कंदील

चीजों का अपना कोई मूल्य नही होता। जिसके पास जो चीज नही होती, उसको वही चीज ज़्यादा कीमती लगती है। यही कारण है कि समय की शुरुआत से इंसान इधर से उधर घूमता आया है, अलग-अलग चीजें को पीचते भोगते सभ्यता की ओर बढ़ा है। यही कारण है कि न राजा अपने खजाने के साथ खुश रहता है और न तेली ही अपने तेल के साथ। अमीर आदमी प्यार के अभाव में मर रहा है तो गरीब आदमी पैसे के अभाव से। इस कहानी में भी कुछ ऐसा ही दिखता है। राजा के पास सब है, मगर कंदील नही है। मगर जिसके पास कंदील है, उसके पास कुछ भी नही है। इसी भाव-अभाव के खेल में एक कहानी छुपी है।

कंदील

 

अनुवाद: शहादत खान 

“मैंने बगदाद में अपने-आप को अजवा खजूर की चाहत में गिरफ्तार में पाया।” कहा जाता है, खुदा जाने यह बात सही है या नहीं, वह साल बारिश रहित झुलसा देने वाली गर्मी और सूखे का साल था। शहर में इस तरह सूखा पड़ा था जैसे कभी कीरवान, फास, सजलम्साह, कफ्साह और माहदिया वगैरहा शहरों में बिजली की सी तेज़ी से होता था।

खाने का सामान खत्म हो चुका था। लोग जंगल की और निकल खड़े हुए... घास और खूंबियों की तलाश में, अपने पेट की आग को बुझाने के लिए। जैसे ही उनकी उम्मीदों ने दम तोड़ा, उन्होंने ज़िंदगी पर मौत को तरजीह दी। अल्लाह हमे फाके (भूखमरी) की सख्तियों से बचाए... बुराई और भूख से भी। सूखे का समय सात लंबे वर्षों तक खिचता चला गया, यहां तक कि ऊंट तक औंधे पड़ गए। इतने ज्यादा कि उन्हें अपनी कोहनियों को उठाना मुश्किल हो गया। अल्लाह अपने मोमिन बंदों पर मेहरबान है! लोग हमेशा उन अंधेरेनुमा बरसों की खौफनाक सख्तियां और कठिनाइयां याद रखते थे। यह सूखा उनके इतिहास में एक संगमील बन चुका था और वे उस सूखे से ही अपने वाकियात और त्याहौरों को याद रखते थे।

उन लंबे चौड़े रेगिस्तानों में फैले एक बड़े शहर में एक होशियार आदमी रहता था।  शांति और खुशहाली में उसका ख्याल था कि सब्र ही एकमात्र भविष्य का खजाना है। कहानी यूं है कि दिन के वक्त यह आदमी अपनी दुकान में जूते मरम्मत करता था। उसकी दुकान का शुमार शहर की अच्छी दुकानों में होता था। यह दुकान मदरसा अबू अलआनिया के साथ लगी हुई बनी थी। हालांकि कुछ दूसरों के मुताबिक उसकी दुकान तकिया सईद साहिब के पास स्थित थी। कुछ यह भी कहते हैं कि नहीं, यह दुकान अमीरुल मोमिनीन इस्माइल मंसूर अल शीमी के द्वारा बनवाई गई काली छत वाली कोठी के करीब थी। रात को हमारा यह दोस्त अपने खानदान यानी अपनी बीवियों और बच्चों के साथ व्यस्त रहता। यह और दूसरे लोग इतने संतुष्ट और मुतमईन थे कि गर्मियों के बादल भी उन्हें बदमज़ा न कर सकते थे। लेकिन जब वह आफत और नागहानी का शिकार होकर हर तरफ से मुसीबतों में घिर गया, दिल और दिमाग उसका साथ छोड़ गए। लेकिन जब उसने सूखे के उस दौर में ऊंटों तक को भी भूख और प्यास की शिद्दत से गिरते देखा तो उसका यह यकीन कि सब्र एकमात्र भविष्य का खजाना है, टूट गया। उसका यकीन पहले लड़खड़ाया और फिर आखिरकार दम तोड़ गया। वक्त बीतने के साथ उसके पास गुजारे लायक बचा सामान भी खत्म हो गया। तब वह गुस्से में घायल पंछी की तरह फड़फड़ाया, लेकिन बेसूद।

उसने कहा, “मेरे खानदान को खाने-पीने का सामान चाहिए। चाहे मुझे उसके लिए चोरी करने का इरादा करना पड़े, डकैती या फिर कत्ल का।”

लिहाजा वह एक रोज़ सुबह सवेरे घर से निकला। उसके हाथ में चाकू था। वह घरों की दिवारों के बिल्कुल करीब से गुजरता कि उसकी नज़रे घरों के अंदर पड़ सके। उन घरों में उसे फक्त भूख से बिलबिलाते जिस्म ही नज़र आए, जो गलियों की तरफ ऊपर नीचे पड़े थें। मक्खियों के छत्ते उन पर भिनभिना रहे थें। सूरज की वहशतनाक किरणें नीले आसमान से बराबर उन पर तीर बरसा रही थीं। साथ ही तेज लू भी चल रही थी। यह बहुत खौफनाक मंजर था। ज़रा इस काबिल-ए-रहम इंसानियत की हालत को देखें! गरीब आदमी चिल्लाया और रो दिया। क्या रोने-धोने का कोई फायदा है? बिल्कुल भी नहीं!

अब वह घर खाने के लिए क्या लेकर जाएगा? रोशनी? क्या रोशनी को पिघला कर वह उसे बच्चों के खाने में बदले? क्या बच्चे उसे मुँह में लेकर चबा-चबाकर पिघला लें? ज़ालिम ज़माने पर खुदा की मार हो।

आदमी ने ज्यूं ही रोशनी घर में फेंकी, भूखे जिस्मों ने उसे झपट लिया। फिर वह अपनी दुकान की तरफ गया। उसने एक बड़ा-सा थैला उठाया और दुकान में पड़ी हर चीज को उसमें ठूंस दियाः सीने-पिरोने की सुई, धागा, कील, हथौड़ी, चाकू और छत से लटकती कंदील को भी। उसने दुकान बढ़ाई और अच्छी तरह उसके बंद होने का यकीन किया। फिर अपने आप से बोला,

“मुझे इस जगह से चले जाना चाहिए। अल्लाह की ज़मीन बहुत विस्तृत है।”

किसी शायर ने क्या खूब कहा हैः

 

अस्कंदरिया दारी, लो करफिहा करारी

(स्कंदरिया मेरा घर है। काश मुझे यहां रहना नसीब होता।)

 

आदमी ने अपने आबाई इलाके और खानदान को खैराबाद कहा और सफर पर रवाना हो गया। वह दिन-रात चलता रहा। सफर में कई हफ्ते और महीने बीत गए। मगर उसको कुछ पता न था कि उसका अंजाम क्या होगा। उसने सहराओं और बंजर ज़मीनों को पार किया। उसे कहीं हरियाली और न ही किसी जानदार मख्लूक का सुराग मिला। फिर वह गायब हो गया... कुछ कहानियों के मुताबिक आदमी को शहर गरामस की दिवारें नज़र आई जब कि कुछ के मुताबिक उसने सुनहरी रास्ते पर अपना सफर जारी रखा। कहानीकार अबू शोएब महमद बिन सलमान को यकीन था कि आदमी सहरा में ही भूख-प्यास से मर गया था। जबकि साहबुलतैर अबू अलबरकात का इसरार है कि कबूतरों के एक झुंड ने आदमी को शहर टिम्बकटू की दिवार के सामने घेर लिया था। मामला चाहे कैसा ही हो हम फर्ज कर लेते हैं कि आदमी ने सख्त भूख और फाके, प्यास और थकन के बावजूद अपना सफर जारी रखा, क्यूंकि हम यहां अपनी कहानी का अंत नहीं चाहते...

कठिन सफर और मशक्कत के बाद यह मुसाफिर तारों भरी रात को एक शहर के दरवाजे पर पहुंचा गया। उस शहर की दिवार लाल मिट्टी की थी। चूंकि यह शहर सहरा में अचानक नमूदार हुआ था इसलिए वह बहुत हैरान हुआ। वह एक साथ खुशी और खौफ महसूस कर रहा था। उसने शहर के दरवाजे पर दस्तक दी। एक दरबान बाहर आया और यूं मुखातिब हुआः

“टिम्बकटू शहर में खुशआमदीद, अहलन व सहलन!!”

अब आदमी का खौफ जाता रहा। मुसाफिर ने उस खुशआमदीद को नेक शगुन समझा। आदमी ने दरबान से पानी मांगा। पानी का मतलब था... अमन, जिंदगी... अपने सूखे गले को तर करने के लिए। दरबान ने उसे पानी पेश किया और कहाः

“पानी पियो, लेकिन शहर में दाखिले की शर्त ये है कि रात तुम शहर की दिवार से बाहर ही गुजारो। तुम अब सुबह में ही शहर में दाखिल हो सकोगे, वह भी उस सूरत में कि तुम्हारे पास हमारे बादशाह के लिए कोई तोहफा हो।”

ये कहकर दरबान वहां से चला गया। आदमी ने सारी रात तनतन्हा शहर के बाहर दिवार के सहारे गुजार दी। उसे समझ नहीं आ रहा थी कि वह बादशाह के लिए तोहफा कहां से लाए। उसकी जेब खाली थी। वह तोहफा कहां से लाता? अब वह करे तो क्या करे?

वह खुद से बड़बड़ाया, “ज़ालिम ज़माने पर खुदा की मार हो।”

जब सुबह तड़के मुअजिन की आवाज़ गूंजी, दरबान दरवाजे से बाहर आया। उसने जल्दी से आदमी को जगाना चाहा। आदमी इरादतन उठने में सुस्ती बरत रहा था। बहरहाल दरबान उसे पहले मस्जिद में ले गया। यहां आदमी ने अपना हाथ मुँह धोया और वज़ू किया। उस दौरान में भी उसने अच्छा खासा लंबा वक्त लगा दिया। फिर उसने नमाज अदा की। नमाज में भी उसने रुकु और सज्दे लंबे खींचे और देर तक तस्बीह व तक्दीस में लगा रहा। उसकी दिल की धड़कनें बेकाबू हो रही थीं और नब्ज भी काफी तेज हो चुकी थी।

दरबान ने आदमी को कुछ खजूरें और दूध दिया। जब वह उस पर हाथ साफ कर चुका तो उसे बिला आखिर महल की तरफ लाया गया। आदमी को लगा कि वह मेहरबानी और मेहमानदारी का कैदी है... इस बेरहम मेहमान नवाजी का। वह बादशाह को क्या पेश करेगा? हथौड़ी? वह उससे उसका सिर फोड़ेगा! चाकू? वह उससे उसे जिब्हा कर देगा! सीने पिरोने की सुई? वह उससे उसी के पपोटे और होंठ सी देगा! धागा? उससे उसे वह पीछे की बांध देगा और कहेगाः

“ओ कुत्ते! हमने तुम्हें अपने मेहमान के तौर पर इज्ज़त बख्शी और तुम तोहफे में हमें धागा देकर बेवकूफ बना रहे हो, तुम्हें इज्ज़त और अपने ऊपर तरजीह दी! ओ बदबख्त कुत्ते।”

इस बात का दिल में ख्याल आने पर मुसाफिर ने ‘औधु बिल्लाही मिनाश शैतानिर रजीम’ (क्रोध दुआ या शैतानों की दुआ से सुरक्षा) पढ़ी।

आखिरकार आदमी ने अपने आप को बादशाह के सामने पाया। बादशाह अपने दरबारियों में घिरा हुआ था। बादशाह अपने तख्त से उठा और मेहमान को खुशआमदीद कहने के लिए नीचे उतराः

“मरहबा! अहलन व सहलन।” बादशाह ने अपने मेहमान से हाथ मिलाया और उसका बोसा लिया, जैसे ऐसे दोस्त से मिल रहा हो जो एक लम्बे अरसे तक गायब रहा हो। बादशाह ने आदमी को अपने बराबर तख्त पर बैठने को हुक्म दिया। आदमी थैले को बराबर अपने सीने से चिमटाए हुए था जबकि बादशाह की नज़रें भी उसी पर लगातार लगी हुई थी। अचानक बादशाह ने पूछा,

“इस थैले में तुम हमारे लिए तोहफा लाए हो?”

बादशाह के सारे दरबारी खामोश हो गए। वे ये देखने के मुंतज़िर थे कि मुसाफिर बादशाह सलामत को क्या चीज़ तोहफे में पेश करता है।

आदमी बड़बड़ाया, “जी मेरे आका, इस थैले में आप के लिए तोहफा है।”

बादशाह खुशी से चिल्लाया जबकि मुसाफिर ने जल्लाद की तलवार से अपने सिर को धड़ से जुदा होते हुए देखा। उसने अपना हाथ थैले में डाला। उसके हाथ में कंदील आई। उसने कंदील थैले में से निकाली और उसे बादशाह को पेश कर दिया। बादशाह ने हैरानी से कंदील की तरफ देखा।

“ये क्या है?”

आदमी ने जवाब दिया, “कंदील है।”

बादशाह खामोश हो गया जबकि वहां दरबार में बैठे लोग गर्दन उचका उचकाकर उस कीमती तोहफे को देखने लगे। फिर बादशाह बोला, “कंदील?”

“जी मेरे आका! तांबे की बनी एक कंदील।”

“कंदील, इसका मतलब क्या है?” बादशाह ने पूछा।

आदमी ने जवाब दिया, “ये तांबे का बना एक आला (चिराग) है। इसमें एक धागा और तेल है।”

सुलतान ने पूछा, “ये करती क्या है?”

“ये अंधेरा दूर करती है।”

बादशाह की हैरानी अब बढ़ चुकी थी, उसने पूछा, “ये सूरज की तरह रोशनी देती है या फिर चांद की तरह?”

“जब सूरज गुरूब हो जाता है तो ये दुनिया को रोशन करती है... जब दुनिया पर अंधेरा छा जाता है।”

बादशाह बहुत हैरान हुआ।

“तो ये सूरज का एक दहकता हुआ शोला है?”

आदमी ने जवाब दिया, “बिल्कुल मेरे आक़ा, जब आप चाहें।”

बादशाह ने कंदील को बागौर देखा, हर तरफ घुमाकर, उसने कहा, “क्या ये कंदील इस वक्त भी रोशनी देगी?”

आदमी ने कहा, “नहीं, इस वक्त ये रोशनी नहीं दे सकती। मेरे आक़ा! पहले मुझे इसे जलाने दीजिए।”

आदमी ने जादू की सी तेजी से कंदील जलाई और उसकी रोशनी फौरन ही महल से बाहर तक फैल गई। बादशाह खुशी से झूमने लगा। वह खुशी से बेहाल हुआ जा रहा था। दरबारी तालियां बजाने लगे। ला इलाहा इल्लाहा और अल्लाहो अकबर का शोर उठा। लोग अलहम्द अलहम्द पुकारने लगे। बादशाह आदमी को एक तरफ ले गया। उसने कंदील पकड़ी और शहर की दीवार की तरफ खुलने वाली खिड़की की तरफ बढ़ा। वहां इकट्ठा हुआ हुजूम बादशाह के तोहफे को देखने के लिए बेताब था। फिर बादशाह ने बुलंद आवाज़ में कहा,

“यह कंदील है।”

हुजूम खुशी से चिल्ला उठा और नारेबाजी करने लगा। हुजूम की नज़रे कंदील पर लगी हुई थी।

“कंदील जिंदाबाद, बादशाह जिंदाबाद, कंदील जिंदाबाद, बादशाह जिंदाबाद।”

तब बादशाह ने अपने मेहमान का बोसा लिया और उससे कहा,

“हमें कंदील के बारे में कुछ मालूम न था। अरे हमारे मुअज़िज़ (सम्मानित) मेहमान! तुम्हारी वजह से हम एक ऐसी चीज के जानकार हुए जो हम नहीं जानते थे।”

“तुमने हमारे अंधेरों को रौशन कर दिया। तुम सूरज को हमारी दुनिया में ले आए। मैं इसके बदले में तुम्हें अपना वजीर बनाऊंगा।”

आदमी ने कहा, “मेरे आक़ा! मैं एक आम साल और खुदा तरस आदमी हूँ। मुझे अमन व सलामती प्यारी है। मुझे कुछ मालूम नहीं कि मैं वजीर बन कर आप की क्या खिदमत करुंगा।”

तो भी बादशाह उसे अपना वजीर बनाने में डटा रहा, जिस पर आदमी ने कहा,

“मेरे आक़ा! मुझ पर इस जिम्मेदारी का भार न डालें। मैं आपका मख्लूस और वफादार खादिम व साथी बनकर आप के साथ रहूंगा।”

बादशाह बोला, “जबर्दस्त, वाह भई वाह।”

फिर बादशाह ने अपने खजांची को बुला भेजा। जब खजांची हाजिर हुआ तो बादशाह, मुसाफिर को लेकर बैतुलमाल (तिजोरी) की तरफ चल दिया। बादशाह ने मुसाफिर से कहा,

“इन दुनियावी चीजों में से जो चाहो उठा लो और उससे अपनी हालात को दुरुस्त कर लो।”

आदमी ने जवाहरात, मोती, हीरे और दूसरे कीमती पत्थर जैसे ज़बर्जद और मरजान वगैरहा अपने थैले में खूब खूब ठूंस लिए। फिर बादशाह ने शहर टिम्बकटू के काज़ी को फौरन हाजिर होने का हुक्म दिया। जब काज़ी पहुंचा गया तो बादशाह ने उससे कहा,

“मैं इस आदमी से अपनी बेटी जुबैदा की शादी करने वाला हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम जल्दी से इस निकाह को कलमबद्ध करो।”

फिर बादशाह ने हीरों, मणियों और सोने से सजा लिबास मुसाफिर को पहनाया और दरबारियों की मौजूदगी में उसे अपनी बेटी के पास ले गया। जब आदमी ने अपनी होने वाली बीवी देखी तो उसे लगा कि दुनिया में उससे बढ़कर कोई दुल्हन खूबसूरत नही है। वह ऐसे थी जैसे किसी पुराने शायर ने कहा है,

 

मेरी ये लैला कबीला-ए-ज़ंज में से एक दुल्हन है

उसने मोतियों के हार पहन रखे हैं

 

काज़ी ने कहा,

“खुदा की कसम मैंने जुबैदा से बढ़कर कोई दुल्हन खूबसूरत नहीं देखी। ऐसी नरम व नाजुक, शर्मीली, दुबली पतली... और न ही इससे बढ़कर नाज़ुक बदन वाली। ये तो मुश्क व अंबर है... हीर और परनियां है... गुलाब का फूल है... यास्मीन का फूल है। मैं अब ये निकाह तहरीर करता हूँ।”

आदमी ने बादशाह, उसके दरबारियों और अवाम के लिए हजारों कंदीलें बनवाईं। उसने कंदीलों को हर जगह लटका दिया, महल में, मस्जिदों में, मदरसों में, गलियों में, चौकियों में और घरों में। उसने एक हजार हब्शियों को इन कंदीलों को रौशन करने के लिए मुलाजिम रखा। यहां तक कि सारा शहर और उसके वासी दिन रात रोशनियों में नहा गए।

जहां तक मुसाफिर की बात है तो वह आराम व आसाईश और खुशी भरी ज़िंदगी से साल दर साल लुत्फ होता रहा है। हालांकि उसे अपने वतन की याद सताने लगी। उसमें अपने खानदान और लोगों से मिलने की ख्वाहिश जागी। उसने सोचा कि अपने प्यारों की जुदाई खत्म और खैरो बरकत के आयाम अब शुरु होने चाहिए। लेकिन आगे क्या होगा, कौन जानता है? उसने बादशाह से अपने पैदाइशी वतन की तरफ सफर की इजाज़त मांगी। बादशाह ने जाने की इजाज़त दे दी। कीरवानी कालीन, यमनी खुश्बू, नाइजीरियन सागवान, सूडानी अंबर, घाना के हाथी दांत और इसी तरह की दूसरी चीजों के नकल व हमल के लिए आदमी ने ऊंटों, घोड़ों, गधों और खच्चरों पर लदा हुआ एक काफिला तैयार किया। यूं मुसाफिर ने टिम्बकटू की रोशनियों को अलविदा कहा और अल्लाह की पनाह के साए में अपने पैदाइशी वतन को रवाना हुआ। ज्यूं ही वह और उसका काफिला उसके पैदाइशी वतन की सरज़मीं में दाखिल हुए, लोग उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए और छीना झपटी करने लगे। जल्दी ही उनमें जबरदस्त लड़ाई फूट पड़ी और वह एक दूसरे के सिर उड़ाने लगे। हुजूम ने ऊंटों, घोड़ों, खच्चरों और गधों पर छुरियों और चाकूओं से हमला कर दिया और उन सब को खा गए। मुसाफिर ने पूछा ये सब क्या हो रहा है? उसे बताया गया,

“अहले शहर (शहर के वासी) पिछले बीस बरसों से भूखे हैं।”

आदमी को अपना मशहूर कौल और लानत वाला जुमला याद आया। उसने कहा,

“इस जालिम ज़माने पर अल्लाह की लानत।”

हुजूम में एक आदमी बेहस और हरकत बैठा इस खौफनाक मंजर को देख रहा था। उसने मुसाफिर की तरफ देखा। उसकी आँखें दहशतनाक मंज़र और सवारी पर बैठे मुसाफिर के बीच अटक कर रह गई। ऊंटनी पर सवार आदमी इस बिफरे हुजूम को टिड्डी दल समझ रहा था। आखिरकार ये आदमी उठा और उसने मुसाफिर को खुशआमदीद कहा। वह बोला,

“मैं तुम्हें जानता हूँ, तुम एक मोची हो। तुम्हारी दुकान मौलाना मौहम्मद अल दाखिर के मज़ार के पास थी। मेरी दुकान तुम्हारी दुकान के बिल्कुल उल्टा थी। मैं भी जूते मरम्मत करता था। मेरी दुकान मौलाना मौहम्मद अल खारिज के मज़ार की तरफ हुआ करती थी। अब तो तुमने जरूर मुझे पहचान लिया होगा। मुझे बताओ, ईमानदारी से, तुमने ये ढेर सारी दौलत कैसे इकट्ठी कर ली। तुम क्या करते रहे हो? मुझे बताओ, हम तो हमपेशा है ना! मैं बाजार में तुम्हारा पड़ोसी था। मैं तुम्हारा उस वक्त से दोस्त हूँ जब तुमने अभी काम शुरु किया था। तुमने इस कीमती जेवरात के लिए किस मुल्क का सफर इख्तियार किया? मुझे बताओ, मुझे भी रोटी, गोश्त, रेशम, सोना, राहत, औरतों और हसीन ख्वाबों का बहुत शौक है। मुझे इस जालिम ज़माने की आफतों से बचाओ।”

मुसाफिर ने जवाब दिया,

“ये मुल्क छोड़ दो, मेरे दोस्त! इस रस्ते पर चले जाओ यहां तक कि ये खत्म हो जाए। तुम्हें वहां एक शहर नज़र आएगा। उस शहर में दाखिल होने की एक शर्त है। तुम्हें कोई सा भी तोहफा वहां के बादशाह को पेश करना होगा। हैरानी की बात ये है कि तोहफे के बदले में बादशाह नवाज़ता है और वह तुम्हें भी नवाज़ेगा। है ना कितना आसान काम!”

इस आदमी ने अच्छी ज़िंदगी, गोश्त, रेशम, सोना, राहत, औरतों और सुहाने सपनों की तलाश में अपना पैदाइशी वतन छोड़ा। वह चलता रहा, चलता रहा। यहां तक कि रास्ता तमाम हो गया। वह सहरा को पार कर चुका था। तारों भरी एक रात वह लाल मिट्टी से बनी दीवार वाले शहर तक पहुंच गया। ये शहर मराकश या उतूज़र की तरह का था जो सहरा में अचानक नमूदार हुआ था।

आदमी ने शहर के दरवाजे पर दस्तक दी। एक दरबान बाहर आया और निहायत गर्मजोशी से उसका इस्तकबाल किया। अगली सुबह दरबान जगा और उसने पूछा,

“क्या तुम्हारे पास हममारे बादशाह को देने के लिए कोई तोहफा है?”

आदमी ने जल्दी से जवाब दिया,

“हाँ, मेरे पास इस थैले में एक तोहफा है।”

आदमी ने जल्दी से वजू किया, नमाज़ अदा की और बड़ी हसरत से महल की तरफ रवाना हो गया। वह जल्दी जल्दी बादशाह और उसके दरबारियों से मुलाकात करना चाहता था। उसने फौरन ही अपने आपको बादशाह के आगे झुका लिया और उसकी कदम बोसी की। जब उसने अपनी आँखें उठाई तो उसे बादशाह और उसके दरबारी नंगे पाँव नज़र आए। यहां तक कि दरबान भी नंगे पाँव था जो उसे यहां लाया था। वह ज़मीन से उठा। उसने अपना हाथ थैले में डाला। थैले में से एक खूबसूरत जूता निकाला। ऐसा खूबसूरत जूता शहर फास के कयाम से लेकर अब तक न बना होगा।

हैरान और बेचैन होकर पूछा, “ये क्या है?”

“ये जूता है। यही आपका तोहफा है, मेरे आका।”

बादशाह ने कहा, “ये क्या करता है?”

आदमी ने जवाब दिया, “इसे पाँव में यूं पहना जाता है।”

फिर आदमी ने जूता पहनकर कुछ कदम चल कर दिखाया... बादशाह उससे बहुत खुश हुआ। दरबारी भी वाह वाह करने लगे। वह जोर जोर से चिल्लाने लगे,

“जूते जिंदाबाद, बादशाह सलामत जिंदाबाद, जूते जिंदाबाद, बादशाह सलामत जिंदाबाद।”

बादशाह उठा, आदमी के पास गया और बोला,

“तुम तो वाकई मेरे लिए सबसे कीमती तोहफा लाए हो। ये तोहफा तो बड़े इनाम का हकदार है।”

फिर बादशाह ने खज़ानादार को हाजिर होने का हुक्म दिया और जब खजानादार हाजिर हुआ तो बादशाह ने उसे कहा, “जहां से आए हो वहीं चले जाओ।”

दरबारी इस अमल पर बहुत हैरान हुए।

बादशाह ने कहा, “ये आदमी इन तुच्छ व हकीर दुनीयवी चीजों का नहीं बल्कि किसी बेशकीमती चीज का हकदार है।”

बादशाह आदमी की तरफ मुतवज्जा होकर बोला, “मेरे मुअज़िज़ मेहमान! छत की तरफ अपनी निगाह उठाओ।”

आदमी ने अपना सिर उठाया।

बादशाह ने उससे पूछा, “तुम क्या देख रहे हो?”

आदमी ने जवाब दिया, “एक कंदील।”

“इसे पकड़ो, ये रहा तुम्हारे तोहफे का सिला।”

 

 

इज़्ज़ुलद्दीन अलमदनी
इज़्ज़ुलद्दीन अलमदनी

इज़्ज़ुलद्दीन अलमदनी का जन्म 1938 में टयूनीशिया के एक मशहूर साहित्य प्रेमी घराने में हुआ। उन्होंने बहुत सी साहित्यिक विधाओं में हाथ आज़माया, जिनमें कहानी, उपन्यास और नाटक आदि शामिल रहे। इसके अलावा उन्होंने आलोचना और समीक्षका लेखन में भी हिस्सा लिया। उनकी कहानियों के एक से ज्यादा संग्रह प्रकाशित हुए... इज़्ज़ुलद्दीन अलमदनी का जन्म 1938 में टयूनीशिया के एक मशहूर साहित्य प्रेमी घराने में हुआ। उन्होंने बहुत सी साहित्यिक विधाओं में हाथ आज़माया, जिनमें कहानी, उपन्यास और नाटक आदि शामिल रहे। इसके अलावा उन्होंने आलोचना और समीक्षका लेखन में भी हिस्सा लिया। उनकी कहानियों के एक से ज्यादा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें से ज्यादा मशहूर, हमारे ज़माने की कहानियां (1982), खुराफात (1969) और अलएदवान आदि है। वह ट्यूनीशिया की कई साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। मदनी ने अपने लेखन में अरबी तारीख, अरबी लोक कथाएं और क्लासिकी अरबी अदब को खूब बरता है और बदलते दौर के नए विषयों के संदर्भ में आने वाले मुद्दों पर भी लिखा है।