पटचित्र: Chappatte in International Herald Tribune
अरबी से अनुवाद अंग्रेजी में: अमीरा नोवैरा
अंग्रेजी से अनुवाद हिन्दी में: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्त्रोत: Granta Magazine
मां, मेरे सिर पर अपना हाथ उसी तरह फेरो जैसे तुम बचपन में फेरा करती थी। मेरे लिए इस दुनिया में सिर्फ एक तुम ही बची हो। बीस लंबे सालों तक मैं तुमसे मिलने नहीं आया लेकिन तुमने मुझे कभी धिक्कारा नहीं। परन्तु तुम अकेली नहीं थी जिससे मैंने खुद को दूर रखा; मैं इतना ज़्यादा व्यस्त हो गया था कि अपने आसपास की दुनिया ही नहीं, खुद पर भी ध्यान नहीं दे पाया। यहां तक कि मैं तो अपनी बेटी, बीवी और बचपन के दोस्तों से मिलने का भी समय नहीं निकाल पाया। मेरे पास बमुश्किल अपने चेहरे तक को देखने का ही वक्त था। बाहर निकलने से पहले मैं केवल एक नज़र शीशे पर डालता, सिर्फ अपनी टाई व्यवस्थित करने के लिए और यह निश्चित करने के लिए कि मेरे सूट और शर्ट बेमेल तो नहीं है।
मुझे ऐसा लगता था मां कि मैं इस दुनिया में नहीं रह रहा हूं। क्या यह संभव है कि बिना मरे ही मैं किसी अन्य दुनिया में जा कर रह सकूं? क्या यह संभव है कि मैं मर जाऊं और अखबार में शोक सन्देश न निकले? जब कि मेरे समान प्रख्यात मंत्री जब गुज़र जाते हैं तो देश भर के अखबारों में शोक संदेश ज़रूर छपते हैं। और यह भी आवश्यक है कि एक विशाल अंतिम यात्रा निकाली जाए, और शोक प्रकट करने वालों की लाइनें लग जाए। पहली पंक्ति में बीचों-बीच अति विशिष्ट महापुरुष स्वयं खड़े होंगे, काली टाई पहने और अपने आंसुओं को काले चश्मे के पीछे छिपाते। इस प्रकार का चित्रण मुझे इतना भावुक कर देता कि मैं अक्सर कामना करता कि काश मैं ही उस ताबूत में होता जिसे लोग अपने कंधे पर उठा रहे हैं।
मां, मैं आपकी दुनिया से बिल्कुल कट गया था और मेरे शरीर और दिमाग के लिए यह बोझ सहन करना संभव नहीं था। मेरा शरीर कभी-कभार थकान के कारण सट से रुक जाता, जब कि मेरा दिमाग चलता रहता। दूसरी ओर, मेरा दिमाग बहुत बार इतना थक चुका होता कि चलना बंद कर देता, जब कि मेरा शरीर काम करता रहता, इधर से उधर, ऑफिस जाना, मीटिंग या कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करना, हवाई अड्डे पर प्रतिनिधि मंडलों से मिलना, पार्टियों में जाना या अति विशेष कार्यों के लिए विदेश जाना।
पहले जब मैं अपने शरीर को बिना किसी दिमागी निर्देश के अपने आप चलते देखता था तो मुझे काफी अचंभा होता था। मुझे विशेष तौर से चिंता तब होनी शुरू हुई जब यह उन महत्वपूर्ण मीटिंगों के दौरान होने लगा जिनमें मुझे सचेत रहने की बहुत ज़रूरत थी। केवल वे ही मीटिंग्स महत्वपूर्ण थीं जो स्वयं महापुरुष की अध्यक्षता में आयोजित की जाती थीं। जब से मैंने सरकार के लिए काम करना शुरू किया है, तभी से मैंने अपने अधीनस्थ स्थिति में होने से घृणा की है। मुझे अपने से ऊंचे पद वालों के प्रति नफरत को कठोरता से छिपाने की आदत हो गई थी, मैं अपना गुस्सा केवल ऑफिस में अपने अधीन कर्मचारियों पर या फिर घर में अपनी बीवी पर निकालता, जैसा कि मेरे पिता अक्सर आपके साथ किया करते थे।
काम के दौरान मैंने किसी भी सीनियर के सामने अपना आवेश नहीं खोया, यहां तक कि साधारण अधिकारी के सामने भी नहीं, राज्याध्यक्ष की तो दूर की बात है। मैं अपनी कुर्सी पर शरीर और मन से चौकस एवं दिमागी एकाग्रता के साथ बैठा रहता था। मैं हमेशा इस कशमकश में रहता था कि वह मुझसे कोई सवाल कर लेंगे जिसका जवाब मेरे पास नहीं होगा। अगर जवाब मुझे पता भी होता, तब भी मुझे चिंता लगी रहती। मुझे डर था कि सही जवाब शायद अपेक्षित जवाब साबित नहीं होगा।
राजनीति में हमारी पहली सीख ये ही है कि सही जवाब हमेशा अपेक्षित जवाब नहीं होता। लेकिन अपेक्षित जवाब हमेशा सही जवाब साबित होता है। मेरे जैसे मंत्री को शरीर और दिमाग दोनों से चौकन्ना रहना पड़ता था, जिससे मैं गलत जानकारी से सही तथ्य निकाल सकूं। यह बहुत मुश्किल है। मैं मीटिंग में बैठता था, बायां हाथ जांघों पर अस्थिर रखा हुआ, और मेरे दाएं हाथ में कलम पन्ने के ऊपर तैयार। मुझे तैयार होना होता था किसी भी यादृच्छिक संकेत के लिए, सिर की अद्रश्य हिलावट, हाथ के गुप्त इशारे, जैसे उंगली या नीचे के होंठ का मुड़ना या खिंचना, या फिर नाक, मुंह, या आंख के पास की मासपेशियों का ऐंठना। मैं ऐसी किसी गतिविधि को होने के पहले ही भांप लेता था। मेरा दिमाग ऐसे किसी भी संकेत को समझने में तेज़ था, मगर अपने सबसे अच्छे दिनों में मेरी आंखें और कान और तेज़ थे, क्योंकि वे महापुरुष की आवाज उनके शब्द निकालने से पहले ही सुन लेते थे।
मेरे कुर्सी पर बैठते ही मेरा शरीर, दिमाग और आत्मा संवेदनशील तंत्रिकाओं के समूह में परिवर्तित हो जाते: मैं इतना बेचैन हो जाता मानो मेरी नसें रडार के तारों का गुच्छा बन गईं हों। मेरे सिर, हाथ, छाती और पेट ऐसे थरथराते मानो उनमें बिजली बह रही हो। जब भी मैं संयोग से अपने आप को उनके पास खड़ा पाता तो मेरा दायां हाथ कांपने लगता, जब कि मेरा बायां हाथ उसे संभालने की कोशिश भी करता। मैं अपने हाथ अपनी छाती या पेट पर मोड़े रखता। चाहे बैठूं या खड़े रहूं, मैं अपने पैर किसी शर्मीली कुंवारी लड़की की तरह एकदम सिकोड़े रखता।
एक फोटो है, जिसमें मैं उनके पास खड़ा हूं। जब लाइट हम पर केंद्रित हुई तो मैंने अपनी दशा बदलने की कोशिश की। मैंने अपने दायें हाथ को अपने बायें हाथ से अलग करने की कोशिश की और अपने दोनों पैरों को भी। लेकिन मेरे अंग लकवे से अकड़ गए थे। जब यह फोटो छपी तो मैं इतना शर्मिंदा हुआ कि मैंने अखबार को अपने परिवार से छिपा लिया, खासकर अपनी बेटी से। ऊंचे पद के सरकारी अधिकारियों के साथ मेरी फोटो देख मेरी बेटी ने अपनी उंगली से मेरे मुंह कि तरफ इशारा किया और अपनी मां से कहा,
‘मम्मा, ये बाबा नहीं है।’
एक महान आदमी की बीवी होने के गौरव से उसने कहा,
‘ये तुम्हारे बाबा हैं, मेरी प्यारी बच्ची, माननीय मंत्री, पहली पंक्ति में राष्ट्रपति के साथ खड़े हुए।’
मैंने कभी इतनी शर्मिंदगी महसूस नहीं की जितनी कि अपनी बेटी के सामने उस दिन की। उसकी बच्चे जैसी आंखें दूर तक देख सकती थीं और उसने मेरा राज खोल कर मुझे मेरी असलियत दिखा दी। मां आप अक्सर दावे से कहा करती थी कि बच्चों के पास अलौकिक शक्तियां होती हैं। मुझे मेरी बेटी की नज़र से डर लगने लगा। वह संतुलित एवं अविचल नज़र से मुझे देखती थी; जिस नज़र से आम बच्चे अपने पिता को देखते हैं, उससे बहुत अलग। भले ही वह अभद्र और भ्रष्ट हो, हर बच्चे के लिए बाप तो आखिर बाप होता है।
मेरा बाप औरतखोरी करने वाला अय्याश बेवड़ा और जुएबाज़ था। मगर मां वे आपकी नजरों में भगवान थे, हैं ना? और आप समझती थीं कि आपका नन्हा-सा बेटा बड़ा होकर अपने बाप जैसा शेर बनेगा। मां, मैं शेर बन गया। मैं घर और काम पर दोनों ही जगह तानाशाह था। जितने ज़्यादा दब्बू और आज्ञाकारी मेरे मातहत होते, मैं उतना ज़्यादा खुद को पसंद करता। मेरी पूरी ज़िंदगी में मुझसे नीचे काम करने वाले किसी भी पुरुष या औरत ने मेरा कभी विरोध नहीं किया। सिवाय एक जवान औरत के, जो क्रांति की शुरुआत के लगभग दो महीने पहले मेरे ऑफिस में आई थी।
उसने मुझे पूरी तरह से हिला दिया। इसलिए नहीं कि वह मुझसे असहमति जता रही थी, और न ही इसलिए कि वह बीस साल की बेरोजगार औरत माननीय मंत्री जी के सामने बिना डरे खुलकर बोलने का साहस कर पा रही थी। और इसलिए तो बिल्कुल भी नहीं कि एक औरत होकर उसने मर्द के सामने बोलने का दुस्साहस किया या फिर मुझे मेरी उचित उपाधि से नहीं बुलाया। बल्कि, उसने मुझे सिर्फ इसलिए चौंका दिया, क्योंकि वह मेरी आंखों में बिना डरे स्थिरता के साथ सीधे घूर रही थी। कोई सज्जन मर्द भी आपको इस तरह घूरने का साहस नहीं करेगा, औरत की तो बात ही छोड़ दो।
मुझे उसमें सही में उत्सुकता होने लगी और मैं क्रोधित हो गया, उससे ज़्यादा अपने आप पर। गुस्से ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया तो अगले दिन मैंने उसकी पेशी का फरमान जारी कर दिया। मैंने उसे अपने सामने खड़े रखा और अपनी डेस्क के पीछे इत्मीनान से बैठकर फोन पर खिसियाने लगा।
मैं उसे उसकी व्यर्थता का अनुभव करवाना चाहता था। मैं फोन पर चुटकुले मार-मारकर हंसता रहा, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह ऑफिस में ऐसे घूमती रही जैसे मैं वहां हूं ही नहीं, इतने आराम से कि मानो वह खुद के घर में हो। उसने दीवार पर टंगे चित्रों को बड़े गौर से देखा, एक के पास जाकर रुकी और ऐसे बोली जैसे व्यंग्य कर रही हो, ‘अफीम के फूल?’
इससे पहले कि वह मुड़कर अपनी तीखी नज़र से मेरी खोपड़ी में घुस जाए, मैंने ध्यान से उसकी मुखाकृति की समीक्षा करने की कोशिश की। मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं वहां पूरी तरह से नंगा बैठा हूं। अखबार में छपी फोटो पर अपनी बेटी की प्रतिक्रिया और उसके चेहरे पर आए भाव को याद करके मैं और क्रोधित हो गया। मैंने अपनी सज्जनता खो दी। अपना हाथ हिलाते हुए मैंने उससे ज़ोर से कहा,
‘तुम हो कौन, आखिर किस खेत की मूली हो? तुम जो भी हो, सिर्फ एक औरत से ज़्यादा नहीं हो। तुम्हारी जगह बिस्तर में मर्द के नीचे है।’
एक साधारण औरत ये शब्द सुनकर शर्मिंदगी से मर जाती। मगर उसको तो लज्जा छू भी नहीं पाई। उसको कोई फर्क नहीं पड़ा।
मेरी असली त्रासदी सरकार में जगह खोना नहीं है। मेरी असली त्रासदी है कि मैंने जगह कैसे खोई।
उस खौफनाक सुबह मैंने अखबार खोला और अपना नाम नई गठित कैबिनेट लिस्ट में नहीं पाया। मैं एकदम से पराया बन गया, जैसे मुझे रजिस्टरों से खारिज कर दिया हो, जैसे मेरा अब कोई नाम ही न हो। जो फोन दिन रात बजता रहता था, अचानक से मूक हो गया। मुझे सबने छोड़ दिया।
हालांकि फोन के लगातार बजने से मैं उस समय चिढ़ा रहता था, मुझे अब एहसास हुआ कि असल में उससे मुझे बिल्कुल परेशानी नहीं होती थी। मैं उसका उतना ही आदी था जितना कि मैं शराब, औरत, ताकत और दौलत का था। क्या ये सब मर्दों को भगवान के दिए वरदान नहीं हैं? मैंने भगवान के दिए सारे आनंद पाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कभी संतुष्टि नहीं मिली, तब भी नहीं जब मेरे पास चालीस महल और चालीस औरतें थीं।
हां, मां, मैंने भगवान के दिए वरदान को तुच्छ चीजों में व्यर्थ कर दिया। उस दर्दनाक और निर्णायक दिन मैं एक कैबिनेट मीटिंग में था जिसकी अध्यक्षता महापुरुष खुद कर रहे थे। मुझे यकीन था कि मैं कुर्सी पर बैठा हूं, लेकिन मुझे इस बात का भी निश्चय था कि वह जो उस कुर्सी पर बैठा है, वह मैं नहीं हूं। मैं अपना ध्यान केंद्रित कर ही नहीं पा रहा था। मुझे जानना था कि जब चीजें इतनी ज़्यादा बदल चुकी हैं तब मैं हमेशा की तरह कैसे बैठा रह सकता हूं। मैं सोच-विचार करते रहा कि वहां बैठा हुआ व्यक्ति वाकई में “मैं” हूं या कोई और है। उन दोनों व्यक्तियों में से असली “मैं” कौन था? और तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी दुविधा की असली वजह वह क्रांतिकारी जवान औरत थी। जब से मैंने उसे देखा था, तब से मैं उसके बारे में सोचना बंद ही नहीं कर पाया था।
वह खूबसूरत भी नहीं थी, फिर भी उसने कुछ उल्लेखनीय कर दिखाया: उसने वे सारी धारणाएं मिट्टी में मिला दीं जिन पर हमने पूरी ज़िंदगी भर अमल किया था।
श्री श्री के किसी भी इशारे या शब्द के इंतज़ार में मेरा दायां हाथ आज्ञापूर्वक पन्ने पर कलम पकड़े तैयार था। मगर श्री श्री ने मेरे बाएं हाथ को गति करते देख लिया। उन्होंने मेरी ओर नज़र घूमा ली और मुझसे सवाल पूछा। मुझे सही जवाब और अपेक्षित जवाब दोनों पता थे, मगर मुझे उनमें से कोई भी देने में डर लग रहा था।
मुझे कोई अंदाजा नहीं कि जवाब आखिर में किसने दिया। जब महापुरुष की आंखें मेरी तरफ घूमीं तो मेरी कंपकंपी छूट गई। वह बुखार के कारण था या फिर मेरा क्रांतिकारी औरत से ग्रस्त होने के कारण, मुझे नहीं पता, लेकिन मेरा दिमाग पूरी तरह से विचलित था। मैं मूर्तिवत वहां बैठा रहा, बिल्कुल स्थिर। उनकी आंखें मेरे ऊपर मृत्यु के बोझ जैसी पड़ीं। जब उन्होंने मुझसे दूसरा सवाल पूछा तो जवाब आसान और स्पष्ट था।
मां, सही जवाब अपेक्षित जवाब नहीं था। मैं यह कैसे भूल गया? यह मेरी मृत्यु का कारण कैसे बन गया? मैं शोक नहीं मना रहा हूं मां; मैं तो शाश्वत शांति और मुक्ति का हर्ष मना रहा हूं। मैं अपनी छाती पर रखे भार से छुटकारा पाकर हल्का महसूस कर रहा हूं। मैं इस दुनिया को छोड़ने तैयार हूं और इसको हमेशा के लिए अलविदा बोलने में मुझे खुशी होगी। मगर दुर्घटना तो यह है कि इस दुनिया को छोड़ते हुए जो शांति मुझे मिली है उसके बावजूद भी मैं फोन अपने पास रखता हूं और उसके बजने का इंतज़ार करता हूं। मरने से पहले मैं अभी भी किसी एक व्यक्ति के फोन का इंतज़ार कर रहा हूं जो मुझसे कहेगा, ‘माननीय मंत्री महोदय।’
(इस कहानी को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)