इज़राइल का दूसरा युद्ध

हिंदुस्तान का एक युद्ध कश्मीर के साथ चल ही रहा है, लेकिन 'द कश्मीर फाइल्स' जैसी फिल्मों से साफ ज़ाहिर होता है कि हिंदुस्तान का दूसरा युद्ध उन हिंदुस्तानियों के साथ भी चल रहा है जो कश्मीरियों की स्वतंत्र राष्ट्र की आकांक्षा का समर्थन करते हैं। हिंदुस्तान के दक्षिणपंथी तत्वों के हिसाब से कश्मीर में युद्ध इसलिए नहीं चल रहा कि हिंदुस्तान ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर रखा है और कश्मीरी उस कब्जे से आज़ादी चाहते हैं, बल्कि कश्मीर अभी भी युद्धरत इसलिए है, क्योंकि हिंदुस्तान के उदारवादी और वामपंथी कश्मीर को हिंदुस्तान का अभिन्न हिस्सा बनाने की राह में रोड़ा बने हुए हैं। उनके हिसाब से पहले युद्ध को खत्म करने के लिए उन ‘भीतरी शत्रुओं’ का सफाया करना जरूरी है जो दूसरे युद्ध के लिए जिम्मेदार हैं। इसी धारणा के चलते उदारवादियों और वामपंथियों को राष्ट्र-विरोधी घोषित करके जेलों में भरा जा रहा है या उनका सीधा एनकाउंटर करके खत्म ही कर दिया जा रहा है। दक्षिणपंथी यहूदियों का स्वप्नमयी राष्ट्र इज़राइल भी इसी व्यथा से गुजर रहा है। वहां उन लोगों पर निशाना साधा जा रहा है जो फिलिस्तीनियों की स्वतंत्र राष्ट्र की आकांक्षा का समर्थन करते हैं। इज़राइल में घटित हो रही इन्हीं परिस्थितियों को समझाने के लिए लेख लिखा गया है। हो सकता है कि दूसरों को देखकर आप अपने बारे में भी कुछ सीख जाएं, और अगर दूर होने की वजह से आप फिलिस्तीनियों के लिए कुछ नहीं कर सकते तो शायद कश्मीरियों के लिए ही कुछ कर पाएं।

इज़राइल का दूसरा युद्ध

पटचित्र: Palestine Solidarity Campaign

हि‍ब्रू  से अनुवाद अंग्रेजी में: यारडेन ग्रीनस्पैन
अंग्रेजी से अनुवाद हिन्दी में: नित्यानंद राय
स्त्रोत The New Yorker
प्रकाशन तिथि – 25 जुलाई 2014

-        इस लेख का एक संस्करण हिब्रू भाषा में येडिओट अहरोनॉट (Yediot Ahronot) में प्रकाशित हुआ था

 

पिछले कुछ हफ्तों में मैंने यह लोकप्रिय वाक्य बार-बार देखा और सुना है, ‘आईडीएफ को जीतने दो।’ यह वाक्य सोशल मीडिया पर पोस्ट किया गया, दीवारों पर स्प्रे पेंट से लिखा गया  और प्रदर्शनों में दुहराया गया है। कई नौजवान इसे अपने फेसबुक पर पोस्ट कर रहें हैं। उन्हें लगता है कि यह एक मुहावरा है जिसकी उत्पत्ति वर्तमान में ग़ाज़ा में चल रही सैनिक कार्रवाई के जवाब में हुई है। लेकिन मेरी उम्र इतनी हो चली है कि मुझे इसकी उत्पत्ति ही नहीं, बल्कि यह भी याद है कि यह समय के साथ-साथ कैसे बदला है- यह गाड़ी के बंपर पर लगने वाले स्टीकर की तरह शुरू हुआ, फिर यह मंत्र में बदल गया। जाहिर तौर पर यह नारा हमास या अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संबोधित नहीं करता। यह नारा इज़राइलियों से मुख़ातिब होता है, और इसमें वह विकृत विश्व दृष्टिकोण शामिल है जो पिछले बारह सालों से इज़राइल को निर्देशित कर रहा है।

इसमें पहली विशुद्ध धारणा यह है कि इज़राइल में कुछ ऐसे लोग हैं जो सेना को जीतने से रोक रहें है। ये माने हुए गद्दार मैं, मेरा पड़ोसी और ऐसा कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो इस युद्ध की बुनियाद और औचित्य पर सवाल उठाता है। ये सारे अजीबो-गरीब लोग सवाल पूछने की हिमाकत करते हैं या हमारी सरकार के कामकाज पर चिंता ज़ाहिर करते हैं। यह अपने दोष ढूंढ़ने वाले विश्लेषणात्मक लेखों और हारी हुई मानसिकता वाली मानवता और सहानुभुति की अपील से हमारे सेना के समर्थ हाथों को बांधे हुए हैं। आईडीएफ और संपूर्ण विजय के बीच यही लोग खड़े हैं।

इस नारे में एक दूसरा और भी खतरनाक विचार है। वह यह है कि आईडीएफ की जीत वास्तव में संभव है। कई दक्षिण-इज़राइली लोग न्यूज में यह कहते रहते हैं, ‘हम इन मिसाइल हमलों को लगातार झेलने  के लिए तैयार हैं, बशर्ते हम इसे एक ही बार में हमेशा के लिए खत्म कर दें।’   

बारह साल हमास के खिलाफ पांच युद्ध (जिसमें चार ग़ाज़ा में थे) और अभी भी हमारे पास वही पेचीदा नारा है। जवान लड़के, जो कि ऑपरेशन डिफेंसिव शील्ड के दौरान पहली कक्षा में पढ़ रहे थे, आज सैनिक के रूप में ग़ाजा पर आक्रमण कर रहें हैं। इन सभी सैनिक अभियानों में ऐसे दक्षिणपंथी राजनेता और सैनिक टिप्पणीकार शामिल रहें हैं जो इस बात पर जोर देते हैं कि ‘इस बार कोई भी कोशिश अधूरी नहीं छोड़नी है और इसे तब तक जारी रखना है जब तक  कि इसका अंत नहीं हो जाता।’ इनको टेलीविजन पर देखते हुए मैं खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता हूं कि आखिर वह कौन-सा अंत है जिसे पाने की कोशिश की जा रही है?  अगर हर एक हमास लड़ाके को मार भी दिया जाए, तब भी क्या कोई सच में यह यकीन कर सकता है कि उनके साथ ही फिलिस्तीनी लोगों की स्वतंत्र राष्ट्र की आकांक्षा भी गायब हो जाएगी? हमास से पहले हम पीएलओ के विरुद्ध लड़े, और अगर हम तब तक ज़िंदा रहे तो हमास के बाद हम शायद अपने आप को किसी और फिलिस्तीनी संगठन से लड़ते हुए पाएंगे। इज़राइली सेना लड़ाइयां तो जीत सकती है, लेकिन जनता के लिए शांति और सुकून केवल राजनीतिक समझौतों के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। मगर उन राष्ट्रभक्त शक्तियों के अनुसार जो वर्तमान में इस युद्ध को चला रहीं हैं, ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि यही बातें हैं जो आईडीएफ को जीतने से रोक रही हैं। अंततः जब यह सैनिक अभियान खत्म होगा और हमारी और उनकी तरफ की लाशों की गिनती की जाएगी, तब दोषारोपण वाली उंगली फिर एक बार हम जैसे गद्दारों की ओर होगी।

वर्ष 2014 के इज़राइल में वैध चर्चाओं की परिभाषा ही पूरी तरह से बदल गई है। चर्चाओं मे विभाजन हो गया है, एक ओर ‘आईडीएफ के समर्थक’ हैं और दूसरी ओर उसके विरोधी। दक्षिणपंथी गुंडे जेरूसलम की सड़कों पर नारा लगाते हैं- ‘अरबियों की मौत हो’, ‘वामपंथियों की मौत हो’ या फिर विदेश मंत्री अविगडॉर लीबरमैन (Avigdor Lieberman) उन अरब-इजरायली व्यापारों का बहिष्कार करने का आह्वान करते हैं जो ग़ाज़ा में सैनिक कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। इन दोनों वारदातों को देशप्रेम समझा जाता है, जबकि सैनिक कार्रवाई को रोकने की मांग या ग़ाज़ा में औरतों और बच्चों की मृत्यु पर सहानुभूति मात्र प्रकट करने को राष्ट्र और झंडे के खिलाफ गद्दारी के रूप में देखा जाता है। हम ऐसे फर्जी लोकतंत्र विरोधी समीकरण में फंस गए हैं जिसमें आक्रामकता, नस्लवाद और क्रूरता का अर्थ है अपनी मातृभूमि से प्रेम; जबकि शक्ति के प्रयोग या सैनिकों की मृत्यु का विरोध करने का अर्थ है मौजूदा इज़राइल को नष्ट करने की कोशिश करना।

कभी-कभी ऐसा लगता है कि जैसे दो युद्ध चल रहें हैं। एक मोर्चे पर सेना हमास के खिलाफ युद्धरत है। दूसरे मोर्चे पर ‘भीतरी शत्रु’ से जंग हो रही है। चाहे वह सरकार का मंत्री हो जो अरब सहकर्मियों को क्नेसेट (इजरायल की संसद) के मंच से ‘आतंकवादी’ कहकर संबोधित करता है; या गुंडे, जो शांति की मांग करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को सोशल मीडिया पर डराते धमकाते हैं; या फिर दोनों मिल कर ऐसे किसी भी व्यक्ति को प्रताड़ित करते हैं जो उनकी हां में हां नहीं मिलाता। यह कहने में कोई झिझक नहीं कि हमास हमारी और हमारे बच्चों की सुरक्षा के लिए एक खतरा है। लेकिन क्या यही बात मनोरंजन करने वाले कलाकारों के लिए भी कही जा सकती है? जैसे हास्य कलाकार ओरना बनई (Orna Banai), गायक एकिनोम नीनी (Achinoam Nini) या मेरी पत्नी, फिल्म निर्देशक शिरा गेफेन (Shira Geffen)। इन सबको फिलिस्तीन में हो रही बच्चों की मौत पर अपनी सार्वजनिक नाराजगी जताने के लिए नफरत भरी और हिंसक गालियां दी जा रहीं हैं। इनके ऊपर किए जाने वाले अतिवादी हमले क्या हमारी सुरक्षा के लिए जरूरी हैं या फिर वे महज़ हमारे अंदर बढ़ती नफरत और रोष के प्रतीक हैं? क्या हम सचमुच इतने कमजोर और डरे हुए हैं कि बहुसंख्यक सहमति से अलग किसी भी विचार को शांत करवा देना आवश्यक है, नहीं तो न सिर्फ आवाज उठाने वालों को बल्कि उनके बच्चों के खिलाफ भी जान से मार देने की धमकियां दी जाएं?

कई लोगों ने मुझे यह समझाने की कोशिश की कि मैं इस लेख को प्रकाशित न करूं। कल रात मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया कि ‘तुम्हारा एक छोटा बेटा है। कई बार सही होने से बेहतर होता है समझदार होना।’ मैं कभी भी सही नहीं रहा हूं, और मैं शायद बहुत समझदार भी नहीं हूं। लेकिन मैं अपने विचारों को व्यक्त करने के अधिकार की लड़ाई उतनी ही निष्ठुरता से लड़ने के लिए तैयार हूं जितना कि आईडीएफ ग़ाजा में लड़ रही है। यह लड़ाई मेरे व्यक्तिगत विचारों के बारे में नहीं है, जो कि गलत या फिर बिल्कुल बकवास भी हो सकते हैं। यह लड़ाई तो उस स्थान के लिए है जहां मैं रहता हूं और जिससे मैं प्रेम करता हूं।  

10 अगस्त, 2006 को जब दूसरा लेबनान युद्ध अंत के करीब था, लेखक एमोस ओज़ (Amos Oz), एबी येहोशुआ (A. B. Yehoshua) और डेविड ग्रॉसमैन (David Grossman) ने एक प्रेसवार्ता संबोधित की थी जिसमें उन्होंने सरकार से त्वरित युद्धविराम की मांग की थी। मैं एक टैक्सी में था और यह रिपोर्ट रेडियो पर सुन रहा था। मेरा ड्राइवर बोला ‘यह कुत्ते के पिल्ले चाहते क्या हैं, हा? क्या हिजबुल्ला की तकलीफ इनसे देखी नहीं जाती? ये गांडू लोग हमारे देश से नफरत करने के अलावा कुछ नहीं चाहते।’ पांच दिन बाद डेविड ग्रॉसमैन ने अपने बेटे को सैनिकों के लिए बने माउंट हर्ज़ल कब्रिस्तान में दफनाया। शायद वह ‘कुत्ते का पिल्ला’ इस देश से नफरत करने के बजाए कुछ और भी चाहता था। सबसे ज़्यादा तो वह यह चाहता था कि उसके बेटे की तरह वे सारे नौजवान, जिन्होंने लड़ाई के उन आखिरी और निरर्थक दिनों मे अपनी जान गंवाई जिंदा लौटकर घर आएं।

ऐसी त्रासद गलतियां करना बेहद दर्दनाक होता है जिनके कारण कई जानें चली जाती हैं। मगर वैसी ही गलतियां बार-बार करते जाना और भी बुरा है। ग़ाज़ा में चार सैनिक अभियान हुए हैं जिनके कारण बड़ी संख्या में इजराइली और फिलिस्तीनी दिल धड़कना बंद कर चुके हैं, और हर बार हम खुद को उसी जगह पर पाते हैं। एक अकेली चीज जो बदलती है वह है इजराइली समाज की आलोचना सहने की क्षमता। इस सैनिक अभियान के दौरान यह स्पष्ट हो गया है कि दक्षिणपंथ “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” जैसी मायावी चीजों को लेकर सारा धैर्य खो चुका है। पिछले दो हफ्तों में हमने देखा कि दक्षिणपंथी लोग वामपंथियों को डंडों से पीट रहे हैं, फेसबुक मैसेजेस में वामपंथी कार्यकर्ताओं को गैस चैंबर में डालने की बात कही जा रही है, और ऐसे किसी भी व्यक्ति के बहिष्कार करने की बात कही जा रही है जिसके विचार सेना की जीत की राह मे रोड़ा बनते हैं। अब ऐसा लगने लगा है कि यह कमबख्त सड़क, जिसपर हम एक सैनिक अभियान से दूसरे सैनिक अभियान को जाते हैं, वह वैसी वृत्तकार नहीं है जैसा कभी हम सोचा करते थे। यह सड़क गोल नहीं हैं, यह नीचे की ओर जाने वाली सर्पिली सड़क है, जो हर बार नई निम्नता को छूती है, और मैं यह बेहद दुख के साथ कह रहा हूं कि हम अत्यंत दुर्भाग्यशाली हैं कि इस सड़क से हमें गुजरना पड़ रहा है।

 

(इस लेख को एडिट करने में  शहादत खान ने मदद की है)

एटगार केरेट
एटगार केरेट

एटगार केरेट (1967 - ) इज़राइली लेखक हैं जो अपनी लघु कहानियों, ग्राफिक उपन्यास, और फ़िल्म और टी.वी. के लिए किए गए पटकथा लेखन के लिए जाने जाते हैं | उन्हें फ्रान्ज़ काफ्का की कहानियां बहुत पसंद हैं और वही कहानियां उनकी प्रेरणास्त्रोत भी हैं। फिलिस्तीन पर इज़राइल के कब्ज़े के बारे में वे सीधे सीधे नहीं... एटगार केरेट (1967 - ) इज़राइली लेखक हैं जो अपनी लघु कहानियों, ग्राफिक उपन्यास, और फ़िल्म और टी.वी. के लिए किए गए पटकथा लेखन के लिए जाने जाते हैं | उन्हें फ्रान्ज़ काफ्का की कहानियां बहुत पसंद हैं और वही कहानियां उनकी प्रेरणास्त्रोत भी हैं। फिलिस्तीन पर इज़राइल के कब्ज़े के बारे में वे सीधे सीधे नहीं लिखते लेकिन उस कब्ज़े से जो लोगों पर मानसिक प्रभाव पड़ रहा है, उसको वे बहुत ही मार्मिक तरीके से पेश करते हैं | यही नहीं, वे दुनिया में कभी भी और कहीं भी इंसान होने की दशा को बखूबी समझते हैं और व्यक्त करते हैं | इनकी कहानियां रोज़मर्रा की साधारण ज़िन्दगी को दिलचस्प बना देती हैं और हमे अपने आस पास की दुनिया को नए नज़रिए से देखने पर मजबूर करती हैं | ये सरल चलती भाषा में लिखते हैं जो आम आदमी के समझ आ सके और इसलिए इनकी कहानियां विभिन्न देशों में लाखों लोग पढ़ते हैं | वैसे तो ये अपनी मातृभाषा हि‍ब्रू में लिखते हैं, मगर इनकी कहानियां इतनी लोकप्रिय हैं कि वे अब तक 42 भाषाओँ में अनुवादित हो चुकी हैं|


फोटो: यानाई येखईएल