अनुवादक: अक्षत जैन
स्त्रोत: The Wire
मुझे इस बात का अंदाजा है कि जो मैं कहने जा रहा हूं, वह भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनके द्वारा संचालित मीडिया के बनाए कोलाहल में डूब कर खो जाएगा, लेकिन फिर भी लगता है कि मुझे आप लोगों से बात कर लेनी चाहिए, क्योंकि मुझे नहीं पता कि इसके बाद ऐसा करने का कोई मौका मिलेगा भी या नहीं।
अगस्त 2018 में जब से पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजनेंट में स्थित फ़ैकल्टी हाउज़िंग कॉम्प्लेक्स में मेरे घर पर छापा मारा है, तब से मेरी दुनिया उलट-पुलट हो गई है।
जो चीजें मेरे साथ हुईं, उनके बारे में मैंने कभी अपने सबसे बुरे सपनों में भी नहीं सोचा था। हालांकि मुझे इल्म था कि पुलिस मेरे लेक्चर आयोजित करने वालों को—जिनमें अधिकतर यूनिवर्सिटी ही शामिल हैं—मेरे बारे में सवाल पूछ-पूछकर डराती और परेशान करती है। यह सब देखकर मुझे ऐसा लगा कि वे मुझे मेरा भाई समझ बैठे हैं, जो सालों पहले परिवार छोड़ कर जा चुका था।
मैं जब आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा रहा था, तब मेरे पास बीएसएनएल के अफसर का फोन आया। उन्होंने खुद को मेरा प्रशंसक और शुभचिंतक बता कर मुझे आगाह किया कि मेरा फोन टैप किया जा रहा है। मैंने उनका शुक्रिया अदा किया लेकिन कुछ प्रतिक्रिया नहीं की, अपना सिम कार्ड तक नहीं बदला।
इन अतिक्रमणों से मैं परेशान तो हो रहा था लेकिन मैंने खुद को दिलासा दिया कि मेरे बर्ताव को देखकर हो सकता है कि पुलिस वालों को यकीन हो जाए कि मैं ‘सामान्य’ व्यक्ति हूं और किसी तरह के अवैध काम में नहीं लगा हूं।
पुलिस वालों को आम तौर पर नागरिक अधिकारों के लिए लड़ते ऐक्टिविस्ट पसंद नहीं आते, क्योंकि वे लोग पुलिस वालों से सवाल-जवाब करते हैं। मुझे ऐसा लगा कि मुझे भी इसलिए ही परेशान किया जा रहा है, क्योंकि मैं भी उसी कबीले का हूं। मगर मैंने फिर से खुद को दिलासा दिया कि उन्हें यह मालूम हो जाएगा कि मैं वह भूमिका भी ठीक से नहीं निभा रहा हूं, क्योंकि मुझे मेरी नौकरी से वक्त ही नहीं मिल रहा है।
लेकिन एक सुबह जब मुझे मेरे संस्थान के डायरेक्टर ने फोन कर बताया कि पुलिस वालों ने कैंपस में छापा मारा है और वे मेरे बारे में पूछ रहे हैं तो मैं कुछ सेकेंड के लिए हक्का-बक्का रह गया। मेरी पत्नी उस वक्त बंबई में थी और मैं भी चंद घंटों पहले ही किसी काम से बंबई पहुंचा था।
मैंने जब उन लोगों की गिरफ़्तारी के बारे में सुना, जिनके घरों पर उस दिन छापे पड़े थे तो मुझे इस एहसास ने हिला कर रख दिया कि मैं गिरफ्तार होने से केवल संयोग से बचा हूं। पुलिस वालों को पता था कि मैं किधर हूं और वे मुझे गिरफ्तार कर सकते थे लेकिन सिर्फ वही जानते हैं कि उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।
उन्होंने चौकीदार से जबरन चाबी लेकर हमारे घर को भी खोल लिया लेकिन सिर्फ उसका विडियो बनाकर उसे वापस बंद कर दिया।
हमारी अग्नि परीक्षा बस वहीं से शुरू हो गई। मेरे वकीलों के कहने पर मेरी पत्नी ने गोवा की अगली फ्लाइट पकड़ी और बिछोलिम पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई कि पुलिस वालों ने हमारी गैरमौजूदगी में हमारे घर को खोला और अगर उन्होंने झूठे आरोप लगाने के लिए वहां कुछ छोड़ा होगा तो हम उसके जिम्मेदार नहीं होंगे। उसने उन्हें हमारे फोन नंबर दे दिए, जिससे अगर पुलिस को जांच में जरूरत हो तो हमसे बात कर लें।
इसी दौरान पुलिस ने अपने हिसाब से “माओवादी कहानी” गढ़कर प्रेस कॉन्फ्रेंस करना शुरू कर दिया। यह स्पष्ट तौर से पब्लिक में हमारे खिलाफ भावना पैदा करने की साजिश थी और इसमें मीडिया ने भी पुलिस का पूरा साथ दिया। 31 अगस्त 2018 को हुई ऐसी ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी पुलिस वाले ने एक खत पढ़कर सुनाया। उनका दावा था कि उन्हें वह ख़त पहले गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के कंप्यूटर से मिला है और वह मेरे खिलाफ पक्का सबूत है।
यह खत बड़े ही खराब तरीके से बनाया गया था। उसमें अकादमिक कॉन्फ्रेंस का ज़िक्र था, जिसमें मैंने हिस्सा लिया था और जिसका विवरण पेरिस की अमेरिकन यूनिवर्सिटी की वेबसाईट पर आसानी से उपलब्ध था। शुरुआत में तो मैंने इसे हंसी में उड़ा दिया लेकिन फिर मैंने इस पुलिस अफसर के खिलाफ सिविल और क्रिमिनल मानहानि का मुकदमा दर्ज करने का निर्णय लिया। 5 सितंबर 2018 को मैंने महाराष्ट्र की सरकार को पत्र लिखा और मांग की कि इस अफसर के खिलाफ कानून के अनुसार, कार्यवाही की जाए।
सरकार की तरफ से मुझे अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है।
हालांकि हाई कोर्ट की फटकार पड़ने के बाद पुलिस वालों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करना बंद कर दिया।
इस पूरे मामले में आरएसएस का हाथ छुपा नहीं रहा। मेरे मराठी दोस्तों ने बताया कि उनके कार्यकर्ता रमेश पटांगे ने उनके मुखपत्र पांचजन्य में मुझे निशाना बनाते हुए अप्रैल 2015 में आर्टिकल लिखा था। अरुंधती रॉय और गेल ओमवेल्ट के साथ-साथ मुझे भी “मायावी अम्बेडकरवादी” घोषित किया गया था।
हिंदू पुराणों में “मायावी” वह दानव होता है जिसका विनाश करना जरूरी है। जब मुझे पुणे पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद अवैध रूप से गिरफ्तार किया, तब हिन्दुत्व सेना के साइबर-गैंग ने मेरे विकिपिडिया पेज को बिगाड़ दिया। यह पेज पब्लिक के लिए उपलब्ध था, इसके बावजूद बहुत सालों से मुझे उसके बारे में पता भी नहीं था।
इस पेज से पहले तो उन्होंने सारी जानकारी मिटाई और फिर वहां सिर्फ इतना लिखा छोड़ दिया: “इसका माओवादी भाई है . . . इसके घर पर छापा पड़ा है . . . इसको माओवादियों से संबंध रखने के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया है”, वगैरह वगैरह। कुछ छात्रों ने मुझे बाद में बताया कि जब भी उन्होंने पेज को सुधारने की कोशिश की तो यह गैंग फट से झपट पड़ता और सारी अन्य चीजें मिटाकर इस तरह की अपमानजनक चीजें उस पर छोड़ देता।
आखिरकार, विकिपीडिया को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और उसके बाद ही वह पेज स्थिर हो सका। लेकिन फिर भी उस पर उनका कुछ नकारात्मक कंटेन्ट रह ही गया।
इसके बाद मीडिया में तेजी से संघ परिवार के कथित ‘नक्सल विशेषज्ञ’ मेरे बारे में तरह-तरह के झूठ फैलाने लगे। इसके खिलाफ न्यूज चैनलों और यहां तक कि इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन को की गई शिकायतों का मुझे कुछ कोई जवाब नहीं मिला।
फिर अक्तूबर 2019 में पेगासस की कहानी बाहर आई। सरकार ने कई लोगों सहित मेरे फोन पर भी खतरनाक इजराइली स्पाईवेयर इंस्टाल कर दिया था। मीडिया में कुछ वक्त के लिए इसके खिलाफ शोर हुआ लेकिन यह गंभीर मसला भी अब चुप्पी की मौत मर चुका है।
मैं साधारण आदमी हूं, जो ईमानदारी से अपनी रोजी-रोटी कमाता है और जितना हो सके उतना अपने ज्ञान के माध्यम से लिखाई द्वारा दूसरों की मदद करता है। कुछ पांच दशकों से मैं कॉर्पोरेट जगत में टीचर, नागरिक अधिकार ऐक्टिविस्ट और सार्वजनिक बुद्धिजीवी जैसे भिन्न प्रकार के काम करते हुए अपने देश की सेवा कर रहा हूं।
मेरी लिखाई कुछ 30 से भी ज्यादा किताबों में समाहित है और उसके अलावा मेरे सैकड़ों पेपर, आर्टिकल, कमेन्ट, कॉलम, इंटरव्यू वगैरह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए हैं। इनमें से किसी में भी हिंसा को या विनाशक आंदोलन को समर्थन करता हुआ एक वाक्यांश तक नहीं है। लेकिन मेरी ज़िंदगी के अंतिम चरण में मुझ पर बेरहम यूएपीए के अंतर्गत जघन्य अपराधों का आरोप लगाया जा रहा है।
मेरे जैसा व्यक्ति किसी भी तरीके से सरकार और उसकी दुम हिलाती मीडिया के प्रचार का मुकाबला नहीं कर सकता। इस मामले के बारे में इंटरनेट पर पढ़ने के लिए सब उपलब्ध है। उनको देखकर कोई भी यह पता लगा सकता है कि मेरे खिलाफ आरोप कितने बेढंगे और अवैध तरीके से गढ़े गए हैं।
एआईएफआरटीई की वेबसाईट पर इसका सारांश पढ़ा जा सकता है। आपके लिए मैं उसका सार यहां पेश कर रहा हूं:
मुझे तेरह में से पांच खतों के आधार पर गिरफ्तार किया गया, जो पुलिस को कथित तौर पर इस मामले में पहले गिरफ्तार किए गए 2 लोगों के कंप्यूटर से मिले थे। मुझसे पुलिस ने कुछ बरामद नहीं किया। उन खतों में आनंद नाम के किसी व्यक्ति का ज़िक्र है, जो की भारत में बहुत ही सामान्य नाम है, लेकिन पुलिस के हिसाब से यह आनंद बिला-शक़ मैं ही हूं।
इन कथित खतों के रूप को विशेषज्ञों और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के जज ने भी बेहूदा करार दिया है। वह एक ही जज थे, जिन्होंने सबूतों के स्वरूप पर सवाल उठाया था। लेकिन अगर इन खतों को गंभीरता से लें भी तो भी इनमें कुछ ऐसा नहीं लिखा है, जिनसे मेरे ऊपर साधारण से साधारण अपराध का भी आरोप लगाया जा सके।
लेकिन यूएपीए के बेरहम प्रावधानों के अंतर्गत मुझे जेल में डाला जा रहा है।
आपकी समझ के लिए केस को इन शब्दों में दर्शाया जा सकता है:
अचानक से पुलिस वालों का झुंड आपके घर पर टूट पड़ता है और बिना कोई वॉरन्ट दिखाए आपके घर की तलाशी लेता है। अंत में, वे आपको गिरफ्तार कर लेते हैं और आपको हवालात में बंद कर देते हैं। अदालत में वह कहते हैं कि किसी फलाना जगह पर चोरी या अन्य किसी भी मामले में तहकीकात करते वक्त पुलिस को फलाने के घर से पेन ड्राइव या कंप्यूटर मिले, जिनसे किसी प्रतिबंधित संगठन के कल्पित सदस्य के लिखे कुछ खत बरामद हुए, जिनमें किसी अन्य व्यक्ति का ज़िक्र था जो और कोई नहीं बल्कि आप ही हैं।
वह बताते हैं कि आप किसी गहरी साजिश में जुड़े हैं। अचानक आपकी पूरी दुनिया उथल-पुथल हो जाती है, आपकी नौकरी छिन जाती है, आपका घर आपके हाथ में नहीं रहता, मीडिया में आपके खिलाफ बेतुकी बातें की जा रही हैं और इन सब चीजों के बारे में आप रत्ती भर कुछ नहीं कर सकते।
जजों को मनाने के लिए कि आपके खिलाफ प्रथम दृष्टया मुकदमा बनता है, जिसके लिए आपको हिरासत में रखने की जरूरत है, पुलिस “सीलबंद लिफाफा” पेश करेगी।
आपके खिलाफ कोई सबूत न होने के तर्क काम नहीं करेंगे, क्योंकि जज बोलेंगे कि यह सब तो तहकीकात के बाद ही मालूम पड़ सकता है। हिरासत में पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जाएगा।
आप जमानत की भीख मांगोगे लेकिन याचिका खारिज कर दी जाएगी। ऐतिहासिक डाटा दिखाता है कि आपके जैसे मामलों में जमानत मिलने या रिहा होने के पहले जेल में रहने का औसत समय चार से दस सालों तक का है।
और यह किसी के साथ भी हो सकता है। राष्ट्र के नाम पर ऐसे बेरहम कानून संवैधानिक रूप से वैध करार दिए जाते हैं, जो निर्दोष लोगों को उनकी स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देते हैं।
राजनीतिक वर्ग ने लोगों को एक-दूसरे से लड़ाने और असहमति को कुचलने के लिए अंधराष्ट्रवाद को हथियार बना लिया है। सामूहिक पागलपन के चलते मामला पूरी तरह से तर्कहीन हो चुका है और सारे अर्थ उलट चुके हैं, जहां देश के विनाशकों को देशभक्त बोला जा रहा है और देश की निःस्वार्थ सेवा करने वालों को देशद्रोही।
अपने भारत को बर्बाद होता देखते हुए मैं आपको इस गंभीर पल पर बहुत ही मंद आशा के साथ लिख रहा हूं।
चलो, मैं तो एनआईए की हिरासत में चला और मुझे नहीं पता कि अगली बार आपसे कब बात हो पाएगी।
मगर मुझे उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले कुछ बोलने का साहस जुटा पाएंगे।
आनंद तेलतुंबडे