मेरे पिता, अंग्रेज और मैं

उपनिवेशवादी शासन से स्थानीय समुदायों पर कैसा और किस तरह का प्रभाव पड़ता है, यह कहानी उसकी एक बानगी भर है। एक व्यक्ति जिसे अपने परिवार का भरण-पोषण करना होता है, वह विदेशी शासन से मिलने वाले भौतिक लाभों के लिए उपनिवेशवादियों की दासता स्वीकार कर लेता है। लेकिन जिस परिवार के लिए सब कुछ अच्छा पाने की कोशिश में वह खुद का बलिदान दे रहा होता हो, वह उसी परिवार के लोगों का सम्मान खो देता है। उसकी पत्नी उससे घृणा करने लगती है। बेटा उस पिता का सम्मान नहीं कर सकता जो विदेशियों के सामने खुद का ही सम्मान नही करता। जब पिता के पास दुनिया में इतना कम अधिकार होता है कि वह अपने घर पर भी अधिकार बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है। एक लड़का जो इस वातावरण में पला-बढ़ा है, वह पूरी तरह से खो जाता है, क्योंकि वह न तो उपनिवेशवादी का सम्मान कर सकता है और न ही अपने पिता का।

मेरे पिता, अंग्रेज और मैं

पटचित्र: INTERFOTO

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय  
स्त्रोत: Under African Skies: Modern African Stories

मीना के लिए, भरपूर प्यार के साथ

मैं बैठे हुए बौने के घुटनों जितना लंबा रहा होऊंगा, जब मैं पहली बार किसी यूरोपी से मिला, और वह भी एक अंग्रेज, ओगाडेन का प्रशासक, जिसके लिए मेरे पिता द्विभाषीय (इंटरप्रेटर) का काम करते थे। मैं पूरे तीन साल का भी नहीं हुआ था, जब अचानक एक बुलावे पर मेरे पिता अच्छे से यह जानते हुए कि मैं उपनिवेशिक अफसर से मिलना नहीं चाहता था, मुझे अपने साथ ले गए। मेरी मां का खुले तौर पर गोरे आदमी के प्रति नफरत-पूर्ण रवैया कोई राज़ की बात नहीं थी। इसके बावजूद, केवल इससे ही नहीं समझा जा सकता था कि मैंने क्यों अंग्रेज द्वारा भेंट की गई टॉफियां और तोहफे लेने से इनकार कर दिया।

मुझे शक है कि अपनी मां का सबसे पसंदीदा बच्चा होने के नाते मेरे अंदर न सिर्फ़ अंग्रेज के लिए बल्कि अपने पिता के लिए भी क्रोध भरा था, जिसका कारण उनका अप्रत्याशित रोष था, उनका निराशाजनक गुस्सा, जिसका मुझे ज़िंदगी में आगे सामना करना पड़ा। इसके साथ ही एक और कारण था हमारे साथ अपनी मनमानी न कर पाने पर अचानक से उनका अपना आपा खो बैठना। मेरे पिता गैरों के लिए तो सज्जनता की मूर्ति थे मगर ख़ुद अपने परिवार के लिए एकदम तेज़ मिज़ाज। अंग्रेज के सामने तो वह एक पक्के उपकारी सेवक थे। वह उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करते और बदले में एक अपशब्द नहीं कहते; उन्हें देखकर ऐसा लगता कि वह अंग्रेज के हर काम में शामिल रहने वाले नौकर हैं।

अंग्रेज ने जो टॉफियां मेरे पिता के हाथों भेजी थीं, उन्हें नहीं खाना मेरे लिए बहुत मुश्किल था, क्योंकि उन दिनों मेरा संसार मेरे मुंह पर केंद्रित था। बगैर यह ज़ाहिर किए कि मैं ललचा रहा हूं, मैंने अपना दायां अंगूठा मुंह में ठूंसा लिया था और अपने बाएं अंगूठे से मिठाई को पकड़े हुए था। फिर भी मैं अपने पिता से सटकर खड़ा था और वह मेरी कलाई को पकड़कर मुझे ऐसे खींच रहे थे जैसे मैं कोई रेत से भरा बोरा हूं। उन टॉफियों को खाने का मेरा मन तो बहुत था लेकिन मैं अपनी मां की अनकही इच्छा के सम्मान में मुकर गया। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि उस समय वफादारियों का इतिहास रचा जा रहा था।

मुझे याद है कि इस बारे में मैंने अपने मां-बाप की तेज़ होती हुई आवाज़ सुनी थी, मेरी मां उपनिवेशिक शासन व्यवस्था के अनुक्रम में इतना निचला पद स्वीकार करने के लिए मेरे पिता की निंदा कर रही थी। वर्षों बाद जब एक जोशीली बहस के दौरान मेरी मां ने मेरे बाप पर ‘राजनीतिक दलाली’ का आरोप लगाया तो मेरी याददाश्त में यह घटना वापस आ गई।

वैसे भी अगर मेरे बस में होता तो मैं अपनी मां के साथ ही रहता। मेरी मां असंयमित शोक से भरी हुई थी, जिसको समझने के लिए मैं उस समय बहुत छोटा था। उदासीनता की चादर ओढ़े हुए मैंने घर छोड़ दिया। मैं अक्सर मां के साथ बेझिझक बात कर पाता था, जबकि दूसरों के साथ बात करते हुए शब्द मेरे गले में ही अटक जाते थे। आज ऐसा लग रहा है जैसे मैंने अपनी ज़बान निगल ली हो। मैं अपनी मां से प्यार करता था और उन्हें अपनी शरणस्थली मानता था। उनकी खामोशी उदारता से मुझे वह जगह देती थी, जो मेरे हकलाने को स्वीकार करती थी।

मुझे पछतावा है कि इन घटनाओं के संस्करण की परिपुष्टि के लिए मेरी मां मेरे साथ नहीं है। जैसा कि हमारे भाग्य में लिखा था, मैं उनके मरने से पहले उनके साथ इन यादों को साझा नहीं कर सका।

सबसे अच्छी तरह से मुझे याद हैं हाथ: हाथ खींचते हुए, हाथ धकेलते हुए। मुझे याद है अंग्रेज का मेरी तरफ़ आगे बढ़ना और मुझे अपनी पकड़ में लेने की कोशिश करना। मेरे पिता के खुले हाथ बड़ी तत्परता से मुझे अंग्रेज के लटकते मुंह की ओर बढ़ाते हुए। क्या हम कपटी याददाश्त के बारे में बात कर रहे हैं? ऐसी याददाश्त, जो जानबूझकर स्मृतियों को तोड़ती-मरोड़ती है और अतीत का रूप बदलती है, जिससे वह हमारे आज की पुष्टि करे? शायद नहीं। क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं जो अपने पिता को उनके हाथों के साथ जोड़कर देखता हूं—वह हाथ जो कुछ देने के लिए नहीं बल्कि मारने के लिए आगे बढ़ रहे हों। मेरे बड़े भाई को पिता शैतानी करने पर अक्सर पीटा करते थे। वह बताता है कि हमें पता नहीं चलता था कि कब हमारे पिता के हाथ हमें उल्लू बनाने के लिए आगे बढ़ने वाले हैं या प्रोत्साहन देने के लिए हमारे सिर को थपथपाने वाले हैं।

अगर मैं अपने पिता के साथ अंग्रेज से मिलने गया तो सिर्फ इसलिए कि मेरे पास सीमित विकल्प ही था। मुझे अपनी उन कामचलाऊ भावनाओं के सहारे ही रहना पड़ा, जो मैंने अपने चारों तरफ़ कवच की तरह ओढ़ ली थीं। उन भावनाओं को मानसिक यातनाओं से मेरी सुरक्षा करनी थी क्योंकि इस मामले में मैं तीन साल का होने से पहले ही सयाना हो गया था, इसलिए मुझे स्वाभाविक रूप से पता था कि मेरे पिता मुझे अंग्रेज के साथ बदतमीज़ी से पेश आने के लिए सज़ा दे सकते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा चालाक, मैंने आगे की तरफ़ क़दम बढ़ाए, शायद सिर्फ उनको खुश करने के लिए। मैंने यह सुनिश्चित किया कि कोई भी आवारा आंसू मेरी असली भावनाओं को ज़ाहिर न होने दे। खुदा कसम, जब अंग्रेज ने मुझे गले लगाया तब अपने रोने और शर्म से दुबक जाने की इच्छा को काबू में रख पाना बहुत ही मुश्किल था।

यह देखना क्या राहत की बात थी कि मेरे पिता खुश लग रहे हैं! मेरे पिता और अंग्रेज के बीच संबंध का एक स्वरूप था। मेरे पिता सिर्फ तब बोलते थे जब उनसे बोला जाता था या उनको बोलने की अनुमति दी जाती। मुझे ऐसा लगा कि मेरे पिता एक छात्र की श्रेणी से मेल खाते हैं, जो अध्यापक का बोला हुआ दोहरा रहा है। मैं यह नहीं जान सकता था कि अंग्रेज़ी साम्राज्य के दास होने के नाते मेरे पिता सोमाली में उस सबका अनुवाद कर रहे थे, जो अंग्रेज स्वाहिली में कह रहा था।

अंग्रेज ने मुझे अपनी गोद में बैठाया नहीं कि मुझे अपने आस पास चीजें बदलती दिखने लगीं हमें ज़मीन पर जामु सैन्डल पहने पैरों के घसीटने की आवाज़ सुनाई दी। कमरे में हमारे साथ मंद स्वरों में बड़बड़ाते हुए लगभग बारह आदमी और आ गए। मैं अचानक नवागंतुक आदमियों के चेहरों पर आती दुखद अभिव्यक्तियों और नपुंसक बने लोगों के शोक का उत्तराधिकारी बन गया।| मैं शायद ऐसा सोचता कि मेरी बेबसी उन लोगों से ज़्यादा अलग नहीं है, अगर मुझे तब इस सबकी जानकारी होती, जो मुझे आज है। विभिन्न कबीलों के वे बुज़ुर्ग अंग्रेज के उस विशाल ऑफिस में इतिहास की उन उलझनों से भिड़ने और अपने अंगूठों से ऐसे समझौते पर मुहर लगाने आए थे, जो इथियोपिया और ब्रिटेन ने अमरीका की मिलीभगत से बनाया था। मुझे याद नहीं है कि उस साल वह कौन-सा दिन था जब ओगाडेन के भाग्य का निर्णय लिया गया और उसे विस्तारवादी इथियोपिया के हाथों सौंप दिया गया।

इस कुत्सित प्रसंग में मेरी क्या भूमिका थी? मैं अंग्रेज की बांहों में था; मेरे पिता द्वारा सोमाली में अनुवादित होने से पहले ही अधिकार की आड़ में ढके शब्दों की ग्लानि मेरे दिल की धड़कन को छू रही थी; और मैंने कुछ नहीं किया। अगर मैंने अंग्रेज की लूट का माल बनने का विरोध किया होता, जो उसे एक भी गोली दागे बिना मिल गया था, तो क्या मामला कुछ अलग होता? अगर मैंने उत्पात मचाकर अपने पिता को परेशान किया होता, जिससे वह अंग्रेज के अपमानपूर्ण शब्दों का अनुवाद न कर पाएं तो क्या ओगाडेन को एक बेहतर हाथ मिलता?

मुझे याद है कि कबीलों के बुज़ुर्ग मेरे पिता के साथ झगड़ालू वाद-विवाद में उलझे हुए थे; और मेरे पिता ज़रूर उनका अंग्रेज के खिलाफ खड़े होने का हौसला पस्त कर रहे होंगे। पूरी तरह बहस से बाहर होने पर अंग्रेज उस गुस्से के घोड़े पर चढ़ गया, जिस पर शक्तिशाली लोग अक्सर सवार हो जाते हैं; और फिर शांति। तब मैं बहस में उतर आया और गुस्से में ऐसी चीख मारी, जो मानो मेरी ज़िंदगी की प्राचीनतम शुरुआत से निचुड़ कर निकली हो। मुझसे माफी मांगते हुए अंग्रेज ने मीटिंग किसी और दिन के लिए स्थगित कर दी।

अगली मीटिंग में कबीलों के बुजुर्गों ने समझौते में नियमित जगह पर अपने अंगूठे लगा दिए। उस वक्त अगर मैं वहां होता या मेरी माँ से पूछा गया होता तो शायद ये न होता।

(इस कहानी को एडिट करने में शहादत खान ने मदद की है)

 

नूरुद्दीन फराह
नूरुद्दीन फराह

नूरुद्दीन फराह (जन्म 24 नवंबर, 1945) सोमाली उपन्यासकार हैं। फराह ने मंचन और रेडियो दोनों के लिए नाटकों के साथ-साथ लघु कथाएं और निबंध भी लिखे। 1970 के दशक में सोमालिया छोड़ने के बाद से वह संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, स्वीडन, सूडान, भारत, युगांडा, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका सहित कई... नूरुद्दीन फराह (जन्म 24 नवंबर, 1945) सोमाली उपन्यासकार हैं। फराह ने मंचन और रेडियो दोनों के लिए नाटकों के साथ-साथ लघु कथाएं और निबंध भी लिखे। 1970 के दशक में सोमालिया छोड़ने के बाद से वह संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, स्वीडन, सूडान, भारत, युगांडा, नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका सहित कई देशों में रह चुके हैं। वर्तमान में फराह की गिनती दुनिया के समकालीन महान लेखकों में होती है। फराह साहित्य नोबेल पुरस्कार के संभावित उम्मीदवारों में भी शामिल हैं।