आवारागर्द

'सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहां/ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां', कुर्तुलऐन हैदर की कहानी 'आवारागर्द' को पढ़ते हुए ख़्वाजा मीर दर्द का यह शेर बरबस ही याद हो आता है. द्वितीय विश्वयुद्ध और उसकी विभीषिका ने यूरोपीय पीढ़ी को किस तरह और कितना प्रभावित किया, यह कहानी इसकी भी बानगी है। एक जर्मन नौजवान, जो अपनी अकेली बूढ़ी मां को पीछे छोड़ दुनिया की सैर पर निकला हुआ है, वह अपनी इस यात्रा में किन-किन अनुभवों से गुज़रता है, यह उसका रोजनामचा है। मगर यह कहानी केवल एक जर्मन नौजवान यात्री का रोजनामचा भर नहीं है, बल्कि एक ऐसा दस्तावेज है, जो बताता है कि अपनी तमाम खूबसूरती के बावजूद, यह दुनिया अभी भी ऐसी जगह बनी हुई है, जहां हिंसा रह-रह कर और लगातार सुलगती रहती है।

आवारागर्द

पटचित्र: Ina T�nzer

अनुवाद: ख़ुर्शीद आलम

पिछले साल, एक रोज़ शाम के वक़्त दरवाज़े की घंटी बजी। मैं बाहर गई। एक लंबा-तड़ंगा यूरोपियन लड़का कैनवस का थैला कंधे पर उठाए सामने खड़ा था। दूसरा बंडल उसने हाथ में संभाल रखा था और पैरों में मिट्टी में लिथड़े पेशावरी चप्पल थे। मुझे देखकर उसने अपनी दोनों एड़ियां ज़रा-सी जोड़ कर सिर झुकाया। मेरा नाम पूछा और एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया, “आपके मामूं ने ये ख़त दिया है

“अंदर आ जाओ,” मैंने उससे कहा और ज़रा अचंभे से ख़त पर नज़र डाली। यह अल्लन मामूं का ख़त था। उन्होंने लिखा था, “हम लोग कराची से हैदराबाद, सिंध वापस जा रहे थे। ठठ की माकली हिल पर क़ब्रों के दरमियान इस लड़के को बैठा देखा। इसने अंगूठा उठाकर लिफ़्ट की फ़र्माइश की और हम इसे घर ले आए। ये दुनिया के सफ़र पर निकला है और अब हिंदुस्तान जा रहा है। ओटो बहुत प्यारा लड़का है, मैंने इसे हिंदुस्तान में अपने रिश्तेदारों के नाम ख़त दे दिए हैं। यह उनके पास ठहरेगा। तुम भी इसकी मेज़बानी करो।”

नोट: इसके पास पैसे लगभग बिल्कुल नहीं हैं।

लड़के ने कमरे में आकर थैले फ़र्श पर रख दिए और अब आंखें चुंधिया कर दीवारों पर लगी तस्वीरें देख रहा था। इतने ऊंचे क़द के साथ उसका चेहरा बच्चों का सा था, जिस पर हल्की-हल्की सुनहरी दाढ़ी-मूंछ बहुत अजीब-सी लग रही थी।

एक और हिच हाईकर (Hitchhiker), मैंने ज़रा कोफ़्त से सोचा। अल्लन मामूं बेचारे धर्मभीरु आदमी इसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गए होंगे, क्योंकि ये इन्टरनेशनल आवारागर्द अपने स्वार्थ के लिए राह चलतों से दोस्ती कर लेने का गुण ख़ूब जानते हैं।

“शाहिदा ने भी आपको सलाम कहा है,” उसने मेरी तरफ़ मुड़कर बड़े अपनेपन से कहा।

 “शाहिदा?”

 “आपकी कज़न शाहिदा। मैं बनारस में उनके हां ठहरा था और लखनऊ में आपकी फूफी के हां। और चाटगाम में अंकल अनवर के हां रहूंगा और अगर दार्जिलिंग जा सका तो कज़न मुतह्हरा के घर पर ठहरूंगा,” उसने जेब में से और लिफ़ाफ़े निकाले।

“बैठ जाओ...ओटो...चाय पियो...” मैंने एक लंबी सांस लेकर कहा।

मुझे वो दो डच हिच हाईकर याद आए, जिन्होंने कराची में अल्लन मामूं के घर डेरा डाल दिया था, क्योंकि उनके पास पैसे ख़त्म हो गए थे।

“मैं तुर्की और ईरान होता हुआ आया हूं और जर्मनी से यहां तक मैंने मोटरों और लारियों में लिफ़्ट ली हैं। अब लंका जाऊंगा। फिर थाईलैंड वग़ैरा। वहां से कार्गो बोट के ज़रिये जापान, अमरीका और इसके बाद घर वापस। इस वक़्त तो मैं औरंगाबाद से एक ट्रक पर आ रहा हूं।”

“बहुत ऐडवेंचर रहे होंगे तुम्हारे सफ़र में।”

“हां, इस्तान्बुल में मैं तीन रात ग़लता के पुल के नीचे सोया। और ईरान में...” फिर उसने कई छोटे-छोटे ऐडवेंचर सुनाए “मैं कोलोन यूनीवर्सिटी में पढ़ता हूं,” उसने आगे बताया।

“पाकिस्तान और हिंदुस्तान में तुमने क्या फ़र्क़ पाया,” खाने की मेज़ पर मैंने उससे पूछा।

“वहां सब लोग मुझसे कश्मीर के बारे में बड़े जोशो-ख़रोश से बातें करते थे। यहां कश्मीर और पाकिस्तान का ज़िक्र बहुत कम किया जाता है। यहां के मसाइल...” फिर उसने हिंदुस्तान की समस्याओं पर एक विचारोत्तेजक लेक्चर दिया। कुछ देर बाद उसने कहा, “मैं दौलतमंद सैलानियों और आ’म यूरोपियनों और अमरिकनों की तरह केवल ताजमहल देखने नहीं आया हूं। मैं रात-भर दुकानों के बरामदों में सोता हूं। किसानों की झोंपड़ियों में रहता हूं। मज़दूरों से दोस्ती करता हूं। हालांकि उनकी भाषा नहीं समझ सकता।”

खाने के बाद उसने बंबई का नक़्शा निकालकर फ़र्श पर फैलाया। बेचारे अंग्रेज़ बंबई की वास्तुकला को विक्टोरियन गोथिक कहते थे। यहां क्या-क्या चीज़ें देखने लायक़ हैं?

एलीफेंटा और अपोलो बंदर। और...”

“ये सब गाईड बुक में भी मौजूद है,” उसने ज़रा बेसब्री से मेरी बात काटी और हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था और रहन सहन के बारे में अपने विचारों से मुझे नवाज़ा।

“ओटो...तुम्हारी उम्र कितनी है,” मैंने मुस्कुरा कर पूछा।

“मैं इक्कीस साल का हूं,” उसने बड़े गर्व से जवाब दिया, “और जब जर्मनी वापस पहुंचूंगा तो बाईस साल का हो जाऊंगा। उसके अगले साल मुझे डॉक्टरेट मिल जाएगा। मैं यूनिवर्सिटी में जर्मन गेय शायरी का अध्ययन कर रहा हूं। जर्मनी में सिर्फ डॉक्टरेट मिलता है। जिस तरह आपके बी.ए., एम.ए.” इसके बाद वो देर तक जर्मन गेय शायरी, विश्व राजनीति और हिन्दुस्तानी आर्ट पर रोशनी डालता रहा। वह तस्वीरें भी बनाता था। किस क़दर बुकरात लड़का है, मैंने दिल में सोचा।

अधिकतर जर्मनों की तरह बहुत ही संजीदा, धुन का पक्का और हास्य व्यंग्य से लगभग विमुख।

“मैं रात को सोने से पहले आपकी किताबें देख सकता हूं?”

“ज़रूर।”

रात गए तक बैठक के कमरे में रोशनी जलती रही। सुबह तीन बजे ग़ुस्लख़ाने में पानी गिरने की आवाज़ आई तो मेरी आंख खुल गई। वह रातों-रात नहा-धोकर फ़ारिग़ हो चुका था ताकि सुबह को उसकी वजह से घरवालों को ज़हमत न हो। नाश्ते के वक़्त उसने हिंदुस्तान के बारे में उस किताब पर अपने विचार रखे जो उसने रात-भर में पढ़ कर ख़त्म कर डाली थी। फिर उसने बंबई का नक़्शा उठाया और सैर के लिए निकल गया। वह अपने थैले में पांच किताबें लेकर चला था, जिन पर कमरा ठीक करते वक़्त मेरी नज़र पड़ी। गोयटे की फाउस्ट, हाईने की नज़्में, रिल्के, ब्रेख़्त और इंजील मुक़द्दस। शाम को जब वह थका-हारा मगर बेहद चुस्त वापस आया तो मैंने उससे कहा, “ओटो! कल रात तुम ख़ुदा से इन्कार करते थे, मगर इंजील साथ लेकर घूमते हो!” इस पर ओटो ने ख़ुदा की कल्पना में रुहानी सहारे की इंसानी जरूरत पर एक छोटा-सा लेक्चर दिया।

“ओटो तुम एलीफ़नटा गए थे? वहां की त्रिमूर्ती और देवता...”

“मैं कहीं भी नहीं गया। विक्टोरिया गार्डन में दिन-भर बैठा लोगों की भीड़ का अध्ययन करता रहा। इन्सान, इन्सान सबसे बड़ा देवता है।”

“हां हां...ये तो बिल्कुल ठीक है। मगर तुमने खाना कहां खाया?”

“मैंने एक दर्जन केले ख़रीद लिए थे” मुझे सहसा बहुत शर्मिंदगी हुई कि चलते वक़्त सैंडविच उसके साथ करने मुझे क्यों न याद रहे और मुझे अल्लन मामूं के ख़त का ख़्याल आया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उसके पास पैसे लगभग बिल्कुल नहीं हैं।

खाने की मेज़ पर उसने कहा, “मैं बहुत दिनों बाद पेट भरके खाना खा रहा हूं।”

उससे जर्मनी के बारे में बातें करती रही। बर्लिन की दीवार का ज़िक्र करते हुए उसने मुझे बताया कि वह बहुत सख़्त कम्युनिस्ट विरोधी है।

“घर पर मेरी अम्मा भी मेरे लिए बहुत मज़ेदार खाने पकाती हैं। आप मेरी अम्मा से मिलकर बहुत ख़ुश होंगी। अब उनकी उम्र बयालिस साल है। मुसीबतों ने उनको वक़्त से पहले बूढ़ा कर दिया है, मगर वो अब भी दुनिया की सबसे हसीन औरत हैं।”

“तुम उनके इकलौते लड़के हो?”

“हां, मेरे पिता फ़ौजी अफसर थे। अम्मा प्रशा की रहने वाली हैं। अम्मा सत्रह साल की थीं, जब उन्होंने अब्बा से शादी की। अब्बा पोलैंड के युद्ध में मारे गए। उनके मरने के दूसरे महीने मैं पैदा हुआ। बमबारी से बचने के लिए मुझे कंधे से लगाए-लगाए अम्मा जाने कहां-कहां घूमती रहीं। वो मुझे गोद में उठाए, सिर पर रूमाल बांधे, फ़ुल बूट पहने, थोड़ा-सा सामान मेरी परियम्बो लेटर में ठुंसे गांव-गांव फिरती थीं और खेतों खलियानों में छुपी रहती थीं। अम्मा पोलैंड में एक गांव में छुपी हुई थीं जब पोलिश फ़ौजी उस रात उस मकान में घुस आए। मैं उस वक़्त पूरे चार साल का था। मेरे बचपन की साफ़ याद उस ख़तरनाक रात की है... मैं डर कर पलंग के नीचे घुस गया। जब अफ़सरों ने मेरी अम्मा को पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा तो मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। वे अम्मा को घसीट कर बाहर खेतों में ले गए। अम्मा कई दिन बाद वापस आई। वो फ़ौजियों से बचने के लिए इतने अ’र्से तक एक खलियान में छुपी रही थीं। मैं उस ख़ाली मकान में अकेला था और बाहर गोलियां चलने की आवाज़ पर सहम-सहम कर कोनों-खद्दरों में छुपता फिरता था। बावर्चीख़ाने की अलमारियां खोल-खोल कर खाने की चीज़ें तलाश करता था और जो कुछ पड़ा मिल जाता, भूख़ के मारे मुंह में रख लेता। मगर वो अलमारियां सब ऊंची-ऊंची थीं, जिनमें खाने-पीने का सामान रखा था।”

वह चुप हो गया और ख़ामोशी से खाना खाने लगा।

“ये चावल बहुत मज़े के हैं,” उसने चंद मिनट बाद आहिस्ता से कहा।

इसी वजह से मैं जंग का तकलीफ़-देह ज़िक्र उससे न छेड़ना चाहती थी। मैं जंग के बाद बड़ी होने वाली पीढ़ी से इस तरह की मार्मिक कहानियां सुन चुकी थी। मुझे वो फ़्रांसीसी लड़की याद आई जिसने फ़्रांस के पतन के बाद इसी ओटो के सम-राष्ट्र जर्मनों की दरिंदगी के क़िस्से सुनाए थे। उसी पोलैंड में, जहां ओटो और उसकी मां पर ये सब बीती, उसी ज़माने में वो नात्सी गैस चैंबर भी दिन-रात काम कर रहे थे, जहां रोज़ाना हज़ारों यहूदियों को मौत की भेंट चढ़ाया जाता था और... मुझे उस रूसी लड़की का क़िस्सा याद आया। अपने सारे ख़ानदान को अपने सामने जर्मन मशीनगन की नज़र होते देखकर पल की पल में सदमे की शिद्दत से उस रूसी लड़की के बाल सफ़ेद हो गए थे।

ये 1945 के बाद के यूरोप की नौजवान पीढ़ी थी।

“अब तुम्हारी मां कुछ काम करती है?” मैंने पूछा।

“नहीं, वो महज़ ‘हाऊस फ़रा हैं। उनको फ़ौजी विधवा की हैसियत से पेंशन मिलती है। हमारा छोटा-सा दो कमरों का मकान है। मैं शाम की शिफ़्ट में एक फ़ैक्ट्री में काम करता हूं। मेरी अम्मा बहुत भोली-भाली हैं। एस्ट्रोलॉजी में यक़ीन रखती हैं और पाबंदी से गिरजा जाती हैं। पिछले साल मैंने साइकल पर सारे जर्मनी का चक्कर लगाया था... जर्मनी दुनिया का हसीन-तरीन मुल्क है।”

“हर मुल़्क उसके बाशिंदों के लिए दुनिया का हसीन-तरीन मुल्क होना चाहिए। मगर तुम ‘नए-नात्सी’ न बन जाना।”

“नहीं। मैं ‘नया नात्सी’ नहीं बनूंगा। मुझे यहूदियों से बहुत ज़्यादा नफ़रत नहीं है,” उसने सादगी से कहा।

मुझे हंसी आ गई।

“मेरे नाना और नानी अब भी पूर्वी जर्मनी में हैं। मगर हम उनसे नहीं मिल सकते... जिस तरह आपका आधा ख़ानदान यहां है और आधा पाकिस्तान में,” उसने कांटा उठाकर मुझे समझाया।

दूसरे रोज़ उसने वा’दा किया कि शहर की काबिल-ए-दीद जगहें ज़रूर देखकर आएगा। मगर वह उस रोज़ भी दिन-भर रानी बाग़ में बैठा रहा। चौथा दिन उसने वार्डन रोड पर भोला भाई देसाई इंस्टिट्यूट के बरामदे में बैठ कर लाओस की जंग के बारे में लेख पढ़ने में गुज़ारा। अंदर लड़कियां डांस सीख रही थीं और हॉल में हुसैन की नई पेंटिंग्स की नुमाइश हो रही थी।

“लिहाज़ा मैं साथ-साथ आर्ट व कल्चर से भी आनंदित होता रहा,” उसने वापस आकर कहा।

बंबई में वह सारे फ़ासले पैदल तय करता था। वार्डन रोड से फ्लोरा फाउंटेन तक भी पैदल ही जाता था।

“मैं आठ आने से एक रुपया रोज़ तक ख़र्च करता हूं और ज़्यादा-तर केले खाता हूं। हर जगह बेहद मेहमान नवाज़ लोग मिल जाते हैं। क्या ये अजीब बात नहीं कि इन्सान व्यक्तिगत तौर पर इस क़दर सीधा-सादा और नेक है, जबकि सामूहिक हैसियत में दरिन्दा बन जाता है?” यह सवाल करने के बाद वह मुंह लटका कर बैठ गया। उस दिन वह एक ट्रक कंपनी से तय कर आया था कि बैंगलोर तक उनके ट्रक पर जाएगा।

सुबह-सवेरे उसने अपने थैले में किताबें और कपड़े ठूंसे, दूसरा थैला, जो उसका सफ़री ख़ेमा और बिस्तर था, लपेट कर कंधे पर रखा, ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और ट्रांसपोर्ट कंपनी के दफ़्तर फ्लोरा फाउंटेन पैदल रवाना हो गया।

ओटो को गए कई महीने गुज़र गए। अल्लन मामूं का ख़त आया तो मैंने उन्हें शिकायतन लिखा कि आपके बेटे ओटो ने यहां से जाकर ये भी इत्तिला न दी कि कमबख़्त अब कहां की ख़ाक छान रहा है। मैंने ये ख़त पोस्ट किया ही था कि शाम की डाक से ओटो का लिफ़ाफ़ा आ गया। उसके टिकटों पर लाओस के बादशाह की तस्वीर बनी थी और ख़त में लिखा था, “वह जर्मन लड़का जो आपके घर पर ठहरा था आपको भूला नहीं है। आप मेरे साथ बहुत मेहरबान थीं। (मेरी अंग्रेज़ी कमज़ोर है ग़लतियां माफ़ कीजिएगा) आप मेरे साथ बड़ी बहन की सी मुहब्बत से पेश आईं और मैं मुहब्बत पर बहुत यक़ीन रखता हूं। इसकी वजह शायद ये है कि अभी बहुत कम उम्र हूं, लेकिन आपने ठीक कहा था, दुनिया में सिर्फ़ वही लोग ख़ुश रह सकते हैं जो ज़िंदगी को बिना किसी पसोपेश के और सवाल किए बिना मंज़ूर कर लें। हम जितने ज़्यादा सवालात करते हैं, उतना ही ज़्यादा स्पष्ट होता है कि ज़िंदगी बहुत उलझी हुई है।

लंका में मैं नेवरा ईलिया से कनेडी एक टूरिस्ट बस के द्वारा गया। बस में एक सिंघली छात्र से मेरी दोस्ती हो गई। उसने रास्ते में मुझे अपने साथ खाना खिलाया। उसका नाम राजा था। उसने मेरे लिए फल भी ख़रीदे। बस में बहुत से ढोल रखे थे। राजा ख़ूब गाने गाता रहा। झरने बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। राजा ने मुझसे कहा, चलो हम सब नहाये। चंद मिनट बाद वो मर चुका था। वो पानी में डूब गया था। दो घंटे की तलाश के बाद उसकी अकड़ी हुई लाश हमें एक चट्टान के नीचे मिली। ये सब क्या है। मैं सोचता रहा हूं कि ये कैसे हुआ। हममें से कोई भी राजा को उस हादसे से नहीं बचा सका। क्या ये इत्तिफ़ाक़ था या इसी को क़िस्मत कहते हैं? राजा अपने माता-पिता का इकलौता लड़का था। उसके बहन-भाई पांच और पंद्रह की उम्रों के दरमियान मर चुके थे। उसका बाप अंधा है और मां बीमार रहती है। राजा उन लोगों का भरण-पोषण करने वाला अकेला था।

मदुराय में एक नौजवान शायर ने मुझसे कहा कि दुनिया की वजह से वह बहुत दुखी है। मद्रास में मैंने रेडियो इंटरव्यू से कुछ रुपये कमाए। फिर मैं पेनांग गया, जो बड़ा ख़ूबसूरत द्वीप है और वहां बेशुमार चीनी रहते हैं।

एक मालगाड़ी के आख़िरी डिब्बे में बैठ कर में बैंकॉक पहुंचा और बुद्ध मठों में रहा और बौद्ध भिक्षुओं के साथ खाना खाया। दोपहर को ख़ूबसूरत लड़कियां, ख़ुश-लिबास पहने औरतें अपनी-अपनी क़िस्मत और भविष्य का हाल पूछने भिक्षुओं के पास आती थीं।

ज़्यादा-तर भिक्षु मुहब्बत के भूखे हैं और बे-तहाशा तंबाकू पीते हैं और कोई काम नहीं करते। बूढ़ी धर्म-भीरु औरतें उन्हें खाना और पैसे देती रहती हैं। बहुत से भिक्षु मठों में इसलिए बैठे हैं कि उन्हें मेहनत करना अच्छा नहीं लगता। ये लोग सख़्त काहिल हैं, मगर उनके मज़हब में इस काहिली का एक पवित्र आधार मौजूद है...निर्वाण की तलाश... कुछेक उनमें से वाक़ई संजीदगी से ध्यान-ज्ञान में वयस्त रहते हैं। लेकिन ज़्यादा-तर भिक्षु खाने और महिलाओं से गप्प करने के अलावा सोते रहते हैं।

नॉन्गकाई में मैं मेकांग दरिया में नहाया और उसके बाद लाओस आ गया।

दीन तीन एक बड़े से गावं की तरह है। धूप बहुत तेज़ है और सड़कें गर्द-आलूद। सिर्फ़ रातें ख़ुशगवार हैं, क्योंकि अंधेरा सारी बद-सूरती, अत्याचार-अहिंसा और ख़ूंरेज़ी को अपने अंदर छुपा लेता है, मच्छर बहुत हैं।

सवाना तक एक जहाज़ में मुझे मुफ़्त की लिफ़्ट मिल गई और अब मैं पकसे में मौजूद हूं। फिर कम्बोडिया जाऊंगा। मैं अंकल अनवर के पास चटागांग न जा सका क्योंकि बर्मा से पूरबी पाकिस्तान दाख़िल होने में बड़ी दिक्कतें थीं। मैंने लाल चीन और उत्तरी वियतनाम के लिए वीज़ा की दरख़ास्त दी है। पिकिंग और हनोई से मुझे फोम पह्न्न में जवाब मिल जाएगा। कल मैं यहां से दक्षिणी वियतनाम जा रहा हूं।

इस ग़लत-सलत अंग्रेज़ी के लिए दुबारा माफ़ी चाहता हूं। आपका बहुत शुक्रगुज़ार।

ओटो क्रूगर”

 

फरवरी, 1963 की एक विदेशी पत्रिका में ‘वियतनाम की जंगल वार’ शीर्षक से एक रंगीन तस्वीरों वाला लेख छपा। उन तस्वीरों में गोरिल्ला सिपाहियों को बंदूक़ो का निशाना बनाया जा रहा था। कश्तियों में बैठे हुए गोरिल्ला क़ैदी मेकांग दरिया के पार ले जाए जा रहे थे और इन कश्ततियों को किसान औरतें खे रही थीं। किनारे पर पहुंच कर उन क़ैदियों को गोली मार दी जाएगी। धान के खेतों के पानी में से जंगी क़ैदी गुज़र रहे हैं और लेख के आख़िर में दो पृष्ठों पर फैली हुई एक तस्वीर है, जिसमें धान के हरे खेत हैं और धान की बालियां हवा के झोंकों से झुकी जा रही हैं। लंबे पत्तों वाले दरख़्त हवा में लहरा रहे हैं। क्षितिज पर दरख़्तों की क़तारें हैं और सब्ज़ा और पानी है। यह ऐसा दिलफ़रेब मंज़र है, जिसकी चित्रकार  तस्वीरें बनाते हैं, शायर नज़्में कहते हैं और कहानीकार धरती की गौरव गाथा लिखते हैं। इन हरे-भरे दरख़्तों के पीछे किसानों के शांत झोंपड़े होंगे और इस गांव के वासी तिनकों से बनी छज्जेदार नुकीली टोपियां पहने दिन-भर पानी में खड़े रह कर धान बोते होंगे और गीत गाते होंगे। फ़सल तैयार होने के बाद मंडी में जाकर मेहनत से उगाया हुआ धान थोड़े से पैसों में बेच कर अपनी ज़िंदगियां गुज़ारते होंगे। इस नदी के किनारे लड़कियां अपने चाहने वालों से मिला करती होंगी और नौजवान माएं रंग-बिरंगे सैरोइंग पहने, घड़े उठाए अपने बच्चों को नहलाने के लिए दरिया पर आती होंगी।

लेकिन इस तस्वीर में जो इस वक़्त मेरे सामने रखी है, कटे-फटे चेहरों वाली अर्धनग्न और ख़ूनआलूद नौजवान लाशें पड़ी हैं, दूर एक कोने में भूरे रंग का बड़ा जंगी जहाज़ खड़ा है और तस्वीर के नीचे लिखा है:

“मौत का खेत...वियत कांग गोरिल्ले, जिनको मेकांग दरिया के धान के डेल्टा में मौत के घाट उतार दिया गया। उनके साथी एक-दूसरे के साथ रस्सियों से बंधे सर झुकाए एक कोने में बैठे हैं। इस ख़ूं-रेज़ आर-पार की लड़ाई में एक नौजवान हिच हाईकर भी है, जो मेकांग दरिया के किनारे से गुज़र कर उत्तरी वियतनाम जा रहा था, एक इत्तिफ़ाक़ीया गोली का निशाना बन गया। उस ख़ूबसूरत मुल्क में यह भयानक गृह युद्ध 1944 से जारी है और...”

ओटो क्रूगर ज़िंदगी का तजुर्बा हासिल करने दुनिया के सफ़र पे निकला है।

                      

 

 

क़ुर्रत-उल-ऐन हैदर
क़ुर्रत-उल-ऐन हैदर

भारतीय उर्दू उपन्यासकार और लघु कथाकार और पत्रकार कुर्रतुलैन हैदर का जन्म 20 जनवरी, 1927 को हुआ। कुर्रतुलैन उर्दू साहित्य में सबसे उत्कृष्ट और प्रभावशाली साहित्यिक नामों में से एक है। उन्हें उनकी महान क्लासिक रचना 'आग का दरिया' के लिए जाना जाता है। उनका यह उपन्यास भारत विभाजन के बाद 1959 में पहली... भारतीय उर्दू उपन्यासकार और लघु कथाकार और पत्रकार कुर्रतुलैन हैदर का जन्म 20 जनवरी, 1927 को हुआ। कुर्रतुलैन उर्दू साहित्य में सबसे उत्कृष्ट और प्रभावशाली साहित्यिक नामों में से एक है। उन्हें उनकी महान क्लासिक रचना 'आग का दरिया' के लिए जाना जाता है। उनका यह उपन्यास भारत विभाजन के बाद 1959 में पहली बार लाहौर, पाकिस्तान से प्रकाशित हुआ। कुर्रतुलैन हैदर को उनके कहानी संग्रह 'पतझर की आवाज़' के लिए उर्दू में 1967 का साहित्य अकादमी पुरस्कार, 'अखिरी शब के हमसफ़र' के लिए 1989 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और साहित्य अकादमी फैलोशिप का सर्वोच्च पुरस्कार मिला। 2005 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से भी नवाज़ा। 21 अगस्त, 2007 को उनका निधन हो गया।