कुर्दिश लेखक बख्तियार अली का इंटरव्यू

'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त/मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी' उर्दू साहित्य के इस शेर में कोई भी इंसान वतन से मोहब्बत के जज़्बे को आसानी से समझ सकता है। अपने वतन में रहते हुए उससे मोहब्बत होना स्वाभाविक भी है, लेकिन जब किसी इंसान को ज़बरदस्ती, हिंसा, रक्तपात या फिर सैनिक कार्यवाहियों द्वारा उसे उसके वतन से बेदखल कर दिया जाता है तो वतन से उसकी यह मोहब्बत ऐसी पीड़ा बन जाती है, जो कांटे की टीसती रहती है। अपने वतन की याद में दुनिया के अलग-अलग देशों में भटकता वह इंसान इस टीस के घावों को भरने के लिए कई-कई जतन करता है। झंडे फहराता है, प्रदर्शन करता है और नारेबाजी करता है। कभी-कभी वह साहित्य-कला से जुड़ जाता है और अपनी उस पीड़ा के अथाह समुंद्र में डूबकर ऐसी रचनाएं लिखता है, जो समय के बीतने के साथ कालजयी हो जाती हैं। वर्तमान समय में दुनिया के कई इलाकों के ऐसे साहित्यकार, जिनके वतन उनसे जबरदस्ती छीन लिए गए या उन पर कब्ज़ा कर लिया गया है, ऐसी ही रचनाओं को रचने में लीन है। आपने 'अनुवाद संवाद' पर इससे पहले फलस्तीनी, कश्मीरी, आदिवासी और दलित लेखकों के लेख, कहानियां और इंटरव्यू पढ़े हैं। इसी सीरीज में अब आप पढ़ें कुर्दिस्तानी लेखक बख्तियार अली का यह शानदार इंटरव्यू, जिसमें वह बता रहे हैं कि अपने मुल्क से हज़ारों मील दूर जर्मनी में रहते हुए वह कैसे लेखन के सहारे कुर्दिस्तान को अपनी यादों में ज़िंदा रखे हुए हैं।

कुर्दिश लेखक बख्तियार अली का इंटरव्यू

 

अनुवाद जर्मन से अंग्रेजी में: ऐनजील फ्लैनेगन 
अनुवाद अंग्रेजी से हिन्दी में:
 मज़ाहिर हुसैन
साक्षात्कर्ता: सोन्या गेलर
स्तोत्र: Qantara

अपने निबंध स्वर्गीय यूरोप का मिथक में आपने लिखा है कि ‘स्मृतियां वहीं ठहरी रहती हैं जहां वे जन्म लेती हैं।’ आपका जन्म 1996 में इराकी कुर्दिस्तान में हुआ था। क्या कुर्दिस्तान अभी भी आपकी स्मृतियों और रचनात्मकता की भूमि है?

बख्तियार अली:  हमारी स्मृतियां हमें प्रताड़ित कर सकती हैं और रुग्ण भी बनाए रख सकती हैं। लेखन से मैं अपनी स्मृतियों को अपने व्यक्तिगत अनुभवों से अलग कर पाता हूं। उन्हें एक पीढ़ी के व्यापक अनुभवों की तरह देख पाता हूं। मैं मुख्य रूप से ओरिएंट और कुर्दिस्तान से जुड़े विषयों पर लिखता हूं। इन विषयों पर मैं केवल इसलिए नहीं लिखता कि ओरिएंट में लिखने के लिए मुझे बहुत कुछ मिलता है। इन विषयों पर मैं इसलिए भी लिखता हूं, क्योंकि वहां के लोग ख़तरे में हैं: अतिवाद और राजनीतिक द्वेष ने विश्व के इस हिस्से को बर्बाद कर दिया है। हम लेखकों और बुद्धिजीवियों को इस विनाशलीला के विपरीत काम करने की जरूरत है।   

इसी निबंध में आप पलायन की उत्पादक शक्ति के बारे में लिखते हैं। इस शक्ति को कलात्मक ढंग से कैसे उजागर किया जा सकता है?

बख्तियार अली: पलायन हमें हमारी विश्व-व्यवस्था की यथा-स्थिति पर सवाल उठाने में मदद करता है। साथ ही विश्व के देशीय विभाजन की अमानवीयता को भी दिखलाता है, जो वैश्वीकरण के इस दौर में आज भी अपनी पैठ जमाए हुए है। पलायन हमें राष्ट्रवाद से छुटकारा दिलाने का सबसे अच्छा कारण बन सकता है। पलायन नए वैश्विक स्वरूप को बनाने में भी हमारी मदद कर सकता है। एक ऐसा वैश्विक नज़रिया जिसका किसी भी लहजे से आर्थिक वैश्वीकरण से कोई लेना देना नहीं है। मूलतः कला को पलायन से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि कला अपने आप में पलायन का ही रूप है। यह केवल कला ही है, जिसमें उन सार्वभौमिक मूल्यों को धारण किया जा सकता है, जो पलायन के परिणामस्वरूप जन्म लेते हैं।

आपको 1990 के दशक में कुर्दिस्तान छोड़ना पड़ा था। आपको ऐसा क्यों करना पड़ा और आज आपकी कुर्दिस्तान के बारे में क्या राय है? 

बख्तियार अली: उस समय मैं आज़ादी नाम की दार्शनिक पत्रिका का सम्पादक हुआ करता था। पत्रकार और लेखक के रूप में मेरी गतिविधियों से बहुत से राजनेता ग़ुस्से में रहते थे। 1994 में उत्तरी इराक़ में भयंकर गृहयुद्ध छिड़ गया (उसका नाम बिरकुजी था। यह गृहयुद्ध 1990 में प्रतिस्पर्धी कुर्दिश पार्टियों के बीच इराक़ी कुर्दिस्तान में हुआ सबसे हिंसक विरोध संघर्ष था)। मैं और पत्रिका में काम करने वाले मेरे कुछ दोस्त बहुत ज़्यादा दबाव में थे। हमें हर तरफ़ से लगातार धमकियां मिल रही थीं; हमारे लिए देश में रहना मुश्किल होता जा रहा  था। मैं कुर्दिस्तान के लोगों की इच्छा-शक्ति और दृढ़ता का सम्मान करता हूं। इन विशेषताओं की मदद से ही वे इतने बुरे वक्त में भी अपने आप को जिंदा रख पाए  हैं। मैं सभी राजनेताओं से घृणा करता हूं, लेकिन कुर्दिस्तान में रहने वाले लोगों के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है।

आपको किस चीज़ ने लेखन के लिए प्रेरित किया?

बख्तियार अली: मैं वास्तविकता की सीमाओं को लांगने के लिए लिखता हूं। मैं आज़ादी के मतलब को राजनीतिक भ्रम से स्वाधीन बनाने के लिए लिखता हूं। लेखक के तौर पर मेरा काम और उद्देश्य हमेशा आज़ादी को अनुभव करना और सक्रिय राजनीति में उतरे बिना आज़ादी की लड़ाई को जारी रखना है।

आप जर्मनी में बीस साल से भी ज़्यादा समय से रह रहे हैं। हालांकि, 2016 में पहली बार आपके उपन्यास का जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ। उससे पहले जर्मनी में आपको व्यक्तिगत रूप से जानने वाले लोग क्या यह जानते थे कि आप कलाकार हैं?

बख्तियार अली: कुर्द मुझे 1992 से जान रहे हैं। लेकिन हाल के समय तक जर्मनी में मैं अपने आप को कभी लेखक की तरह प्रस्तुत नहीं कर पाया। संगीतकार और चित्रकार अपनी कला का प्रदर्शन कहीं भी और किसी भी वक्त करके यह दर्शा सकते हैं कि वे कलाकार हैं। लेकिन लेखक के तौर पर मैं वहीं उभरता हूं जहां मेरे शब्द जीते हैं, सांस लेते हैं और उड़ान भरते हैं। मैं केवल वहां हूं, जहां मेरी भाषा गूंजती है। मेरी भाषा केवल मेरी राष्ट्रीयता ही नहीं है, वह मेरे लेखक होने के अस्तित्व की पहचान और शर्त भी है।   

इराक़, सीरिया और तुर्की में रहने वाले कुर्दों के बीच आप सम्मानीय लेखक हैं। क्या कुर्दिश और जर्मन पाठक अलग तरह से साहित्य पढ़ते हैं?

बख्तियार अली: सामान्यतः कुर्दिश पाठक लेखन को उसके राजनीतिक परिवेश से आंकते हैं। वहां लेखक को उसके राजनीतिक झुकाव से देखा जाता है कि वह मसीहा है या शैतान। यह बात मुझे बहुत चिड़ाती है, क्योंकि किसी भी लेखन को उसके राजनीतिक पूर्वाग्रहों से अलग करके पढ़ा जाना चाहिए। अगर यूरोपीय लोगों की बात की जाए तो उनमें से कई पाठक ऐसे हैं, जो आज भी अरेबियन नाइट्स के परिवेश में ही फंसे हैं। ओरिएंट की संस्कृति को अधिकतर दो आयामों में सीमित कर दिया जाता है, अरेबियन नाइट्स और इस्लामवाद। जबकि इसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। दुर्भाग्यवश, ज़्यादातर यूरोपीय पाठकों को ओरिएंट और उसके इतिहास के बारे में पता नहीं होता। जानकारी का अभाव हमेशा ख़तरनाक साबित होता है और बातचीत को कठिन बनाता है।  

जर्मन भाषा में अनुदित आपके दोनों उपन्यास दो लोगों की अनुवादक टीम द्वारा किए गए। यह कैसे हुआ?

बख्तियार अली: पेशावा फ़तह और रवेज़ सलीम को मेरे लेखों का अनुवाद करने का जुनून था: एक लगन और एक अनंत प्रयत्न की भावना इस प्रक्रिया की जड़ों में है। उन दोनों में से किसी को भी इस बात की आशा नहीं थी कि उनका अनुवाद कभी प्रकाशित होगा। लेकिन फिर भी वे बिना थके इस काम में जुटे रहे। दूसरे चरण में उट कंटेरा-लैंग और हान्स-उलरिक मुलर-श्वेफे हमारे साथ जुड़े। उन्होंने सारा सम्पादकीय काम किया। इन अनुवादों की व्युत्पत्ति साहित्य के प्रति गहरे प्रेम और विश्वास का नतीजा है। 

कुर्दिश साहित्य को ज़्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

बख्तियार अली: हमें और ज़्यादा सांस्कृतिक कामों और अनुवादकों की ज़रूरत है। अगर हम अपनी मदद खुद नहीं करेंगे तो कोई भी हमारी मदद नहीं करेगा। केवल सड़कों पर प्रदर्शन करना और झंडे फहराना काफ़ी नहीं है। इस तरह के कार्यों से कुर्दिश लोगों की जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आता। हमें अपने आप को पीड़ितों के कटघरे मे खड़ा करना बंद करना होगा।

आपके मुल्क के हालातों को देखकर उसके प्रति आशावादी होने की संभावनाएं कम रह जातीं हैं। आपकी समझ के मुताबिक़ क्या कुर्दिश परिस्थिति का कोई राजनीतिक हल है?

बख्तियार अली: जब तक ओरिएंट में सही मायने में लोकतंत्र नहीं आ जाता, तब तक कुर्दिश लोगों के लिए कोई राजनीतिक हल नहीं निकलेगा। तानाशाहों को शांतिप्रिय दुनिया में कोई रुचि नहीं है। मिडिल-ईस्ट की सैन्य सरकारों को बली का बकरा चाहिए, इसी कारण कुर्दिस्तानियों को उन्होंने अपना शाश्वत दुश्मन घोषित कर लिया है। उन्हें इन परिस्थितियों से फ़ायदा मिलता है। ओरिएंट में फासीवाद और राष्ट्रवाद के गहरे सम्बन्ध हैं। जब तक राष्ट्रवाद पर विजय नहीं पा ली जाती, कोई मौलिक बदलाव नहीं आएगा। 

आपका उपन्यास सिटी ऑफ व्हाइट म्यूज़िशंस  (गोरे संगीतकारों का शहर) कहानियों का एक विजय गीत है। क्या आप आशावादी हैं? क्या क ला मानवता को बचा सकती है?  

बख़्तियार अली: कला हमारी मदद उन चीजों को उजागर करने में करती है जिनको हमने अपने भीतर दबा रखा है। यही कला की महान शक्ति है। ओरिएंट को प्रतिरोध के अभाव में नहीं सोचा जा सकता। लेकिन बिना खून बहाए और डर फैलाए प्रतिरोध को दिखा पाना आसान नहीं है। कला शांति रूपक प्रतिरोध करने और मुक्ति हासिल करने का जरिया है। मैं यहाँ मसीहाई या फिर मार्क्सवादी ऐतिहासिक मुक्ति के संदर्भ में बात रखने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। मैं मुक्ति को रोज़मर्रा के जीवन की क्रिया के रूप में देखता हूं: प्रेम, मूल्यों और जीवन के संदर्भ में। कला हमारे अंदर प्रतिरोध की भावना और काबिलीयत को ज़िंदा रखने में मदद करती है।   

(इस लेख को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

बख्तियार अली
बख्तियार अली

प्रसिद्ध कुर्द लेखक बख्तियार अली मुहम्मद का जन्म 1960 में सुलेमानियाह, कुर्दिस्तान में हुआ था। बख्तियार अली उपन्यासकार, साहित्यिक आलोचक, निबंधकार और कवि हैं। अली ने कवि और निबंधकार के रूप में अपने लेखन की शुरुआत की थी। बाद में 1990 के दशक के मध्य से उन्होंने खुद को प्रभावशाली उपन्यासकार के रूप में... प्रसिद्ध कुर्द लेखक बख्तियार अली मुहम्मद का जन्म 1960 में सुलेमानियाह, कुर्दिस्तान में हुआ था। बख्तियार अली उपन्यासकार, साहित्यिक आलोचक, निबंधकार और कवि हैं। अली ने कवि और निबंधकार के रूप में अपने लेखन की शुरुआत की थी। बाद में 1990 के दशक के मध्य से उन्होंने खुद को प्रभावशाली उपन्यासकार के रूप में स्थापित किया। उनके तेरह उपन्यास, कई कविता संग्रह और निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। अली को उनके उपन्यास ‘Der letzte Granatapfel' (आखरी अनार) के प्रकाशन से अपार प्रसिद्धि मिली। हाल ही में उनके ‘Die Stadt der weißen Musiker’ (गोरे संगीतकारों का शहर) नाम के उपन्यास का जर्मन भाषा में अनुवाद प्रकाशित किया गया। जर्मन भाषा में अनुवादित होने वाले अली के उपन्यासों में यह दूसरा उपन्यास है।