कुत्ता

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक, अनुवाद और संपादक कुणाल सिंह द्वारा अनुदित इस स्पेनिश कहानी में लैटिन अमरीकी लेखक आएरा एक अनाम कथावाचक के बारे में लिखते हैं, जो एक कुत्ते को पूरे जोश से बस का पीछा करते हुए देखता है। कुत्ते की इस दौड़ को देखते हुए कथावाचक तब अपराध बोध की भावना से भर जाता है जब उसे याद आता है कि उसने कुत्ते के साथ बहुत पहले कुछ बुरा किया था और कुत्ता उसी का बदल लेने बस का पीछा कर रहा है। आएरा ने इस मनोवैज्ञानिक कहानी में उस स्थिति में मौजूद बेतुकेपन और शर्म को उजागर करने के लिए बहुत गहन प्रयास किया है।

कुत्ता

पटचित्र: आइरिस स्कॉट 

स्पैनिश से अनुवाद अंग्रेजी में: क्रिस एंड्रूस 
अंग्रेजी से अनुवाद हिन्दी में: कुणाल सिंह 
स्तोत्र: Lithub

उस दिन मैं बस में था। खिड़की के पास बैठा। सड़क का नज़ारा मेरी आंखों के सामने था कि सहसा किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। तेज़ और एकदम कहीं पास से ही। मैंने चौंककर देखा। आसपास के पैसेंजरों ने भी। बस में बहुत लोग न थे। जितनी सीटें थीं, उतने-भर और इक्का-दुक्का खड़े। जो खड़े थे, उनकी नज़र कुत्ते पर जाए इसकी अधिक संभावना थी, क्योंकि वे बैठे हुए लोगों की निस्बत ऊंचाई से देख सकते थे और उन्हें दोनों तरफ़ से देखने की सहूलियत थी। मेरी तरह जो लोग बैठे हुए थे उन्हें भी, कार या टैक्सी जैसे नीचे तल वाले अन्य वाहनों के विपरीत बस में सड़क का नज़ारा थोड़ी ऊंचाई से देखने को मिलता है, जैसे हमारे पूर्वजों को घोड़ों की पीठ पर बैठकर मिलता होगा। इसीलिए मुझे टैक्सी की बजाय बस की सवारी ज़्यादा प्रिय है। बहरहाल, कुत्ते के भौंकने की आवाज़, जिधर मैं बैठा था, उसी तरफ़ के फुटपाथ से आई थी। तिस पर भी उस कुत्ते को मैं देख नहीं सका। अब शायद देख भी न सकूं। चलती बस ने उसे पीछे छोड़ दिया होगा। दरअसल उसने मेरे मन में एक छोटी-सी उत्सुकता जगा दी कि आसपास शायद कुछ हुआ हो। लेकिन उड़ती निगाह से देखने में सब ठीक ही था। शायद इसीलिए बस में जो लोग उसके भौंकने को लेकर एक पल के लिए उत्सुक भी हुए हों तो जल्द ही पुनः अपने में मशगूल हो गए।

अचानक फिर से उस कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई। इस बार और तेज़। अबकी मेरी नज़र उस कुत्ते पर पड़ी। वह सड़क के किनारे-किनारे दौड़ रहा था और पूरी ताक़त के साथ भौंक रहा था। दौड़ते हुए अगर पिछड़ जाता तो तनिक चुप होकर अपनी गति बढ़ाता और सड़क पर आते ही फिर से भौंकना शुरू कर देता। यह बड़ा अजीब था। पुराने दिनों में गांव-देहात के कुत्ते ऐसी हरक़त किया करते थे कि किसी गाड़ी के पीछे लग जाएं और उसके घूमते पहियों को देखकर भौंकना शुरू कर दें। लेकिन आजकल ऐसा दृश्य अमूमन देखने को नहीं मिलता। कुत्ते अब बसों-कारों के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि उन्हें कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब तक वे ख़ुद रौंदे न जाएं। लेकिन यह कुत्ता पुराने ज़माने के कुत्तों की तरह घूमते पहिये को देखकर नहीं भौंक रहा था, बल्कि भौंकते हुए यह बस को उसके समूचेपन में देख रहा था, सिर ऊंचा किए, सीधा खिड़कियों की तरफ़ निशाना साधे। मेरी तरह बस के सारे पैसेंजर उसे देखने लगे। माजरा क्या है? क्या उस कुत्ते का मालिक इस बस में यात्रा कर रहा है, जिसने उस कुत्ते को ग़लती से या जान-बूझकर अपने साथ नहीं लिया? या बस में सवार किसी ने उस कुत्ते के मालिक को किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाया है? लेकिन नहीं। हमारी बस तो अवेनीदा दिरेक्तोरियो के बाद कहीं रुकी ही नहीं और यह कुत्ता तो महज़ थोड़ी देर पहले से हमारे पीछे लगा है। थोड़े अतिरेक में सोचें तो ऐसा भी नहीं हुआ कि इसका मालिक या इसका साथी कोई दूसरा कुत्ता हमारी या हमारी वाली बस के जैसी किसी दूसरी बस के नीचे आ गया हो, क्योंकि ऐसा हुआ होता तो अव्वल तो हमें पता चला ही जाता, दोयम इतवार का दिन था, सड़कें अपेक्षाकृत ख़ाली थीं, सो ऐसे किसी हादसे का अलक्षित रह जाना मुमकिन न था।

कुत्ता आकार-प्रकार में अपेक्षाकृत बड़ा था, गहरे धूसर रंग का और किंचित नुकीले थूथन वाला। देखने में न तो विदेशी नस्ल का लगता था और न सड़क का आवारा कुत्ता ही। हालांकि अब ब्यूनस आयर्स में शायद ही कोई आवारा कुत्ता बचा हो, और जिस पॉश इलाक़े से हमारी बस गुज़र रही थी, वहां तो इसका कोई सवाल ही नहीं था। वह इतना भीमकाय तो न था कि देखने से ही डर लगे, पर इतना पिद्दी भी न था कि उसे नज़रअन्दाज़ कर दिया जाए। वह भड़का हुआ लग रहा था, या शायद उदग्र और उद्विग्न, कम से कम फ़िलहाल के लिए ज़रूर। उसके आवेग को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि वह किसी पर हमला करना चाहता है, बल्कि उसमें एक प्रकार की आग्रहपूर्ण आकांक्षा थी, बस को रोक लेने की, या कम-से-कम उसके साथ अपनी गति बनाए रखने की, या भगवान जाने क्या...

उसका दौड़ना जारी था, भौंकना भी। पिछले मोड़ पर लाल बत्ती के कारण बस जो थोड़ी धीमी हुई थी, अब पिनक में आ गई थी। बस सड़क के किनारे से ही सटी भाग रही थी, जिधर वह कुत्ता दौड़ रहा था। हम अगले चौराहे पर पहुंचने ही वाले थे, जहां शायद यह खेल ख़त्म हो जाए। लेकिन नहीं। हमारी उम्मीदों के बरख़िलाफ़ बस के साथ-साथ उस कुत्ते ने भी चौराहा पार कर लिया और अपना दौड़ना व भौंकना जारी रखा। सड़क के किनारे लोग-बाग़ न के बराबर थे, वरना वह कुत्ता ज़रूर किसी से लिपट जाता। वह अब भी बस की खिड़कियों पर निगाहें जमाए हुए था। उसके भौंकने की आवाज़ तेज़तर होती जा रही थी। बस के चलने की आवाज़ को दबाती हुई, हमारे कान के परदे को फाड़ती उसकी कर्कश आवाज़ हमारी पूरी दुनिया को भर रही थी। उसके इस तरह दौड़ने और भौंकने को लेकर हमारी शुरुआती मान्यताएं अब पुख्ता हो रही थीं कि उसने बस में सवार किसी को देख लिया है अथवा किसी की गन्ध पाकर उसका पीछा कर रहा है। हममें से कोई एक... और ऐसा सिर्फ़ मुझे नहीं, एकाएक कइयों को लगा था। हम लोग एक-दूसरे को कौतूहल-भरी नज़रों से देख रहे थे। क्या हममें से कोई है, जो इस कुत्ते को जानता है? कौन है कुत्ते का मालिक? मालिक न सही, ऐसा कोई जो इससे कभी मिला हो? जिसे इस कुत्ते ने कभी देखा हो? मैं अपने आसपास देख रहा था। कौन हो सकता है? ऐसे मामलों में अमूमन आप ख़ुद को छोड़कर बाक़ी सबको शक़ की नज़रों से देखते हैं।

शायद इसीलिए मुझे तनिक देर लगी इस बात को महसूस करने में। फिर यह महसूस करना भी अप्रत्यक्ष रूप से था। अपने भीतर के धुंधले पूर्वाभास से दहलकर मैंने सामने विंडस्क्रीन में झांका। आगे रास्ता साफ़ था। जहां तक नज़र जाती थी, ट्रैफ़िक की हरी बत्तियां वर्तमान गति को बहाल बनाए रखने का हौसला देती दिख रही थीं कि तभी अपने भीतर आकार पा रही उस उत्कंठा के बीच मुझे याद आया कि मैं किसी टैक्सी में नहीं, बस में हूं, जिसे हरी बत्ती होने के बावजूद नियत स्टॉप पर रुकना होता है। हालांकि, यह मुमकिन है कि अगर कोई चढ़ने-उतरने वाला न हो तो शायद बस रुके बग़ैर आगे बढ़ जाए। मैंने देखा कि फ़िलवक़्त बस से उतरने के लिए कोई पिछले दरवाज़े की तरफ़ नहीं बढ़ा। क़िस्मत अच्छी रही तो कोई चढ़ने वाला भी न होगा। ये सारे ख़्याल पल-भर की मियाद में मेरे ज़ेहन में आए। मेरी उत्कंठा बढ़ती जा रही थी। क्या ऐसा मुमकिन है कि बस तब तक इसी तरह भागती रहे जब तक वह कुत्ता दौड़ते-दौड़ते थक कर चूर न हो जाए, कहीं गिर जाए, रुक जाए।

पल भर के इस अन्तराल के बाद मैंने फिर से उस कुत्ते को देखा। वह पूर्ववत दौड़ता आ रहा था और उसका भौंकना अब भी जारी था। मैंने देखा कि उसकी नज़रें मुझ पर ही टिकी हैं। अब मैं समझ गया। वह मुझ पर ही भौंकता आ रहा था, मेरा ही पीछा कर रहा था। मैं दहशत से भर गया। मैं उस कुत्ते के द्वारा पहचान लिया गया था और अब वह मुझे पकड़ने आ रहा था। यद्यपि तत्काल की उत्तेजना में भले मैं नट जाऊं, कुछ भी क़बूल न करूं, लेकिन कहीं बहुत गहरे मुझे इस बात का पूरा अहसास था कि वह अपनी जगह पर सही है और मैं ग़लत हूं। एक बार मैंने उसके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया था, बल्कि मेरा व्यवहार पूरी तरह से अमानवीय था। यहां मुझे स्वीकार करना चाहिए कि मैं बहुत दृढ़ नैतिक सिद्धान्तों वाला आदमी कभी नहीं रहा। मैं यहां किसी प्रकार की सफ़ाई नहीं दे रहा, लेकिन महज़ जीवित रहने के लिए बहुत कम उम्र से ही जिस मुसलसल जंग में मैं मुब्तिला था, उस लड़ाई के द्वारा ही मेरी इस चारित्रिक कमी को समझा जा सकता है। इसने धीरे-धीरे मेरे चारित्रिक खरेपन और नैतिक ईमानदारी को धूमिल व ध्वस्त कर दिया। नतीज़तन मैं ख़ुद को वे सारी चीज़ें करने की छूट देता आया हूं जो कोई भी सभ्य आदमी नहीं करना चाहेगा। हम सब की अपनी-अपनी निजता होती हैं। हालांकि इतना ज़रूर है कि मेरे ये विचलन कभी इतने क़द्दावर न हुए कि उन्हें अपराध की श्रेणी में रखा जाए। मैंने कभी कोई संगीन जुर्म नहीं किया। जो ग़लतियां मुझसे हुईं, वे मुझे याद भी रहीं, किसी दुष्ट-नराधम की तरह अपने छोटे-छोटे पापों को मैंने कभी विस्मृत नहीं किया। मैंने हमेशा अपने में सुधार की गुंजाइशें देखीं।

और अब, मेरे साथ सबसे बुरा जो हो सकता था, वह यही है, सार्वजनिक रूप से इस तरह पहचान लिया जाना, उन अपराधों के लिए जो मेरे बहुत गहरे में दफ़न हैं। मुझे अब तक अपनी ग़लतियों की तलाफ़ी की उम्मीद थी। मुझे उम्मीद थी कि बस के पीछे दौड़ता वह कुत्ता, जो अपने होने में सबसे पहले एक अदद कुत्ते की तरह था, अन्ततः उसे कुत्ता-भर मान लिया जाएगा और इस तरह मेरे पाप उजागर होने से बच जाएंगे। मेरे इस नीच ख़्यालात ने सहसा उस कुत्ते को मेरी ग़लतियों के सन्दर्भ से अलगा दिया और हालांकि, ऐसा बस एक पल के लिए हुआ, लेकिन इस विचार में कुछ ऐसा दहशतनाक खिंचाव था कि मुझे लगा कि ऐसा बरसों बरस के लिए हो गया। जब मैं अन्ततः इस विचार से उबरा तो मुझे एक हल्की ख़ुशी ने घेर लिया कि कुत्ते बरसों बरस नहीं जिया करते हैं। अगर मैं उसकी ज़िन्दगी के एक बरस को सात से गुणित करूं...

ये सारे ख़्याल कुत्ते के भौंकने की आवाज़ के साथ उठा-पटक करते मेरे दिमाग़ में डोल रहे थे। सच यही था कि समय अपनी गति से बीत रहा था। समय के बीतने के साथ गुणा-भाग वस्तुतः आत्म-वंचना से बचने का उपक्रम था। अन्तिम चारा वही था, साफ़ मुकर जाने की वह मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया, जिसे हम प्राचीन काल से अपनाते आए हैं—नहीं, यह नहीं हो सकता, हो ही नहीं सकता, हो सकता है मैं सपना देख रहा होऊं, हो सकता है कि जो मैं देख रहा होऊं वह सच नहीं वग़ैरह। लेकिन फ़िलहाल यह कोई मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया न थी, यह वास्तविकता थी। इतनी कि मैं उस कुत्ते से नज़रें चुरा रहा था। मैं उस भौंकती सच्चाई का सामना करने से डर रहा था। लेकिन मैं इतना घबराया हुआ था कि मेरी यह निस्पृहता चुगली करती-सी प्रतीत होने लगी। मैं आगे की दिशा में अपना सिर ताने हुए था, जबकि मेरे अलावा बाक़ी सारे पैसेंजर उस कुत्ते को देख रहे थे, यहां तक कि ड्राइवर भी कभी मुड़कर तो कभी रिअर-व्यू मिरर में उस कुत्ते को देख रहा था और आगे बैठे पैसेंजरों से चुहल कर रहा था। मैं उस पर कुढ़ रहा था कि उसकी ऐसी मसरूफ़ियत ही बस की गति धीमा किए दे रही थी, वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि एक मामूली कुत्ता इतनी देर तक बस का पीछा करता रहे।

लेकिन कुत्ते के इस तरह दौड़ते रहने, भौंकते रहने से भी भला क्या होने जाने वाला है। वह बस में तो चढ़ने से रहा। शुरू-शुरू की बदहवासी के बाद मैंने संचित होकर स्थिति पर विचार करना आरम्भ किया। मैंने तो पहले ही यह तय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए, मैं उस कुत्ते को पहचानने से हरगिज मुकर जाऊंगा और मैं अब भी अपने इस निश्चय पर अडिग था। अगर वह मुझ पर आक्रमण कर दे (उसका काटना उसके भौंकते रहने से बेहतर है) तो सहसा मैं दूसरों की सहानुभूति का केन्द्र भी बन जाऊंगा। लेकिन ख़ैर ये तो बाद की बात हुई, मैं उसे ऐसा मौक़ा देने से रहा। मैंने तय किया कि मैं तब तक इस बस से नहीं उतरूंगा जब तक कि यह कुत्ता परिदृश्य से ग़ायब न हो जाए (जिसे कभी न कभी तो होना था)। 126 नम्बर की यह बस रेतीरो तक जाएगी, अवेनीदा सान खुआन के बाद इसकी सीधी रूट को कई पेंचो-ख़म वाली रूट में बदल जाना है। यह नामुमकिन है कि एक कुत्ता इतनी देर तक और इतनी दूर तक साथ-साथ दौड़ता चले।

मैंने एक बार हिम्मत करके उसे देखा, लेकिन तुरन्त फिर नज़रें हटा लीं। एक पल को हमारी नज़रें मिली थीं और उसकी आंखों में ग़ुस्से का प्रताप नहीं था, जिसकी मुझे उम्मीद थी, बल्कि वहां सीमाहीन परिताप था—ऐसी सान्द्र पीड़ा, जो इसलिए मानवी नहीं थी कि मनुष्य की सहनशक्ति के आयतन से बाहर थी। उसके साथ मेरा सलूक क्या इतना मर्मान्तक था? लेकिन ऐसे किसी विश्लेषण की शुरुआत करने के लिए यह उचित समय न था। और वैसे भी मुझे या तो इस तरफ़ होना होगा या फिर उस तरफ़।

बस ने अपनी गति बढ़ाई। हमने एक और चौराहा पार कर लिया। थोड़ा पिछड़ जाने के कारण कुत्ते ने एक लम्बी छलांग लगाई और बस के साथ-साथ चौराहे को पार कर गया। लाल बत्ती के कारण दायीं तरफ़ से आती एक कार रुक गई, न भी रुकी होती तो कुत्ता इस क़दर आंख मूंदे दौड़ लगा रहा था कि छलांग लगाने से कतई बाज नहीं आता। यह स्वीकार करने में मुझे शर्म आनी चाहिए, लेकिन एक पल के लिए मैंने कामना की थी कि कुत्ता उस कार के नीचे आ जाए। ऐसे ख़्यालात आदमी के मन में आते ही हैं, कोई अनोखी बात नहीं। मैंने एक फ़िल्म देखी थी, जिसमें एक यहूदी चालीस बरस पहले नाज़ी कैम्प में अत्याचार करने वाले एक कापो को अचानक न्यूयॉर्क में देखता है, फिर उसका पीछा करता है। इस क्रम में वह एक कार के नीचे आ जाता है और मारा जाता है। अमूमन ऐसे दृष्टान्त मन को सुकून पहुंचाते हैं, लेकिन फ़िलहाल मैं उस फ़िल्म को याद कर निराश ही हुआ। फ़िल्म में घटी वह घटना चूंकि काल्पनिक थी, इसलिए उसने मेरे वर्तमान की इस वास्तविकता को और अधिक जीवन्त तथा नमूदार कर दिया।

यद्यपि अब मैं उस कुत्ते को नहीं देख रहा था, लेकिन उसके भौंकने की आवाज़ उसे मेरे ज़ेहन में लगातार उपस्थित किए हुए थी। मुझे प्रतीत हो रहा था कि अब वह पिछड़ रहा है। बस के ड्राइवर की चुहल अब तक चुकने लगी थी और वह बस की गति बढ़ाता जा रहा था। मैंने फिर से उस कुत्ते की ओर देखा, और ऐसा करने में कोई ख़तरा भी न था, क्योंकि सभी उसे ही देख रहे थे। बल्कि जब सभी कुत्ते को देख रहे हों और मेरा बज़िद उस ओर न देखना ही मुझे शक़ के दायरे में ले आता। मैं यह भी सोच रहा था कि शायद उसे मैं आख़िरी बार देख रहा हूं। हां, वह दूर से दूरतर होता जा रहा था। दूरी की वजह से वह छोटा, दयनीय और किंचित हास्यास्पद प्रतीत हो रहा था। दूसरे पैसेंजर उस पर हंस रहे थे, उसकी खिल्ली उड़ा रहे थे। वह बूढ़ा, फटा-चिंटा और मौत के मुंह में पहुंचा हुआ कुत्ता था। आक्रोश व उत्तेजना और कर्कशता व कड़वाहट के बीते हुए साल उसकी चमड़ी पर अपने अमिट निशान छोड़ गए थे। यह दौड़ उसके प्राण हर रही है। लेकिन इस दौड़ का इंतज़ार उसने ज़िन्दगी-भर किया था और ज़िन्दगी रहते इससे डिगने वाला, हटने वाला न था। और वह नहीं हटा। हालांकि, उसे अहसास है कि वह दौड़ में पिछड़ चुका है, लेकिन वह दौड़ता रहा, भौंकता रहा। अगर हमारी बस उसकी नज़रों से ओझल हो जाए तो भी वह इसी तरह हमेशा दौड़ता और भौंकता रहेगा, क्योंकि महज़ यही है जो वह कर सकता है, जो उसे करना चाहिए।

मेरे ज़ेहन में एक उड़ता हुआ-सा ख़्याल कौंधा, एक दृश्य, अनंत अमूर्त भूदृश्य में दौड़ता और भौंकता एक कुत्ता। इस दृश्य ने मुझे उदास कर दिया। लेकिन यह उदासी प्रशान्तिपूर्ण और सुरुचिसम्पन्न उदासी थी, मानों ख़ुद वह उदासी मुझे सुरक्षित घेरे से उस कुत्ते को दौड़ते और भौंकते देखता देख रही हो। जाने लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि बीता हुआ कल कभी नहीं लौटता। यह सब इतनी तेज़ी से घटित हुआ कि संभलने का वक़्त ही न मिला। मैं हमेशा आज में जीता आया था, क्योंकि बस इसे ही संभालने-संवारने में मेरी समस्त मानसिक व शारीरिक शक्ति चुक जाया करती है। तात्कालिक ज़रूरतों से निबटना मुझे आता था, लेकिन बस इतना करना ही आता था। मुझे हमेशा से यह लगा करता है कि एक साथ बहुत सारी चीज़ें घट रही हैं और एकमुश्त सबसे निबटने के लिए मनुष्येतर शक्ति-सम्पन्नता की दरकार है। इसलिए जब भी कोई ऐसा मौक़ा आया कि मैं किसी भी प्रकार के बोझ से मुक्त हो सकूं, मैं किसी प्रकार की पसोपेश में न पड़ा। मुझे हर वह चीज़ अनावश्यक प्रतीत होती थी, जिसका सीधा सम्बन्ध मेरे अस्तित्व को बहाल रखने से न था। जीवन की गति को हर क़ीमत पर शान्त और सुचारु बनाए रखना मेरी पहली प्राथमिकता थी। यदि इससे किसी को किसी प्रकार का नुकसान पहुंचता हो तो मुझे ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता था, जब तक कि जिसे नुकसान पहुंच रहा हो, वह मेरे सामने इतने साक्षात रूप से किसी अनामन्त्रित की तरह उपस्थित न हो। और एक बार फिर मेरा वर्तमान मुझे एक अनामन्त्रित से निज़ात दिला रहा था। इस घटना ने मुझ पर मिला-जुला प्रभाव छोड़ा, एक तरफ़ तो मुझे ख़ुशी थी कि बाल-बाल बचा, दूसरी तरफ़ समझने-योग्य पछतावा भी मुझे घेर रहा था।

वैसे भी कुत्तों की ज़िन्दगी कितनी त्रासद होती है। ऐसी ज़िन्दगी जो हमेशा मौत के क़रीब होती है और उनके लिए मर जाना कितनी आम बात हुआ करती है। तिस पर भी मुझे बस के पीछे लगे इस कुत्ते पर और ज़्यादा तरस आ रहा था, जिसने अपनी ज़िन्दगी के घाव को इतना क़द्दावर बना लिया था कि उसका बदला चुकाने के एवज़ में बची-खुची ज़िन्दगी पर दांव खेल गया। ब्यूनस आयर्स की इतवार की इस सुबह में दौड़ती और भौंकती हुई उसकी परछाईं मानों किसी भूत में तब्दील हो चुकी थी, मृत्यु अथवा ज़िन्दगी की पीड़ा से उबरकर निकली भूत की परछाईं, जो बदला चाहती है, हर्ज़ाना चाहती है, हमेशा के लिए मिसाल क़ायम करना चाहती है।

बदला? शायद बदला नहीं, क्योंकि उसने अब तक के अपने अनुभवों से यह भली-भांति समझ लिया होगा कि मनुष्यों की इस अपराजेय जाति के समक्ष उसकी बिसात कुछ नहीं है। वह महज़ दौड़कर और भौंककर अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकता है, जो वह कर चुका है। उससे हासिल यह हुआ कि उसने अपनी गत बिगाड़ ली। बस के निरन्तर चलते रहने की मूक और इस्पाती दृश्य और खिड़की से सटे मेरे चेहरे की छवि ने उसे पराजित कर दिया था। उसने मुझे पहचान कैसे लिया? मेरे नक़ूश पहले से बहुत बदल चुके हैं। इसका मतलब उसे मेरी याद बड़ी शिद्दत से आती रही होगी। इतने वर्षों में वह एक पल के लिए भी मुझे भूला न होगा। कोई नहीं जानता कि कुत्तों की स्मरण-शक्ति कितनी पैनी होती है, उनकी मानसिक संरचना कैसे काम करती है। यह भी सम्भव है कि उसने मेरी गन्ध पा ली हो। जानवरों की घ्राण-शक्ति के बारे में कई मशहूर क़िस्से हैं। मसलन, एक नर तितली मीलों दूर से नाना दुनियावी गन्धों को पार करता हुआ मादा तितली की गन्ध को सूंघ सकता है। मैंने अब किसी बुद्धिजीवी की तरह ख़ुद को तटस्थ करते हुए परिस्थितियों पर विचार करना शुरू कर दिया। उसके भौंकने की आवाज़ अब दूर दिगन्त से उठती प्रतिध्वनि की तरह आ रही थी, कभी तेज़ कभी मद्धिम।

अचानक मेरे भीतर से उठे किसी गूमड़ ने मेरे विचारों को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुझे प्रतीत हुआ कि अपने-आपको विजेता घोषित करने में मैंने किंचित जल्दबाज़ी से काम लिया। बस की गति पुनः धीमी पड़ रही थी। लगता है कि कोई बस स्टॉप आने वाला है। मैंने आगे की दिशा में देखा। एक बच्चा और एक बुढ़िया अगले बस स्टॉप पर खड़े थे। भौंकने की आवाज़ पुनः तेज़ हो गई थी। क्या वह कुत्ता अब भी दौड़ा आ रहा है? क्या उसने अब तक हार नहीं मानी? मैंने पलटकर नहीं देखा, वह ज़रूर अब भी बस के पीछे लगा होगा। बस अब तक रुक चुकी थी। बच्चा कूदकर चढ़ चुका था, लेकिन बुढ़िया को बस के ऊंचे पायदान पर चढ़ने में ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ रही थी। जल्दी, जल्दी चढ़ो बूढ़ी माता... मेरा अन्तर्मन मानों चीख रहा था। अमूमन मैं इस तरह बोलने या सोचने वाला जीव नहीं, लेकिन उत्तेजना में बुढ़िया की एक-एक हरक़त पर नज़र काढ़े हुए था।

लेकिन मैंने तुरन्त अपने-आपको नियंत्रित कर लिया। घबराने की वैसी कोई बात नहीं। हो सकता है कि इस अन्तराल में वह कुत्ता थोड़ी दूरी को पाट ले, लेकिन जो बस चल पड़ी तो एक बार फिर उसे पिछड़ जाना है। हद से हद इतना ही तो होगा कि वह कुत्ता सीधा मेरी खिड़की के नीचे पहुंच जाए और भौंकने लगे। दूसरे पैसेंजर पहचान जाएंगे कि यह मैं ही हूं जिसे देखकर वह कुत्ता दौड़ता और भौंकता चला आ रहा है। मुझे बस इतना ही तो करना है कि उस कुत्ते को पहचानने से साफ़ मुकर जाऊं। कोई मुझे मज़बूर तो नहीं कर सकता।

मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि कुत्ते के हज़ार भौंकने के ऊपर मेरी एक अदद 'न' कहीं अधिक श्रेष्ठ और सम्प्रेष्य है। बुढ़िया लगभग बस में चढ़ चुकी थी। भौंकने की आवाज़ मुझे बहरा बना रही थी। मैंने खिड़की से देखा, वह गोली की तरह दौड़ा चला आ रहा था। उसमें गज़ब की ऊर्जा थी, यह तो मानना ही पड़ेगा। संभवतः यह दौड़ उसके जीवन की आख़िरी दौड़ साबित हो।

पहले-पहल मेरी समझ में नहीं आया कि क्या हुआ (और जो हुआ उसे होने में सेकेंड का दसवां हिस्सा भी न लगा), बस यही कि कुछ अप्रत्याशित...। वह कुत्ता मेरी खिड़की तक आकर नहीं रुका, आगे बढ़ गया। वह कर क्या रहा है? क्या वह...? वह सामने के दरवाज़े तक जा पहुंचा... फिर पानी में तैरती किसी मछली की तरह लचीली फुर्ती दिखाते हुए वह मुड़ा... तनिक झुका और फिर एक ऊंची छलांग लगाते हुए वह बस के अन्दर दाख़िल हो गया। पायदान पर जूझती उस बुढ़िया को बस इतना महसूस हुआ कि उसकी टांगों तले बुहारता हुआ कुछ निकला। चढ़ने के बाद वह पुनः मुड़ा... इस बीच न उसकी गति में कोई कमी आई और न भौंकना बन्द हुआ... वह मुड़ा और दोनों तरफ़ की सीटों के बीच के गलियारे का रुख़ किया। यह सब इतनी जल्दी हुआ कि न तो ड्राइवर और न पैसेंजरों में से किसी को कुछ करने... यहां तक कि चीखने की भी मोहलत नहीं मिली। मैं भी अपनी जगह पर भयाक्रान्त हो जड़ हो चुका था। मैंने देखा कि वह मेरी तरफ़ बढ़ता आ रहा है... फिर मुझे कुछ और दिखाई नहीं दिया। नज़दीक... और-से-और क़रीब। वह मुझे बदला हुआ दिखाई दे रहा था। यह कुछ वैसा था मानों जब मैंने उसे पहले देखा था, खिड़की से, बस के बाहर दौड़ता हुआ, भौंकता हुआ, तो मैंने उसके साथ अतीत में जो कुछ किया था उसकी स्मृति ने मेरी दृष्टि को प्रभावित कर दिया था, इसलिए वह ठीक वैसा नहीं दिखा था जैसा अब दिख रहा था। वह किसी भी तरह से मरियल नहीं था, वह युवा था, ज़ोरदार था और सुन्दर भी। वह मुझसे ज़्यादा जीवंत था (तमाम उम्र मेरा जीवन मुझसे रिसता चला गया था, जैसे बाथ टब से पानी)। बस के अन्दर उसका भौंकना अपनी अपराजेयता में गूंज रहा था। चमकीले सफ़ेद दांतों से सजा उसका जबड़ा मेरी देह के मांस के करीब आता जा रहा था। उसकी पानीदार आंखों के घूरने की ज़द से मैं एक पल के लिए भी बाहर न हुआ।

 

 

सीज़र आएरा
सीज़र आएरा

सीज़र आएरा का जन्म 1949 में अर्जेंटीना के कोरोनेल प्रिंगल्स में हुआ था। वह 1967 से ब्यूनस आयर्स में रहते हैं। उन्होंने ब्यूनस आयर्स यूनिवर्सिटी और रोसारियो यूनिवर्सिटी में पढ़ाया है। वह अनुवाद भी करते हैं। इस समय वह अर्जेंटीना के सबसे विपुल लेखकों में से एक और निश्चित रूप से लैटिन अमेरिका में सबसे... सीज़र आएरा का जन्म 1949 में अर्जेंटीना के कोरोनेल प्रिंगल्स में हुआ था। वह 1967 से ब्यूनस आयर्स में रहते हैं। उन्होंने ब्यूनस आयर्स यूनिवर्सिटी और रोसारियो यूनिवर्सिटी में पढ़ाया है। वह अनुवाद भी करते हैं। इस समय वह अर्जेंटीना के सबसे विपुल लेखकों में से एक और निश्चित रूप से लैटिन अमेरिका में सबसे अधिक चर्चित लेखकों में से एक हैं। आएरा की अब तक अर्जेंटीना, मैक्सिको, कोलंबिया, वेनेजुएला, चिली और स्पेन में 80 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों का अनुवाद फ्रैंच, इंग्लिश, इटैलियन, पुर्तगाली आदि भाषाओं में हो चुका है। निबंधों और उपन्यासों के अलावा आएरा स्पेनिश अखबार ‘एल पेस’ के लिए भी नियमित रूप से लिखते हैं। 1996 में उन्हें गुगेनहाइम स्कॉलरशिप मिली। 2002 में उन्हें रोमुलो गैलेगोस पुरस्कार के लिए शॉर्ट लिस्ट किया गया। इसके साथ ही उन्हें मैन बुकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भी शॉर्ट लिस्ट किया जा चुका है।