जंग के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हर तरफ़ से बुरी ख़बरें हैं। दुश्मन कई रास्तों से ढाका की तरफ़ बढ़ रहा है। हमारी एयर फ़ोर्स नकारा हो गई है और तेज गांव का हवाई अड्डा तो दुश्मन ने बिल्कुल तबाह कर दिया है और हमारी नेवी के दो जहाज़ भी डुबो दिए गए हैं। वह इंदिरा गांधी को नंगी गालियां दे रहे थे। उन्होंने याह्या ख़ां और तकी ख़ां साहब को भी गालियां दीं, लेकिन बाद में मुझे कहा कि किसी से इन बातों का ज़िक्र न करूं। वह कह रहे थे कि इन बंगालियों के साथ बहुत ज़्यादतियां हुई हैं, लेकिन उन्होंने जिस तरह दुश्मन से साज़-बाज़ की है, हम इन ग़द्दारों को माफ़ नहीं करेंगे। फिर वह शेख़ मुजीब को भी गालियां देने लग गए। मैं बहुत परेशान-सा हो गया कि अगर जंग लंबी हो गई तो न जाने कब दोबारा घरों का दरवाज़ा देखना नसीब होगा।

खाने के बाद कैप्टन साहब तो कोई अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ने लग गए और मैंने जाकर वायरलेस ऑप्रेटर को खाने के लिए रिलीफ़ दिया। इसी दौरान ब्रिगेड से कैप्टन साहब के लिए वायरलेस आया। उन्होंने बीएम से अंग्रेज़ी में बात की। मेरा ख़्याल है कि 6 तारीख़ वाले हमले के बारे में कोई आदेश थे।

आज देर रात तक जंगी जहाज़ों की गरज और दूर से “आक-आक” तोपों की आवाज़ें आती रहीं। पेट्रोल पार्टी बता रही थी कि क़रीब के किसी गांव पर भारतीय मिग हवाई जहाजों ने बम गिराए हैं और काफ़ी सारे देहाती मारे गए हैं। पुन्नो आज मेरे पास आकर सोया। मुझे बड़े फ़ख़्र से बता रहा था कि आज उसने ग़ुस्लख़ाने के पास एक सांप मारा है। यहां सांप बहुत ज़्यादा हैं। रात को पुन्नो की डयूटी भी थी।

13 दिसंबर 1971अलविदा

बख़्तियार साहब ने फ़ज्र की अज़ान दी तो मैं जाग रहा था। रो-रोकर मेरी आंखें सूख चुकी थीं, ग़म से पथरा गई थीं। सच तो यह है कि पूरी पलटन का मोराल एक सदमे से दो-चार था। ब्रिगेड से हुक्म आया कि दोनों शहीद यहीं दफ़न कर दिए जाएं, क्योंकि दूसरी तमाम बड़ी छावनियों और फ़ार्मेशनों से संबंध मुश्किल हैं और मालूम नहीं कब तक रहेंगे। बाक़ी पलटन से भी संपर्क कट चुका था जिस वजह से सीओ और पुन्नो की कंपनी को इन शहादतों की इत्तिला न दी जा सकी। मैंने ब्रिगेड में भी मना करवा दिया कि घर वालों को तार न भेजा जाए। वह कह रहे थे कि पश्चिमी पाकिस्तान के साथ संपर्क यूं भी नामुमकिन है। दोपहर को क़ब्रें तैयार की गईं, कफ़न यहां ज़रूरी न थे लिहाज़ा ज़ाब्ते के मुताबिक़ एक पलटून की एज़ाज़ी गार्ड की सलामी के साथ उन्हें तीसरे पहर के क़रीब सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया। मैं बुत बन यह मंज़र देखता रहा और अपने लाडले भांजे को ख़ामोशी की ज़बान में ही अलविदा कह सका। आख़िरी वक़्त तक मेरे दिल से आवाज़ उठती रही कि पुन्नो अभी उठ खड़ा होगा और मुझ से लिपटकर कहेगा, “मामू, मैंने तो मज़ाक़ किया था।”

लेकिन जब क़ब्रों पर मिट्टी डाल दिए जाने के बाद बगलची ने लास्ट पोस्ट की उदास धुन भी बजा दी और ऐसा कुछ न हुआ तो मैं फूट-फूटकर रोया।

शाम को कैप्टन साहब ने लगभग चालीस जवानों को इकट्ठा कर घनश्याम घाट के रास्ते से क़रीब-तरीन गांव रहीमपुर का रुख किया। मैं तो कैंप में ही रहा, ख़ुदा जाने वहां क्या हुआ। कैप्टन साहब रात गए तक घनश्याम घाट, रहीमपुर और आस-पास में एफ़एफ़ वालों के एक लेफ़्टिनेंट और उसकी पलटून के साथ मुक्ती के गुरिल्लों का पीछा करते रहे। आज जब अफ़वाह सुनी कि सिलहट, तानगेल और कॉक्स बाज़ार में दुश्मन के छाता बर्दार सिपाही उतर गए हैं तो दिल डूब-सा गया। ऐसा लगा कि हम यह जंग हार जाएंगे।

आधी रात के वक़्त कैंप में फिर हंगामा हुआ। मेरा ख़्याल था कि पार्टियां वापस आ गई हैं और शायद कुछ बाग़ियों को भी पकड़कर लाए हैं। आज मेरी सिसकियां आहों में बदल गईं। सभी साथी मुझे आकर दिलासा देते रहे।

14 दिसंबर 1971बांग्लादेश से पहले

मैं सुबह वर्दी पहनकर बाहर निकला तो देखा कि असेंबली ग्राउंड में छह बंगाली दरख़्तों से बंधे खड़े थे और क़ुव्वत नायक साहब उनसे बरामद होने वाले हथियार का मुआयना कर रहे थे। संतरियों ने हर तरफ़ से उन बंगालियों पर राइफ़लें तान रखी थीं। उनमें दो कमसिन लड़के भी थे, जो स्कूल की वर्दी में थे। मैंने उन्हें बेहद नफ़रत से देखा, क्योंकि इसी लम्हे मेरी आंखों के सामने पुन्नो का चेहरा घूम गया, जिसको दोनों मुल्कों की बाहमी दुश्मनी का कुछ पता था और न वह मुजीब, याह्या, इंदिरा या पिछले चुनाव के बारे में कुछ जानता था। मेरा दिल ग़म और ग़ुस्से के मिले-जुले भाव से भर गया और मैं भागकर दुर्रानी साहब के दफ़्तर में आ गया। हम दोनों देर तक चुप बैठे रहे। कैप्टन साहब ने वायरलेस पर ब्रिगेड के किसी अफ़सर से अंग्रेज़ी में कुछ बातचीत की, मैंने उनकी मेज़, कुर्सी, वायरलेस और दूसरे सामान की झाड़ पोंछ कर दी। काफ़ी देर बाद दुर्रानी साहब उठकर बाहर चले गए। फिर एकदम राइफ़ल जी.थ्री की फ़ायरिंग की आसमान चीर देने वाली आवाज़ आई, शोर उठा तो मैंने बाहर झांककर देखा। कैप्टन दुर्रानी साहब ने एक बाग़ी को गोली मार दी थी। मैं अब उस क़त्ल-ओ-ग़ारत से तंग आ चुका था, मैंने खिड़की बंद करके आंखें भींच लीं। फिर एक के बाद दूसरे बर्स्ट चलने की आवाज़ें आईं और बंगाली ज़बान की तमाम चीख़-पुकार बंद हो गई। कुछ देर के बाद कैप्टन दुर्रानी दौड़ते हुए अंदर आए, राइफ़ल जी.थ्री एक तरफ़ रखी, अंदर से दरवाज़े की चटखनी चढ़ाई और कुर्सी पर बैठकर सिसकियां लेकर रोने लगे। वह अपनी आवाज़ दबा रहे थे। मैं यह मंज़र देखकर हक्का-बक्का रह गया।

“तनवीर, यह सब बकवास है, यार उन्हें हमसे अलग हो जाना चाहिए, लेकिन मैं उस ज़मीन के बांग्लादेश बनने से पहले मर जाना चाहता हूं। मैं पश्चिमी पाकिस्तान में मरना चाहता हूं।”

वह अजीब बातें किए जा रहे थे, सिसकियां लिए जा रहे थे और मैं उन्हें दिलासा दिए जा रहा था।

15 दिसंबर 1971अचानक हमला

फ़ज्र से बहुत पहले पूरा कैंप स्टैंड टू कर दिया गया। हम सबको बचाव की पोज़ीश्नें लेने का हुक्म मिला और बताया गया कि हमारी आगे की कंपनियां लड़ाई से बाहर हो चुकी हैं और दुश्मन की एक बटालियन हमारी उत्तरी तरफ से गुज़रकर पीछे की तरफ कहीं आगे निकल गई है। लिहाज़ा हमारी पोज़ीशन पर किसी भी वक़्त, किसी भी ओर से हमला हो सकता है। हम सब तैयार हो गए। कुछ काग़ज़ात और नक़्शे कैप्टन दुर्रानी साहब ने मेरे हवाले किए कि उन्हें जला दो। वे मैंने जला दिए। अभी सुबह हुए कुछ देर ही हुई थी कि पश्चिम की ओर से तीन इंच मोर्टार और मशीनगन का फ़ायर आने लगा। काफ़ी देर के बाद जब बढ़ता हुआ दुश्मन हमारे छोटे हथियारों की पहुंच में आया तो हमने जवाबी फायरिंग करना शुरू कर दी। कैंप एक स्कूल की इमारत में था जिसकी उत्तरी दीवार में एक चौड़ा सुराख था जिस पर से दुश्मन के फ़ायर और हमले का ज़ोर ज़्यादा था। यहां मैंने अजीब मंज़र देखा कि धोतियां पहने कुछ बंगाली, दुश्मन की पंक्तियों में दौड़-दौड़कर एमुनेशन और मशीनगन के लिंक बांट रहे थे और उन्होंने दुश्मन का सारा सामान भी उठा रखा था। मुझे मेजर वड़ाच साहब की वह बात याद आई कि उस एहसान फ़रामोश क़ौम के साथ वही होना चाहिए था जो हमने ऑपरेशन सर्च लाइट में किया था। हमारी पलटन ने पिछले सैलाब में इसी इलाक़े में बचाव कार्य किया था। जब दुश्मन का हमला चरम पर पहुंचने लगा और दो घंटे की लगातार मूसलाधार लड़ाई के बाद हमारे पंद्रह बीस जवान ज़ख़्मी हो चुके तो दुर्रानी साहब ने फ़ैसला किया कि वह दीवार के सुराख़ की तरफ़ दुश्मन को अकेले रोकेंगे और पूरी कंपनी को मैन गेट की तरफ़ से कैंप ख़ाली करके घनश्याम घाट की तरफ़ चले जाने और वहां एफ़एफ़ वाली कंपनी से जा मिलने का हुक्म दिया। कैप्टन दुर्रानी ने कमाल दिलेरी से तन-तन्हा एक घंटे तक मशीनगन के फ़ायर से दुश्मन को रोके रखा और हम सब लोग घनश्याम घाट वाली पोज़ीशन की तरफ़ निकल गए। रास्ते में एक जीप नदी में फंस गई तो उसे वहीं छोड़ के हम लोग भाग निकले। एफ़एफ़ की कंपनी भी दुश्मन के एक और हमले को रोके हुए थी। रात फैली तो घनश्याम घाट वाली पोज़ीशन से दुश्मन पीछे हट गया। अपने हाई स्कूल रहीमपुर वाले कैंप से तीसरे पहर तक फ़ायर की आवाज़ आती रही। शायद तब तक कैप्टन दुर्रानी साहब ने दुश्मन को मसरूफ़ रखा हुआ था।

अभी यहां ख़ामोशी है। अगरचे संतरी पहले से ज़्यादा चौकन्ने हैं लेकिन फिर भी हम आराम कर रहे हैं। जबरदस्त सर्दी पड़ रही है|

16 दिसंबर 1971पसपाई (पराजय)

सुबह दम कई जगह जोरदार किस्म का हमला हुआ। मीडियम तोपखाने की गोला बारी से एकदम कैंप में हलचल मच गई। हमारी कंपनी का एक जवान शहीद और कई लोग चंद मिनट की गोला-बारी में ज़ख़्मी हो गए। तोपखाने का फ़ायर लिफ़्ट हुआ तो हमे कुछ समझने का मौक़ा मिला, लेकिन पूरी तरह संभल न पाए थे कि एक टैंक की आड़ में दुश्मन की पलटन को अपनी पोज़ीशन की ओर बढ़ते देखा। फिर घंटा भर घमासान का रन पड़ा, दोनों तरफ़ से शदीद फायरिंग हुई। हमें हैरत थी कि उस दलदली और नदियों से घिरी जगह पर यह टैंक कहां से आन टपका। एफ़एफ़ वालों के ओसी साहब एक भारतीय के साथ दस्त-ब-दस्त लड़ाई में शहीद हो गए तो सैकेण्ड इन कमान ने हुक्म दिया कि उत्तर की तरफ़ वाले गांव की ओर पीछे हट जाएं। अफ़सरों को हुक्म था कि दुश्मन को व्यस्त रखें जबकि हम सिपाहियों ने ज़ख़्मियों को कांधों पर उठाया और बांसों के क़रीबी जंगल की तरफ़ भाग खड़े हुए। अगरचे हम लोग शदीद किस्म की भगदड़ में वहां से निकले लेकिन एफ़एफ़ के अफ़सरान ने कमाल डिसिप्लीन का प्रदर्शन किया। दुश्मन ने हमारा पीछा नहीं किया।

शाम से पहले हम लोग उस छोटी-सी बस्ती में आ पहुंचे। पता नहीं नाम क्या है उसका। मालूम हुआ कि बंगाली देहातियों ने हमारे पीछे हटने के मुम्किन रास्तों पर कल रात ही बूबी ट्रैप और बारूदी सुरंगें लगा दी थीं जिसकी वजह से एफ़एफ़ वालों के एक लेफ़्टिनेंट साहब और हमारे सूबेदार बख़्तियार साहब रास्ते में ही उनका निशान बनकर शहीद हो गए। मेरी आंखों के सामने जब उस्ताद साहब का हमेशा हंसने-हंसाने वाला चेहरा आया तो मैं उस चेहरे पर मौत की भयानक ख़ामोशी की कल्पना न कर सका।

यह बस्ती छोटी-सी है और लगभग बिलकुल ख़ाली है। रज़ाकार बता रहे थे कि यह बिहारियों की बस्ती थी जिसे मुक्ती वालों ने लूटा था और यहां काफ़ी ख़ून-ख़राबा किया था। सर्च के बाद कैप्टन लहरास्पा ख़ां साहब के हुक्म से बस्ती के कुछ हिस्से को जला दिया गया। रात गए हमें यहां पर पोज़ीश्नें लेकर आराम करने का मौक़ा मिला, लेकिन आराम कहां करते। एक तो ज़ख़्मी साथियों के कराहने की आवाज़ें, दूसरा सुबह की गोला-बारी से दहल जाने की वजह से मुझे बुख़ार चढ़ गया। रात को संतरियों ने बताया कि एक जले हुए घर में एक बंगाली शदीद ज़ख़्मी पड़ा है। कैप्टन लहरास्पा ख़ां साहब ने अपनी पोठोहारी ज़बान में एक गाली देते हुए कहा,

“मरने दो माँ के...को।”

और संतरी वापस चला गया।

रात मेरे सोने से पहले अलबदर का एक ज़ख़्मी रज़ाकार भी शहीद हो गया। लड़के बता रहे थे कि वह शहीद बी.ए. पास था।

अभी यहां ख़ामोशी है। अगरचे संतरी पहले से ज़्यादा चौकन्ने हैं, लेकिन फिर भी हम आराम कर रहे हैं। जोरदार सर्दी पड़ रही है।

17 दिसंबर 1971—सरेंडर

दिन-भर हम अपनी पोज़ीशन में रहे। एफ़एफ़ वालों ने बताया कि हमारी बटालियन तीसरे दिन से कहीं ग़ायब है जबकि हमारे सीओ साहब शदीद ज़ख़्मी होकर एफ़एफ़ की एक और कमांड पोस्ट पर आए पड़े हैं। कैप्टन लहरास्पा ख़ां साहब ने बताया कि कैप्टन दुर्रानी साहब परसों के ऐक्शन में शहीद हो गए थे। अब मुझमें और ज्यादा रोने की हिम्मत न थी वरना दुर्रानी साहब के लिए ख़ून के आंसू रोने को जी चाहा। हुकूमत को गालियां देने वाले कैप्टन दुर्रानी ने किसके लिए जान दी, किताबों में न जाने क्या लिखा जाएगा, लेकिन मुझे पता है कि उन्होंने सिर्फ अपने जवानों के लिए जान दी है।

दिन-भर अफ़वाहें गर्दिश करती रहीं कि कमांडर इस्टर्न कमांड जनरल अब्दुल्ला ख़ां ने हथियार डालने का फ़ैसला कर लिया है। कुछ लोगों ने बताया कि जनरल अब्दुल्ला नियाज़ी हेलीकॉप्टर क़्रैश में शहीद हो गए हैं। बाद में पता चला कि दोनों ख़बरें ग़लत हैं, बल्कि चीनी पैराटूर्पस के पूर्वी पाकिस्तान पहुंचने पर दुश्मन ने जंग बंदी का ऐलान कर दिया है। तीसरे पहर पता चला कि सभी ख़बरें ग़लत हैं और पाक फ़ौज को आख़िरी सिपाही तक लड़ने का हुक्म है और हम हर जगह डटे हैं।

शाम के वक़्त कैप्टन लहरास्पा ख़ां साहब ने पूरी टुकड़ी को इकट्ठा होने का हुक्म दिया। हमारे ज़हनों में अजीब सवालात आने लगे। अंधेरा फैल चुका था जब बलोच रेजीमेंट के एक मेजर साहब आए और उन्होंने बताया कि जंग ख़त्म हो चुकी है, पूर्वी कमान ने हम सबको शाबाश दी है और कहा है कि हुकूमती स्तर का फ़ैसला है कि हम अपने क़रीबी भारतीय यूनिटों के आगे हथियार रख दें।

अभी रात का काफ़ी वक़्त बीत चुका है। टॉर्चों की हल्की-सी रोशनी में लोगों की पत्थर जैसी ख़ाली आंखें और वह सारा एमुनेशन जो इकट्ठा करके नदी में फेंक देने का हुक्म मिला है, बड़े तकलीफ़-देह अंदाज़ में चमक रहे हैं। एक दो पठान सिपाहियों ने कहा कि वे सरेंडर नहीं करेंगे, लेकिन हुक्म मिलने पर चुप हो गए। अफ़सरों की ज़बान को भी ताले लगे हैं और वह इक्का-दुक्का आदेश जारी कर रहे हैं। कांधों से उतरते मशीनगन के पट्टों की झंकार, हथियारों का ढेर लगने की आवाज़ और उसके अलावा चंद बे-जान-सी आवाज़ें ही सुनाई दे रही हैं। मैंने हथियार फेंककर एक कम्बल, यह डायरी और पुन्नो की बेरी टोपी अपने पास रख ली है। यह डायरी तो शायद अब कभी न लिखी जा सके और अगर यह भी दुश्मन ने छीन ली तो उस जंग की शायद एक ही निशानी घर तक ले जा सकूंगा... जंग की नहीं, अपने लाडले पुन्नो की निशानी।

***

हथियार डालने के बाद तनवीर हुसैन की पलटन के ज़्यादातर जवानों को भारतीय फ़ौज ने मुक्ती वाहिनी के हवाले कर दिया जिन्हें एक खुफ़िया जगह ले जाकर क़त्ल कर दिया गया। तनवीर हुसैन को आगरा में जंगी क़ैदियों के कैंप में क़ैद के दौरान फ़ालिज का दौरा हुआ और 1973 में वतन वापसी पर उसे मेडिकल कारणों से रिटायर कर दिया गया। सिपाही (रिटायर्ड तनवीर हुसैन) के दोनों बेटे मिडिल से आगे न पढ़ सके और अब बाप की सरपरस्ती में अपने गावं में खेती-बाड़ी करते हैं।

ज़की नक़वी
ज़की नक़वी

ज़की नक़वी उर्दू अदब और इंटरनेशनल रेलेशन्ज़ के ग्रेजुएट हैं। पढ़ाई के बाद उन्होंने अपनी अमली ज़िंदगी का आग़ाज़ फ़ौजी के तौर पर किया। फ़ौजी नौकरी के दौरान ही वह साहित्य की ओर मुड़े और कहानी, रेखाचित्र और आलोचना के क्षेत्र में नाम कमाया। लेखन के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेज़ी से उर्दू अनुवाद भी किए हैं। उनके... ज़की नक़वी उर्दू अदब और इंटरनेशनल रेलेशन्ज़ के ग्रेजुएट हैं। पढ़ाई के बाद उन्होंने अपनी अमली ज़िंदगी का आग़ाज़ फ़ौजी के तौर पर किया। फ़ौजी नौकरी के दौरान ही वह साहित्य की ओर मुड़े और कहानी, रेखाचित्र और आलोचना के क्षेत्र में नाम कमाया। लेखन के साथ-साथ उन्होंने अंग्रेज़ी से उर्दू अनुवाद भी किए हैं। उनके अनुवाद कार्य में रूसी लेखक मीख़ाइल शोलोख़ोफ़ के उपन्यास का अनुवाद काबिल-ए-ज़िक्र है।