दूर के शहर का दोस्त

यह कहानी है काबुल में दो बच्चों की दोस्ती की। लेकिन यह विश्व में काबुल की जगह कहीं भी घटित हो सकती थी। क्योंकि बड़ों के मार-धाड़, लड़ाई-झगड़े और राजनीतिक षड्यंत्रों से दूर, विश्व में हर जगह बच्चे एक दूसरे के साथ खेलते हैं, एक दूसरे से प्यार करते हैं और अपने बीच एक अलग तरह की दुनिया गढ़ते हैं। चाहे उनके मां-बाप एक दूसरे को अलग मानते हों, एक दूसरे से नफरत करते हों और यहां तक कि एक दूसरे को मारना भी चाहते हों, बच्चों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उनके खेलों का एक अलग ही लॉजिक और अलग ही अंदाज होता है।

दूर के शहर का दोस्त


 

दरी से अंग्रेजी अनुवाद: खालील ए अरब 
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: श्रीविलास सिंह 

 

एक पल के लिए हमने खेलना बंद कर दिया और उन आदमियों की ओर देखने लगे, जो हमारे सामने से गुजर रहे थे: दो पुरुष—उनमें से एक अपेक्षाकृत अधिक उम्र का और दूसरा युवा था—तीन महिलाएं और साथ में एक छोटा लड़का और एक छोटी लड़की। छोटा लड़का उन सबके पीछे चल रहा था। वह फूले हुए गालों वाला प्यारा-सा बच्चा था। उसका सिर झुका हुआ था और वह दोनों हाथ अपनी पीठ पर मोड़कर पकड़ रखे था। वह गहरे भूरे रंग की पैरहन तोम्बन कमीज और पजामा पहने था। उसने अपने सिर पर पगड़ी और पैरों में काले रंग की चप्पलें पहन रखी थी। वह संभवतः सात साल का था। उसका चेहरा गोल फूले हुए गालों वाला था और आंखें अपने कोटरों से थोड़ी बाहर को निकली-सी लग रही थी, मानों वे किसी चीज को देखकर आश्चर्यचकित हों। शान से चलता और बड़े कदम रखता हुआ वह एक ही समय सुन्दर और मज़ाकिया, दोनों लग रहा था।

कुछ कदम चलने के बाद वे मज़ारी (मज़ार-ए-शरीफ़ का रहने वाला परिवार) के घर में दाखिल हो गए। पूरे पड़ोस में यह मकान इसी नाम से जाना जाता था। लेकिन, चूंकि उनके यहां कोई छोटा बच्चा नहीं था, जिसके साथ हम खेल सकते, मैं उनके बारे में और कुछ नहीं जानता था।

अगली सुबह जब अब्बू काम पर जा रहे थे और भाई स्कूल जाने के लिए अपनी किताब-कापियां इकट्ठी कर रहा था तो मैं भी बाहर जाना चाहता था। मैं हिचकिचा रहा था कि अपनी खिलौने वाली कार बाहर ले जाऊं या नहीं। मैंने अब्बू जी से वादा किया था कि मैं इसे नहीं तोडूंगा। मेरी यह खास, छोटी-सी खिलौने वाली कार, जिसमें रबर के काले टायर और रंगीन शीशे वाली खिड़कियां लगी थी और इसका चमकता हुआ जगमग रंग दूसरे बच्चों की आंखों को आश्चर्य से भर देता था, अब्बू ने इसे मेरे लिए ख़रीदा था।

मैंने खुद से कहा, “शायद उनमें से किसी बच्चे ने मेरी खिलौने वाली कार अभी न देखी हो…. मैं इसे आज भी बाहर ले जाऊंगा।”

मैंने शेल्फ के ऊपर से कार उठाई और बाहर गली में आ गया। गली में मैंने बच्चों को देखा, जो मिट्टी के ढेर पर बैठे थे और रेत के किले बना रहे थे। मैं उनके पास गया।

“आओ मेरी कार चलाएं,” मैंने सुझाव दिया।

वे सभी आ गए, जैसे वे मेरे सुझाव का ही इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने रेत के सभी किले तोड़ दिए और सड़क बनाने लगे। सड़कें बन गईं। हमने सड़क के किनारे के तमाम शहरों और पहाड़ी दर्रों के नाम रख दिए। कार ने चलना शुरू किया। मैंने धागे का एक सिरा कार में बांधा और दूसरा अपनी उंगली में लपेट कर उसे खींचने लगा। हम कई बार कंधार की यात्रा पर गए और काबुल वापस लौटे। ज्यों ही हम मज़ार-ए-शरीफ की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे थे तो मज़ारी के घर का दरवाज़ा खुला और वही छोटा लड़का, जिसे मैंने कल देखा था, बाहर आया।

वह उसी तरह गंभीरता से कदम रख रहा था और उसके हर कदम में पहले जैसी ही गुरुता थी। वह एक पल को रुका। कोई उससे नहीं बोला। हम सभी मज़ार-ए-शरीफ की यात्रा में काफी व्यस्त थे। जब हम लट्टेबंद दर्रे के पास पहुंच रहे थे, और दर्रे को थोड़ी दूरी पर देख सकते थे, छोटे लड़के ने अचानक हंसना शुरू कर दिया। उसकी हंसी बहुत गंभीर थी और ऐसा लग रहा था जैसे उसके पास इस हंसी के लिए कोई मजबूत वजह थी। मैंने चुपचाप उसकी तरफ़ देखा। वह एक कदम आगे बढ़ा। वह अपने हाथ अभी भी कल की तरह अपनी पीठ पर बांधे हुए था और उसका चेहरा उसकी त्वचा के नीचे दौड़ रहे रक्त की लालिमा से चमक रहा था।

अपने खास मज़ारी उच्चारण में, जो मुझे बहुत पसंद था, उसने कहा, “हे! लट्टेबंद दर्रा मज़ार-ए-शरीफ के रास्ते में नहीं है। मज़ार-ए-शरीफ के रास्ते में जो एकमात्र दर्रा पड़ता है, वह है शिबर।”

मैंने उससे थोड़ी शर्मिंदगी के साथ पूछा, “तो फिर लट्टेबंद दर्रा किस शहर के रास्ते में पड़ता है?”

“मैं नहीं जानता वह किस शहर के रास्ते में हैं,” उसने कहा, “लेकिन मुझे पता है कि वह मज़ार-ए-शरीफ के रास्ते में नहीं है। शायद वह हेरात के रास्ते में है।”

मेरी शर्मिंदगी थोड़ी कम हुई, क्योंकि वह भी नहीं जानता था कि लट्टेबंद दर्रा किस रास्ते पर था।

हमने नाम बदल दिए: दर्रा, जो मज़ार-ए-शरीफ के रास्ते में था, उसका नाम शिबर और हेरात के रास्ते में पड़ने वाले दर्रे का नाम लट्टेबंद कर दिया। कुछ मिनट बाद छोटे लड़के ने पूरे विवरण के साथ मज़ार-ए-शरीफ जाने वाली सडक का पुनर्निर्माण कर दिया। उसने विशेष रूप से शेखारी घाटी बनाई, इतने विवरण के साथ कि हम सभी अचंभित रह गए। हम इतने विवरण के साथ किसी जगह की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

जब सडक बनाने का काम पूरा हो गया तो मैंने उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

पहले वह शर्मा गया, फिर उसने बताया, “रसूल।”

“क्या तुम मज़ार-ए-शरीफ में रहते हो?” मैंने पूछा।

उसने अपने विशिष्ट उच्चारण में कहा, “हां, मैं मज़ार-ए-शरीफ में रहता हूं। मेरा घर एक पूजागृह के पास है।”

मैं नहीं जानता था कि पूजागृह क्या होता है। फिर भी मैंने अपना सिर हिलाया, “ठीक है।”

मैंने उससे अपने दोस्तों का परिचय कराया और उसे अपना नाम बताया।

उस दिन हम दोपहर तक खेलते रहे। फिर हम सभी दोपहर के खाने के लिए घर चले गए। मैं दोपहर बाद घर से बाहर निकल आया। मैं जानता था कि बच्चे घास के छोटे मैदान चमनक में होंगे। हमारे घर से थोड़ी-सी दूरी पर एक मैदान था, जिसकी चाहरदीवारी उसको घेरे हुए हमारे घरों की दीवारें ही थी। उस मैदान के भीतर घास उग आती थी, इसलिए हम उसे चमनक: नन्हा घास का मैदान, कहते थे। मैदान के एक कोने में एक ऊंची जगहपर एक कब्र थी, जिसके चारो ओर हरे, पीले और लाल झंडे लगे हुए थे। झंडों की नोक पर पीतल के बने फैली हथेली वाले हाथ देखे जा सकते थे। कब्र के सिरहाने कुछ ताख़ बने हुए थे, जो जुमेरात की रात को अक़ीदतमंदों द्वारा जलाई गई मोमबत्तियों के धुएं से काले पड़ चुके थे। मेरी मां ने एक बार बताया था कि यह एक शहीद की कब्र थी और उसने यह भी बताया कि एक बार उन्हें इस कब्र की बगल में पड़ा एक नवजात बच्चा मिला था, जिसे एक पड़ोसी ने गोद ले लिया था। ज्यादातर दिन हम मैदान में या तो फुटबॉल खेलते या फिर घास पर कुश्ती लड़ा करते।

उस दिन जब मैं घास के मैदान में गया, लड़के कुश्ती लड़ रहे थे। रसूल अभी वहां नहीं आया था। मैं बैठ गया और लड़कों को कुश्ती करते देखने लगा। फिर वह दीवार के पीछे से नमूदार हुआ। पहले पहल, वह कुछ देर को रुका रहा। 

फिर उसने कहा, “हे! तुम लोग यहां हो, मैं तुम सब को देखने धूल के ढेर के पास गया था पर वहां कोई न था। मैंने तुम सबको कई जगह देखा, अब जाकर तुम लोग यहां मिले हो। तुम लोग कुश्ती लड़ रहे हो?”

“आओ और लड़ो, क्या तुम कुश्ती लड़ना जानते हो?” मैंने पूछा।

“हां, मज़ार-ए-शरीफ में हम रोज कुश्ती लड़ते थे, मेरे भाई भी,” उसने जवाब दिया।

पायंदेश खड़ा हो गया और उसने उसे कुश्ती के लिए दावत दी।

“लेकिन मेरे पास कुश्ती की ड्रेस नहीं है,” रसूल ने कहा।

“तुम्हें ड्रेस की क्या जरुरत?” मैंने अचम्भे से पूछा।

“बिना ड्रेस के मैं कैसे लड़ सकता हूं?” उसने जवाब दिया।

फिर कुछ लोगों ने उसे लड़कर दिखाया कि बिना ड्रेस के हम कैसे कुश्ती लड़ते हैं। ध्यान से हमारी कुश्ती देखने के बाद उसने पायंदेश की चुनौती कबूल कर ली।  लेकिन पलक झपकते ही मैंने उन दोनों को घूमते देखा, पहले पायंदेश पीठ के बल ज़मीन पर गिरा और फिर रसूल उसकी छाती पर बैठ गया। मैं उठ खड़ा हुआ और मैंने उसे मुझसे लड़ने के लिए कहा। एकाएक ही मैं हिल गया और पीठ के बल ज़मीन पर गिर पड़ा। फिर रसूल अपने पूरे वजन के साथ मेरे ऊपर आ गिरा।

मैं शर्मिंदा हुआ-सा उठा और मैंने उससे पूछा, “तुमने ऐसा कैसे किया?”

उसने हम सब को सभी दांव सिखाये। वह बहुत आसान था। वह हमारा दाहिना हाथ अपनी बाईं बांह के नीचे फंसाकर उसी हाथ से हमारी दाहिनी बांह पकड़ता, फिर वह घूमकर अपना दाहिना पैर हमारे दाहिने पैर में फंसता और हमें नीचे की ओर धकेलता हुआ अपने पूरे वजन के साथ तेजी से आगे की ओर झुक जाता। नतीजतन हम दोनों गिरते लेकिन हम अपनी पीठ के बल गिरते और वह हमारे ऊपर। अगरचः हम सबने यह दांव सीखा लेकिन हममें से कोई भी इसे सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सका।

उसके बाद हमने सभी चीजों के बारे में बातें की। उसने हमें मज़ार-ए-शरीफ के बारे में ढेरों बाते बताईं और पूछा, “जलसे में अभी कितने दिन बचे हैं?”

“चार दिन,” मैंने जवाब दिया।

“हम जलसे के बाद मज़ार-ए-शरीफ वापस चले जाएंगे,” रसूल ने कहा।

“वापस जाओगे?” मैंने पूछा।

“हां, अच्छा क्या काबुल में बढ़िया दावत होती है?” रसूल ने पूछा।

“बहुत बढ़िया, तुम खुद ही देख लेना,” मैंने फिर जवाब दिया।

“जलसा कहां पर होगा?” उसने एकबार फिर पूछा।

“चमन हुज़ूरी में,” मैंने जवाब दिया, “यह यहां से ज्यादा दूर नहीं है। क्या तुम वहां जाना चाहते हो? वे लाइट और झंडियां लगा रहे हैं।”

“नहीं, हम आज नहीं जाएंगे। हम कल जाएंगे। क्या लाइटें जल रही होंगी?” उसने पूछा।

“अभी नहीं, लाइटें जलसे के दौरान ही जलेंगी,” मैंने जवाब दिया।

“कल तुम किस वक़्त वहां जाओगे?” रसूल ने पूछा।

“हम दोपहर बाद जा सकते हैं,” मैंने कहा।

वह बहुत जोश में था।

“ठीक है फिर, दोपहर के बाद,” उसने दोहराया।

“हां, हम सब चलेंगे,” मैंने उसे भरोसा दिया।

अगले दिन हम सब एक साथ ‘चमन हुजूरी’ गए। यह जुलाई महीने का दूसरा पखवाड़ा था और उस साल मौसम उतना अच्छा नहीं था। मैंने रसूल को हर चीज दिखाई, लाइटें, झंडे और वह तालाब भी, जिसमें पैडल बोट और दूसरी तरह की नावें चल रही थीं। एकाएक एक काला बादल हम पर लहराने लगा और उसने आसमान को ढंक लिया, तब हम घर वापस लौट पड़े। जैसे ही हमने चमन हुजूरी को पीछे छोड़ा, ओले पड़ने लगे। ओले बहुत बड़े-बड़े और भारी थे। हम भोजपत्र के दरख़्त के नीचे छिप गए। हर चीज तितर-बितर हो गई थी और हर कोई यहां- वहां दौड़-भाग रहा था। ओलों की चोट से हमारे ऊपर और चारों ओर लगे बल्ब टूट रहे थे और उनके शीशे ज़मीन कर गिरकर इधर-उधर बिखर रहे थे।

थोड़ी देर बाद तेज हवा चलनी शुरू हो गई। झंडे हवा में लहरा रहे थे, फूलों के गुलदस्ते ध्वस्त हो चुके थे और बल्बों की लड़ियां टूट गई थीं। ओला-वृष्टि बंद हो गई थी और लोगों ने लूटपाट शुरू कर दी थी। हमने भी लूट में भाग लिया और जेबों में सामान भरे हुए घर वापस लौटे। फिर कुछ पुलिस की गाड़ियां आ पहुंची और लोग भाग गए। जब हम अपने पड़ोस में पहुंचे तो हरेक के पास कई कई लाल-हरे बल्ब थे, बस रसूल खाली हाथ आया था।

“तुम्हें क्या हुआ कि तुमने एक भी नहीं लिया?” मैंने पूछा।

थोड़ी लापरवाही और दुख के साथ उसने कहा, “मैंने खुद से पूछा, अगर वे हमें गिरफ्तार कर लेते तो।”

“किसने हमें गिरफ्तार किया? वे सभी लोगों को गिरफ्तार नहीं कर सकते। और लोग तो हमसे बहुत ज़्यादा सामान उठा ले गए हैं। मुझे लगता है तुम डर रहे थे,” मैंने प्रतिवाद किया।

उसके होठ और नथुने कंपकंपाने लगे, उसकी ऑंखें पनीली हो गईं और उसके आंसू बहने लगे। उस वक्त तक और बच्चे जा चुके थे और हम दोनों ही वहां बचे थे।

मैंने उससे पूछा, “क्यों? तुम रो क्यों रहे हो? मैंने तो कुछ नहीं कहा। रोना बंद करो, लोग तुम पर हंसेंगे,” लेकिन उसने रोना बंद नहीं किया।

“सच बताऊं तो अपने मन से ही मैं बल्ब नहीं लेना चाहता था। अगर मेरा वश चलता तो मैं औरों को भी लेने से रोक देता। अब वे जलसे की रात को क्या जलाएंगे?”

मैं हंसा और बोला, “उनके पास और भी बल्ब हैं, उनके पास ढेर सारे हैं।”

“नहीं नहीं, यह ठीक नहीं था, यह ठीक नहीं था,” उसने विरोध किया।

वह जो कह रहा था, उससे मैं हैरान रह गया। मैं और मेरे दोस्तों ने यह नहीं सोचा था कि ऐसा करना ठीक नहीं था। हकीकत में कभी-कभी हम बाज़ार में दुकानों से खरबूज चुरा लिया करते थे। 

इसलिए मैंने उससे पूछा, “इसमें क्या गलत था? हम.....”

मगर वह रोता रहा और अपनी बात पर जमा रहा, “यह गलत है, यह गलत है।”

उसके गंभीरता से रोने का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा।

“अच्छा, अच्छा, हमें अब इनका क्या करना चाहिए?” मैंने पूछा।

उसने रोना बंद कर दिया।

“तुमने कितने लिए थे?” उसने पूछा।

“आठ। तो हमें इनका अब क्या करना चाहिए?” मैंने फिर पूछा।

बहुत ज्यादा ताकत के साथ उसने मुझे बांह पकड़कर खींचा और कहा, “हम इन्हें वापस करेंगे। हम इन्हें वापस करेंगे।”

जब हम चमन हुजूरी वापस लौटे तो आसमान साफ था। कोई हवा नहीं चल रही थी और सूरज ढलने वाला था। मजदूर टूटी हुई बल्ब की लड़ियों को जोड़ रहे थे। सफ़ेद चश्मा पहने हुए एक मोटा आदमी एक हरे रंग की कार के पास खड़ा था। वह झुंझलाया हुआ लग रहा था और आसपास मौजूद लोगों को आदेश दे रहा था। हम डर और हिचकिचाहट के साथ उसके पास गए। पहले उसने हमें नहीं देखा। हम एक भी लफ्ज़ नहीं कह पाए। हम वहां मौन खड़े रहे। जैसे ही उसने हमारी ओर देखा, मैंने उसे बल्ब दिखाए।

“मेहरबानी करके ये बल्ब ले लीजिये।”

उसके चहरे से झुंझलाहट गायब हो गई और उसकी जगह एक नरम मुस्कान ने ले ली।

फिर उसने कहा, “तुम्हें ये बल्ब कहां मिले?”

“दूसरे बच्चों के साथ हम भी इन्हें ले गए थे,” मैंने कहा।

मोटे आदमी ने किसी को बुलाया। उसने वे बल्ब उसे दिए और फिर हमसे बोला, “बहुत बढ़िया बच्चों!”

फिर उसने अपने ड्राइवर को बुलाया और उससे हमें कार में एक चक्कर लगवाने और चमन के चारो ओर घुमाने को कहा। ड्राइवर ने हमारे लिए दरवाजा खोला। कार चलने लगी और हमने आरामदायक सीटों पर बैठे-बैठे अपने भीतर-बाहर आनंददायक शांति-सी महसूस की।

***

उस दिन से मैं रसूल को बहुत ज्यादा पसंद करने लगा। मेरे ख़्याल में वह औरों से अलग था। वह एक इज्ज़तदार आदमी था। वह जलसे के एक दिन पहले मेरे घर आया। ख़ुशी और आनंद उसकी आंखों में चमक रहे थे।

“कल जलसा हैं न?” उसने पूछा।

“हां, कल इसी वक्त वहां एक परेड होगी,” मैंने कहा।

“परेड क्या होती है?” उसने फिर पूछा।

“सेना अपने टैंक, तोपों और बंदूकों की नुमाइश करती है, जिससे लोग उन्हें देख सकें।”

“क्या तुम कल परेड देखने जाओगे?” उसने पूछा।

“हां, मैं जाऊंगा। क्या तुम भी चलोगे?” अबकी बार मैंने पूछा।

“मेरे अंकल ने कहा है कि वे मुझे ले जाएंगे, लेकिन मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। हम साथ जाएंगे। तुमने खिलौने वाली कार का क्या किया?” उसने कहा।

मैं अपनी खिलौने वाली कार ले आया और वह उसे देख कर खेलने लगा।

“क्या यह तुम्हें पसंद है?” मैंने पूछा।

“बहुत, बहुत, इसे कौन लाया था?” उसने जानना चाहा।

“मेरे अब्बू,” मैंने बताया।

उसने फिर विनम्र तरीके से मुझे कार वापस कर दी।    

“मेरे अब्बू की मौत हो चुकी है,” उसने गहरी सांस ली।

मैंने उसकी ओर देखा। उसके चहरे पर बहुत ज्यादा दुख के भाव थे। मुझे उससे हमदर्दी होने लगी।

“उनकी मौत कब हुई?” मैंने उससे पूछा।

“दो साल पहले। उन्हें खांसी आ रही थी। वे खांसी से मर गए।”

हमने फिर कोई बात नहीं की और चुपचाप खेलते रहे। इस बार वह ड्राइवर था।

***

आख़िरकार, जलसे का दिन आ ही गया, और तड़के सुबह ही हम चमन पहुंच गए। जिस वक्त तक हम पहुंचे वहां लोगों की भारी भीड़ जुट चुकी थी; एक तो भीड़ इतनी ज़्यादा थी, ऊपर से हमारी ऊंचाई काम होने के कारण हम परेड नहीं देख सके। हम घंटों इधर-उधर देखते रहे पर कोई नतीज़ा नहीं निकला। उस वक्त तक परेड शुरू हो चुकी थी और हम केवल बैंड का बजना सुन सकते थे और टैंकों की तोपों की नलियां ही देख सकते थे। फिर थके और निराश हम घर लौट आये।

उसी दिन दोपहर को जोश में भरे और खुश हम फिर चमन गए। हम दोनों के पास बारह अफगानी (अफगानिस्तान की मुद्रा) थी। मैंने रसूल से पूछा, "आओ हम कार्निवल में चलें, तुम क्या सोचते हो?”

“कार्निवल क्या है?” उसने पूछा।

“आओ चले, वहीं देख लेना। यह मजेदार होगा,” मैंने उसे यकीन दिलाया।

मेला स्थल चारों ओर से फूस की चटाइयों से घिरा हुआ था। एंट्री फीस एक ‘करान’ (सबसे छोटा सिक्का) था।  वहां बहुत से खेल थे, जिनमें खुशकिस्मती और कौशल देखा जाता था। बहुत तरह की आवाज़ें आपस में मिल गईं थीं, जबकि विज्ञापन वाली आवाजें, जिनका काम लोगों को अलग-अलग खेलों की ओर आकर्षित करना था, सबसे ज्यादा तेज थी।

एक आदमी ने पुकार लगाई: “मेहरबान लोग इधर आएं।”

एक और चिल्लाया, “बड़ा दांव लगाओ, बड़ा जीतो।”

तभी एक और व्यक्ति चिल्लाया, “अपने पैसे का चार गुना जीतो।”

रसूल होश-बाख्ता था। मैंने उसे उसकी बांह पकड़कर खींचा और निशानेबाजी वाले स्टाल की तरफ आ गया। हम खेले और हमने पांच अफगानी जीते। रसूल पूरी तरह हार गया। मैं एक बार और खेला और जीत गया। लेकिन मैं तीसरी बार हार गया। एक वक्त हम पूरे अस्सी अफगानी जीत चुके थे। हम एकदम मदहोशी की हालात में थे और पूरी तरह भटक चुके थे। फिर हम एक बार फिर अपने होश में लौटे, हमारी जेबों में एक दमड़ी भी नहीं बची थी। हम अपना सारा पैसा हार चुके थे। हम मेले से बाहर आ गए—गुस्सैल और निराश। हमें एक-दूसरे से बात करने की भी इच्छा नहीं थी। हमें महसूस हुआ मानों हमने कुछ बहुत कीमती खो दिया है। हम गले-गले तक भरे हुए थे और भीतर से जोर से रोने की तेज़ ख़ाहिश उठ रही थी। हम हारे हुए घर की ओर लौट रहे थे। उस रात मेरे अब्बू जी ने मुझ पर गलियों की बौछार कर दी और मेरे भाई ने मेरे चेहरे पर कसकर थप्पड़ लगाया। मेरे आंसू निकल आये और मैं रोने लगा।

मैंने और रसूल ने मेले के दिन साथ गुजारे। हम एक-दूसरे को बहुत पसंद करने लगे थे। जब हम एक साथ समय नहीं गुजार रहे होते थे, एक तरह की उदासी हम पर छायी रहती थी। जलसा समाप्त हो गया और हम लाइट्स और झंडों का हटाया जाना देखते रहे।

एक दिन रसूल ने पूछा, "वे उन्हें क्यों हटा रहे हैं? उन्हें लोगों को जश्न मानना जारी रखने देना चाहिए। लोग दिन में काम करने जाएं और रात को अपने बच्चों को जलसे में ले जाएं।"

मैं सोच में डूब गया। मुझे इसका कोई कारण नहीं मिला।

मैंने खुद से पूछा, “हकीकत में वे हर दिन कोई जश्न क्यों नहीं होने देना चाहते?”

दो दिन और बीत गए। उन दोनों दिन रसूल बहुत परेशान-सा दिख रहा था।

मैंने उससे कई बार पूछा, “तुम किस बात से परेशान हो?”

लेकिन वह कुछ नहीं कहता था। बस एक बार उसने गहरी सांस ली, “सुनो।”

“क्या सुनूं?” मैंने पूछा।

“मेरी ख़ाहिश होती है कि हमारे पास एक ‘उड़ता कालीन’ होता," उसने मुझसे कहा।

“तुम्हारा मतलब है सुलेमान का कालीन? वह जो उड़ता था?” मैंने पूछा।

“हां, अगर हमारे पास वैसा कालीन होता तो एक घंटे में वह हम दोनों को मज़ार-ए-शरीफ पहुंचा देता और वापस भी ला देता।”

***

अगली सुबह जब मैं अभी सोया ही था तो मेरी मां ने मुझे जगाया। 

“रसूल आया है। वह तुमसे मिलना चाहता है,” मेरी मां ने बताया।

मैं सामने के अहाते को पारकर मैन गेट तक गया। मैंने रसूल को वैसे ही देखा, जैसा पहले दिन देखा था। वह गली में खड़ा था। वह वही पहले वाली काली चप्पलें पहने हुए था, वही पैरहन-तोम्बन और उसने अपने हाथ अपनी पीठ पर पहले ही की तरह बांध रखे थे। वह बहुत गंभीर लग रहा था। उसके होंठ कांप रहे थे और गला रुंधा हुआ था।

“मैं आज जा रहा हूं,” उसने बताया।

मुझे झटका-सा लगा।

“क्या तुम सच में जा रहे हो?” मैंने उससे पूछा।

“हां, हम अभी जा रहे हैं। मैं तुम्हें अलविदा कहने आया था,” उसने कहा।

मैं रोना चाहता था। वह भी कुछ बेहतर नहीं दिख रहा था। वह मुझसे आंखें मिलाने से बच रहा था और दरवाजे की लोहे की सिटकनी से खेल रहा था।

उसने कहा, “देखो, तुम्हारा अगर कभी मज़ार-ए-शरीफ आना हो तो हमारे घर जरूर आना। हमारा घर सियाहगर्द गली में है, जिससे भी पूछोगे वह बता देगा कि वह गली किधर है। हमारा एक बगीचा है। अगर तुम कभी आओगे तो मैं तुम्हें उसे दिखाने ले चलूंगा। वह बहुत बड़ा नहीं है लेकिन उसमें अंजीर, बादाम और शरीफे के ढेरों पेड़ हैं। उसमें एक छोटी नदी भी है। जब भी आना तो जरूर आना। अच्छा।”

उसी वक्त मज़ारी का दरवाजा खुला और दो आदमी, एक बूढ़ा और एक युवा, तीन महिलाएं और एक नन्हीं लड़की बाहर आये। वे मोड़ पर कुछ पल रुके और मोड़ के दूसरी ओर खड़े लोगों से कुछ कहते रहे। उन्होंने रसूल को पुकारा और मैन सड़क की ओर चल पड़े। रसूल अपनी उंगलियों में मेरा हाथ और कसकर दबाते हुए बोला, “तुम आओगे न? वादा करते हो?”

“हां, हां, मैं जब भी मज़ार-ए-शरीफ आऊंगा, मैं तुम्हारे घर सियाहगर्द गली में जरूर आऊंगा,” मैंने उससे वादा किया।

उसने अपना हाथ नीचे कर लिया और चल दिया।

मैंने उसे पीछे से पुकारा, "रुको, एक मिनट रुको!”

मैं तेजी से अपने घर के भीतर दौड़ गया। मैं अपने कमरे में गया और शेल्फ में से अपनी खिलौने वाली कार उठाई। मैंने उसे एक पल देखा। मैं उसके पार नहीं देख सका। उसके रंगों में भी एक तरह का आकर्षण था। मैं वापस बाहर दौड़ा और उसे रसूल को दे दिया, "इसे रखो।”

उसके चहरे पर चमक आ गई। उसने कार अपनी बांह के नीचे दबाई और नन्ही लड़की के पीछे चल पड़ा। उसमें वह गर्वीली मुद्रा नहीं थी, वह थके-थके कदमों से चल रहा था और जब तक वे गली के मोड़ पर मुड़कर ओझल नहीं हो गए वह लगातार मुड़-मुड़कर मुझे देखता रहा।

 

 

 

मोहम्मद आज़म रहनवर्द ज़रयाब
मोहम्मद आज़म रहनवर्द ज़रयाब

मोहम्मद आज़म रहनवर्द ज़रयाब (अगस्त 1944 - दिसम्बर 2020) अफगानिस्तान के चर्चित लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी थे। दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनके योगदान को दुनियाभर में पहचाना गया है। मोहम्मद आज़म रहनवर्द ज़रयाब (अगस्त 1944 - दिसम्बर 2020) अफगानिस्तान के चर्चित लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी थे। दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनके योगदान को दुनियाभर में पहचाना गया है।