पटचित्र: रवि कावड़े
अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्त्रोत: Short Story Project
मैं और चुहिया एक हाउस बोट में रहते थे, जिसका लंगर नोत्र देम के पास लगा था। वहां, जहां सीन नदी शरीर में फैली धमनियों की तरह पेरिस के बीचों-बीच बने टापू के चारों ओर चक्कर काटती है।
जिसको मैं चुहिया बुला रही हूं, वह असल में एक छोटे कद की औरत थी, जिसके पैर पतले थे, छाती के उभार बड़े और आंखें डर से भरी हुई। उस हाउस बोट की देखभाल वही करती थी, दबे पांव इधर-उधर फिरते हुए, कभी एकदम चुपचाप, कभी किसी गाने का एक-आद टुकड़ा गुनगुनाते हुए। ब्रिटनी के किसी लोक गीत के सात नोट और फिर बर्तनों के बजने की आवाज़। वह हमेशा गाना शुरू करती, लेकिन कभी उसे पूरा नहीं करती थी, जैसे कि उसने वो गाना दुनिया की कठोरता से चुराया हो। मानो उसे किसी चीज का डर हो, किसी सजा या खतरे का। हाउस बोट में सबसे छोटा केबिन उसका कमरा था। सारी जगह बेड से ही घिरी हुई थी। बस एक कोना बचा था, छोटी-सी टेबल के लिए और एक कोना कुंडी के लिए, जिस पर वह अपने रोज़मर्रा के काम आने वाले कपड़े टांगती थी। उसके पास चूहे के रंग की बाथरूम की चप्पलें थीं, चूहे के रंग की स्वेटर और चूहे के रंग की ही स्कर्ट। अपने रविवार के कपड़े वह टिशू पेपर में रैप करके बिस्तर के नीचे बक्से में रखती थी। अपनी नई हैट और चूहे के फ़र का छोटा टुकड़ा भी वह टिशू पेपर में रखती थी। टेबल पर उसके होने वाले पति की आर्मी की वर्दी में खिंची एक तस्वीर रखी थी।
उसका सबसे बड़ा डर रात होने के बाद फव्वारे तक जाना था। हाउस बोट पुल के पास बंधी थी और वह फव्वारा पुल के नीचे ही था। बेघर लोग वहीं नहाते-धोते और रात को वहीं सोते थे। कभी-कभी वे गोला बनाकर बैठ जाते, बातें करते या सिगरेट फूंकते। दिन के समय चुहिया बाल्टी से पानी ढोती थी, जिसमें बेघर लोग उसकी मदद कर देते। इसके बदले में उन्हें चीज़ के टुकड़े, रात की बची हुई वाइन या साबुन के टुकड़े मिल जाते। वह खूब हंसती और उनसे बातें करती। मगर रात होते ही उसको उन लोगों से डर सताने लगता।
वह अपने केबिन से सज-धजकर चुहिया वाली पोशाक पहने निकलती, चूहे के रंग की स्वेटर, स्कर्ट और ऐप्रन। उसकी चप्पलें हल्की धुमैली होतीं। वह हमेशा ऐसे इधर-उधर दौड़ती रहती, जैसे कोई उसके पीछे पड़ा हो। अगर उसे कोई खाते हुए पकड़ लेता तो वह शर्म से आंखें नीची कर लेती और कोशिश करती कि प्लेट ढक जाए। अगर उसे केबिन से बाहर निकलते हुए कोई देख लेता तो वह झट से अपने हाथ में पकड़ी चीज़ छुपा लेती, जैसे वह कुछ चुरा रही हो। किसी भी तरह की विनम्रता चुहिया के डर की चौखट के पार नहीं जा सकती थी। डर उसके पतले पैरों की चमड़ी के रोम-रोम में बसा हुआ था। उसके कंधे की झुकावट ऐसी थी मानो उन पर कोई भारी वजन रखा हो। हर आवाज़ उसके कानों में किसी चेतावनी की तरह पड़ती।
मैं उसका डर दूर करना चाहती थी। मैंने उससे उसके घर-परिवार के बारे में बात की, उससे जाना कि उसने इससे पहले कहां-कहां काम किया था। चुहिया ने बड़े ही घुमा-फिराकर जवाब दिए, जैसे कोई पुलिस वाला उससे सवाल पूछ रहा हो। मैं जब भी उसके प्रति मित्रतापूर्ण व्यवहार करती तो वह बेचैन हो जाती, शक की निगाह से देखने लगती। जब उसने एक बार कोई बर्तन तोड़ा तो वह रोने लगी: ‘मैडम इसका भुगतान मेरी तनख्वाह में से करेगी।’ मैंने जब उसे आश्वासन दिया कि मैं ऐसा करने में विश्वास नहीं रखती, क्योंकि बर्तन गलती से टूटा था और गलती मुझसे भी हो सकती थी, तो वह चुपचाप खड़ी रही।
फिर एक दिन चुहिया के पास एक खत आया, जिसे पढ़कर वह रोने लगी। मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ। उसने कहा: ‘मेरी मां को मेरे बचत के पैसों से लोन चाहिए। मैं शादी के लिए पैसे बचा रही हूं। मैं अपनी बचत पर इकट्ठा हुआ सारा ब्याज खो दूंगी।’ मैंने कहा कि मैं उसे उसकी मां के लिए लोन दे सकती हूं। चुहिया ने लोन तो स्वीकार कर लिया लेकिन उसके चेहरे पर उलझन की शिकन आ गई।
उसको जब ऐसा लगता कि वह हाउस बोट पर अकेली है तो चुहिया खुश हो जाती। वह अपना कोई गीत गुनगुनाना शुरू कर देती, जिसे वह कभी खत्म नहीं करती थी। कभी-कभार वह अपने मोजे की मरम्मत करने के बजाय खुद के लिए कुछ सीलने लगती, अपनी शादी के लिए।
पहला तूफान अंडों के कारण आया। चुहिया को हमेशा वही खाना मिलता था जो मैं खाती थी। उसके साथ आम फ्रेंच नौकरों की तरह बर्ताव नहीं किया जाता था। चुहिया वो सब खाते हुए खुश थी, लेकिन एक दिन मेरे पास कुछ पैसे कम पड़ गए और मैंने उससे कहा:
‘आज बस कुछ अंडे ले आओ और हम लोग आमलेट बना लेंगे।’ चुहिया वहीं की वहीं खड़ी रही। उसकी आंखों में एक किस्म का भयंकर डर उभर आया। उसने कुछ कहा नहीं, लेकिन वह वहां से हिली भी नहीं। उसका रंग फीका पड़ गया और फिर वह रोने लगी। मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और उससे पूछा कि क्या बात है।
‘ओह! मैडम,’ चुहिया कहने लगी, ‘मुझे पता था यह सब ज़्यादा दिन नहीं चलने वाला। हम लोग हर रोज मीट खा रहे थे और मैं कितनी खुश थी। मुझे लगा आखिरकार मुझे एक अच्छी जगह मिल ही गई। अब आप बाकी सब की तरह ही कर रहीं हैं। अंडे... मैं अंडे नहीं खा सकती।’
‘ओह अच्छा, अगर तुम्हें अंडे पसंद नहीं हैं तो तुम अपने लिए कुछ और ले आओ। मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मैंने अंडे सिर्फ इसलिए कहा, क्योंकि आज मेरे पास पैसे थोड़े कम हैं।’
‘ऐसा नहीं है कि मुझे अंडे पसंद नहीं है। मुझे अंडे हमेशा से ही पसंद थे। घर और खेत पर भी हम लोग बहुत अंडे खाया करते थे। मगर जब मैं पहली बार पेरिस आई तो जिस औरत के साथ मुझे काम मिला, वह बहुत कंजूस थी। आप सोच भी नहीं सकती कि वो कैसी थी। वो सारी अलमारियां लॉक रखती थी और सारा राशन नाप-तौल कर रखती थी। मैं चीनी के कितने पीस खाती थी, वो उसकी भी गिनती रखती थी। वो मुझे हमेशा ज़्यादा खाने के लिए फटकार लगाती रहती थी। खुद तो मीट खाती थी मगर मेरे लिए हमेशा बस अंडे। लंच में अंडे, डिनर में अंडे, हर रोज बस अंडे। मैं तब तक अंडे खाती रही जब तक कि बहुत बीमार नहीं पड़ गई। और आज जब आपने कहा... तो मुझे लगा वो सब वापस होने वाला है।’
‘अभी तक तो तुम्हें पता लग जाना चाहिए था कि मैं नहीं चाहती कि तुम यहां दुखी रहो।’
‘मैं दुखी नहीं हूं मैडम। मैं तो बहुत खुश हूं। मगर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मुझे पूरे वक्त लगता रहा कि कुछ तो गड़बड़ है, या फिर आप मुझे सिर्फ एक महीने के लिए रखेंगी। फिर गर्मी की छुट्टियों से पहले निकाल देंगी, जिससे आपको मुझे छुट्टी के पैसे ना देने पड़ें। मैं गर्मी भर पेरिस में भटकती रह जाऊंगी, जब कोई नौकरी भी नहीं मिलती। फिर मुझे लगा कि आप मुझे क्रिसमस के पहले ही निकाल देंगी, जिससे आपको मुझे कोई नए साल का तोहफा ना देना पड़े, क्योंकि यह सब मेरे साथ पहले हो चुका है। मैं एक बार एक ऐसे घर में काम करती थी जहां मुझे बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी: शाम को मुझे बच्चे की देख-रेख करनी होती थी। और रविवार को जब बाकी सब लोग बाहर जाते तो मुझे घर की निगरानी करनी होती थी।’
इसके बाद वह चुप हो गई। कई हफ्तों तक उसने कुछ नहीं कहा। उसने कभी अंडों का ज़िक्र भी नहीं किया। वो कुछ कम डरी हुई लग रही थी, लेकिन फिर भी पहले जैसे ही छुपते-छिपाते इधर-उधर भागती रहती। खाती भी ऐसे कि मानो खाने पर शर्मिंदा हो रही हो। मैं चुहिया के डर की सरहद पार नहीं कर पा रही थी। तब भी नहीं जब मैंने उसे अपनी लोटरी टिकट का आधा हिस्सा दे दिया। तब भी नहीं जब मैंने उसे उसके होने वाले पति की फोटो रखने के लिए एक फ्रेम दिया। फिर जब उसे लिखने वाला पेपर चुराते हुए पकड़ा तो मैंने उसे लिखने के लिए तुरंत पेपर भी दिया। इतना कुछ करने के बाद भी मैं उसके डर को खत्म नहीं कर पाई।
एक दिन मैं हफ्ते भर के लिए कहीं चली गई। हाउस बोट की निगरानी करने के लिए चुहिया अकेली रह गई। मैं जब वापस आई तो चुहिया पहले से भी ज़्यादा आंखें चुराने लगी, उसको हंसाना और मुश्किल हो गया। अपने प्रेमी के साथ चबूतरे पर से जाती हुई एक औरत ने अपनी टोपी खो दी। वह टोपी नदी में जा गिरी। उसने हमारे दरवाज़ा खटखटाया और चुहिया से पूछा कि क्या वह हमारी बोट पर आकर पोल के सहारे अपनी टोपी निकालने कि कोशिश कर सकती है। उसकी टोपी बोट के दूसरी तरफ तैर रही थी। सभी ने अपनी खिड़कियों से उसकी टोपी पकड़ने की कोशिश की। झाड़ू के भार और नदी के बहाव से खिंच कर चुहिया लगभग खिड़की से बाहर जा गिरी। सब लोग इस पर ठहाका मारकर हंसने लगे, चुहिया भी हंसी। फिर वह अचानक खुद को हंसता देख डर गई। उसने जल्दी से अपने काम की ओर दौड़ लगा दी।
एक महीना ऐसे ही बीता। एक दिन चुहिया रसोई में कॉफी पीस रही थी तभी मैंने उसके कराहने की आवाज़ सुनी। चुहिया एकदम सफेद पड़ चुकी थी और अपना पेट पकड़कर दर्द से झुकी खड़ी थी। मैं उसे उसके कमरे तक ले गई। चुहिया ने बताया कि ऐसा अपच के कारण हो रहा है। मगर उसका पेट दर्द बढ़ता गया। एक घंटे तक वह दर्द से कराहती रही। आखिरकार, उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके लिए डॉक्टर को बुला लाऊंगी, जिसके बारे में उसने सुना है। उनके घर का दरवाजा डॉक्टर की पत्नी ने खोला। डॉक्टर ने चुहिया की पहले भी देखभाल की थी लेकिन जब से वह हाउस बोट पर रहने लगी थी, तब से डॉक्टर ने उसे नहीं देखा था। डॉक्टर के लिए उसे वहां जाकर देखना नामुमकिन था, क्योंकि वह महान युद्ध का जख्मी सैनिक था। उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह अपने लकड़ी के पैर को लेकर नाचती हुई हाउस बोट में ढिलमिलाते हुए तख्ते पर चढ़ कर जाए। ‘यह नामुमकिन है’, उसकी बीवी ने दोहराया। मगर मैंने उससे मिन्नतें की। उसको समझाया कि बोट में जाने वाला तख्ता एकदम स्थिर है, उसके एक तरफ रेलिंग बनी हुई है। हाउस बोट के पास से जब तक कोई दूसरी नाव न गुजरे तब तक वह बिल्कुल भी हिलती-डुलती नहीं है। वह सीढ़ियों के पास मजबूती से बंधी है और उसके अंदर जाना आसान है। उस दिन नदी भी बहुत शांत थी। किसी हादसे का कोई डर नहीं था। डॉक्टर की पत्नी आधी ही राजी हुई। उसने मुझे आधा-अधूरा ही वादा दिया कि डॉक्टर एक घंटे में आ जाएंगे।
हम खिड़की से झांककर डॉक्टर के आने का इंतज़ार कर रहे थे, तभी हमने उसे तख्ते तक लंगड़ाते हुए आते देखा। फिर उसके सामने थोड़ा हिचकिचाते हुए भी। मैं उसे यह दिखाने के लिए चल कर उसके पास गई कि तख्ता कितना स्थिर है। वह लंगड़ाते हुए उसके ऊपर चलकर आ गया। चलता हुआ वह बार-बार धीरे से बड़बड़ाता रहा: ‘मैं महान युद्ध में ज़ख्मी हुआ सैनिक हूं। मैं उन लोगों की देखभाल नहीं कर सकता जो हाउस बोट पर रहते हैं।’
मगर वह नदी में नहीं गिरा। वह छोटे से केबिन में अंदर आ गया।
चुहिया को मजबूरन कुछ चीजें स्पष्ट करनी पड़ीं। उसको डर था कि वह प्रेग्नेन्ट है। उसने अपनी बहन का बताया कोई अमिश्रित अमोनिया का नुस्खा इस्तेमाल किया था। इससे उसका दर्द अब बहुत ज़्यादा बढ़ गया था।
डॉक्टर ने निंदा में अपना सिर हिलाया। चुहिया को अपने कपड़े खोलने पड़े। अपने पतले से पैर हवा में उठाए वह छोटी-सी चुहिया अजीब लग रही थी।
मैंने उससे पूछा कि उसने मुझे क्यों नहीं बताया।
‘मुझे डर था मैडम कि मुझे आप बाहर निकाल देंगी।’
‘बिल्कुल नहीं, मैं तुम्हारी मदद ही करती।’
चुहिया फिर दर्द से कराहने लगी।
डॉक्टर ने कहा: ‘तुम्हें बहुत बुरा इन्फेक्शन हो सकता है। अगर यह अभी बाहर नहीं आया तो तुम्हें अस्पताल जाना होगा।’
‘नहीं नहीं, मैं अस्पताल नहीं जा सकती। मेरी बहन को पता लग जाएगा। वो बहुत गुस्सा होगी और मेरी मां को बता देगी।’
‘शायद ये अपने आप बाहर आ जाएगा। मैं सिर्फ इतना ही कर सकता हूं: इस तरीके की चीजों में मैं अपना नाम खराब नहीं कर सकता। मेरे काम में मुझे सावधानी बरतनी पड़ती है। मुझे थोड़ा पानी और एक तौलिया लाकर दो।’
डॉक्टर ने अपने हाथ अच्छे से धोए। पूरे समय वह बोलता रहा कि वह वापस नहीं आ सकता। सिर्फ इतनी आशा की जा सकती है कि उसे इन्फेक्शन न हुआ हो। चुहिया अपने बिस्तर के एक कोने में दुबककर बैठे हुए बेचैनी से डॉक्टर को देख रही थी, जो अपनी सारी जिम्मेदारियों से हाथ धो रहा था। वह महान युद्ध का ज़ख्मी सैनिक चुहिया को इंसान का दर्जा ही नहीं दे पा रहा था। उसके हाव-भाव से यह स्पष्ट था: तुम सिर्फ एक नौकर हो। एक तुच्छ सी नौकर। अपने जैसे बाकी सभी लोगों की तरह तुम भी मुसीबत में पड़ती हो। ये तुम्हारी खुद की गलती है।
फिर उसने चिल्ला कर कहा: ‘तुम सारे नौकर हम डॉक्टरों के लिए मुसीबतें खड़ी करते हो।’
हाथ धोने के बाद बिना मुड़े डॉक्टर तख्ते पर लंगड़ाता हुआ चला गया। मैं वापस केबिन में आकर चुहिया के बिस्तर पर बैठ गई।
‘तुम्हें इन सब परेशानियों के बारे में मुझे बताना चाहिए था, मैं तुम्हारी मदद करती। अब शांति से लेटी रहो। मैं तुम्हारी देखभाल करूंगी।’
‘मुझे अस्पताल मत भेजना, मेरी मां को पता चल जाएगा। ये सब सिर्फ इसलिए हुआ क्योंकि आप चली गईं थी। उन अकेली रातों में मैं बहुत ज़्यादा डर गई थी। मैं पुल के नीचे रहने वाले मर्दों से इतना डरी हुई थी कि मैंने अपने आदमी को यहां रुकने दिया। ये सब इसीलिए हुआ, क्योंकि मैं डरी हुई थी।’
चुहिया के साथ यह ऐसे हुआ, झटपटाहट में, वह जल्दी-जल्दी में इन सब चक्करों में पड़ गई, जैसे किसी फंदे में जा फंसी हो। चुहिया को उस डरावने और अंधेरे समय में बस यह प्यार ही मालूम पड़ा।
‘मैडम अगर मैं सच कहूं तो यह इस सब के लायक नहीं है। मुझे तो इसमें कोई बड़ी बात दिखी भी नहीं। बाद में इतनी सारी मुसीबतें, इस तरह से पकड़े जाना। फिर किसके लिए? यह कुछ असाधारण तो है नहीं।’
‘शांति से लेटी रहो। मैं थोड़ी देर में आकर देखती हूं कि तुम्हें बुखार है कि नहीं।’
कुछ घंटों बाद चुहिया ने मुझे बुलाया: ‘हो गया मैडम, हो गया।’
चुहिया को बुखार था और वो तेजी से बढ़ रहा था। उसे इन्फेक्शन हो गया था। कोई भी डॉक्टर हाउस बोट पर आने को तैयार नहीं था। जैसे ही उन्हें मालूम पड़ता कि मुसीबत क्या है, वे आने से इनकार कर देते। खासकर तब जब वह एक नौकर के लिए हो। यह बहुत ज़्यादा होता था। ‘उन्हें सीखना ही होगा’, सारे डॉक्टर कहते, ‘मुसीबत में कैसे ना पड़ें।’
मैंने चुहिया से वादा किया कि मैं उसकी बहन से चुहिया का कुछ दिनों के लिए बाहर जाने का बहाना इजाद कर लूंगी, बशर्ते वो मुझे उसे अस्पताल ले जाने दे। वह मान गई। मैंने कहा कि मैं उसका सूटकेस पैक कर देती हूं। सूटकेस का नाम सुनकर चुहिया पीली पड़ गई। वह निष्क्रिय पड़ी रही और पहले से कहीं ज़्यादा डरी हुई दिखने लगी। मैंने उसका सूटकेस बिस्तर के नीचे से निकाला और उसके बगल में रख दिया।
‘मुझे बताओ तुम्हारे कपड़े कहां हैं। तुम्हें साबुन, टूथब्रश, तौलिए और कई चीजों की जरूरत पड़ेगी।’
‘मैडम,’ चुहिया हिचकिचाई। उसने अपने बगल में रखी टेबल की दराज खोली। उसने मुझे वो सारी चीजें थमाई, जो मुझे लगा था कि मैंने पिछले कुछ महीनों में खो दी थीं। इन चीज़ों में मेरा खुद का साबुन, टूथब्रश, तौलिया, मेरा रुमाल, और पाउडर पफ था। इतनी सारी चीजों को देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। शेल्फ में रखी चीजों में से मेरी एक कमीज निकली। मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं देने का ढोंग किया। चुहिया के गाल बुखार से लाल पड़ गए। उसने अपना छोटा-सा सूटकेस ध्यान से पैक किया। उसने लिखने के लिए पेपर और अपनी सिलाई का सामान अपने होने वाले पति के लिए पैक किया। उसने मुझसे एक किताब खोजने के लिए कहा, जिसे वह अपने साथ ले जाना चाहती थी। वह बच्चों की एक किताब थी। चुहिया ने उस किताब के पहले दस पेज घिस दिए थे, जिनमें भेड़, गाय, और घोड़े की कहानियां थीं। वह कई सालों से वही कुछ पेज पढ़ रही होगी। वे पेज इतने घिसे और धुमैले हो चुके थे कि बिल्कुल उसकी बेडरूम वाली चप्पलों की तरह दिखते थे। मैंने चुहिया से कहा कि मैं उसके लिए नई चप्पलों का जोड़ा ले आऊंगी। चुहिया ने अपने बिस्तर के नीचे छुपे हुए पर्स की तरफ हाथ बढ़ाया।
‘हे भगवान, तुम्हें कभी किसी ने कुछ नहीं दिया क्या?’
‘नहीं मैडम।’
‘अगर मैं गरीब और बीमार बिस्तर पर पड़ी होती तो क्या तुम मुझे चप्पल नहीं देती, अगर मुझे उनकी जरूरत होती तो?’
इस विचार ने चुहिया को बाकी और चीजों से ज़्यादा डरा दिया। उसके लिए इस फेरबदल की कल्पना कर पाना नामुमकिन था।
‘ये दोनों बातें समान नहीं हैं,’ चुहिया ने कहा।
उसे हाउस बोट से बाहर उठाकर ले जाना पड़ा। वह बहुत ही छोटी-सी दिख रही थी। उसने टोपी पहनने की ज़िद की तो उसकी रविवार को पहने जाने वाली टोपी को अपने टिशू पेपर की कब्र से बाहर निकाला गया। साथ ही उसके बहुत छोटे फ़र के गुलूबंद को भी, जो उसकी चुहिया जैसी आंखों के रंग का था।
अस्पताल वालों ने उसका इलाज करने से इनकार कर दिया।
उसका इलाज कौन-सा डॉक्टर कर रहा था? कोई नहीं। क्या उसकी शादी हो चुकी थी? नहीं। इसका अबॉर्शन किसने किया? खुद ने। इस पर उनको शंका हुई। उन्होंने हमें दूसरे अस्पताल जाने की सलाह दी। चुहिया का खून तेजी से बहते जा रहा था। बुखार उसको तेजी से अपनी चपेट में ले रहा था। मैं उसे दूसरे अस्पताल ले गई, जहां उन्होंने उसे बेंच पर बैठाया। चुहिया अपने सूटकेस को कसकर पकड़े रही। वे उससे ढेरों सवाल करने लगे। वह कहां से आई थी? उसने पहली बार कौन-सी जगह काम किया था? चुहिया दब-दब कर जवाब दे रही थी। और उसके बाद? उसे जगह का पता याद नहीं था। इस कारण सवालों का सिलसिला दस मिनट के लिए रुक गया। और उससे पहले? चुहिया ने फिर जवाब दिया। एक हाथ वह अपने पेट पर रखे हुए थी।
‘इस औरत का खून बह रहा है,’ मैंने विरोध किया, ‘क्या ये सारे सवाल जरूरी हैं?’
अगर उसे तीसरी जगह का पता याद नहीं है तो क्या उसे याद है कि उसने उसके बाद कहां काम किया था? और कितने समय के लिए? उसके काम करने का समय हर जगह दो साल होता था। क्यों? रिसेप्शन पर बैठे आदमी ने पूछा। जैसे कि उसका किसी घर पर ज़्यादा देर तक न ठहरना चौंका देने वाली या शक पैदा करने वाली बात हो। जैसे कि वो किसी तरह की मुजरिम हो।
‘अबॉर्शन शायद आपने किया है?’ उस आदमी ने मेरी तरफ मुड़कर पूछा।
वह बेंच पर खून बहाती औरत उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। उसकी गोल छोटी-सी नम आंखें, उसकी गर्दन पर वो घिसा हुआ फ़र का टुकड़ा, उसकी वो घबराहट। वह रविवार को पहने जाने वाली उसकी नई टोपी और वो रस्सी नुमा हैन्डल के साथ उसका टूट-फूटा सूटकेस। उसका मैला पड़ चुका पर्स और बच्चों की किताब के बीचों-बीच रखे उसके सैनिक के खत। यहां तक की ये प्रेग्नन्सी भी उसे अंधेरे में और डर के कारण मिली। एक घबराहट का संकेत, जैसे चुहिया फंदे में फंस रही हो।
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