पीली लकीर

हिंदुस्तान के कश्मीर पर कब्ज़े से बर्बाद होने वाले अनगिनत परिवारों और इंसानों की कहानियों में से एक कहानी। सब कुछ बर्दाश्त करने के बाद एक इंसान कैसे फूट पड़ता है, पढ़िए इस कहानी में।

पीली लकीर

पटचित्र: मीर सुहैल 

अनुवाद: शहादत खान

दिसंबर 2050 की आज की रात उतनी ही सर्द और बर्फानी है जितनी आज से पचास साल पहले दिसंबर 2000 ई. की वह रात जब हाजी गूंगे शाह ने कश्मीर की कंट्रोल लाईन के बीचो बीच विरोध का नया बीज बो दिया था। पचास साल गुज़रने के बाद भी कुछ ज़्यादा नहीं बदला है। आबादियों को बांटने वाली रेखा अब भी मौजूद है बल्कि और गहरी हो गई है जिसे पार करने पर अब भी पाबंदी है। हवा में बारूद की गंध भी उसी तरह है, नफरतें और दुश्मनियाँ भी वही हैं, पहरे भी कायम हैं, रातें भी उतनी ही सर्द हैं, बस फर्क ये है कि कंट्रोल लाईन पर उस रात जैसा अंधेरा नहीं है जब हाजी गूंगे शाह ने विरोध की एक नई रिवायत शुरु की थी और जहां अब सफेद चिकने टाइलों से बनी हुई दिवार खड़ी है जो तेज़ रोशनियों में ताज महल की तरह चमकती है।

हाजी गूंगे शाह के मज़ार और उसकी यादगार की ज़ियारत करने और उसकी रिवायत का पालन करने वाले ज़ायरीन का साल भर तांता बंधा रहता है। दोनों तरफ की हुकूमतों ने अपनी अपनी तरफ छोटी छोटी दुकानें खोलने और स्टॉल लगाने की इज़ाजत दे दी है जहां कलाकारों द्वारा बनाए गए हाजी गूंगे शाह के विरोध करती हुई तस्वीरें, बिल्ले, रेफ्रिजरेटर पर चिपकने वाले छोटे कार्ड और हाजी गूंगे शाह की ज़िंदगी पर अलग अलग भाषाओं में छपी हुई किताबों बेची जाती हैं। 2 दिसंबर की रात आती तो रौनक दोगुनी हो जाती। ये वह तारीख है जब हाजी गूंगे शाह ने कंट्रोल लाईन पर अनोखा विरोध कर दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था। पचास साल गुज़रने के बाद भी ये ध्यान उसी तरह लगा रहा है। आज भी सरहद के दोनों तरफ रहने वाले और दुनिया भर के मानवीय अधिकारों के पैरोकार संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष अनुमति पत्र हासिल करने के लिए हाजी गूंगे शाह को ताज़ीम देने और उसके विरोध की रिवायत ताज़ा करने यहां आते हैं।

हाजी गूंगे शाह की रिवायत थी क्या! ये कहानी बहुत से लोगों ने लिखी थी लेकिन जो कहानी सबसे ज्यादा मशहूर हुई वह एक बेनाम से कश्मीरी लेखक की थी जिसने सिर्फ कलम और बयान का ही चमत्कार नहीं दिखाया बल्कि पूरी तहकीक के बाद हाजी गूंगे शाह की शख्सियत के एक एक पहलू का हर कोण से जायज़ा लिया था। उसकी ये कहानी दुनिया भर की कई भाषाओं में छपी थी जिसके बाद वह कश्मीर का एक बेनाम खस्ताहाल लेखक नहीं रहा था, उसे अपने लिखे हुए एक एक शब्द की रॉयल्टी मिलती थी जो उसके मरने के बाद अब तक उसके खानदान का पेट पाल रही है। उसने ये कहानी लिखी भी कुछ इस तरह थी जैसे सब कुछ उसके सामने हुआ हो और उसने हाजी गूंगे शाह के दिमाग की हर गूंज और दमक को खुद सुना हो और पढ़ा हो। पीली लकीर शीर्षक से लिखी गई ये कहानी कुछ इस तरह शुरु हुई थीः 

 

हाजी गूंगे शाह ने अपनी लकड़ी की बनी कोठरी का दरवाज़ा खोलकर बाहर झांका तो हवा के बर्फीले झोंकों ने उसका चहरा सुन कर दिया। उसकी पूरी ज़िंदगी बर्फानी तूफानों के थपेड़ें खाते हुए बीती थी फिर भी उसे थरथरी आ गई। लेकिन वह वापिस नहीं गया, उसी तरह खड़ा रहा। बर्फ के ज़र्रे चेहरे से टकरा रहे थें जिससे उसकी दाढ़ी और मूंछें कुछ और सफेद हो गई थी। कोठरी के खुले दरवाज़े से लालटेन की पीली रोशनी बाहर रेंगकर कुछ दूर ही जा सकी थी जिसके बाद पूरी तरह अंधेरा था। चांद की पहली या दूसरी तारीख थी, हाजी गूंगे शाह को अपने मिशन को पूरा करने के लिए ऐसी ही अंधेरी रात की ज़रूरत थी, जब कोई उसे देख न सके। खुद उसे देखने के लिए रोशनी की ज़रूरत नहीं थी। उसकी पूरी उम्र कपूरा के आसपास की पहाड़ियों में चढ़ते उतरते और जंगलों की भूल भूलैय्या में भटकते हुए गुज़री थी। वह आँख बंद करके कहीं भी जा सकता था। लेकिन हवाओं के तूफान रास्ते उड़ा ले जाते हैं, सब निशानियां खत्म हो जाती हैं। इसीलिए उसने लालटेन को जलती हुई छोड़ दिया साथ ही कोठरी का दरवाज़ा भी खुला रखा था। रोशनी की ये छोटी सी दराड़ वापसी के सफर में मंज़िल का निशान बनकर उसे घर पहुँचने का रास्ता दिखा सकती थी।

कोठरी में लकड़ियों का वह ढ़ेर अभी बाकी था जो वह अपनी कोठरी के आस पास फैले हुए जंगल से इकट्ठी करके लाया था। लेकिन उसने आज कोठरी के बीचो बीच बनी हुई पत्थरों की भट्टी में लकड़ियाँ नहीं जलाई थी। उसे बर्फानी रात में सफर करना था और कोठरी की आरामदेह गर्माहट उसे कमज़ोर कर सकती थी। बाहर निकलना मुश्किल हो सकता था। हाजी गूंगे शाह को अपने ईमान की ताकत पर बहुत भरोसा था जिसने उसे अब तक ज़िंदा रखा था, लेकिन आज की रात उसे सिर्फ ईमान की नहीं, शारीरिक ताकत की भी ज़रूरत थी। एक वक्त था जब उसकी शारीरिक ताकत सांड से कम नहीं थी। उसकी कुल्हाड़ी के वार से जंगल के पेड़ कांपते थें। गूंगे होने के बाद ये ताकत और बढ़ गई थी, साथ ही चीज़ों को महसूस करने की ताकत भी तेज़ हो गई थी। महसूस करने की ताकत अभी भी कायम थी लेकिन बुढ़ापे ने उसके हाथों की गिरफ्त को कमज़ोर कर दिया था। उसे यकीन था कि वह जवानी के दिन याद करके कम से कम एक रात के लिए तो अपनी पुरानी ताकत हासिल कर लेगा। यादें पुराने ज़माने वापस ले आती हैं। जब चाहा कोई गम, कोई खुशी ताज़ा कर ली। उसकी माँ को मरे कितने साल बीत गए थे, लेकिन उसकी मौत का दिन याद करके वह आज भी रो सकता था। महमूदा की शादी याद आते ही उसके कानों में शहनाईयाँ गूंजने लगती थी। वह अगर पूरे ध्यान से हर वह शब्द याद करता जो उसने गूंगे होने से पहले सुना और बोला था तो ज़बान गुनगुनाने और कानों के पर्दे खुद ब खुद सनसनाने लगते। लेकिन उस ज़माने में उसे यादों के इस कमाल का अंदाज़ा नहीं था और अब उसे आवाज़ों के जंगल से बाहर रहने की आदत हो गई थी। कुछ बोले और सुने बगैर ज़िंदगी से वह कितना संतुष्ट था, बस अगर उस में बार बार ये हादसे न आए।

उसका गूंगा और बहरा होना भी एक हादसे का ही नतीजा था। वह उस वक्त बारह साल का था या शायद तेरह का, उसे अपनी सही उम्र याद नहीं थी। उस दिन पूरी घाटी में हड़ताल थी, सब दुकानें, बाज़ार, स्कूल और दफ्तर बंद थें। गाँव में किसी ने बताया था कि सृनगर में प्रदर्शन होगा और जुलूस निकलेगा। वह भी सृनगर जाने के शौक़ में गाँव के लडकों की टोली में शामिल होकर चल पड़ा। 90 किलोमीटर का सफर था, वह फजर की नमाज़ पढ़कर निकले थे और जुमा की नमाज़ तक सृनगर पहुंच गए थे। वे पहाड़ से पत्थरों और जंगलों से लड़कियाँ तोड़कर अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे। उनके लिए पैदल सफर कोई कठिन बात नहीं थी, और वे मज़दूरी करने नहीं हड़ताल का मेला देखने जा रहे थे। उन्होंने पूरा सफर हँसते खेलते और नारे लगाते हुए तय किया था, कभी कभी किसी लारी या ट्रक का मेहरबान ड्राईवर उन्हें बैठा लेता तो उनका जोश व खरोश और बढ़ जाता।

जुमे की नमाज़ के बाद जब जुलूस निकला तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उन्होंने ऐसा मेला कभी नहीं देखा था। नारों के साथ उनका जोश व खरोश लम्हा दर लम्हा बढ़ता जा रहा था। उन्होंने ऐसा खेल कभी नहीं खेला था। लेकिन फिर अचानक क्या हुआ कि डंडे बरसने लगे और हवा में आँसू गैस घुल गई। हर आदमी आँखों पर गीला कपड़ा रखे किसी न किसी तरफ भाग रहा था। वह अपनी टोली से बिछड़ गया था और बच निकलने का रास्ता ढूँढ़ रहा था कि उसकी गर्दन और सिर पर लाठी के भरपूर वार पड़े और उसके बाद उसे कुछ पता नहीं कि क्या हुआ।

कई लोग मरे और बहुत से जख्मी हुए थे। वह खुश किस्मत था कि डॉक्टरों ने उसके दिमाग की सर्जरी करके उसे मरने से बचा लिया था। लेकिन दिमाग पर किसी ऐसी जगह चोट पड़ी थी कि बोलने और सुनने की ताकत चली गई थी। डॉक्टरों ने कहा था कि एक और ऑपरेशन करके उसे ठीक किया जा सकता है। लेकिन ये भी खतरा था कि उससे शायद उसका दिमाग काम करना बंद कर दे या फिर वह आँखें भी खो दे। मुफ्त ऑपरेशन होना था लेकिन उसने मना कर दिया। वह गूंगा और बहरा होकर जी सकता था, पागल और अंधा होकर नहीं। उसकी माँ ने शुक्राने के नफल पढ़े थे। वह खुश थी कि उसके बेटे की सिर्फ बोलने और सुनने की ताकत गई थी, हाथ या पाँव गया होता तो अपाहिज होकर नकारा हो जाता। खुद उसे लगा था कि उसका नया जन्म हुआ है। उस दिन गुलाम रसूल मर गया था और गूंगे शाह पैदा हुआ था।

वह उस वक्त दर्वेग मुल्ला के पास चहल पट्टी में अपनी माँ, बहन और भांजी के साथ रहता था। बाप को कश्मीर की कंट्रोल लाईन पहले ही निगल चुकी थी। गूंगे शाह का आधा खानदान कंट्रोल लाईन के दूसरी तरफ रहता था। एक रात उसके ताया ने अपने भाई से मिलने की तड़प में लाईन पार करने की कोशिश की थी लेकिन सरहदी सुरक्षा गार्डों की गोलियों का निशाना बन गया था। गूंगे शाह का बाप टूट कर रह गया था। अब उसे सरहद पार करके अपने भाई के खानदान का गम बांटना और गले लग कर रोना था। उसे यकीन था कि वह सरहदी सुरक्षा गार्डों की आँखों में धूंल झोंक सकता है। इस कोशिश में उसे भी गोलियाँ छलनी कर गई। उसे ये भी पता न चल सका कि उसे किसकी गोलियाँ लगी थी, इस तरफ वालों की या उस तरफ वालों की। उसकी लाश तक नहीं आई। वहीं कहीं दफना दिया गया।

शौहर की मौत के बाद गूंगे शाह की माँ में पहले जैसा दम खम नहीं रहा था। वह मरने से पहले गूंगे शाह की शादी कर देना चाहती थी। लेकिन गूंगे शाह ने अपनी हर ख्वाहिश को ताला लगा दिया था। एक दिन उसकी बहन एक रिश्ता तय कर आई तो वह घर छोड़कर शम्स बाड़ी चला गया जहां अंधी और बहरी परियां रहती थीं और जो बर्फबारी के मौसम में शिकार करने निकलती थीं। वह बर्फ पड़ने से पहले ही ये सोचकर वापस आ गया कि गूंगी बहरी परियों ने यदि उसका शिकार कर लिया तो उसकी तेज़ी से बड़ी होती हुई भांजी का क्या होगा।

उसकी वापसी के बाद उसकी माँ और बहन ने उसकी शादी के बारे में सोचना छोड़ दिया। एक दिन उसकी माँ बहु लाए बगैर ही खामोशी से मर गई। अब सिर्फ बहन और भांजी रह गई थी। बहन अर्ध विधवा थी। उसका शौहर अपनी बीवी और बेटी को छोड़कर मजदूरी करने सृनगर चला गया था जहां वह लापता हो गया। किसी ने बताया था कि पुलिस उसे दहशतगर्दी के शक में पकड़कर ले गई थी, पुलिस द्वारा दी गई यातनाओं से वह तड़प तड़प कर मर गया तो उसकी लाश गायब कर दी गई। किसी और ने बताया था कि वह दूसरे मजदूरों के साथ भर्ती होकर किसी खाड़ी देश में चला गया था। गूंगे शाह की बहन को दूसरी कहानी पर यकीन था, लेकिन वह ज्यादा देर इंतज़ार न कर सकी और कभी वापिस न आने के लिए माँ बाप के पास अदमबाद चली गई।

गूंगे शाह के पास अब सिर्फ उसकी भांजी महमूदा रह गई थी जो उसकी पूरी दुनिया थी और जिसे वह दिवानावार चाहता था। हालांकि उसे यह खौफ़ था कि वह नहीं रहा तो महमूदा का क्या होगा। मौत उसकी घाटी में बहुत आज़ादी से घूमती थी। वह किसी पहाड़ी से गिर सकता था, कोई पत्थर उसका सिर फाड़ सकता था, जंगल में किसी दरिंदे का निशाना बन सकता था, किसी पहरेदार की अंधी गोली उसका सीना चीर सकती थी। ज़िंदगी में पहली बार उसे अपनी मौत से इतना डर लगा था। फिर उसने महमूदा की शादी करके इस डर से छूटकारा पा लिया था।

गूंगे शाह पूरी तरह आज़ाद था। वह अब मज़ारों और खानक़ाहों में खिदमत गुज़ार बन कर रह सकता था। उसने सोचा था कि वह पूंछ वाले फकीर की तरह शम्स बाड़ी की पहाड़ियों में बारह साल चिल्ला खींचेगा, लेकिन उसने कभी अपने इरादे पर अमल नहीं किया। उसे पता था कि शम्म बाड़ी की गुफाओं में रहने वाली अंधी और बहरी परियाँ उसका ध्यान भटकाती रहेंगी। उन परियों का ख्याल आते ही उसके दिल में अजीब सा मीठा मीठा दर्द होने लगता था। उसने कई बार सोचा था कि बर्फबारी के मौसम में जब परियाँ पहाड़ियों पर उतरती हैं, वह शम्स बाड़ी जाए, किसी एक परी का हाथ पकड़कर वहीं बैठ जाए और सारी ज़िंदगी गुज़ार दे। उसे यकीन था कि किसी परी के हाथों मरना बहुत पुरलुफ्त होगा।

लेकिन वह कभी शम्स बाड़ी नहीं गया। वह परियों का ख्याल छोड़कर पाज़ी पोरा के गाँव घूंडी मोमन में हाजी बहादुर के मज़ार पर जा बैठा। वहीं उस पर हज करने का जुनून सवार हुआ। हाजी बहादुर ने सात हज किए थे और वह भी पैदल। गूंगे शाह को यकीन था कि वह भी पैदल हज कर सकता था। हज उस पर वाजिब भी हो गया था। उस पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी, कोई कर्ज़ा नहीं था, और मक्का तक पैदल सफर के लिए टांगों में ताकत भी थी। उसने किसी से रास्तों का नक्शा बनवाया और कमर पर झोला डाल कर चल पड़ा।

गूंगे शाह ने पैदल सफर करके मक्का तक पहुँचने की सात कोशिशें की लेकिन हर बार भटक कर वापिस आ जाता। सातवीं कोशिश के बाद महमूदा से मिलने चहल पट्टी गया तो मस्जिद के इमाम ने उसे यकीन दिलाया कि वह हज की नियत से सात सफर कर चुका है, अल्लाह ताला ने उसका हज कबूल कर लिया होगा। उस रात इशा की नमाज़ के बाद सब नमाज़ियों ने उसे हज की मुबारकबाद भी दे दी। गूंगे शाह उस दिन के बाद हाजी गूंगे शाह हो गया।

गूंगे शाह ने चहल पट्टी का खानदानी मकान महमूदा के नाम कर दिया था और खुद नज़दीक ही जंगल की उतराई में लकड़ी की कोठरी बना कर रहने लगा था। यहां उसे चिल्ला खींचने, वजीफें पढ़ने और अल्ला से लौ लगाने के लिए पूरी तन्हाई और सुकून मिला हुआ था। उसकी ज़रूरतें ज़्यादा नहीं थी, बल्कि थी ही नहीं। उसे सिर्फ दो वक्त की रोटी और लालटेन भर मिट्टी का तेल चाहिए था। इतना बड़ा जंगल उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी था। लेकिन ईमान के सौटे पर आटा और मिट्टी का तेल भी मिल जाता था। महीने दो महीने में महमूदा और उसका शौहर उसके साथ पूरा दिन गुज़ार जाते। उस दिन हाजी गूंगे शाह का दिल खुशियों से भर जाता। उसकी ज़िंदगी का रिश्ता महमूदा की ज़ंजीर से जुड़ा था वरना वह खुद तो महज सांसे लेता हुआ एक मुर्दा वजूद था। लेकिन एक दिन ये ज़ंजीर और ये रिश्ता भी टूट गया। महमूदा और उसका शौहर एक रात करीबी जंगल में लकड़ियाँ चुनने गए थे और भटक कर कंट्रोल लाईन के पास पहुँच गए थे। सरहदी सुरक्षा गार्डों ने उन्हें सरहद पार से आने वाले दहशतगर्द समझकर गोलियों से भून दिया। हाजी गूंगे शाह तकरीबन एक साल बाद अपनी कोठरी से बाहर निकलकर पहाड़ियों से उतरा था और अपने घर चहल पट्टी में आया था जहां महमूदा और उसके शौहर की गोलियों से छलनी लाशें कफन में लिपटी रखी थी। पूरा गाँव विरोध स्वरूप वहां जमा था। हर तरफ गुस्से की आग फैली थी। जनाज़े का जुलूस गली गली घुमाकर कब्रिस्तान ले जाया गया था। नारों के शोर से पूरी वादी गूंज रही थी जिसकी धमक सृनगर तक भी पहुँची थी। सरकारी अधिकारियों ने अपनी गलती मानी थी और वह शर्मिंदा थे। सरहदी पुलिस का कमांडर बदल दिया गया था। हाजी गूंगे शाह को मुआवज़ा देने का ऐलान भी हुआ था, लेकिन उसे कुछ नहीं चाहिए था।

कुछ दिनों के बाद जब विरोध दम तोड़ गया और शोर थम गया तो हाजी गूंगे शाह वापस अपनी कोठरी में आ गया। उसके अंदर का दुख और गुस्सा थमा नहीं था बल्कि ज़हर भरी चिंगारियों की तरह उसकी रगों में नाच रहा था। उसकी ये कैफियत पहले कभी नहीं हुई थी। दुखों की फसल कई बार तैयार हुई थी और कटी थी लेकिन उसे गुस्सा कभी नहीं आया था। उसका ताया सरहद पार करते हुए मारा गया था, ये उसकी अपनी गलती थी। उसके बाप ने भी यही गलती की थी और गोली खाई थी। उसका बहनोई भी रुपयों के लालच में गाँव छोड़कर गया था, उसके साथ जो कुछ भी हुआ होगा वह उसकी किस्मत थी, लेकिन मासूम महमूदा तो बस लकड़ियाँ चुन रही थी। उसने तो सरहद छुई भी नहीं थी, आखिर वह क्यों?

हाजी गूंगे शाह को उन फौजियों पर गुस्सा नहीं था जिनकी गोलियों से उसके खानदान के कितने लोग और अब महमूदा भी मर गई थी। उसका गुस्सा कंट्रोल लाईन के खिलाफ था जिसकी खून की प्यास बुझ नहीं सकी थी। गोलियाँ चलाने वाले तो महज कल पुर्जे थे, जड़ वह सरहदी लकीर थी जो लाशें उगल रही थी। उसे उस लकीर को पीटना और उस पर अपनी नफरत का ज़हर थूकना था, किसी के लिए नहीं, सिर्फ अपने अंदर की आग बुझाने के लिए वरना वह चैन से मर नहीं सकेगा।

दिसंबर 2000 ई. की वह रात जब हर तरफ अंधेरा और सन्नाटा था, बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से रगों में खून जम रहा था, हाजी गूंगे शाह अपने विरोध को प्रदर्शित करने और अपने वादे को पूरा करने अपनी कोठरी से निकला था। उसे पता था कि उसे क्या करना है। उस वक्त बर्फ बारी में कुछ और तेज़ी आ गई थी, ज़मीन और पेड़ों पर बर्फ की सफेद तह और मोटी हो गई थी। लेकिन हवा और बर्फ का तूफान उसे कंट्रोल लाइन तक पहुँचने से रोक नहीं सका। वह सरहद की उस लकीर को इस तरह पहचानता था जैसे आँखों में खींची हुई सूरमे की लकीर। उसे ये भी यकीन था कि वह कंट्रोल लाइन पर पहुँचने और उससे अपना इंतक़ाम लेने से पहले मारा नहीं जाएगा। दोनों तरफ के सरहदी सुरक्षा गार्ड अपने अपने मोर्चों में दुबके बैठे होंगे, अंधेरी फिज़ा में बर्फ के तैरते हुए ज़र्रों के बीच सुरमई कम्बल में लिपटा हुआ वजूद किसी को नज़र नहीं आएगा।

हाजी गूंगे शाह का ख्याल गलत नहीं था। वह कंट्रोल लाइन पर खड़ा था, लेकिन किसी तरफ से कोई गोली नहीं आई, किसी टॉर्च की रोशनी नहीं चमकी। उसने बहुत सुकून से अपना कम्बल उतारा कर ज़मीन पर फेंका और सलवार खोलकर कंट्रोल लाइन के चेहरे पर पेशाब की धार खींच मारी। उसे लगा जैसे सरहद के दोनों तरफ की घाटियाँ विरोधी नारों से गूंज गई हो। सफेद बर्फ पर दूर तक एक मोटी पीली लकीर फैल कर जम गई थी। वह बिल्कुल हल्का-फुल्का हो गया था। उसने अंदर का सारा ज़हर बाहर निकाल कर उस सरहदी लकीर पर फैला दिया था जहां उससे पहले सिर्फ खून की धारें बहती थी। उसने इंतक़ाम ले लिया था, अब वह सुकून से मर सकता था।

हाजी गूंगे शाह ने बहुत सुकून से  अपना इज़ारबंद बांधा और ज़मीन से कम्बल उठाने झुकने ही वाला था कि दोनों तरफ से फेंकी गई सर्च लाईट में नहा गया। दोनों तरफ से ऊँची ऊँची आवाज़ों में “हैंड्स अप” और “हाथ ऊपर उठाओ” का शोर मच रहा था। हाजी गूंगे शाह ने चैन की सांस ली। उन्होंने उसे देखते ही गोली नहीं मारी थी। उसने ऐसा कुछ किया भी नहीं था कि मार दिया जाता। उसने अपने बाप और ताया की तरह सरहद पार करने की कोशिश नहीं की थी। उस वक्त उसे सरहद का एहसास हुआ। शरीर अचानक ही कांपने लगा था। वह ज़मीन से कंबल उठाने के लिए झुका, उसी वक्त दोनों तरफ से चलाई जाने वाली गोलियाँ उसके सीने और कमर में घुस गई। वह किसी पेड़ की तरह खामोशी से कंर्टोल लाइन पर गिर गया। आधा इस तरफ और आधा उस तरफ।

***

लिखने वाले ने यह कहानी यहीं खत्म कर दी थी। उसके बाद क्या कुछ हुआ था उसे लिखना कहानी लिखने वाले का काम नहीं शोधकर्ताओं का काम था। हाजी गूंगे शाह की लाश दो दिन तक कंट्रोल लाइन पर पड़ी रही थी जहां बर्फ के सफेद फर्श पर पीली लकीर भी चमक रही थी। दोनों तरफ वाले लाश लेने से बच रहे थे। वह अपनी तरफ वालों को जुलूस निकालने के लिए एक और लाश नहीं देना चाहते थे। यूएन के फौजी दस्ते ने दोनों तरफ के फौजियों को वहां से हटाकर अपना मोर्चा लगा लिया था। हाजी गूंगे शाह को कंट्रोल लाइन की उसी जगह पर दफना दिया गया था जहां उसकी लाश गिरी थी। जनाज़ें की नमाज़ सरहद के दोनों तरफ पढ़ी गई थी, एक ही वक्त, बस नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम अलग अलग थे। यूएन की शांति सेना के नीली टोपी वाले फौजियों ने दोनों तरफ से चढ़ाई जाने वाली फूलों की चादरों पर भी कोई एतराज़ नहीं किया था। कई मण फूलों के नीचे चैन से सोया हुआ हाजी गूंगे शाह शायद गूंगी बहरी परियों के ख्वाब देख रहा था।

आज 2050 ई. में इस घटना के पचास साल गुज़रने के बाद भी कंट्रोल लाइन उसी तरह मौजूद है। हाजी गूंगे शाह का मज़ार भी उसी तरह है बल्कि मज़ार पर सरहद के दोनों तरफ रौनक कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। यूएन की सिफारिश पर कई साल पहले वहां सफेद चिकनी टाईलों की एक बड़ी दिवार खड़ी कर दी गई थी जहां ज़ायरीन आकर हाजी गूंगे शाह की रिवायत को दोहराते हैं। पीली लकीर पुख्ता नालियों से भर कर बारूद की बू धोने की कोशिश कर रही है।   

 

अशरफ शाद
अशरफ शाद

पाकिस्तान के चर्चित लेखक अशरफ शाद एक उपन्यासकार के रूप में ज्यादा मशहूर है। उनके अभी तक तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनके पहले उपन्यास बेवतन को 1998 में साहित्य अकादमी के वज़ीर-ए-आज़म अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। इनका दूसरा उपन्यास वज़ीर-ए-आज़म है। तीसरा उपन्यास सदरे मोहतरम है। इन तीनों... पाकिस्तान के चर्चित लेखक अशरफ शाद एक उपन्यासकार के रूप में ज्यादा मशहूर है। उनके अभी तक तीन उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनके पहले उपन्यास बेवतन को 1998 में साहित्य अकादमी के वज़ीर-ए-आज़म अवॉर्ड से सम्मानित किया जा चुका है। इनका दूसरा उपन्यास वज़ीर-ए-आज़म है। तीसरा उपन्यास सदरे मोहतरम है। इन तीनों उपन्यासों के अलावा इनका एक संग्रह पीली लकीर के नाम से हाल ही में प्रकाशित हुआ है।