बाहर कुछ जल रहा है

वह किसी जल-पक्षी की तरह पतला-दुबला था और उसके कंधे झुके हुए थे। उसके डरावने, मरियल चेहरे पर दो गहरी भूरी जलती हुई आंखें मौजूद थीं। वे वाक़ई जलती हुई आंखें थीं—किसी अंदरूनी आग से जलती हुई आंखें नहीं, बल्कि केवल प्रतिबिम्बित करती हुईं, जैसे वे दो स्थिर आइने हों, जो यह बता रहे हों कि बाहर कुछ जल रहा है।

बाहर कुछ जल रहा है

पटचित्र: रवि कावड़े/That.Graphic.Studio

हंगेरियन से अंग्रेजी अनुवाद: ऑटीली मुलज़ेट
अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: सुशांत सुप्रिय
स्त्रोत: The Guardian

 

ज्वालामुखी के गह्वर में स्थित संत एन्ना झील एक मृत झील है। यह झील 950 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और लगभग हैरान कर देने वाली गोलाई में मौजूद है। यह झील बरसात के पानी से भरी हुई है। इसमें जीवित रहने वाली एकमात्र मछली ‘कैटफ़िश‘ प्रजाति की है। जब भालू देवदार के जंगल में से चहलक़दमी करते हुए यहां पानी पीने के लिए आते हैं तो वे इंसानों के यहां आने वाले रास्ते से अलग दूसरा रास्ता चुनते हैं। दूसरी ओर एक ऐसा इलाक़ा है, जहां कम ही लोग जाते हैं। यह एक धंसने वाला, सपाट, दलदली इलाक़ा है।  इन दिनों लकड़ी के तख़्तों से बना एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता इस दलदली इलाक़े के बीच से होकर गुज़रता है। इस झील का नाम काईदार झील है। अफ़वाह है कि इसका पानी बेहद ठंड में भी नहीं जमता। बीच में यह पानी हमेशा गरम रहता है। यह झील लगभग हज़ार सालों से मृत है और यही हाल इस झील के पानी का है। अधिकतर समय यहां एक गहरा सन्नाटा ज़मीन की छाती पर बोझ बनकर मंडराता रहता है।

आयोजकों में से एक ने पहले दिन आने वाले अतिथियों को जगह दिखाते हुए कहा कि यह चिंतन-मनन और घूमने-फिरने के लिए आदर्श जगह है। इस बात को सब ने याद रखा। उनका शिविर सबसे ऊंचे पहाड़ के पास ही था, जिसके शिखर का नाम ‘हज़ार मीटर की चोटी’ था। इसलिए चोटी के नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक दोनों दिशाओं में लोगों का आना-जाना लगा रहा। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं था कि नीचे शिविर में उसी समय ज़बरदस्त गतिविधियां नहीं हो रही थीं। हमेशा की तरह समय बीतता जा रहा था। इस जगह की कल्पना करके सोचे गए रचनात्मक विचार और भी ज़बरदस्त तरीक़े से आकार और अंतिम रूप ले रहे थे। तब तक सभी अतिथि अपनी-अपनी नियत जगहों पर जम चुके थे। ज़रूरत की कुछ चीज़ें उन्होंने अपने हाथों से लगा ली थीं। अधिकांश ने मुख्य भवन के निजी कक्ष को हासिल कर लिया था। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने काफ़ी समय से इस्तेमाल में न आई झोंपड़ियों में रहना पसंद किया। आगंतुकों में से तीन लोग ऐसे थे जिन्होंने शिविर के केन्द्र-बिंदु वाले भवन की बहुत बड़ी अटारी पर क़ब्ज़ा कर लिया। यहां भी तीनों ने अपने लिए अलग-अलग जगहें निर्धारित कर लीं। यह चीज़ सभी को बेहद ज़रूरी लग रही थी। वे काम करते हुए भी अपनी निजता में अकेले रहना चाहते थे। सभी को शांति चाहिए थी। वे उत्तेजना और अशांति से दूर रहना चाहते थे। इस तरह वे सभी अपने-अपने काम में जुट गए और इसी तरह काम करने में दिन बीतने लगे। खाली समय में बाहर चहलक़दमी की जाती, झील में सुखद डुबकी लगाई जाती और शाम के समय शिविर के किनारे आग जला कर उसके इर्द-गिर्द बैठकर गीत गाए जाते। साथ ही घर की बनी फलों वाली ब्रांडी पीने का लुत्फ उठाया जाता।

इस वृत्तान्त का अनुमान लगाना भ्रामक था। जो तथ्य धीरे-धीरे किंतु वास्तविक रूप से उभर कर सामने आए, उनसे तो यही लगा। काम के पहले दिन सबसे तीक्ष्ण दृष्टि वालों का भी यही विचार था। लेकिन तीसरा दिन होते-होते इस बात पर आम राय बन गई। उन बारह लोगों में से एक बाक़ी सबसे अलग था। उसका वहां आना भी बेहद रहस्यमय था। कम-से-कम उसका वहां आना बाक़ियों से तो एकदम अलग था ही। वह वहां रेलगाड़ी और फिर बस से नहीं आया था। यह चाहे कितना भी अकल्पनीय लग रहा था, अपने आने के दिन शायद शाम छह या साढ़े छह बजे वह शिविर का मुख्य द्वार खोल कर सीधा अंदर आ गया। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह वहां पैदल चलकर ही पहुंचा हो। दूसरों को देखकर उसने केवल रूखाई से अपना सिर हिला दिया। जब आयोजकों ने विनम्रतापूर्वक और सम्मान से उसका नाम पूछा, और फिर वे उससे यह पूछने लगे कि वह यहां तक कैसे पहुंचा, तो उसने बताया कि कोई उसे कार से सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था। लेकिन उस गहरी ख़ामोशी में किसी ने भी वहां किसी कार की आवाज़ नहीं सुनी थी, जो उसे ‘सड़क के एक मोड़ तक’ छोड़ जाती। यह पूरा विचार ही अविश्वसनीय लग रहा था कि कोई उसे पूरे रास्ते नहीं बल्कि केवल सड़क के एक मोड़ तक छोड़ गया था। इसलिए किसी को भी उसकी बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था। या यदि और सटीकता से कहें तो किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि उसके शब्दों की व्याख्या कैसे की जाए। अत: उसके आने के पहले दिन एकमात्र सम्भव और विवेकपूर्ण वैकल्पिक राय यही लग रही थी कि वह पूरा रास्ता पैदल चलकर आया था। हालांकि यह राय भी अपने-आप में असंगत लग रही थी। क्या उसने बुख़ारेस्त से अपनी यात्रा इसी प्रकार शुरू की होगी और यहां के लिए ऐसे ही निकल पड़ा होगा? और क्या बिना किसी रेलगाड़ी या बस पर चढ़े वह केवल पैदल चलता हुआ ही यहां तक पहुंच गया था? तो फिर कौन जानता है, वह कितने हफ़्तों तक पैदल चला होगा। क्या संत ऐन्ना झील तक की लम्बी यात्रा इसी प्रकार समाप्त करके वह एक शाम छह या साढ़े छह बजे शिविर का मुख्य द्वार खोलकर सीधा वहां पहुंच गया था? जब उससे यह प्रश्न किया गया कि क्या आयोजन-समिति मिस्टर इयोन ग्रिगोरेस्क्यू को सम्मानित कर रही थी तो उसने उत्तर में केवल रुखाई से अपना सिर हिला दिया।

यदि उसके वृत्तांत की विश्वसनीयता का अनुमान उसके जूतों की हालत से लगाया जाता तो फिर किसी के मन में कोई संदेह नहीं रह जाता। शायद शुरू में वे जूते भूरे रंग के थे। वे गर्मियों में पहने जाने वाले नक़ली चमड़े के हल्के जूते थे। जूतों की अंगूठे वाली जगह पर सजावट की गई थी, लेकिन अब वह सजावट उखड़ कर एक ओर लटकी हुई थी। दोनों जूतों के तल्ले आधे उखड़े हुए थे। जूतों की एड़ियां पूरी तरह घिस चुकी थीं और दाएं अंगूठे के पास एक जूते के चमड़े में छेद हो गया था, जिसके कारण भीतर पहनी गई जुराब वहां से नज़र आ रही थी। लेकिन यह केवल उसके जूतों की ही बात नहीं थी। अंत तक इस सब को एक रहस्य बने रहना था। कुछ भी हो, उसके कपड़े दूसरों द्वारा पहने गए पश्चिमी परिधानों से अलग दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वह 1980 के दशक के दुर्दांत तानाशाह के युग से, उस समय की दुर्दशा के काल से सीधे वर्तमान युग में आ पहुंचा कोई पात्र हो। उसकी अज्ञात रंग की चौड़ी पतलून फ़लालेन जैसे किसी मोटे कपड़े से बनी हुई लगती थी। वह पतलून उसके टखनों पर स्पष्टता से फड़फड़ा रही थी। किंतु उसने जो कार्डिगन पहन रखा था, वह देखने में और ज़्यादा कष्टकर लग रहा था। वह दलदली-हरे रंग का बेहद ढीला, निराश कर देने वाला कार्डिगन था। उसने उसे चौकोर खाने वाली क़मीज़ के ऊपर पहन रखा था और इस मौसम की गर्मी के बावजूद उसकी क़मीज़ के ठोड़ी तक के सभी ऊपरी बटन बंद थे।

वह किसी जल-पक्षी की तरह पतला-दुबला था और उसके कंधे झुके हुए थे। उसके डरावने, मरियल चेहरे पर दो गहरी भूरी जलती हुई आंखें मौजूद थीं। वे वाक़ई जलती हुई आंखें थीं—किसी अंदरूनी आग से जलती हुई आंखें नहीं, बल्कि केवल प्रतिबिम्बित करती हुईं, जैसे वे दो स्थिर आइने हों, जो यह बता रहे हों कि बाहर कुछ जल रहा है।

तीसरा दिन होते-होते वे सभी समझ गए कि यह शिविर उसके लिए शिविर नहीं था। यहां होने वाला काम उसके लिए काम नहीं था। यह ग्रीष्म ऋतु उसके लिए ग्रीष्म ऋतु नहीं थी। तैरना या अन्य कोई आरामदायक छुट्टी मनाने का उपक्रम, जो आम तौर पर ऐसे सामूहिक आयोजनों का हिस्सा होता है, उसके लिए नहीं था। उसने आयोजकों से अपने लिए एक जोड़ी जूतों की मांग की और वे उसे मिल गए। (उन्होंने उसे वे जूते दे दिए जो बाहर अहाते में एक कील से लटके हुए थे।) वह उन जूतों को पूरा दिन पहनकर शिविर के इलाक़े के भीतर ही ऊपर-नीचे टहलता रहता। वह न तो पहाड़ी पर चढ़ता-उतरता, न ही झील के किनारे टहलने के लिए जाता। वह दलदली झील पर बने तख़्तों के रास्ते पर भी कभी नहीं चलता। वह अपना ज्यादातर समय अंदर ही बिताता। कभी-कभी वह इधर-उधर चलता हुआ पाया जाता। ज़्यादातर वह यह देखता रहता कि कौन क्या कर रहा है। वह मुख्य भवन के सभी कमरों के सामने से गुजरता। वह अपने चेहरे पर अति व्यस्त भाव लिए चित्रकारों, छाप या मुहर लगाने वालों तथा मूर्तिकारों के पीछे खड़े होकर यह देखता रहता कि हर काम में प्रतिदिन कितनी प्रगति हो रही है। वह अटारी पर चढ़ जाता तथा छप्पर और लकड़ी की झोंपड़ी में घुस जाता, लेकिन उसने कभी किसी से कोई बात नहीं की। पूछने पर भी उसने शब्दों में कभी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया, गोया वह गूंगा-बहरा हो या वह किसी की कही कोई बात नहीं समझ पा रहा हो। उसका व्यवहार शब्दहीन था। जैसे वह उदासीन, जड़ या मूढ़ हो या कोई भूत-प्रेत हो। और तब बाक़ी के सभी ग्यारह लोग सतर्क होकर उसे देखने लगे, जैसे ग्रिगोरेस्क्यू उन्हें देखता था। वे सभी एक नतीजे पर पहुंचे और उन्होंने उस शाम जलती हुई आग के इर्द-गिर्द इस विषय पर चर्चा की। (ग्रिगोरेस्क्यू वहां अन्य साथियों के साथ कभी नहीं देखा गया, क्योंकि वह हर शाम जल्दी सोने चला जाता था।) अन्य सभी लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि उसका यहां आगमन आश्चर्यजनक था, उसके जूते अजीब थे और उसका कार्डिगन, उसका अंदर को धंसा चेहरा, उसका दुबलापन, उसकी आंखें—ये सभी चीज़ें विचित्र थीं। लेकिन उन्होंने पाया कि उसकी एक चीज़ सबसे विशिष्ट थी, जिसका उन्होंने अभी तक संज्ञान भी नहीं लिया था। वह चीज़ वाक़ई आश्चर्यजनक थी। दरअसल यहां मौजूद यह प्रख्यात सर्जनात्मक आकृति, जो सदा सक्रिय रहती थी, पूरी तरह से कार्यहीन और ख़ाली थी, जबकि बाक़ी सभी लोग काम-काज में व्यस्त थे।

वह ख़ाली था। यानी कुछ भी नहीं कर रहा था। यह बात समझ में आने पर वे सब हैरान रह गए। लेकिन वे ज़्यादा हैरान इस बात पर हुए कि उन्होंने शिविर के शुरुआती दिनों में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। यदि गिना जाए तो आज आठवां दिन चल रहा था। आगंतुकों में से कुछ तो अपनी कला को अंतिम रूप दे रहे थे, किंतु उस अजनबी के कुछ न करने के इस अजीब तथ्य की ओर उन सबने अब जाकर ध्यान दिया था।

वह वास्तव में कर क्या रहा था?

कुछ नहीं। कुछ भी नहीं।

उस समय के बाद से वे सभी अनजाने में ही उस पर निगाह रखने लगे। एक बार दसवें दिन उन्होंने पाया कि पौ फटने के बाद से सुबह के पूरे समय काफ़ी अरसे तक ग्रिगोरेस्क्यू कहीं दिखाई नहीं दिया, हालांकि वह बहुत जल्दी उठ जाता था। अधिकांश लोग तब सोते रहते थे। उस समय किसी ने भी उसे कहीं जाते हुए नहीं देखा। वह झोंपड़ी के पास नहीं था, छप्पर के निकट नहीं था, न अंदर था, न बाहर था। दरअसल इस बीच वह किसी को भी दिखाई नहीं दिया था, गोया वह कुछ समय के लिए ग़ायब हो गया हो।

बारहवें दिन के अंत में कुछ लोगों ने उत्सुकता से भर कर अगली सुबह तड़के उठने का फ़ैसला किया, ताकि वे इस मामले की जांच कर सकें। हंगरी के एक चित्रकार ने सब को सुबह जल्दी उठाने की ज़िम्मेदारी संभाल ली।

अभी भी अंधेरा ही था जब वे सब अगली सुबह सो कर उठे और उन्होंने पाया कि ग्रिगोरेस्क्यू अपने कमरे से नदारद था। वे सब मुख्य द्वार की ओर गए, वापस लौटे और झोंपड़ी तथा छप्पर तक गए, लेकिन कहीं भी उसका नामो-निशान नहीं था। भौंचक्के होकर उन्होंने एक-दूसरे को देखा। झील की ओर से हल्की हवा बह रही थी, पौ फटने लगी थी और धीरे-धीरे सुबह के उजाले में उन्हें एक-दूसरे की आकृतियां दिखाई देने लगी थीं। चारों ओर घना सन्नाटा था।

और तब उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी। जहां वे खड़े थे, वहां से वह आवाज़ बड़ी मुश्किल से सुनाई दे रही थी। वह कहीं दूर से आ रही थी। शायद शिविर के अंतिम छोर से। या ठीक से कहें तो उस अदृश्य सीमा-रेखा के दूसरी ओर से, जहां दो बहिगृह मौजूद थे। वे शिविर की सीमा-रेखा पर स्थित थे। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उस बिंदु के बाद से भू-भाग किसी खुले आंगन जैसा नहीं दिखता था। अभी प्रकृति ने उस मैदान पर वापस क़ब्ज़ा नहीं किया था, लेकिन किसी ने उस भू-भाग में कोई रुचि नहीं दिखाई थी। असल में वह एक असभ्य, डरावनी जगह थी, जहां कोई नहीं आता-जाता था। शिविर के मालिकों ने भी उस भू-भाग पर इतना ही दावा किया था कि वे वहां फ़्रिज और रसोई से निकलने वाला कूड़ा-कचरा फेंक दिया करते थे। इसलिए समय के अंतराल के साथ उस पूरे इलाक़े में अभेद्य, हठी, आदमकद झाड़-झंखाड़ उग आए थे। ये बेकार की कंटीली, मोटी, प्रतिकूल वनस्पतियां अविनाशी लगती थीं।

उस पार कहीं से, उस झाड़-झंखाड़ में से उन्होंने वह आवाज़ सुनी, जो छनकर उनकी ओर आ रही थी।

वे सब हिचक कर ज़्यादा देर तक रुके नहीं रहे, बल्कि एक-दूसरे की ओर देख कर वे आगे किए जाने वाले काम में जुट गए। चुपचाप सिर हिला कर वे उस झाड़-झंखाड़ में घुस गए। वे सब उस आवाज़ की दिशा में आगे बढ़ रहे थे।

वे उस झाड़-झंखाड़ में काफ़ी अंदर तक चले गए थे और अब शिविर की इमारतों से दूर आ गए थे। तब जाकर वे उस आवाज़ के क़रीब पहुंच पाए और यह पता लगा पाए कि शायद वहां कोई खुदाई कर रहा था।

वे और आगे बढ़े। अब किसी उपकरण के ज़मीन की मिट्टी से टकराने की स्पष्ट आवाज़ सुनाई दे रही थी। किसी गड्ढे में से मिट्टी निकाले जाने और उस मिट्टी के लम्बी घास पर गिर कर फैलने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी।

उन्हें दाईं ओर मुड़कर दस-पंद्रह कदम आगे चलना पड़ा। लेकिन वे वहां इतनी जल्दी पहुंच गए कि वे सब ढलान से नीचे लगभग गिरने ही वाले थे। उन्होंने देखा कि वे एक विशाल और गहरे गड्ढे के किनारे खड़े थे। वह गड्ढा तीन मीटर चौड़ा और पांच मीटर लम्बा था। उस गड्ढे के तल पर उन्हें ग्रिगोरेस्क्यू खुदाई करता नज़र आया। वह गड्ढा इतना गहरा था कि उसका सिर बड़ी मुश्किल से नज़र आ रहा था। अपने काम में व्यस्त होने की वजह से उसने उन सब के आने की आवाज़ नहीं सुनी। वे सब उस गहरे गड्ढे के किनारे खड़े होकर वहां से नीचे के दृश्य को देखते रहे।

वहां नीचे, उस गहरे गड्ढे के बीच में उन्हें मिट्टी से बनाया गया, लगभग सजीव लगता घोड़ा दिखाई दिया। उस घोड़े का सिर एक ओर ऊंचा उठा हुआ था। उसके दांत दिख रहे थे और उसके मुंह से झाग निकल रहा था। वह घोड़ा मानो किसी भयावह शक्ति से डरकर सरपट दौड़ रहा था, जैसे वह कहीं भाग रहा हो। वे सब इस दृश्य को देखने में इतने मग्न हो गए कि उन्होंने इस बात की ओर बहुत बाद में ध्यान दिया कि ग्रिगोरेस्क्यू ने एक बहुत बड़े इलाक़े से झाड़-झंखाड़ काट दिए थे और वहां यह गहरा गड्ढा खोद दिया था। गड्ढे के बीच में मौजूद उस मुंह से झाग निकालते, सरपट दौड़ते घोड़े के आस-पास से उसने सारी मिट्टी हटा दी थी। ऐसा लग रहा था जैसे ग्रिगोरेस्क्यू ने उस घोड़े को धरती के गर्भ से खोद निकाला था, उसे मुक्त कर दिया था, जिसके कारण वह आदमक़द घोड़ा सबको दिखाई देने लगा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह घोड़ा ज़मीन के नीचे मौजूद किसी भयानक चीज़ से डर कर भाग रहा हो। भौंचक्के होकर वे सब ग्रिगोरेस्क्यू को देखते रहे, जो उनकी मौजूदगी से पूरी तरह अनभिज्ञ अपने काम में जुटा हुआ था।

वह पिछले दस दिनों से यहां खुदाई कर रहा है—उस गहरे गड्ढे के बग़ल में खड़े होकर उन्होंने अपने मन में सोचा। यानी वह पौ फटने के समय से लेकर पूरी सुबह तक इन सारे दिनों में यहां खुदाई करता रहा है।

किसी के पैरों के नीचे से मिट्टी फिसल कर नीचे गिरी और तब ग्रिगोरेस्क्यू ने ऊपर देखा। पल भर के लिए वह रुका। फिर उसने अपना सिर झुकाया और वह दोबारा अपने काम में जुट गया। सभी कलाकार खुद को असुविधाजनक स्थिति में महसूस करने लगे। उन्हें लगा कि किसी-न-किसी को कुछ कहना चाहिए।

“वाह, यह शानदार है,“ फ़्रांसीसी चित्रकार इयोन ने धीमे स्वर में कहा।

ग्रिगोरेस्क्यू ने दोबारा अपना काम करना बंद किया और वह नीचे लटकी हुई एक सीढ़ी पर चढ़कर उस गड्ढे में से बाहर निकल आया। उसने अपनी कुदाल में लगी मिट्टी को ज़मीन पर पटक कर झाड़ा और एक रुमाल से अपने माथे का पसीना पोंछा। फिर वह उन सब लोगों की ओर आया और उसने अपनी बांहों की धीमी, चौड़ी क्रिया के साथ उस पूरे भू-दृश्य की ओर इशारा किया।

“इस जैसे यहां अब भी बहुत-से मौजूद हैं,“ उसने धीमी आवाज में कहा।

फिर उसने अपनी कुदाल उठाई और सीढ़ियों के सहारे वह वापस उस गहरे गड्ढे में उतर गया, जहां उसने दोबारा खुदाई शुरू कर दी।

बाकी सभी कलाकार गड्ढे के बग़ल में ऊपर खड़े होकर अपने सिर हिलाते रहे। फिर वे सभी चुपचाप शिविर के मुख्य भवन की ओर लौट गए।

अब केवल विदाई बाकी रह गई थी। निदेशकों ने एक बड़े भोज का आयोजन किया और फिर आख़िरी शाम भी आ गई। अगली सुबह शिविर के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया गया। एक बस का इंतजाम किया गया और कार से बुख़ारेस्ट या हंगरी से आए हुए कुछ लोग भी शिविर से विदा हो गए।

ग्रिगोरेस्क्यू ने वे जूते वापस प्रबंधकों को लौटा दिए। उसने दोबारा अपना घिसा हुआ फटा जूता पहन लिया और उसने अपना कुछ समय प्रबंधकों के साथ बिताया। फिर शिविर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक गांव के पास सड़क के मोड़ पर, उसने अचानक चालक को बस रोकने के लिए कहा। उसने जो कहा उसका आशय कुछ-कुछ यह था कि यहां से आगे उसका अकेले जाना ही बेहतर होगा। लेकिन दरअसल उसने क्या कहा था, यह किसी को समझ में नहीं आया, क्योंकि उसने यह बेहद धीमी आवाज़ में कहा था।

फिर मोड़ मुड़कर बस आंखों से ओझल हो गई। तब ग्रिगोरेस्क्यू सड़क पार करने के लिए मुड़ा और नीचे उतर रहे सर्पीले रास्ते पर वह अचानक ग़ायब हो गया। अब वहां केवल वह भू-भाग मौजूद था, जहां पहाड़ों की ख़ामोश व्यवस्था थी। उस विशाल भू-भाग में ज़मीन नीचे गिरे हुए मृत पत्तों से ढँकी हुई थी। भू-भाग का वह असीम विस्तार भेस बदलने वाला, छिपाने वाला और सब कुछ गुप्त रखने वाला लग रहा था, जैसे ज़मीन के नीचे मौजूद जल रही हर चीज़ को वह ढंक दे रहा हो।

 

लास्‍लो क्रास्‍नाहोरकाई
लास्‍लो क्रास्‍नाहोरकाई

1954 में हंगरी के ग्युला में जन्मे लास्‍लो क्रास्‍नाहोरकाई हंगेरियन भाषा के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। उन्होंने अपने साहित्यिक करियर की शुरुआत 1984 में संपादक के रूप में की थी। इसके बाद वह कई वर्षों तक हंगरी भाषा में अपनी इस महत्वपूर्ण भूमिका को निभाते रहे। आगे चलकर उन्होंने संपादन कार्य छोड़... 1954 में हंगरी के ग्युला में जन्मे लास्‍लो क्रास्‍नाहोरकाई हंगेरियन भाषा के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। उन्होंने अपने साहित्यिक करियर की शुरुआत 1984 में संपादक के रूप में की थी। इसके बाद वह कई वर्षों तक हंगरी भाषा में अपनी इस महत्वपूर्ण भूमिका को निभाते रहे। आगे चलकर उन्होंने संपादन कार्य छोड़ दिया और लेखन करने लगे।
लास्‍लो क्रास्‍नाहोरकाई कई साहित्यिक पुरस्कार जीत चुके हैं। इन पुरस्कारों में अनुवाद के लिए 2019 का 'नेशनल बुक अवॉर्ड', 2015 का 'मैन बुकर इंटरनेशनल अवार्ड' और 2013 का 'बेस्ट ट्रांसलेटड बुक अवार्ड' शामिल है। उन्होंने अपनी किताब 'द मेलानकोली ऑफ़ रेसिस्टेंस' के लिए जर्मनी में ‘बेस्ट बुक ऑफ द ईयर’ का अवार्ड भी जीता है।