ब्लैक होल नुमा हुकूमत: सऊदी राज्य की दरारों में संगठन

पास्कल मेनोरे की नई किताब "ग्रैवयार्ड ऑफ क्लेरिक्स" (मौलवियों का कब्रिस्तान) की समीक्षा करता हुआ यह लेख इस्लाम और सऊदी के बारे में कई मिथक ध्वस्त करता है। साथ ही हमें इस बात से भी अवगत कराता है कि दुनिया के बहुत से देशों में, चाहे वे अमरीका जैसे खुद को उदारवादी बोलें या भारत जैसे खुद को लोकतांत्रिक बोलें, सत्ताओं का चरित्र कमोबेश एक जैसा होता है, यानी विरोध को पूरी निर्दयता से कुचल देना। लेख में सऊदी में चल रहे दमन और उसके खिलाफ विरोध के बारे में विस्तार से बताया गया है। साथ ही उम्मीद की गई है कि अंधकार चाहे कितना ही घना क्यों न हो, एक न एक दिन रोशनी का सूरज ज़रूर उगता है।

ब्लैक होल नुमा हुकूमत: सऊदी राज्य की दरारों में संगठन

पटचित्र: istock 

अनुवादक: अक्षत जैन
स्त्रोत: The Baffler 

मैं सऊदी अरब में बीस साल पहले आई थी। मैं तब छोटी बच्ची थी। आज तक भी मेरे दिमाग में इस देश की सबसे खूबसूरत यादें उसी समय की हैं: चकाचौंध कर देने वाले सूरज के नीचे खड़ी आसमान छूती इमारतें, खाली फुटपाथों से घिरी गाड़ियों से जाम सड़कें, आर्मर्ड गेटों और सीमेन्ट की अनंत दीवारों से पैदा होता अनजाना डर। हालांकि मैं बच्ची थी, फिर भी मेरे शरीर ने इस परिवेश के व्यापक द्वेषभाव को महसूस कर लिया था। मैं तब भी देख सकती थी कि यह देश सार्वजनिक जीवन के लिए नहीं बना है।

भेदभाव सर्वव्यापक था। दुकानों और खाने-पीने की जगहों का लिंग के आधार पर बंटवारा किया हुआ था। यही हाल बहुत से दफ्तरों का, कुछ निजी घरों का और उन सब जगहों का भी था जहां किसी भी तरीके के ईवेंट आयोजित होते थे। राज्य में काम करने आए प्रवासी मजदूरों को और भी दूर रखा जाता था। वे सब जगह थे—निर्माण कार्य और सफाई करते हुए, टैक्सी चलाते हुए, फास्ट-फूड की चेनों में खाना परोसते, यहां तक कि सऊदी घरों में नर्स और नौकर की तरह भी—लेकिन वास्तव में वे कहीं नहीं थे, क्योंकि शोषक मजदूर कानूनों द्वारा चुप कराकर उन्हें उनके सबसे बुनियादी नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। साथ ही, उन्हें निर्वासन एवं कैद किए जाने के डर का शिकार बना दिया गया था। विशेष तौर पर दक्षिण एशिया और अफ्रीका से आए इन प्रवासियों की संख्या 2019 में लगभग 1.3 करोड़ थी। देश की जनसंख्या में एक-तिहाई से भी अधिक हिस्सा इनका था और कर्मचारियों की संख्या में इनका तीन-चौथाई हिस्सा था।

मुझे डर कर रहना सिखाया गया था। बहुत जल्द मेरे मन में यह बात बैठा दी गई कि लिंग संबंधी मापदंडों का पालन करना अनिवार्य है, कि सार्वजनिक स्थानों में राजनीति की बातें नहीं करनी है, कि हमेशा शक्तिशाली धार्मिक पुलिस से बचकर रहना है। मैं अमरीकी-अरब हूं, फिर भी मुझे वक्त के साथ समझ आया कि मेरा अमरीकी पासपोर्टमुझे सऊदी राज्य के सुरक्षा-तंत्र से नहीं बचा सकता। मैंने एक बार अपने परिवार की गाड़ी की पिछली सीट से सूर्यास्त की तस्वीर ली थी, जिसके बाद हमारी गाड़ी पर सुरक्षा कर्मचारियों का झुंड आ बरपा। चूंकि वे एक छोटी बच्ची को गिरफ्तार नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मेरे पिता को पूरी रात एक तकलीफदेह जेल में रखा।

इस दमघोंटू माहौल के खिलाफ सैंकड़ों सऊदी 14 अक्तूबर 2003 को रियाद की सड़कों पर उतर आए थे—उस कुख्यात दमनकारी राजतंत्र में यह ऐतिहासिक हादसा था। यह प्रदर्शन ठीक उसी समय रखा गया था, जब आंतरिक मामलों के तत्कालीन मंत्री प्रिंस नाएफ ने पहली मानवाधिकार कॉन्फ्रेन्स आयोजित की थी। कॉन्फ्रेन्स से विशेष प्रकार के सऊदी दोगलेपान की बू आ रही थी। सऊदी राज्य सिर्फ इसलिए पश्चिमी दर्शकों के लिए प्रगतिशील सुधार करने का नाटक कर रहा था, जिससे वह आंतरिक आतंकवादी उपकरणों को और सशक्त बना सके।

इस विरोध प्रदर्शन के कुछ ही समय पहले सऊदी सरकार ने नगरपालिका के चुनाव करवाने का अधकचरा वादा किया था। यह साफ तौर पर अमरीका को प्रभावित करने का प्रयास था, जो उस वक्त पड़ोसी इराक में एक विनाशकारी ‘लोकतंत्र-निर्माण’ अभियान में जुटा हुआ था। इसके पहले सऊदी अरब में कभी भी किसी को वोट डालने का अधिकार नहीं मिला था, लेकिन फिर भी प्रस्तावित चुनावों का प्रभाव, अगर वे असल में हो भी जाते तो भी न के बराबर होता। अक्तूबर में प्रदर्शन का आह्वान करने वाले निर्वासित सऊदी ऐक्टिविस्ट साद अल फकी ने न्यू यॉर्क टाइम्स को बताया कि इस तरह के प्रतीकात्मक संकेत तब तक बेमतलब हैं, जब तक कि सऊदी जनता को ‘अभिव्यक्ति कि आजादी और इकट्ठा होने की स्वतंत्रता’ नहीं मिल जाती।

अल फकी और उनके समर्थकों की मांगें पूरी नहीं हो पाईं। इसके बजाय, दो सौ से अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और तीन औरतों सहित कई दर्जनों को तीन महीने की जेल की सज़ा सुनाई गई। जबरदस्त सुरक्षा प्रतिक्रियाओं के चलते अगले कुछ हफ्तों और महीनों के अनुसूचित विरोध प्रदर्शन शुरू होने से पहले ही खत्म हो गए। इस दौरान, पश्चिम तट पर बसे मुख्य सऊदी शहर जेद्दाह में मुझे रियाद में घटती वारदातों की भनक तक नहीं लगी। अगर मैंने इसके बारे में सुना भी होता तो सिर्फ राज्य नियंत्रित मीडिया द्वारा, जो प्रदर्शनकारियों को बुरा-भला कहकर खारिज कर रही थी।

इस आधुनिक राजतंत्र पर अल सऊद परिवार ने 1932 से निरंतर बेरहमी से हुकूमत की है। तब से जिन भी लोगों ने किसी भी तरह की प्रत्यक्ष सार्वजनिक कार्रवाई करनी चाही, उन्हें ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। सऊदी शाही घराने ने विशाल अरब प्रायद्वीप पर धार्मिक अल्पसंख्यकों, राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों और अलग-थलग रहती खानाबदोश जनजातियों को ‘एकजुट’ कर इस राज्य का गठन प्रभुत्व जमाने के प्रति हिंसक प्रतिबद्धता के साथ किया था। इस राज्य ने बार-बार किसी भी तरह के विरोध का सामना—चाहे वह मजदूर आंदोलन हों या हाशिये पर धकेले गए शिया समुदाय का प्रतिवाद—बहुत तेजी और बेरहमी से किया। राज्य की हिंसा के डर से और देश की धार्मिक, शैक्षिक और सामाजिक ज़िंदगी पर राज्य के पूर्ण नियंत्रण के चलते अधिकतर लोगों के लिए सार्वजनिक विरोध के बारे में सोचना भी नामुमकिन हो गया।

2003 में रियाद में हुए विरोध प्रदर्शन की प्रतिक्रिया में सरकार ने नागरिकों की और सख़्त निगरानी करनी शुरू कर दी। अमरीका के ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ से प्रेरणा लेते हुए सऊदी अरब में ‘उग्रवाद विरोधी’ कानूनों की पूरी सीरीज लागू कर दी गई। इस तरह के अस्पष्ट उल्लंघन, जैसे ‘राज्य की लोक व्यवस्था को भंग करना’ या ‘राष्ट्रीय एकता को खतरे में डालना’ आतंकवादी अपराध के रूप में दंडनीय घोषित कर दिए गए। जबकि राज्य की लोकतंत्र विरोधी कार्रवाइयों को ‘सुरक्षा उपाय’ का नाम दे दिया गया। इस प्रकार, सऊदी अरब के कुलीन वर्ग ने तानाशाही कार्यनीति को सुविधापूर्वक उचित ठहराया और खुद वाशिंगटन के साथ ‘विशेष संबंध’ के लाभ उठाते रहे।

इस व्यापक क्षेत्र में लगातार होती बगावत को नजरंदाज करते हुए राज्य ने तब से भयानक-सी चुप्पी धारण की हुई है। जिन वारदातों को अरब स्प्रिंग के नाम से जाना जाता है, उनके दौरान सऊदी अरब की सड़कें अधिकतर चुप ही रहीं।  इसके बावजूद, मुख्य तौर पर शिया प्रभाव वाले पूर्वी इलाकों में जो थोड़ा-बहुत विरोध हुआ भी तो उसे पुलिस ने तेजी से दबा दिया। वहां, सुरक्षा एजेंसियों की गोलियों ने कई लोगों की जान ले ली और सैंकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। राज्य ने विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिबंध घोषित कर दिया। साथ ही और सख्त ‘आतंकवादी विरोधी’ कानून भी लागू कर दिए।

सभी संभावित मृत-दुनियाओं में सबसे धनी

2017 में नव-नियुक्त राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान ने राजनीतिक, अकादमिक, व्यापारिक और धार्मिक समुदायों के प्रमुख सदस्यों पर भयंकर क्रैक डाउन लागू कर दिया। इसके चलते, वास्तविक या केवल महसूस की गई असहमति के प्रति राज्य की शत्रुता नए स्तरों पर पहुंच गई। इसका सबसे अच्छा उदाहरण 2018 में की गई पत्रकार जमाल खशोगी की कुख्यात हत्या है।

आज के वक्त अनगिनत राजनीतिक कैदी जेलों में बंद हैं—अनुमान कुछ सौ से लेकर तीस हजार से भी ऊपर तक के लगाए जा चुके हैं। बहुतों को टॉर्चर झेलना पड़ा और लगभग सभी को उचित प्रक्रिया के बगैर कैद में रखा गया है। पर फिर, सऊदी अरब में स्वतंत्र नागरिक भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित हैं। राज्य का न तो कोई संविधान है और न ही कोई वैधानिक निकाय; इसके बजाय राज्य की सारी शक्ति कम होते कुलीन वर्ग के हाथों में है। बहुत लंबे समय तक सरकार ने असंतुष्टि को राज्य के विशाल राजकोष से सामाजिक कार्यों में पैसे खर्च करके और पब्लिक सेक्टर में नौकरियां देकर काबू में रखा। लेकिन हाल के सालों में तेल के दामों में भारी गिरावट के चलते इन नीतियों को वापस ले लिया गया। राजकोष में पैसे कम पड़ने लगे और इसका सबसे बुरा असर उसी मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है, जिसका राज्य ने खुद निर्माण किया था।    

सऊदी हुकूमत ने ऑनलाइन राजनीतिक बातचीत पर भी प्रतिबंध लगाने की पूरी कोशिश की है। उन्होंने ट्विटर बॉट की सेनाओं से लेकर निजी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों की बातचीत पर नजर रखने और उन पर मुकदमा चलाने के लिए साइबर सिक्युरिटी टेक्नॉलजी पर भारी खर्च किया है। देश में सारे अधिकृत मीडिया आउटलेट पूरी तरह से सरकार समर्थक हैं। कठोर और नरम दोनों शक्तियों पर सऊदी राज्य पूरे एकाधिकार के साथ लगभग सर्वाधिकारी हो गया है। जैसा कि पास्कल मेनोरे अपनी नई किताब ग्रैवयार्ड ऑफ क्लेरिक्स  (मौलवियों का कब्रिस्तान) में लिखते हैं, सऊदी अरब आज एक ‘मृत-दुनिया’ में तब्दील हो गया है, जहां राजनीतिक संलाप निर्जीव सरकारी प्रचार और सर्वव्यापी हिंसा के डर के बीच कब्र में कैद है।

फिर भी यह कहानी का एक ही हिस्सा है। किसी भी तानाशाही हुकूमत की तरह, सऊदी का पुलिस राज्य भी त्रुटिपूर्ण है; लोग अभी भी विरोध करने का साहस, जरूरत या गुस्सा ढूंढ लेते हैं, चाहे फिर वह विरोध ज़रूर ही कमजोर और अस्थायी क्यों न हों। सालों से रिसर्च और पत्रकारिता का काम करते हुए, मुझे कई राज्य विरोधियों की कहानियां सुनने को मिली हैं। राज्य के दमन के कारण जिनके बारे में आजकल कम ही लोग जानते हैं। अलग-अलग राजनीतिक परिप्रेक्ष्य रखने वाले एक्टिविस्ट और सुधारकों से मिलकर मैं लोजेन अल-हथलूल, अज़ीज़ा अल-यूसुफ, हतून अल-फ़सी और एमन अल-नफ़जान जैसी औरतों की कहानियां सामने ला पाई हूं, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के कई साल गाड़ी चलाने के हक के लिए लड़ने और पितृसत्तात्मक पुरुष संरक्षकता प्रणाली को ध्वस्त करने में लगा दिए। मैं यूरोप और अमरीका में कई सऊदियों से मिली हूं, जिनको अपने विचारों के लिए राज्य द्वारा निशाना बनाए जाने पर अन्य देशों में शरण लेनी पड़ी। मैंने सऊदी में कैद क्रांतिकारियों के कई दर्जन परिवारवालों से भी बात की है—उनमें से अधिकतर अपने चाहने वालों के गायब हो जाने से हक्के-बक्के हैं और सभी परेशान और डरे हुए हैं।

इस पृष्ठभूमि के साथ मैंने मेनोरे की किताब पढ़ी, जो सऊदी राजतंत्र में एक्टिविज़्म के इतिहास की जांच करती है। मेनोरे अक्तूबर 2003 कि प्रोटेस्ट से शुरूआत करते हुए विस्तार में बताते हैं कि कैसे लोकतांत्रिक सहभागिता की मुख्यधाराओं से वंचित होने और ऐसे शहरी वातावरण में कैद होने पर जिसमें से जानबूझकर ‘सार्वजनिक चौकियां’ हटा दी गई हैं, सऊदी क्टिविस्टों ने उपनगर, मस्जिद और स्कूल जैसे राज्य द्वारा स्वीकृत स्थानों को प्रच्छन्न राजनीतिक कार्यों का केंद्र बना लिया। मेनोरे ने मानव विज्ञान में ट्रेन होने के बाद 2000 के दशक में सऊदी अरब में चार साल फील्ड रिसर्च की। अपनी आंखों देखी घटनाओं और इंटर्व्यूज़ के ज़रिए उन्होंने ‘रोजमर्रा के क्टिविस्टों’ की तकदीर और उनके राज्य के साथ विरोधाभासी संबंधों के ऊपर टिप्पणियां लिखीं। 

ग्रैवयार्ड मेनोरे की सऊदी अरब के ऊपर लिखी तीसरी किताब है। इसके पहले वह सऊदी एनिगमा (2005)—आधुनिक राज्य का इतिहास—और जॉयराइडिंग इन रियाद (2014)—यूथ कल्चर, गाड़ी दौड़ाने और शहरी ज़िंदगी का मानवविज्ञानी बोध—लिख चुके हैं। उनका काम ‘सामान्य’ सऊदी ज़िंदगियों को बारीकी से और अक्सर थोड़े अस्त-व्यस्त रूप में दिखलाता है। यह किताब मीडिया में दिखने वाले देश के संकीर्ण राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण से बिल्कुल अलग है। शायद इसीलिए इसको पढ़कर सऊदी अरब को देखने का नया नज़रिया भी मिलता है। ग्रैवयार्ड में मेनोरे बंटें हुए पर डटे हुए आंदोलन—या आंदोलनों—की तस्वीर पेश करते हैं, जिसको देखकर सऊदी राजतंत्र के बारे में थोड़ा-बहुत जानकारी रखने वाले कई पश्चिमी लोगों को आश्चर्य होगा।  

यहां पुनर्जागरण हुआ है

सऊदी में निजी और सार्वजनिक ज़िंदगी को आकार देने वाली धार्मिकता का उल्लेख किए बगैर वहां की राजनीति पर किसी भी तरह का विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता। हालांकि सऊदी अरब को अक्सर ‘रूढ़िवादी’ या ‘कट्टर-धार्मिक’ राष्ट्र कहा जाता है, वहां पर इस्लाम की भूमिका बहुस्तरीय और अति-सूक्ष्म है। सतही तौर पर, सऊदी सत्ताधारी वर्ग राजनीतिक एवं क्रियात्मक किस्म की धार्मिकता का समर्थन करता है, जो उनके वहाबियों के साथ ऐतिहासिक संबंधों की उपज है। अठारहवीं शताब्दी में जन्मा वहाबी, इस्लाम का विशुद्धिवादी पंथ है। पिछले कुछ सालों में, शेख अब्दुलअज़ीज़ बिन बाज़ जैसे वहाबी मौलवियों ने सऊदी शाही परिवार को फतवे जारी करके वैधता प्रदान की है। इनमें 1990 का वह कुख्यात फतवा भी शामिल है, जिसके तहत अमरीकी सेना को सऊदी में आने की इजाज़त दी गई थी।

सरकार का समर्थन करने के बदले वहाबियों को सार्वजनिक स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों, नौकरशाही और ग्रैंड मुफ्ती के पद पर प्रभावशीलता प्रदान की गई, जिसके द्वारा उन्हें सऊदी अरब के सामाजिक और धार्मिक जीवन में व्यापक शक्ति मिली। उन्होंने अपनी विचारधारा को दूसरे मुल्कों में फैलाने के लिए भी सऊदी धन का पूरा इस्तेमाल किया। इसमें दुनियाभर में बनाए गए सैकड़ों मदरसे और मस्जिद शामिल हैं। शाही परिवार के कई सदस्यों ने वहाबियों की शक्ति पर लगाम लगाने की कोशिश की, पर उन्हें खास कामयाबी हासिल नहीं हो सकी, क्योंकि राजनीतिक संकट के दौरान वहाबियों के समर्थन पर उनकी निर्भरता और बढ़ जाती है। अपने आपको उदारवादी और आधुनिकतावादी कहने वाले मोहम्मद बिन सलमान ने भी मौलवियों की इस शक्तिशाली स्थिति में किसी भी तरह की कोई अड़चन पैदा नहीं की। 

हालांकि, वहाबियों के स्वार्थी उपक्रम के साथ-साथ सऊदी में दशकों पुराना धार्मिक-राजनीतिक आलोचना का आंदोलन भी चल रहा है। मेनोरे की किताब इस आंदोलन का विशेष रूप से उल्लेख करती है, जिसको मोटे तौर पर सहवा या ‘इस्लामी अवेकनिंग’ के नाम से जाना जाता है। 1960 के दशक में ख्याति पाने वाला यह आंदोलन ऐसा व्यापक सामाजिक संगठन है, जो कुरान की भाषा और मस्जिद में होने वाले क्रिया-कलापों का इस्तेमाल सऊदी राज्य के प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए करता है। इसने समय के साथ सलफ़ी से लेकर मुस्लिम ब्रदरहुड तक बहुत से धार्मिक गुटों को अपने साथ जोड़ा है।

इस अवेकनिंग या पुनर्जागरण की जटिल और धुंधली धार्मिक वंशावली को विस्तार से समझने के लिए मेनोरे कड़ी मेहनत करते हैं। फिर भी वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इस आंदोलन को इसकी विचारधारा से नहीं, बल्कि इसके कार्यों से परिभाषित किया जाना चाहिए। वह लिखते हैं कि ‘पश्चिम की “इस्लामवाद” के बारे में धारणाओं के विपरीत इस्लामी कार्य गतिशील होते हैं और आचरण की ओर इशारा करते हैं, न की पाठ और सिद्धांत की ओर। जैसे अधिकतर धार्मिक लोग प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट नहीं होते, बिल्कुल उसी तरह यह भी हो सकता है कि अधिकतर एक्टिविस्ट निष्ठावान धार्मिक न हों।’

मेनोरे इस्लामी क्रिया को उत्तर-उपनिवेशी आलोचना के रूप में पेश करते हैं। हर तरफ से घिरे हुए एक्टिविस्टों ने सऊदी तानाशाही और पश्चिमी साम्राज्यवाद की दोहरी संरचना का विरोध करने के लिए धार्मिक प्राधिकरण को अपनाया है। पश्चिमी साम्राज्यवाद को बहुत से अवेकनिंग ऐक्टिविस्ट सऊदी राज्य की स्थापना के साथ जोड़ते हैं। 1940 के दशक में बने अल सऊद घराने के शुरुआती क्रैकडाउन राज्य में अमरीकी तेल हितों का विरोध कर रहे नागरिकों पर हुए थे। बहुत समय से अमरीकी ट्रेनिंग, आसूचना और हथियार सऊदी हुकूमत की बेरहम आंतरिक शक्ति के मुख्य स्तंभ रहे हैं।

ताजा उदाहरण  9/11 के बाद अमरीका और सऊदी अरब के बीच बने आतंकवादी विरोधी ‘सहयोग’ के उपयोग का है। इस ‘पागलपन’ का इस्तेमाल सऊदी में राजनीतिक असहमति को और निर्दयी तरीके से दबाने के लिए किया गया। मेनोरे लिखते हैं कि

मेरे बहुत से वार्ताकारों के लिए दमन और उदारवाद एक-दूसरे के विपरीत नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उदारवादी कारणों का हवाला देकर ही सऊदी राज्य ने सभी तरीके की राजनीतिक गतिविधियों का दमन किया: [शाही परिवार] और उसके मित्रों ने नियमानुसार सभी ऐक्टिविस्टों को उग्रवादी और आतंकवादी करार कर दिया . . . [और] उदारवादी कारणों से ही यूनाइटेड स्टेट्स और यूरोप दुनिया में सबसे ज्यादा दमनकारी हुकूमतों का समर्थन कर रहे हैं।            

इस्लामी अवेकनिंग के ऐक्टिविस्टों ने अक्सर सऊदी राज्य की ज़ाहिरी धार्मिकता का इस्तेमाल उसके ही खिलाफ किया है। उनका कहना है कि सऊदी राज्य ने आधुनिक दौर के ‘क्रूसेडर’ अमरीका के वास्ते इस्लामी समुदाय को बेच खाया है। (इन्हीं कारणों से ओसामा बिन लादेन ने भी शाही परिवार को हिंसक तरीके से उखाड़ फेंकने की वकालत की थी।) इस आंदोलन की नज़र समकालीन भू-राजनीति पर है, फिर चाहे उन्होंने इसको मध्यकालीन झगड़ों की भाषा में क्यों न रखा हो। यह बात ज़ोर देने लायक है। अमरीका में बसे अकादमिक और अवेकनिंग के मुख्य मौलवियों में से एक सलमान अलाउद के बेटे अब्दुल्ला अलाउद ने मुझे बताया कि ‘इस्लामी अवेकनिंग के सभी ऐक्टिविस्ट निश्चित तौर पर बहुत धार्मिक नहीं हैं’। अलाउद ने आगे कहा कि वे अक्सर पश्चिमी विचारों और इस्लामी तालीम को एक साथ जोड़ते हैं:

मिसाल के तौर पर ‘बयाह’ शब्द को ले लीजिए, जिसका मतलब राजनिष्ठा से है। सऊदी सरकार ने इस तालीम का इस्तेमाल कर लोगों को वश में किया, उनसे वफादारी की मांग की और उनके ऊपर पूरा कंट्रोल कर लिया। अवेकनिंग ऐक्टिविस्ट इस शब्द की जड़ों तक गए और इसकी तुलना जॉन लॉक के सामाजिक संविदा के विचार के साथ करने के बाद उन्होंने कहा कि हुकूमत और अवाम दोनों ही को कुछ नियमों और कर्तव्यों का पालन करना होता है। उन्होंने लोगों के प्रति की गई सरकार की गलतियों को देखा और धार्मिक नज़रिए से उनकी आलोचना भी की।                          

अलाउद के पिता को सार्वजनिक रूप से यह आलोचना करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी। वह पहली बार 1992 में सऊदी हुकूमत की नज़र में आए, जब उन्होंने प्रथम गल्फ युद्ध के दौरान अमरीका का सहयोग करने के लिए सऊदी हुकूमत की मुखर आलोचना की। दो साल बाद, उन्हें दुर्लभ सार्वजनिक प्रदर्शन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया और पांच साल तक जेल में रखा गया। इसके दो दशक बाद, 2017 में, वह उन पहले लोगों में से थे जिन्हें बिन सलमान के व्यापक क्रैकडाउन के दौरान सुरक्षाकर्मियों ने उठा लिया था। आज, वह जेल में हैं और मृत्युदंड का सामना कर रहे हैं। आधिकारिक तौर पर प्रतिबंधित, उनके उपदेश कैसिटों पर समीज़दात (राज्य द्वारा प्रतिबंधित साहित्य की नकल और वितरण) के रूप में प्रसारित हो रहे हैं। अभी हाल ही में, वह और उनके सहयोगी सोशल मीडिया पर भी उतर आए हैं। जेल में कैद होने के बावजूद अलाउद के 1.3 करोड़ ट्विटर फॉलोअर्स हैं। मेनोरे के बहुत से वार्ताकार बताते हैं कि वे क्टिविज़्म में अलाउद से प्रेरित होकर आए हैं।

दृश्यमान अल्पसंख्यक   

जिन क्षेत्रों को मिलाकर आधुनिक समय का सऊदी अरब बना है, उन पर ऐतिहासिक तौर से खानाबदोश जनजातियां बसी हुईं थीं। सऊद परिवार की प्रायद्वीप पर विजय के बाद इस इलाके के शहरीकरण और मज़दूरीकरण ने उस विरासत को बर्बाद और व्यापक तौर पर बदनाम कर दिया। सऊदी समाज के प्रति मेनोरे का लगाव स्पष्ट है, और कभी-कभी तो वह अपने आप को सऊदी और खासकर खानाबदोश जनजातियों की प्रामाणिकता के वकील के रूप में पेश करते दिखते हैं। वह ‘एक समय पर सुंदर दिखने वाले रास्तों’ और इ ‘उपनगरों के काल’ के पहले बने ‘आलीशान आंगन वाले घरों’ की क्षति का शोक मनाते हैं। साथ ही वह पारंपरिक मूल्यों की क्षति के ऊपर भी दुख प्रकट करते हैं—लेकिन इस आलोचना से उनके सभी वार्ताकार वास्ता नहीं रखते।

ग्रैवयार्ड लगभग पूरी तरह से मर्दों तक सीमित है। 2000 के दशक के प्रारंभ में कड़े लैंगिक भेदभाव के कारण थोपी गई बाधाओं की वजह से यह होना अनिवार्य भी था, लेकिन मेनोरे सऊदी औरतों के अनुभवों को समझने के लिए विदेशी स्त्रोतों का इस्तेमाल करने की कोशिश कर सकते थे। यह भी नोट किया जा सकता है कि मेनोरे इस बात को बहुत कम तवज्जोह देते हैं कि कैसे कुछ अवेकनिंग ऐक्टिविस्टों ने औरतों के बारे में बहुत ही समस्यात्मक बयानों का समर्थन किया है। हालांकि, विशेष लिंग पर अपना ध्यान केंद्रित करने की वजह से मेनोरे ऐसे ग्रुप के साथ सहानुभूति व्यक्त कर पाए हैं, जिसको अक्सर भला-बुरा कहा जाता है—यानी युवा सऊदी पुरुष।

देश की जनता का यह वर्ग बहुत समय से संदेह का पात्र रहा है, अपने खुद के देश में भी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी। ‘युवा’ को सऊदी समाज के अलग वर्ग के रूप में देखने की सामाजिक धारणा 1960 के दशक में उभरी, जब आसमान छूते तेल के दामों और दिहाड़ी मजदूरी के चलते पहली बार भारी तादाद में औपचारिक अवकाश उपलब्ध हो पाया था। ज्यादा पढ़े-लिखे और खाली वक्त वाले सऊदी युवाओं, खासकर पुरुषों के साथ सरकार और अवेकनिंग ऐक्टिविस्ट दोनों का जूझना ज़रूरी हो गया था। अपने समय के अन्य सामाजिक आंदोलनों की तरह, अवेकनिंग ने भी युवाओं को आकर्षित करने के लिए आउटरीच प्रोग्रामों और राजनीतिक शिक्षण का सहारा लिया। अक्सर उन्होंने इन प्रोग्रामों की मार्केटिंग बोरियत दूर करने के तरीके के रूप में की।

इन प्रयासों ने सऊदी अफसरशाही की बेचैनी बढ़ा दी; उन्हें इस ग्रुप में राजनीतिकरण और धार्मिक कट्टरता दोनों के बढ़ने का डर था। युवा को ‘सऊदी अरब का खतरनाक वर्ग’ घोषित करने के बाद, सरकार ने कहा कि इनको ‘देखरेख की जरूरत है’ और उन्होंने अपने खुद के सामाजिक कार्यक्रम आरंभ कर दिए, जिनका मकसद युवा पर नियंत्रण और उनका अनुकूलन करना था। 1970 के दशक में सरकार ने जनरल प्रेज़िडन्सी फॉर यूथ पैट्रनेज की स्थापना की। इसके द्वारा एथलेटिक कार्यक्रमों और स्विमिंग पूलों का प्रायोजन किया गया, जिससे युवाओं का राजनीति से ध्यान भटकाया जा सके। इसी तरह, नेशनल गार्ड के चलाए गए जनाद्रियह फेस्टिवल से राज्य-स्वीकृत राष्ट्रवाद द्वारा जनमानस में नागरिक गौरव विकसित करने की कोशिश की गई। मेनोरे लिखते हैं कि राजतंत्र के लिए ‘जन आंदोलनों को कुचलना और युवा का मनोरंजन करना जीवित रहने के लिए ज़रूरी हो गया था।’ वह इस्लामी अवेकनिंग को अलगाव और मताधिकार से वंचित होने से पैदा होने वाली तकलीफों से निपटने का अधिक सार्थक तरीका समझते हैं। अवेकनिंग ने ‘सऊदी की कई पीढ़ियों को उद्देश्य’ प्रदान किया और ‘मिडल क्लास और लोअर मिडल क्लास के सदस्यों का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान बढ़ाने में (मदद की)’। 

मेनोरे के साथ रियाद के ‘दुष्कर’ मोहल्लों में सफर करने के बाद पाठक के लिए सऊदी आत्म प्राप्ति का महत्व और ज्यादा उभरकर सामने आता है। मेनोरे विस्तार से बताते हैं कि सऊदी अरब के वंचित लोगों को किस तरह के भेदभाव और रोजमर्रा की हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह ‘बिदुन’ या ‘वंचित’ वर्ग दूर-दराज के उपनगरों में कैद है, जहां सड़कें कचरे से भरी हैं और उदासीन युवा रात को गैड़ी मारा करते हैं। इनमें से बहुत से लोग ग्रामीण इलाकों से आए हाल ही में बसे प्रवासी हैं, जिनको शहरों में बसे पुराने लोग ड्रग्स और हिंसा के साथ जोड़ते हैं और तिरस्कार से खानाबदोश बोलते हैं। मेनोरे के कुछ वार्ताकार व्यावहारिक तौर पर राज्यविहीन हैं। चूक हो जाने या उपेक्षा के कारण उनको सऊदी नागरिकता नहीं प्राप्त हो पाई है। अक्सर, जब वे गांव से शहर आते हैं तो उनके नए बसेरे को आधिकारिक वैधता नहीं मिलती। इस तरह के राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसे होने के कारण उनकी आर्थिक असुरक्षा और बढ़ जाती है और उससे उनके रोष और अलगाव को और आग मिलती है। इस सब के विरोध में मेनोरे पुलिस स्टेशन की दीवार पर यह पेंट किया हुआ पाते हैं: ‘हम पर कोई शासन नहीं करता’।

मैंने भी इन मोहल्लों की ग्रैफिटी से भरी जर्जर दीवारों को देखा है, जिनकी तुलना मेनोरे फ्रेंच बॉनलिउ से करते हैं। औरत के तौर पर, मुझे इन इलाकों में विशेष अलगाव महसूस हुआ, जहां शादाब या युवा लड़कों के गुट उद्देश्यहीन बेचैनी से इधर-उधर घूमते रहते हैं। हो सकता  है कि वे हिंसक या दमनकारी घरों से निकलकर राहत ढूंढ रहे हों, लेकिन उनकी मां, बहनों और बीवियों के पास इस तरह का कोई विकल्प नहीं है। जैसा कि मेनोरे भी नोट करते हैं, इन उपनगरों में जहां मूल परिवार एक-दूसरे से अलग-अलग रहते हैं, औरतों का अलगाव और भी गहरा हो जाता है। और तो और, 2018 तक औरतों को गाड़ी चलाने की भी अनुमति नहीं थी, जिस कारण परिवार के पुरुषों पर उनकी निर्भरता और भी ज्यादा थी। 

सभी गाड़ियों को आह्वान           

रियाद के मोहल्लों में ड्राइव करने के अनुभव के बारे में बात करते हुए मेनोरे किताब में उल्लेख की गई मुख्य चिंताओं में से एक पर पहुंचते हैं: अर्बन प्लैनिंग और राजनीतिक कंट्रोल का आपसी खेल और विशेष तौर पर उपनगर बनाने की प्रक्रिया। यहां वह 1930 में शक्तिशाली तेल कंपनी के आगमन का विवरण पेश करते हैं, जिसे बाद में Aramco (अरामको) के नाम से जाना गया। बादशाह के साथ किए गए पहले कॉनट्रैक्ट के कुछ सालों बाद अरामको ने अपने अमरीकी कर्मचारियों के लिए पूर्वी प्रांत में ‘कैलिफोर्निया शैली में उपनगरों’ का निर्माण करना शुरू किया। मगर कंपनी ने सऊदी मजदूरों या कूलियों के लिए कुछ नहीं किया और उनको अलग और बुरे हालातों में रखा।

सऊदी मजदूरों के साथ किए गए बुरे बर्ताव के कारण 1940 और 50 के दशक में हड़तालों और बस बॉयकाट सहित कई विद्रोह हुए, मगरउन सभी को बड़ी बेरहमी से दबा दिया गया। मजदूरों की मांगें सुनने के बजाय सऊदी अधिकारियों ने अरामको के हाउज़िंग मॉडल को सहमति दे दी। उन्होंने और अधिक ग्रिड के आकार के विभाजन कर दिए, जिससे इलाका ‘पुलिसिंग करने के लिए आसान हो जाए’। रियाद नगर पालिका ने 1940 के दशक से ही मोहल्लों में उस तरह के विभाजन करने शुरू कर दिए थे, जैसे पूर्व में बने ‘अरामको के लेवीटाउन’ में किए गए थे।

इलाके में सऊदी तेल इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण ऊबड़-खाबड़ विकास जारी रहा, और असमान कार्य-दशा ने प्रदर्शनों, हड़तालों और बॉयकाटों को भड़काया। इस सबसे घबराकर सऊदी सरकार सिटी प्लैनिंग पर और अधिक ज़ोर देने लगी। बढ़ती शहरी आबादी को कंट्रोल करने के लिए उन्होंने यूरोपीय योजनाकारों को नियुक्त किया। इन सलाहकारों में ग्रीक आर्किटेक्ट कॉनस्टैनटिनोस डोहीआडिस का विशेष तौर पर उल्लेख किया जाता है, जिन्होंने सऊदी सरकार को ऐसे सुपर ब्लॉक और मुख्य सड़के बनाने का सपना बेचा, जिनसे शहर के निवासियों की ‘जहरीले राजनीतिक आदर्शों’ से ‘हिफ़ाज़त’ की जा सके।

जब तेल ज़ोरों-शोरों से बिकने लगा, तो शहर उन आयामों से बहुत जल्द आगे निकल गए जिनकी डोहीआडिस ने कल्पना की थी। 1976 और 87 के बीच रियाद का विकसित क्षेत्र 1,000 गुना से भी ज्यादा बढ़ गया। उसके निवासी ‘दूर-दराज के समतल, एक जैसे नीरस ग्रिड’ में फैल गए। सार्वजनिक परिवहन के अभाव में ज़िंदगी पूरी तरह गाड़ियों पर निर्भर हो गई और सऊदी समाज मेनोरे के शब्दों में ‘नागरिक-कम्यूटर की दुनिया’ में तब्दील हो गया। यह अबाधित फैलाव सऊदी हुकूमत के लिए दो धारी तलवार जैसा था। सुनसान और बिखरे हुए, शक्ति केंद्रों से दूर, इन उपनगरों में इस्लामी अवेकनिंग ऐक्टिविस्टों की नई पीढ़ी का जन्म हुआ, जिन्होंने छोटे-छोटे गुटों का ऐसा नेटवर्क तैयार किया जो सुदूर मोहल्लों को जोड़ने के काम आया।

इस खंडित संगठनात्मक संरचना में ‘गाड़ियों के ग्रुपों’ की मुख्य भूमिका रही। प्रत्येक गाड़ी ग्रुप में एक ऐक्टिविस्ट लीडर और कुछ पुरुष विद्यार्थी थे। लीडर-ड्राइवर स्कूल या मस्जिद जाते विद्यार्थियों को गाड़ी में उठाकर उन्हें धार्मिक और राजनीतिक गतिविधियों से जोड़ने का काम करते। इस दिनचर्या से एक तरह का सौहार्द उत्पन्न हुआ, जो अन्य सामाजिक कार्यक्रमों तक भी बढ़ा, जैसे एक साथ खाना खाने या मनोरंजन के लिए ट्रिप पर जाना। कइयों के लिए यह दोस्ताना ही अवेकनिंग का मुख्य आकर्षण बन गया। मेनोरे लिखते हैं कि इस अकेलेपन के युग में, यह आंदोलन ‘उपनगरों में ड्राइव करने और दूर-दराज के इलाकों में फैले अलग-अलग लोगों को साथ लाने की क्षमता पर आधारित था’।

बहुत से किशोरों के लिए जागरूकता इन ग्रुपों से जुड़ना—जो कि हैरी पॉटर बुक क्लब से लेकर आत्म-सुधार के सेमिनारों तक हो सकते थे—प्राथमिक और मुख्य तौर पर घरेलू विद्रोह था। साथ ही सिर पर खड़े रहने वाले माता-पिताओं से बचने का बहाना भी। सोने पे सुहागा यह था कि ये माता-पिता अपने बेटों की स्कूल या मस्जिद में आकस्मिक रुचि को देखकर खुश भी थे। बारहवीं कक्षा के एक अवेकनिंग ऐक्टिविस्ट ने बताया कि कैसे आंदोलन से जुड़ना उसके लिए ‘अपने घर से आज़ादी’ घोषित करने जैसा था। हालांकि, इस सरल विपरीत विकल्प से आगे चलकर ‘उसकी ज़िंदगी बदल गई’। अवेकनिंग के प्रोग्राम्स में भाग लेने से उसके अंदर सांप्रदायिक पहचान और नागरिक कर्तव्य की भावना जागृत हुई। उसने मेनोरे को बताया, ‘आज के समय में हमारी स्थिति दयनीय है, और जब आप इतिहास में पढ़ते हैं कि हमारी सभ्यता एक समय पर कितनी महान हुआ करती थी, तो यह बात आपके दिल में घर बना लेती है और आप वापस उसी स्थिति में जाना चाहते हैं। लेकिन आपकी रुचि जगाने के बाद असल मुद्दा खड़ा होता है कि आखिर इसे कैसे किया जाए? आप कर भी क्या सकते हैं?’

यही सवाल ग्रैवयार्ड के ऊपर भी मंडराता रहता है। इस तथ्य को नजरंदाज करना मुश्किल है कि अधिकतर अवेकनिंग ऐक्टिविस्ट बाहरी दुनिया बदलने के लिए बहुत मुश्किल से ही कुछ कर पाते हैं। आत्म-सम्मान के बीज बोने और धार्मिक एवं सामाजिक मुद्दों में रुचि को बढ़ावा देने के अलावा इन ग्रुपों की बनावट ही ऐसे होती है कि ये राजनीति से परे रहें। ज्यादा मुखर हो गए धार्मिक लीडरों की समय-समय पर गिरफ़्तारी ने व्यावहारिक तौर पर अवेकनिंग के राजनीतिक संदेश को मूक कर दिया है। सरकारी स्कूलों और मस्जिदों में, जहां वे संगठित होते हैं, पहुंच बनाए रखने के लिए अवेकनिंग के लीडरों को अपने राजनीतिक इरादे छिपाने पड़ते हैं और ‘कुछ ज्यादा ही धार्मिक’ नहीं होने की दिखावट भी करनी पड़ती है। इस तरह से बाधित होने की वजह से इन ग्रुप्स ने निराशा के कारण कई सदस्य खो दिए, या फिर उनके सदस्य आत्म-सुधार में विलीन हो गए और सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों को पूरी तरह भूल गए। मेनोरे लिखते हैं, ‘मुझे ऐसा लगा कि बहुत से ऐक्टिविस्ट एक हाथ में कुरान लिए हैं और दूसरे हाथ में अधिक प्रभावी लोगों की सात आदतें।’

राजतंत्र में दरारें

वास्तव में ग्रैवयार्ड पढ़ कर हम निराशा, लालसा और निरर्थकता की व्यापक भावना महसूस करते हैं। जब तक मेनोरे अपने आखिरी अध्याय, ‘लीविंग इस्लामिक ऐक्टिविज़्म बिहाइन्ड’ तक पहुंचते हैं, तब तक इस किताब का शीर्षक अपरिहार्य लगने लगता है। वह ‘राजनीतिक क्षेत्र में बने शून्य से और उस परिवेश में किसी भी तरह का संगठन तैयार करने की असंभावना से’ थककर अपने पुराने ग्रुप्स से अलग हो रहे अपने वार्ताकारों की बढ़ती नकारात्मक निराशा को नोट करते हैं। किताब पढ़कर ऐसा लगता है कि यह निराशा मेनोरे के दिल को छू लेती है; वह कबूल करते हैं कि वह अपने चारों ओर ‘उपनगरों की विशालता’ से अभिभूत हो गए हैं। किताब के अंत में मेनोरे यह कहने के बहुत करीब होते हैं कि खेल ‘राज्य के कुलीन वर्ग’ ने जीत लिया है, जो ‘अभी तक चीजें कंट्रोल कर रहे हैं . . . जो पुलिस के दमन के कारण बचे हुए हैं . . . और उस विशाल फैलाव के कारण भी, जो उन्होंने सब्र के साथ बनाया है’।

लेकिन फिर भी ग्रैवयार्ड के आखिरी वाक्य भले ही बहुत थोड़ी-सी ही सही, पर आशा की कुछ गुंजाइश तो छोड़ते हैं। मेनोरे दावा करते हैं कि सऊदी अरब के बारे में पारंपरिक समझ जरूरत से ज्यादा नकारात्मक रही है। किसी भी तरह का विरोध कर पाने के लिए वह अवेकनिंग की प्रशंसा करते हैं और उन लोगों से बैर रखते हैं, जो सिर्फ इस आंदोलन के संस्थागत प्रभाव आंकने पर तुले हैं। वह शायद ऐसा पाठकों को समझाने के लिए जितना बोल रहे हैं उतना खुद को सांत्वना देने के लिए भी बोल रहे हैं। वह लिखते हैं कि, ‘हमें इस्लामी ऐक्टिविस्टों द्वारा राज्य पर विजय पाने की कुलीन वर्ग के दृष्टिकोण से बताई गई कहानी को निम्नवर्ग के दृष्टिकोण से बताई गई कहानी से बदलना चाहिए।’ हालांकि ‘राज्य पर विजय पाना’ सऊदी अरब के इस्लामी ऐक्टिविस्टों के लिए ‘कभी भी व्यावहारिक विकल्प नहीं था’, लेकिन ‘इस राज्य की दरारों में संगठित तो हुआ जा सकता था’।

मेनोरे की किताब पढ़ने के बाद मैंने इस राजतंत्र के साथ अपने संबंध के बारे में फिर से विचार किया। यह ऐसी जगह है, जिसे मैंने दम घोंटने वाला पाया है, लेकिन मुझे इस जगह से प्यार भी है। मुझे कुछ ऐसे पल याद हैं जब मैं बहुत खुश थी, जैसे कि जेद्दा की नमक की हवा वाली कॉर्नईश सड़क पर ड्राइव के वक्त—बहुत सालों तक पैसेंजर सीट पर और फिर 2018 के बाद ड्राइवर के तौर पर। लेकिन मुझे कभी न खत्म होने वाले धूप से भरे दिन भी याद हैं; निर्जीव सीमेन्ट की इमारतें याद हैं; और मुझे वो निराशा भी याद है जो मैंने एक युवती के तौर पर महसूस की थी, जब मेरे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं थी। मैं वहां बसे दोस्तों और परिवार वालों के बारे में सोचती हूं, जो आर्थिक और सामाजिक संकटों में फंसे हैं, और अपनी मामूली निजी आशाओं और व्यापक नकारात्मक निराशा के बीच जूझ रहे हैं। मैं उन ज़िंदगियों के बारे में सोचती हूं, जो उन्होंने लंबे समय से चली आ रही दुविधाओं के बावजूद सजोईं हैं, और उन अच्छे पलों को याद करती हूं, जो हमने इस सबके बावजूद एक-दूसरे के साथ बिताए हैं।

मैं उस कीमत के बारे में भी सोचती हूं, जो सऊदी अरब की अक्रिय यथास्थिति को बिगाड़ने के लिए उन लोगों ने चुकाई है। मैं उनके चाहने वालों के शोक को याद करती हूं, और उनकी निराशा को भी। उनका शोक सवाल उठता है कि हमारे चाहने वालों ने ऐसी कोशिशें क्यों कीं? यहां तो वैसे भी कुछ नहीं बदलना। सऊद घराना अभी भी हलक तक हथियारों से लैस है, उसके पास अभी भी विश्व की महाशक्तियों का समर्थन है। लेकिन अगर 2020 ने मुझे कुछ सिखाया है तो यही कि हालात हमेशा बदलते हैं, और बड़ी तेजी से बदलते हैं। किताब खत्म करते वक्त मेनोरे अंदाजा लगाते हैं कि अवेकनिंग शायद मरी नहीं है, बस अभी थोड़े समय के लिए ‘सस्पेन्ड हुई है’। इस व्याख्या पर मैं वही वाक्यांश दोहरा सकती हूं, जो मैंने अनगिनत राजनीतिक चर्चाओं में सुना है: अल्लाहु आलम। ‘खुदा जाने।’                                                                     

 

सारा अज़ीज़ा
सारा अज़ीज़ा

सारा अज़ीज़ा लेखक हैं। वह अपना ज्यादातर समय न्यूयॉर्क सिटी और मध्य-पूर्व के बीच बांटती हैं। उनका काम न्यू यॉर्क टाइम्स, द न्यू यॉर्कर, द वाशिंगटन पोस्ट, हारपर मैगजीन और द इन्टरसेप्ट सहित कई जगहों पर प्रकाशित हुआ है। सारा अज़ीज़ा लेखक हैं। वह अपना ज्यादातर समय न्यूयॉर्क सिटी और मध्य-पूर्व के बीच बांटती हैं। उनका काम न्यू यॉर्क टाइम्स, द न्यू यॉर्कर, द वाशिंगटन पोस्ट, हारपर मैगजीन और द इन्टरसेप्ट सहित कई जगहों पर प्रकाशित हुआ है।