कुर्दिश लेखक बख्तियार अली का इंटरव्यू
'दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फ़त/मेरी मिट्टी से भी ख़ुशबू-ए-वफ़ा आएगी' उर्दू साहित्य के इस शेर में कोई भी इंसान वतन से मोहब्बत के जज़्बे को आसानी से समझ सकता है। अपने वतन में रहते हुए उससे मोहब्बत होना स्वाभाविक भी है, लेकिन जब किसी इंसान को ज़बरदस्ती, हिंसा, रक्तपात या फिर सैनिक कार्यवाहियों द्वारा उसे उसके वतन से बेदखल कर दिया जाता है तो वतन से उसकी यह मोहब्बत ऐसी पीड़ा बन जाती है, जो कांटे की टीसती रहती है। अपने वतन की याद में दुनिया के अलग-अलग देशों में भटकता वह इंसान इस टीस के घावों को भरने के लिए कई-कई जतन करता है। झंडे फहराता है, प्रदर्शन करता है और नारेबाजी करता है। कभी-कभी वह साहित्य-कला से जुड़ जाता है और अपनी उस पीड़ा के अथाह समुंद्र में डूबकर ऐसी रचनाएं लिखता है, जो समय के बीतने के साथ कालजयी हो जाती हैं। वर्तमान समय में दुनिया के कई इलाकों के ऐसे साहित्यकार, जिनके वतन उनसे जबरदस्ती छीन लिए गए या उन पर कब्ज़ा कर लिया गया है, ऐसी ही रचनाओं को रचने में लीन है। आपने 'अनुवाद संवाद' पर इससे पहले फलस्तीनी, कश्मीरी, आदिवासी और दलित लेखकों के लेख, कहानियां और इंटरव्यू पढ़े हैं। इसी सीरीज में अब आप पढ़ें कुर्दिस्तानी लेखक बख्तियार अली का यह शानदार इंटरव्यू, जिसमें वह बता रहे हैं कि अपने मुल्क से हज़ारों मील दूर जर्मनी में रहते हुए वह कैसे लेखन के सहारे कुर्दिस्तान को अपनी यादों में ज़िंदा रखे हुए हैं।
August 20, 2022