हंसोड़

'अमृतसर आ गया' जैसी कालजयी कहानियों के लेखक भीष्म सहानी ने कहानी लेखन को लेकर एक बार कहा था कि लेखक यथार्थ का दामन नहीं छोड़ता, और साथ ही साथ उसका काया-पलट भी करने लगता है, ताकि वह मात्र घटना का ब्योरा न रहकर कहानी बन पाए, कला की श्रेणी में आ जाए।' द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के जर्मन साहित्य के प्रमुख कहानीकारों में से एक हेनरिख बॉल ने प्रस्तुत कहानी में कहानी कला के माध्यम से जीवन के इन्हीं आयामों को बयान किया है। इस कहानी का अनुवाद हमारे समय के चर्चित कथाकार और उपन्यासकार चंदन पांडेय ने किया है।

हंसोड़

पटचित्र: Five Smiling People with Different Occupations is a drawing by CSA Images (https://fineartamerica.com)

अनुवादक: चन्दन पाण्डेय 
स्त्रोत: The Fresh Reads 

मुश्किल में पड़ जाता हूं जब कोई मुझसे मेरा पेशा पूछता है। सयंत स्वभाव के बावजूद घबरा कर हकलाने लगता हूं। ऐसे लोगों से ईर्ष्या होती है, जो कहते हैं: ‘मैं राजमिस्त्री हूं।’ नाइयों, किताब की दुकान वालों और लेखकों की सहज स्वीकृति भी मेरे जलन का सबब है। ये लोग बगैर किसी समझाइश के स्वपारिभाषित हैं, जबकि मैं अनेक सवालों से दरपेश होता हूं, अगर मैं कहूं: ‘मैं हंसोड़ हूं।’

यह स्वीकारोक्ति अगले जवाब की भी मांग करती है, क्योंकि इसके बाद जब अगला सवाल दनदनाता हुआ आता है: ‘तो क्या यही तुम्हारे जीवन यापन का साधन है?’ तो मैं सच्चाई से ‘हां’ बोल देता हूं। दरअसल, मैं इसी से गाढ़ी कमाई कर लेता हूं, पेशेवराना अंदाज में कहें तो, मेरी हंसी की बड़ी मांग है। हंसोड़पने में मेरा अनुभव गहरा है, कोई दूसरा मुझ-सा हंसने वाला नहीं है, ना ही किसी को हंसी की इस कला की बारीकियों का मुझ जैसा भान है।

बेतुकी व्याख्या से बचने के लिए लम्बे समय तक मैं खुद को अभिनेता कहता रहा, किन्तु ‘डायलॉगबाजी’ और नकलचीपने में मेरा माद्दा इतना कम था कि अभिनेता की उपाधि मुझे असत्य लगी: चूंकि सत्य मुझे प्रिय है और सच यह है कि मैं हंसोड़ हूं। मैं न तो हास्य अभिनेता हूं और ना ही जोकर। सनद रहे कि मैं लोगों को खुश मिज़ाज नहीं बनाता, मैं बस खुश मिजाजी का माहौल रचता हूं। एक तरफ मैं यूनानी शहंशाह की तरह हंसता हूं तो दूसरी तरफ स्कूल जाते मासूम बच्चे की तरह। सत्रहवीं शताब्दी की हंसी भी मुझे उतनी ही घरू लगती है, जितनी उन्नीसवीं सदी की, और अगर मौके की मांग हो तो समूची सदियों की, हर वर्ग की और उम्र के सभी पड़ावों की हंसी हंस सकता हूं: दरअसल हंसने की मेरी दक्षता वैसे ही है जैसे जूतों की मरम्मत-मज्जमत करने में मोची की। अपने कलेजे में मैंने अमरीकी हंसी, अफ्रीकी हंसी, गोरी, लाल, पीली, हर तरह की हंसी को पनाह दे रखा है—और सजीला मेहनताना मिलते ही मैं निर्देशक की लय पर इस हंसी को अपने कलेजे से परत दर परत उघाड़ता हूं।   

मैं अनिवार्य सा हो गया हूं; मैं रेडियो पर हंसता हूं, टेप में हंसता हूं और टीवी के निर्देशक मेरे साथ तहजीब से पेश आते हैं। मैं शोकाकुल, संयमित और उन्मादी हर तरह की हंसी हंस लेता हूं। मैं बस कंडक्टर या किराना दुकान के नौकर की तरह भी हंस लेता हूं; निशाचरी हंसी, भोर की हंसी, डूबती शाम की हंसी, गोधुलि की हंसी। कहना दरअसल यह कि जब भी और जहां भी हंसी चाहिए होती है, मैं उस जरूरत को पूरी करता हूं।

यह बताने कि कोई जरूरत नहीं कि यह धंधा थका देने व़ाला है, खास कर कि इसलिए कि मैंने—और यह मेरी खासियत है—संक्रामक हंसी की कला में महारत हासिल कर रखी है; इस कारण मैं तीसरे या चौथे दर्जे के मसखरों के लिए भी अनिवार्य हो गया हूं, जो डरे रहते हैं—और उनके डरने के अच्छे कारण हैं—कि उनके श्रोता उनकी पंच लाइन सुनने से चूक जाएंगे, इसलिए मैं अपनी अधिकतर शामें नाइट क्लब में एक तरह के समझदार किराये के प्रशंसक के रूप में बिताता हूं, मेरा काम कार्यक्रम के कमजोर हिस्सों में जोरदार हंसी हंसने का होता है। इस हंसी का समय माकूल होना चाहिए: मेरी हृदय से निकली प्रबल हंसी न तनिक जल्द आ सकती है और ना ही ज़रा विलम्ब से, उसे एकदम सही वक्त पर छूटना होता है: पूर्व निर्धारित पल पर जैसे ही मेरी हंसी छूटती है, समूचे श्रोता ठहाके लगाने लगते हैं और इस तरह चुटकुला काम कर जाता है।

पर जहां तक मेरा मामला है, थका-मांदा मैं खुद को ग्रीन रूम तक खींचता हूं, इस खुशी में अपना कोट उठाता हूं कि आज का दिन ख़त्म हुआ और अब घर जाना है। घर पर मेरा इंतज़ार कुछ ऐसे तार कर रहे होते हैं: ‘आपकी हंसी चाहिए, तुरंत। रिकोर्डिंग मंगवार को है’। और कुछ ही घंटो में अपने भाग्य को कोसते हुए मैं किसी रेलगाड़ी की भीषण गर्मी में सफ़र कर रहा होता हूं।

शायद ही बताना पड़े कि रोज के काम के बाद या छुट्टियों के दौरान मेरा हंसने का जी नहीं होता। ग्वाले कुछ पल के लिए खुश तभी हो पाते हैं, जब अपने मवेशियों को भूल सकें, राजमिस्त्री की खुशी गारे और सीमेंट के मशाले को भूलने में निहित है, बढ़इयों के घर के दरवाजे और दर्ज अक्सर टूटे या खराब मिलते हैं। हलवाई अचार के मुरीद मिलते हैं तो कसाई बादाम की मिठाई के और बेकरी के कारोबारी कबाब पसंद करते हैं; सांडो से लड़ने वाले शौकिया तौर पर कबूतर पालते हैं, मुक्केबाज अपने बच्चों की नाक से निकलता ज़रा-सा खून देखकर पीले पड़ जाते हैं: मुझे ये सारी बातें सहज जान पड़ती हैं, क्योंकि ‘ड्यूटी’ के बाद मैं कभी नहीं हंसता। मैं गंभीर इंसान हूं और लोग मुझे निराशावादी मानते हैं।

अपनी शादी के पहले कुछ वर्षों तक मेरी पत्नी अक्सर मुझसे कहती थी, ‘हंसों ना!’ लेकिन फिर उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं उसकी यह ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकता। जब भी मुझे नितांत एकांत में अपने चेहरे की मांसपेशियों को और आत्मा के तनाव को ढीला छोड़ने का मौक़ा मिलता है, मुझे खुशी होती है।

दूसरों की हंसी भी मेरी मन-मस्तिष्क में खटके की तरह लगती है, क्योंकि इससे मुझे अपने पेशे की याद आ जाती है। हमारा वैवाहिक जीवन शान्तिपूर्वक बीत रहा है, क्योंकि मेरी पत्नी भी हंसना भूल चुकी है: जब कभी मैं उसे मुस्कुराते हुए पाता हूं तो जवाब में मैं भी मुस्कुरा देता हूं। हमारे आपस का संवाद भी धीमी आवाज में होता है, क्योंकि नाईट क्लबो के शोर को मैं नापसंद करता हूं और उस शोर को भी, जो कभी-कभी रिकॉर्डिंग स्टूडियो में भर जाता है। जो लोग मुझे ठीक से नहीं जानते वे मुझे चुप्पा बुलाते हैं। यह सच भी हो सकता है, क्योंकि मुझे हंसने के लिए अक्सर मुंह खोलना पड़ता है।  

अगर कुछेक मुस्कुराहटों को बिसरा दूं तो समूचा मेरा जीवन भावशून्य कट रहा है। बाज दफे मैं खुद को इस बात पर चकित पाता हूं कि मैं कभी हंसा भी हूं  या नहीं। मेरे ख्याल में, नहीं। अपने सभी बहन भाइयों की स्मृति में मैं बेहद गंभीर इंसान की शक्ल में दर्ज हूं।

मैं अनेक तरीके से हंसता तो हूं, लेकिन मैंने अपनी ही हंसी को कभी नहीं सुना है।

 

 

 

हेनरिख बॉल
हेनरिख बॉल

21 दिसंबर, 1917 को जन्मे हेनरिख थियोडोर बॉल (हेनरिख बॉल) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के अहम जर्मन लेखकों में से एक हैं। हेनरिख को उनके लेखन के लिए जॉर्ज बुकनर अवार्ड (1967) और नोबेल पुरस्कार (1972) मिल चुका है। बॉल 30 साल की उम्र में पूर्णकालिक लेखक बन गए थे। उनका पहला उपन्यास 'डेर ज़ग वार पंक्टलिच'... 21 दिसंबर, 1917 को जन्मे हेनरिख थियोडोर बॉल (हेनरिख बॉल) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के अहम जर्मन लेखकों में से एक हैं। हेनरिख को उनके लेखन के लिए जॉर्ज बुकनर अवार्ड (1967) और नोबेल पुरस्कार (1972) मिल चुका है। बॉल 30 साल की उम्र में पूर्णकालिक लेखक बन गए थे। उनका पहला उपन्यास 'डेर ज़ग वार पंक्टलिच' (ट्रेन समय पर थी) 1949 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने कई उपन्यास, लघु कथाएं, रेडियो नाटक और निबंध लिखे। 16 जुलाई 1985 को उनका निधन हो गया।