मदारी रकाब ले उड़ा

किशोरावस्था का दौर हर इंसान की ज़िंदगी का सबसे रंगीन दौर होता है। किसी भी चिंता या फिक्र से बेपरवाह रात-दिन तपती दोपहर से सावन की ठंडी बूंदों में कब बदल जाते हैं, पता ही नहीं चलता। मिस्र और अरबी साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले कथाकार नजीब महफ़ूज़ की प्रस्तुत कहानी ऐसे ही किशोर के सपनों और उसकी नटखत गतिविधियों के गिर्द घूमती है, जिसे उसकी अम्मी बाजार से कोई सामान लेने भेजती है। सामान लाने के इस सिलसिले में अपनी उम्र के मुताबिक घूमता-झूमता वह जितनी बार भी दुकान पर पहुंचता है, हर बार अपने साथ लाए सामान में से कुछ न कुछ रास्ते में ही गुम कर देता है। चीज़ों को खो देने की अपनी इस यात्रा में वह न केवल पाठक को तत्कालीन काहिरा शहर की गतिविधियों के बारे में बताता है, साथ ही वह खुद को एक ऐसी घटना के गवाह के रूप में भी पाता है, जिसका उसके अलावा और कोई गवाह होता ही नहीं है। पेश है मिस्री कहानी 'मदारी रकाब दे उड़ा।'

मदारी रकाब ले उड़ा

पटचित्र: Dolls of India

अनुवाद: शहादत खान 

“अब तुम काम करने के लायक हो गए हो”, मेरी अम्मी ने मुझसे कहा और फिर अपनी जेब में हाथ डाल कर बोली, “ये प्यास्तर (सिक्का) लो और जाकर कुछ लोबिया के दाने खरीद लाओ। रास्ते में खेल में न लग जाना और गाड़ियों से बचकर चलना।”

मैंने रकाब ली, खड़ाऊ पहनी और एक धुन गुनगुनाता हुआ निकल खड़ा हुआ। लोबिया वाले की दुकान के सामने लगी लोगों की भीड़ देखकर मैं इंतज़ार करने लगा। थोड़े वक्त बाद मैं मरमर के काउंटर तक पहुंच गया।

“जनाब, एक प्यास्तर का लोबिया दीजिए”, मैंने चीखकर कहा।

“सिर्फ लोबिया?” उसने बेचैनी से पूछा, “तेल के साथ? घी के साथ?”

मैंने जवाब नहीं दिया और उसने रुखाई से कहा, “दूसरों के लिए रास्ता छोड़ो।”

मैं कतार से निकला और अपनी उकताहट पर काबू पाते हुए बुझे दिल के साथ घर को चल दिया।

“खाली रकाब थामे वापस आ रहे हो?” मेरी मां मुझ पर चिल्लाई, “क्या किया तुमने?... लोबिये गिरा दिए या प्यास्तर गुम कर दिया, शरारती लड़के?”

“सिर्फ लोबिया? तेल के साथ? घी के साथ? ये तो आपने मुझे बताया नहीं था”, मैंने जवाब दिया।

“बेवकूफ लड़के! तुम रोज़ाना सुबह को क्या खाते हो?”

“मुझे नहीं मालूम।”

“तुम निरे उल्लू हो। उससे कहो लोबिया की थैलियां तेल के साथ चाहिए।”

मैं उस दुकानदार के पास गया और बोला, “जनाब! एक प्यास्तर का लोबिया, तेल के साथ दे दें।”

उसने कुछ नाराजगी और बेचैनी से कहा, “रौगन अलसी, रौगन सब्जी या रौगन जैतून?” मैं परेशान हो गया और कोई जवाब न दिया।

“किसी और के लिए जगह छोड़ दो”, उसने चिल्लाकर कहा।

मैं गुस्से से माँ की तरफ लौट गया, जिसने हैरत से कहा, “तुम खाली हाथ आए हो?... न लोबिया और न तेल!”

“अलसी का तेल, सब्जी का तेल, रौगन का तेल? आपने मुझे बताया क्यूं नहीं?” मैंने गुस्से से कहा।

“लोबिये के साथ तेल का मतलब है अलसी का तेल।”

“मुझे कैसे पता चलता?”

“तुम तो बड़े बेवकूफ हो और वो भी अजीब बेज़ार आदमी है... उससे कहो लोबिया, अलसी के तेल के साथ।”

मैं फुर्ती से गया और दुकान से कुछ परे ही से दुकानदार से कहा, “जनाब! अलसी के तेल के साथ।”

“प्यास्तर काउंटर पर रखो”, उसने डोई बर्तन में डालते हुए कहा।

मैंने अपनी जेब में हाथ डाला मगर प्यास्तर न निकला। मैंने बेताबी से उसकी तलाश शुरु कर दी। मैंने अपनी जेब उलट दी मगर फिर भी उसका कुछ पता न था। दुकानदार ने खाली डोई उठाई और गुस्से से बोला, “तुमने प्यास्तर गुम कर दिया... तुम नाकाबिल-ए-भरोसा लड़के हो।”

“मैंने गुम नहीं किया”, मैं अपने कदमों तले और इर्द गिर्द देखते हुए बोला, “वो तो सारे वक्त मेरी जेब में था।”

“दूसरों के लिए रास्ता बनाओ और मुझे परेशान मत करो”, मैं खाली रकाब लिए मां की तरफ पलटा।

“ओह खुदाया, क्या तुम बिल्कुल बेवकूफ हो?”

“प्यास्तर...”

“क्या हुआ उसका?”

“वो मेरी जेब में नहीं है।”

“क्या तुमने उससे मिठाइयां खरीद ली?”

“नहीं, कसम से मैंने नहीं खरीदीं।”

“फिर कैसे गुम हुआ?”

“मुझे नहीं पता।”

“क्या तुम कुरान की कसम खाते हो कि तुमने उससे कुछ नहीं खरीदा?”

“मैं कसम खाता हूँ।”

“क्या तुम्हारी जेब में सुराख है?”

“नहीं तो, ऐसा भी नहीं है।”

“हो सकता है तुमने पहली या दूसरी बार ही दुकानदार को दे दिया हो।?”

“शायद।”

“क्या तुम्हें इस बात का यकीन नहीं?”

“मुझे भूख लगी है।”

उन्होंने अपने हाथ पर हाथ मारा, जैसे मेरी बात मान ली हो।

“कोई बात नहीं”, वो बोली, “मैं तुम्हें एक और प्यास्तर दूंगी, मगर ये तुम्हारी गुल्लक से निकालूंगी और अगर तुम रकाब खाली लेकर लौटे तो तुम्हारा सिर तोड़ दूंगी।”

मैं मज़ेदार नाश्ते के ख्याल में खोया दौड़ता हुआ चला गया। गलियारे के नुक्कड़ पर, जहां लोबिया वाले की दुकान थी, मैंने बच्चों का झुंड देखा और खुशी और चहचहाट से भरपूर आवाज़े सुनी। मेरे कदम रुक गए और मेरा दिल उनकी तरफ खिंचने लगा।

“भाई कम से कम मुझ को उचटती नज़र तो ड़ाल लेने दो।”

मैं उनके बीच घुसा तो पता चला मदारी सीधा मेरी तरफ देख रहा था। एक अजीब-सी खुश लहर मुझ पर छा गई। मैं बिल्कुल खुद से बेगाना हो गया। मैं पूरी तरह खरगोशों और अंडों और सांपों और रस्सियों के तमाशे में गुम हो गया। जब मदारी पैसे जमा करने आया तो मैं बुदबुदाता हुआ पीछे हटा, “मेरे पास तो पैसे नहीं है।”

वो तेजी से मेरी तरफ झपटा और मैं बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाकर भागा, दौड़ता चला गया। मेरी कमर उसकी चोट से टूट-सी गई थी, मगर फिर भी मैं बेपनाह खुश था, क्योंकि मैं लोबिया वाले की तरफ जा रहा था।

“एक प्यास्तर का लोबिया, अलसी के तेल के साथ दे दें”, मैंने कहा।

वो मुझे घूरकर देखने लगा। मैंने दोबारा फिर अपना सवाल दोहराया।

“मुझे रकाब दो”, उसने गुस्से से कहा।

रकाब! रकाब कहां गई? क्या मैंने दौड़ते हुए गिरा दी? क्या मदारी ने हथिया ली?

“लड़के तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं?”

मैं उल्टे कदमों लौटा और गुमशुदा रकाब रास्ते में तलाश करने लगा। मदारी के तमाशे की जगह खाली थी। मगर बच्चों की आवाज़ों की मदद से मैंने उसे पास की ही गली में तलाश कर लिया। मैं भीड़ के चारों ओर घूमा। जब मदारी ने मुझे देखा तो धमकी देने के अंदाज़ में चिल्लाया,

“पैसे दो वरना भागो यहां से।”

“रकाब!” मैं बेसब्री से चिल्लाया।

“कौन सी रकाब नन्हे शैतान?”

“मुझे रकाब वापस करो।”

“भाग जाओ, वरना तुम्हें सांपों की खुराक बना दूंगा।”

उसने रकाब चुरा ली थी। मैं डर कर उसकी नज़रों से ओझल हो गया और सदमे के मारे रोने लगा। जब कोई राहगीर मेरे रोने की वजह पूछता, मैं जावब देता, “मदारी ने रकाब हथिया ली।”

उस परेशानी में मुझे एक आवाज़ सुनाई दी, जो कह रही थी, “आओ और देखो!”

मैंने अपने पीछे देखा तो वहां एक बाईस्कोप (चलचित्र दर्शी) लगा हुआ था। मैंने दर्जनों बच्चों को उस तरफ दौड़ते और उसके सुराखों के सामने कतार बनाते देखा, जब कि बाईस्कोप के चालक ने उसकी चर्खी चलानी शुरु कर दी।

“ये देखो, ये बहादुर सूरमा और ये खूबसूरत औरत।”

मेरे आँसू सूख गए और मैंने बाईस्कोप के विचारों में गुम, नज़रें जमा दी और मदारी व रकाब को पूरी तरह भूल गया। अपने लालच पर काबू न पाकर मैंने प्यास्तर वहां दे दिया और बाईस्कोप के एक सूराख के सामने एक लड़की के आगे खड़ा हो गया, जो किसी और के आगे खड़ी थी और दिल फरेब तस्वीरें हमारी नज़रों के सामने से गुजरने लगी।

जब मैं अपनी दुनिया में लौटा तो एहसास हुआ कि मैं अपने प्यास्तर और रकाब दोनों खो चुका हूं और वहां मदारी का नाम-ओ-निशान भी न था।

बहरहाल मैंने नुकसान का ख्याल अपने दिमाग से झटक दिया और मैं घुड़सवारों की तस्वीर, इश्क और हिम्मत के कारनामों में खोया हुआ था। मैं अपनी भूख भूल गया। मुझे वो खौफ भी याद न रहा, जिससे मैं घर में डरता था। मैंने कुछ कदम पीछे लिए ताकि उस दिवार के सामने झुक जाऊं जो कभी खज़ाना और सरदार अकादमी का मुख्य कार्यालय था, और खुद को पूरी तरह अपने सपनों में गुम कर दिया। काफी देर तक मैं घुड़सवार, खूबसूरत औरत और गुल (चुड़ैल) के ख्यालों में गुम रहा। मैं अपने सीने में ऊंची आवाज़ से बोलता, अपने लफ्ज़ों को इशारों के साथ अर्थ देता रहा। अपने ख्यालों की धार को पीछे धकेलते हुए मैं बोल उठा, “ये लो, ऐ चुड़ैल। सीधा दिल में!” “और उस (घुड़सवार) ने खूबसूरत औरत को उठाकर घोड़े पर अपने पीछे बैठाया”, एक औरताना आवाज़ आई।

मैंने अपनी दाएं तरफ नज़र दौड़ाई और एक नौजवान लड़की को देखा, जो तमाशे में मेरे साथ थी। वो गंदा लिबास और रंगीन चप्पलें पहने हुए थी और वो अपने लम्बे बालों से खेल रही थी। उसके दूसरे हाथ में ‘औरत के पिस्सू’ नामी लाल और सफेद मिठाइयां थीं, जिन्हें वह इत्मिनान से चूस रही थी। हमारी नज़रों का तबादला हुआ और मैं उसे दिल दे बैठा।

“बैठो और आराम करो”, मैंने उससे कहा।

वो मेरे कहने पर बैठने को हुई तो मैंने उसका बाजू थाम लिया और हम पुरानी दीवार के दरवाजे से निकल गए। उसके उस ज़ीने की एक सीढ़ी पर बैठ गए, जो अनजान जगह जाता था। वो ज़ीना ऊंचाई पर एक प्लेटफॉर्म में खत्म होता था, जिसके पीछे नीला आसमान और मीनारे देखे जा सकते थे।

हम खामोश बैठ गए। साथ-साथ। मैंने उसका हाथ दबाया और हम खामोश बैठे रहे। ये जाने बिना कि कहना क्या है। मुझे उन एहसासात का अनुभव हुआ, जो नए, हैरानी भरे और धुंधले थे। उसका चेहरा अपने चेहरे के पास लाकर मैंने उसके मिट्टी में गंधले बालों की कुदरती महक सूंघी और सांस की महक मिठाइयों की खुश्बू से मिल गई। मैंने उसके होंठों का चुंबन लिया।

उसके होंठ जुड़ गए और वह फिर मिठाइयों को चूसने में लग गई। आखिराकर उसने उठने का फैसला किया। मैंने बेताबी से उसका बाजू पकड़ लिया,

“बैठ जाओ”, मैंने कहा।

“मैं जा रही हूँ”, उसने सीधा-सा जवाब दिया।

“कहां?” मैंने उदासी से पूछा।

“दाया उम्मे अली की तरफ”, और उसने एक मकान की ओर इशारा किया, जिसकी निचली मंज़िल पर लोहार की एक छोटी-सी दुकान थी।

“क्यों?”

“उसे जल्दी आने का कहने के लिए।”

“क्यों?”

“मेरी मां घर पर दर्द से कराह रही है। उसने मुझसे कहा था कि दाया उम्मे अली के पास जाओ और उसे अपने साथ जल्दी आने को कहो।”

“और तुम उसके बाद आओगी?”

उसने हां में सिर हिलाया और चली गई।

उसके मां का ज़िक्र करने से मुझे अपनी मां याद आ गई और मेरा दिल धड़कना भूल गया।

उस ज़ीने से उठकर मैं अपने घर के रास्ते पर हो लिया। मैं ऊंची आवाज़ से रोया, जो मेरे दिमाग का आज़माया हुआ नुस्खा था। मुझे उम्मीद थी कि वो मेरी तरफ आएगी। मगर उसने ऐसा नहीं किया। मैं रसोई से सोने के कमरे तक घूमा फिरा मगर उसका कोई सुराग न मिला।

मेरी मां कहां गई? वो कब वापस आएगी?

मैं अकेले घर में बेज़ार हो गया था। फिर मुझे एक तरकीब सूझी। मैंने रसोई से एक रकाब ली और अपनी बचत से एक प्यास्तर लिया और फुर्ती से लोबिया वाले के पास गया। मैंने उसे दुकान के बाहर बैंच पर सोता हुआ पाया। उसका चेहरा उसके हाथ से छुपा हुआ था। लोबिये के डिब्बे गायब हो गए थे, तेल की लम्बी गर्दन वाली बोतले खानों में वापस रखी जा चुकी थीं और मरमर का काउंटर साफ हो चुका था।

“जनाब!” मैंने उसके पास पहुंचकर फुसफुसाकर कहा। उसके खर्राटों के सिवा कुछ न सुनकर मैंने उसका कंधा छुआ। उसने हैरानी से अपना हाथ हटाया और अपनी लाल आँखों से मुझे देखने लगा,

“जनाब!”

“तुम क्या चाहते हो?” उसने मेरी मौजूदगी महसूस करते हुए और मुझे पहचानते हुए गुस्से से कहा।

“एक प्यास्तर का लोबिया, अलसी के तेल के साथ दीजिए।”

“ऐं?”

“मुझे प्यास्तर मिल गया है और रकाब भी मिल गई है।”

“तुम दिवाने हो लड़के”, वो मुझ पर चीखा, “दफा हो जाओ वरना मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूंगा।”

जब मैं न टला तो उसने मुझे इस ज़ोर से धक्का दिया कि मैं ओंधा जा गिरा। मैं दर्द की हालत में अपने होंठों पर लरज़ने वाली कराहों को रोकने की कोशिश करते हुए उठ खड़ा हुआ। मैंने उस पर गुस्से से भरपूर नज़र डाली। मैंने सोचा कि यूं ही नाउम्मीद घर लौट जाऊ, मगर हीरो बनने के ख्वाब और इच्छा ने मेरा इरादा बदल दिया। मैंने इरादा बांध कर तुरंत एक फैलसा किया और अपनी सारी ताकत जमा करके रकाब उस पर दे मारी। वो हवा में उड़ती हुई गई और उसके सिर पर जा लगी। मैं अपने कदमों पर खड़ा रहा, नतीजे से बेपरवाह।

मुझे यकीन हो गया कि मैंने उसे मार दिया है। बिल्कुल उसी तरह जैसे योद्धा ने गुल (चुडैल) को (कत्ल) किया था।

मैंने दौड़ना जारी रखा, जब तक कि मैं उस पुरानी दीवार तक न पहुंच गया। हांफते-हांफते मैंने अपने पीछे देखा, मगर किसी के आने के आसार न थे। मैं सांस दुरुस्त करने के लिए रुका। फिर खुद से सवाल किया, “अब मुझे क्या करना चाहिए, जब कि दूसरी रकाब भी गुम हो गई?”

मुझे किसी बात ने सीधे घर जाने से रोके रखा और जल्दी ही मैंने अपनी उलझन पर काबू पा लिया। मतलब यह कि इस तरह घर वापसी पर मेरी पिटाई तो होनी थी, न कम न ज्यादा, इस बात ने मुझे कुछ वक्त के लिए वापस जाने के इरादे से रोक रखा।

प्यास्तर मेरे हाथ में था और मैं उससे खुद को तसल्ली दे सकता था। सजा पाने से पहले पहले। मैंने ये सोचने की ठानी कि मैं अपना हर गलत काम भूल चुका हूं। मगर मदारी कहां का था? बाईस्कोप कहां गया? मैंने उनके लिए हर तरफ नज़र डाली मगर कहीं कुछ न दिखाई दिया!

उस बेकार तलाश से उकता कर मैं अपना वादा निभाने पुराने ज़ीने की तरफ चल पड़ा। मैं बैठ कर इंतज़ार करने लगा। खुद को मुलाकात में व्यस्त सोचने लगा। मुझे मिठाइयों की खुश्बू से रचे एक और चुंबन की शिद्द से चाहत हुई। मैंने अपने आप ही सोचा कि छोटी-सी लड़की ने मुझे मौहब्बत की सबसे प्यारी चीज से परिचित कराया था। मैं इंतज़ार कर रहा था और सोचों में खोया हुआ था कि ऐसे में पीछे से एक सरगोशी सुनाई दी।

मैं संभलकर सीढ़ियां चढ़ने लगा और आखिर कदम पर मैं आगे देखने की कोशिश में मुँह के बल गिर पड़ा, जबकि वहां कोई मुझे देखने वाला भी न था। मैंने एक ऊंची दीवार से घिरे खंडहर देखे, जिन में आखिरी सरदार अकादमी का खजाना और मुख्य कार्यालय था। ज़ीने के नीचे एक मर्द और एक औरत बैठे थे और सरगोशी की आवाज़ उन्हीं की तरफ से आई थी। मर्द आवारागिर्द और औरत भेड़ पालने वाले बंजारों जैसी थी। मुझे मेरे दिल के अंदरुनी खाने की छुपी धड़कती हुई आवाज़ ने बताया कि उनकी मुलाकात, मेरी मुलाकात जैसी थी। उनके होंठ और उनकी निहागों का तबादला यही कह रहा था, मगर उन्होंने अपने अनजाने ख्यालों को व्यक्त करने में बड़ी महारत दिखाई। मेरी निगाहें बेचैनी, हैरानी, घबराहट और सनसनी के साथ उन पर जम गई। आखिरकार वो पहलू ब पहलू बैठ गए, गोया कोई दूसरे की मौजूदगी महसूस न कर रहा हो।

कुछ वक्त के बाद मर्द बोला, “पैसा!”

“तुम कभी मुतमईन नहीं होते”, उसने चिड़चिड़ाहट में कहा।

ज़मीन पर थूकते हुए वो बोला, “तुम तो पगली हो।”

“तुम चोर हो।”

उस मर्द ने उसकी कमर पर जोरदार हाथ मारा और उस (औरत) ने मुट्ठी भर धूल उठाकर उसके मुँह पर दे मारी। फिर उस (मर्द) का चेहरा धूल से भर गया और वो उस (औरत) पर छपटा और उसकी गर्दन पर अपनी उंगलियां चिपटा दी और उन्हें दबाया और यूं एक सख्त लड़ाई शुरु हो गई।

औरत ने अपने आशिक (पूर्व) की गिरफ्त से निकलने की नाकाम कोशिश के लिए पूरी ताकत लगा दी। उसकी आवाज़ दम तोड़ गई, उसके आँखें बाहर निकल ऊबल पड़ी जबकि उसके पाँव उखड़ कर हवा में झूल गए। मैं दहशत के मारे गूंगा बना सारा तमाशा देखता गया, यहां तक कि मैंने औरत की नाक से खून की लकीर बहती देखी। मेरी मुँह से चीख निकल गई। मर्द के सर उठाने से पहले मैं पीछे की तरफ रेंगने लगा। सीढ़ियों में भागा। मैंने भागना जारी रखा। यहां तक कि मेरी सांस उखड़ गया। हांफते हुए मैं अपने आस-पास से बिल्कुल अनजान था, मगर जब मैं अपने हवास में आया तो पता चला कि मैं एक ऊंचे मेहराब के नीचे एक चौराहे के बीच में खड़ा था। मैंने उससे पहले उस जगह कभी कदम न रखे थे और मुझे यह अंदाजा भी न था कि यह जगह मेरे घर से किस ओर है। उसके दोनों ओर भिखारी बैठे थे और चारों ओर से लोग उमड़ रहे थे, जो किसी की तरफ नहीं देख रहे थें।

खौफ और दहशत के आलम में मुझे एहसास हुआ कि मैं अपना रास्ता भूल चुका हूं और मेरे घर तलाश करने से पहले, बेशुमार मुश्किलात मेरे इंतज़ार में है। क्या मुझे किसी राहगीर से  रास्ते की तलाश के लिए पूछना चाहिए? क्या होगा अगर इत्तेफाक से मैं लोबिया बेचने वाले जैसे आदमी या उस खंडहर के आवारा गिर्द शख्स से जा टकराया? क्या कोई करिश्मा होगा कि मेरी मां आ पहुंचे और मैं फुर्ती से उसकी तरफ लपक सकूं? क्या मुझे अपना रास्ता चुनना चाहिए, भटकते-भटकते, यहां तक कि कोई ऐसी जानी-पहचानी चीज दिख जाए, जिससे मुझे अपना सही रास्ता मिल जाए!

मैंने खुद से कहा कि मुझे किसी उलझन में नहीं पड़ना चाहिए और जल्दी ही कोई फैसला कर लेना चाहिए। दिन गुज़र रहा था और जल्दी ही अंधेरा छा जाने वाला था।

 

 

नगीब महफूज़
नगीब महफूज़

1988 में साहित्य का नोबेल प्राइज जीतने वाले महफूज़ अरबी साहित्य में अस्तित्ववाद के विषयों पर लिखने वाले शुरुआती लेखकों में से एक है। महफूज़ का जन्म 1911 में काहिरा में हुआ। 17 साल की उम्र में उन्होंने लिखना शुरु किया और 38 साल की उम्र में जाकर उनकी पहली किताब प्रकाशित हुई। 1988 में जिस किताब पर... 1988 में साहित्य का नोबेल प्राइज जीतने वाले महफूज़ अरबी साहित्य में अस्तित्ववाद के विषयों पर लिखने वाले शुरुआती लेखकों में से एक है। महफूज़ का जन्म 1911 में काहिरा में हुआ। 17 साल की उम्र में उन्होंने लिखना शुरु किया और 38 साल की उम्र में जाकर उनकी पहली किताब प्रकाशित हुई। 1988 में जिस किताब पर उन्हें नोबेल पुरुस्कार मिला वह 30 साल पहले प्रकाशित हुई थी। नगीब महफूज़ ने तीस से ज्यादा उपन्यासों, पांच नाटको और 350 से ज्यादा कहानियों की रचना की है।