जन्नत-जहन्नुम

अपने ज़माने में बदनाम और हमारे ज़माने के सबसे मशहूर शायरों में से एक जौन एलिया की बौद्धिक और दार्शनिक मनोस्थिति उनके लेखों में भी झलकती है। ख़ालिद अहमद अंसारी द्वारा ‘फ़रनूद’ (अल हम्द पब्लिकेशन, लाहौर) में एकत्रित लेख और निबंध इस तथ्य की गवाही देते हैं। ‘फ़रनूद’ में शामिल एलिया के निबंध दर्शन, तर्क, तत्त्वमीमांसा, धर्म, सत्य, राजनीति और संस्कृति से सम्बंधित विभिन्न मुद्दों से सरोकार रखते हैं। यह लेख पाकिस्तान के परमाणु शक्ति बनने के दो साल बाद जुलाई, 2000 में ‘सस्पेन्स डायजेस्ट’ में शामिल किया गया था। एलिया के दूसरे लेखों की तरह यह लेख भी न केवल विद्वतापूर्ण और अकादमिक है बल्कि कश्मीर विवाद पर उनकी राजनीतिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष में विनम्र सोच को भी दर्शाता है। कश्मीर किसका? कश्मीरियों का। कश्मीर का फ़ैसला कौन करेगा? कश्मीरी करेंगे।

जन्नत-जहन्नुम

पटचित्र: मीर सुहैल

अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में: मुज़फ्फ़र करीम 
अनुवाद अंग्रेजी से हिन्दी में: मज़ाहिर हुसैन
स्त्रोत: Inverse Journal

 

हमारा सारा अस्तित्व परेशानियों में उलझा है। हम इतिहास के सबसे ज़्यादा रहम खाने लायक़ लोग हैं। इस हद तक रहम खाने लायक़ कि हम खुद पर भी रहमदिल नहीं हो सकते। बावन साल के हमारे अस्तित्व ने अफ़सोस के अलावा कुछ और साबित नहीं किया। क्या ऐसा नहीं है कि हमारा आज घृणा और हमारा भविष्य हताशा से भरा हुआ है। क्या हमें ऐसा नहीं दिखता है?

क्या यह बद से बदतर ज़िंदगी ही हमारी क़िस्मत और तकदीर में लिखी है? क्या इस बदतरीन ज़िंदगी के परे किसी बेहतर ज़िंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती? मैं कहता हूं कि इस बदतर ज़िंदगी की जगह एक बेहतर ज़िंदगी संभव ही नहीं बल्कि निश्चित भी है

हमारी दुर्गति के कई कारण हैं, जिनमें से एक कश्मीर है। इस जन्नत ने हमें नचाकर जहन्नुम की तरफ़ फेंक दिया। इसके ज़िम्मेदार पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। पंडित जी मेरे पसंदीदा व्यक्तित्व रहे है। मैंने उन्हें उर्दू सभ्यता की एक शानदार अभिव्यक्ति के रूप में देखा है। उनका यह कहना था कि वह अपनी तालीम के हिसाब से एक अंग्रेज हैं, अपनी वंशावली से एक हिंदू और सभ्यता के लहज़े से एक मुसलमान हैं। उनका यह वक्तव्य कभी भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता और यह अपने आप में एक दुःखद बात है—दुःखम, दुःखम, दुःखम

सैय्यद जमालुद्दीन उर्फ़ी ने कश्मीर के ऊपर एक कविता लिखी है। मुझे उस कविता का एक मिसरा याद आता है:

हर सोखता जाने किबा कश्मीर दर आयद
ग़र मुर्ग़ कबाब अस्त कि बा बाल ओ पर आयद 

इसका मतलब यह कि ज़िंदगी से झुलसा हुआ कोई भी व्यक्ति अगर कश्मीर आए, फिर चाहे वह व्यक्ति उस चिड़िया की तरह ही क्यों न हो जो भुनकर कबाब बन चुकी है, तो भी कश्मीर की जीवनदायक आबो-हवा में उस व्यक्ति के पंख और पर फिर निकल आएंगे। यहां मैं इस बात को भी जोड़ना चाहूंगा कि मेरे पूर्वज सैय्यद उर्फ़ी ने इस कविता को लिखते समय भाषा की तहज़ीब का लिहाज़ नहीं रखा है, लेकिन उनके स्तर के कवि को यह करने का हक़ भी है। ऐसा भी हो सकता है कि मुझे यह मिसरा सही तरह से याद न रहा हो।

कश्मीर के ऊपर चर्चा हो रही थी। यहां मैं रास्ते से थोड़ा भटक गया। मेरे मंझले भाई और मशहूर पाकिस्तानी दार्शनिक दिवंगत सैय्यद मोहम्मद ताकी दिल्ली के समय से ही डेली जंग के संपादक बने रहे। मेरे बड़े भाई रईस अमरोहवी भी जंग  से 22 दिसम्बर, 1988 तक जुड़े रहे, उस दिन तक जिस दिन उनका क़त्ल कर दिया गया। उनकी हत्या गुरुवार को हुई। थोड़ा विचित्र है कि जो लेख उन्होंने दो-तीन दिन पहले जंग में छपने के लिए भेजा था, वह मौत के ऊपर था और वह उनकी हत्या के एक दिन बाद छपा भी, शुक्रवार को। इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि मेरे यह दोनों भाई मुस्लिम लीग के मामलों के बारे में किसी भी पत्रकार से ज़्यादा जानकारी रखते थे। मैंने अपने दोनों भाइयों और स्वर्गीय सिद्दीक अली खान से यह सुना है कि जब अंग्रेज़ आज़ादी देकर जाने वाले थे तो उन्होंने कुछ मुसलमानों से उनकी राय जानने की इच्छा जताई थी कि हैदराबाद और कश्मीर के मामलों में क्या निर्णय लें। मुसलमानों ने सुझाव दिया कि हैदराबाद और कश्मीर को अपनी यथास्थिति में ही छोड़ दिया जाए। लेकिन इन चंद मुसलमानों द्वारा दिए इस सुझाव के पीछे क्या कारण था? इसका कारण था कि वे इस बात पर आश्वासित थे कि हैदराबाद राज्य पाकिस्तान के साथ जुड़ जाएगा, क्योंकि हैदराबाद का निज़ाम, उस्मान अली खान, एक मुसलमान था। और वहां रहने वाले ग़ैर-मुसलमानों के बारे में उन्होंने सोचा कि क्या हुआ अगर उनकी संख्या मुसलमानों से ज़्यादा भी है तो, आखिर वे कर भी क्या सकते हैं। चलिए अब हम कश्मीर राज्य के बारे में बात करते हैं, जिसका  मामला हैदराबाद से एकदम विपरीत था। वहां का राष्ट्राध्यक्ष एक हिंदू था और उसकी रियाया में गैर-हिंदुओं की संख्या हिंदुओं के मुकाबले अधिक थी। उस समय के लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार इस अनुचित एवं अपरिवर्तनीय बात को हवा दी कि कश्मीर की बहुसंख्यक आबादी पाकिस्तान के साथ जाना चाहेगी और कश्मीर का राष्ट्राध्यक्ष इसके ख़िलाफ़ कुछ भी नहीं कर पाएगा। यहां, मेरे दिमाग़ में वह कहावत बिल्कुल भी नहीं है कि चिट भी मेरी, पट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का।   

संयुक्त राष्ट्र द्वारा कश्मीर मुद्दे पर लिया गया निर्णय बिल्कुल सही और सच था। निर्णय था कि केवल कश्मीरियों को अपने बारे में फ़ैसला करने का स्वामित्व है, न कि भारत या पाकिस्तान को। इस निर्णय को भारत ने उस समय स्वीकारा और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी इस बात पर सहमति जताई कि यह फ़ैसला सही तर्कों पर आधारित है। पंडित जवाहरलाल नेहरू हिंदुस्तान के एक महान राजनीतिक वैज्ञानिक थे। वह केवल राजनीतिक वैज्ञानिक नहीं थे, बल्कि एक शोधकर्ता और इतिहासकार भी थे। यह बात मेरी समझ से परे है कि कैसे पंडित नेहरू जैसे ऊंची कद-काठी के व्यक्ति कश्मीर के मामले में बौने बन गए। बीते बावन सालों में, पंडित नेहरू का ‘मनोवैज्ञानिक विश्लेषण’ करते हुए भारतीय राजनीतिक विश्लेषकों ने कश्मीर को उनकी कमजोरी बताया और कहा कि इसका कारण उनका खुद कश्मीरी होना है। चूंकि वह खुद कश्मीरी थे इसीलिए महान कश्मीरी मुसलमान कवि अल्लामा इक़बाल के साथ बौद्धिक साझेदारी रखते थे। प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने एक बार कहा था कि पंडित नेहरू जैसे महान व्यक्ति ने कश्मीर के मसले पर एकदम गलत रवैया अपनाया। खैर, यह तो पंडित नेहरू और भारतीय राजनीतिक वैज्ञानिकों की बात रही। लेकिन पाकिस्तान अभी भी संयुक्त राष्ट्र के समझौते को बरकरार रखे हुए है कि कश्मीर में जनमत-संग्रह होना चाहिए।

मैं भारत और पाकिस्तान में रहने वाले हजारों कश्मीरियों से मिला हूं और मैंने उनके दिल की बात जानने की कोशिश भी की है। उन्होंने मुझे यह बताया कि दोनों तरफ़ रहने वाले कश्मीरी साथ रहना चाहते हैं। दोनों तरफ के कश्मीरियों को एक होता देखना उनका ख्वाब है। यथार्थतः, वे यह कहना चाहते हैं कि कश्मीर कश्मीरियों का है। मेरी यह सीमित समीक्षा गलत हो सकती है और ऐसा भी हो सकता है कि कश्मीरी कुछ और चाहते हों।

कश्मीर! यह नाम भी अनोखा है। ऐसा हो सकता है कि यह नाम अदृश्य एवं अगोचर खुदा ने दिया है लेकिन हम इसका उच्चारण गलत तरह से करते हैं। हम कश्मीर के क़ाफ़ को ज़ब्र के साथ बोलते हैं और अगर इस क़ाफ़ को पेश के साथ पढ़ा जाए तो होता है “कुशमीर” अर्थात मारो या मर जाओ।

कश्मीर मसले का हल न तो भारत के तरीके से होगा और न ही संयुक्त राष्ट्र और पाकिस्तान के। तो मेरे अज़ीज़ों! मेरे हिसाब से कश्मीर समस्या का सिर्फ एक ही उपाय है और वह यह है: भारत और पाकिस्तान कश्मीर को हिरोशिमा और नागासाकी बना दें और यह बहुत ही मंगलमय है कि यह करने की बुलंद हैसियत और ताकत दोनों ही देश रखते हैं। यह इसलिए क्योंकि दोनों ही देशों के पास परमाणु बम है।

मैं इस बात को नहीं समझ पाया हूं कि पिछले बावन वर्षों से भारत और पाकिस्तान अपनी खुद की यातनाओं से ग्रसित होने के बावजूद अपनी खुद की दर्दनाक समस्याओं को अनदेखा कर कश्मीर और कश्मीरियों की समस्या को सुलझाने में क्यों लगे हैं। आखिर किसके लिए? पिछले कुछ दिनों में इस बात की कुछ उम्मीद जागी है कि इस कयामत तक लटकी हुई समस्या का शायद कोई हल निकल जाएगा। इस कारणवश, इन दोनों का परमाणु ताकत के रूप में उभरना भाग्यशाली और शुभ है। मैं व्यक्तिगत तौर पर भारत और पाकिस्तान को यह सुझाव देना चाहता हूं कि कश्मीर मसले को सुलझाने के लिए जितना जल्दी हो सके परमाणु बम का इस्तेमाल कर लेना चाहिए। इसमें क्या परेशानी है? मैं इस मसले को सुलझाने के लिए परमाणु बम का सुझाव इसलिए भी दे रहा हूं, क्योंकि भारतीय और पाकिस्तानी आवाम सस्ते में खर्च होने लायक घटिया लोग हैं, यहां तक कि इतिहास के कूड़ाघर के पिस्सू हैं। और कश्मीर के लोग, बिल्कुल यहूदियों की तरह ख़ुदा के चुने हुए और प्यारे लोग हैं।

मैं अक्ल का अंधा और बेवकूफ आदमी हूं, कोई क्यूं मेरा सुझाव लेगा किसी भी समस्या के विषय में? लेकिन फिर भी, मैं अपने आधे या फिर पूरे पागलपन के प्रभाव में एक बात बोलना चाहता हूं, जो आपको लुभाए या न लुभाए- कश्मीर न तो भारत और न ही पाकिस्तान की समस्या है। भारत की ओर से मैं क्या ही कह सकता हूं, लेकिन पाकिस्तान की तरफ़ से मैं पूरी संवेदना और अत्यंत पीड़ा के साथ यह कहना चाहता हूं कि कश्मीर की समस्या सत्ताधारी लोगों के लिए न तो पहली है और न आखिरी। उनके लिए समस्या यह होनी चाहिए कि पाकिस्तान की आवाम भूख और बीमारी से ग्रस्त, भयानक गरीबी में रह और मर रही है, लेकिन इस बात की चिंता उनको खास है नहीं। मैं ऐसी जन्नत का क्या करूंगा जो मेरे लोगों के लिए एक जहन्नुम बन जाए!   

 

(इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

जौन एलिया
जौन एलिया

मौजूदा समय में युवा पाठकों और इंटरनेट यूजर्स के बीच जौन एलिया ने कल्ट फिगर का दर्जा हासिल किया हुआ है। वह ऐसे कवि थे जिनकी ज़िंदगी हमेशा उनकी कविता पर भारी रही। जब उनसे जुड़े प्रचलन का नशा ख़त्म होगा तब भी जौन एलिया हमारे सामने एक ऐसे कवि के रूप में नज़र आएंगे जो गहरी, निराशाजनक और महत्वपूर्ण इंसानी... मौजूदा समय में युवा पाठकों और इंटरनेट यूजर्स के बीच जौन एलिया ने कल्ट फिगर का दर्जा हासिल किया हुआ है। वह ऐसे कवि थे जिनकी ज़िंदगी हमेशा उनकी कविता पर भारी रही। जब उनसे जुड़े प्रचलन का नशा ख़त्म होगा तब भी जौन एलिया हमारे सामने एक ऐसे कवि के रूप में नज़र आएंगे जो गहरी, निराशाजनक और महत्वपूर्ण इंसानी चिंताओं का विवेचन आसान शब्दों में करते हैं। उनके चुने हुए विषयों का संबंध अस्तित्व की दूरदर्शिता से लेकर आध्यात्मिक जुड़ाव तक रहा है। जब वह विराग, धोखा, पीड़ा और दर्द के बारे में लिखते हैं तो वह चार्ल्ज़ बकोवस्की और एमिल कोइरन के साथ साहित्यिक और काव्यात्मक साहचर्य करते नज़र आते हैं।