जंगली फूल

ढाका पहुंचते ही उस लड़की ने एक फ़ैसला किया कि वह किसी को भी अपनी पहचान नहीं बताएगी। अगर पूछा गया तो वह अपनी बजाय अपनी मां का नाम बताएगी। उसने ख़ुद को यक़ीन दिलाया कि इस तरह वह हर मर्द की ग़ैर-ज़रूरी तवज्जो से महफ़ूज़ रह सकती थी। वह इस गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकती थी कि इस यक़ीन ने उसके अंदर कब जड़ पकड़ी थी? वह इतनी पढ़ी लिखी नहीं थी कि अपने जज़्बात, एहसासात और ख़्यालात को कोई रूप दे सकती। यह ख़्याल उसे उस वक़्त आया, जब वह बस के लंबे सफ़र के दौरान ऊंघ रही थी और साथ बैठे मुसाफ़िर ने बहुत राज़दारी के साथ उसकी साड़ी के नीचे उसकी छाती को छूआ था। उसे यह ख़्याल बहुत भला और दिल मोह लेने वाला लगा। उसे पक्का यकीन था कि वह ढाका में कोई न कोई ठिकाना ढूंढ लेगी। ताहम वह यह बयान करने से क़ासिर थी कि उसने ऐसा क्यों सोचा था।

जंगली फूल


बंगाली से हिंदी अनुवाद: हमज़ा हसन शेख़ 

ढाका पहुंचते ही उस लड़की ने एक फ़ैसला किया कि वह किसी को भी अपनी पहचान नहीं बताएगी। अगर पूछा गया तो वह अपनी बजाय अपनी मां का नाम बताएगी। उसने ख़ुद को यक़ीन दिलाया कि इस तरह वह हर मर्द की ग़ैर-ज़रूरी तवज्जो से महफ़ूज़ रह सकती थी। वह इस गहराई का अंदाज़ा नहीं लगा सकती थी कि इस यक़ीन ने उसके अंदर कब जड़ पकड़ी थी? वह इतनी पढ़ी लिखी नहीं थी कि अपने जज़्बात, एहसासात और ख़्यालात को कोई रूप दे सकती। यह ख़्याल उसे उस वक़्त आया, जब वह बस के लंबे सफ़र के दौरान ऊंघ रही थी और साथ बैठे मुसाफ़िर ने बहुत राज़दारी के साथ उसकी साड़ी के नीचे उसकी छाती को छूआ था। उसे यह ख़्याल बहुत भला और दिल मोह लेने वाला लगा। उसे पक्का यकीन था कि वह ढाका में कोई न कोई ठिकाना ढूंढ लेगी। ताहम वह यह बयान करने से क़ासिर थी कि उसने ऐसा क्यों सोचा था।

गबताली बस अड्डे पर उतरने के बाद लड़की को बहुत भूख महसूस हुई। उसने डेढ़ दिन से कुछ नहीं खाया था। भूख मिटाने के लिए भला एक इन्सान कितना पानी पी सकता है... उसके पास सौ टके का एक नोट था, जो उसके पेटीकोट के कमरबंद में उड़ूसा हुआ था। पेटीकोट की डोरी के ढीलेपन से वह नोट उड़ जाता था... वह अपना जिस्म खो जाने से ज़्यादा नोट खो जाने से ख़ौफ़ज़दा थी। वह इस ख़्याल के साथ शहर आई थी कि यहां पैसे की बहुत क़ीमत थी, जबकि उसकी जान की इतनी क़ीमत न थी। लड़की ने अपने इर्द-गिर्द मर्दों को देखा। अपने बहुत अंदर वह इन सबसे यकसर बहुत घृणा करने वाली थी। वह उसे चिकनाई से भरे हुए लगे, जिनके भद्दे जिस्मों से अजीब-सी बदबू आती थी और साथ में वह बहुत ग़लीज़ भी थे। उसने ज़हनी दबाव और नफ़रत के साथ अपनी आंखें बंद कीं और दोबारा खोलीं।

शाम को बस जल्दी आ गई। उसके बाद काफ़ी हद तक भीड़ में कमी आ गई। लड़की अब ख़ुद को आरामदेह महसूस कर रही थी। एक-बार अक्सर लोगों के चले जाने के बाद वह मुकम्मल तौर पर उस बस अड्डे की मालिक बन जाएगी। यक़ीनन उनमें कुछ बसें और ट्रक यहीं पे ही रहेंगे। फिर उसे किसी का ख़ौफ़ नहीं रहेगा। वह क़रीबी दरख़्त के तने के साथ टेक लगाकर आराम करना चाहती थी लेकिन उसे डर था कि वह डगमगा जाएगी। जूंही वह बैठी, एक आवारा कुत्ता भौंकता हुआ उसके पास आकर अकड़ूं बैठ गया। उसने प्यार से अपना हाथ कुत्ते की पीठ पर रखा और जवाब में कुत्ता दोस्ती के लिए उसका हाथ चाटने लगा। उसका राल मुंह से टपका और बाज़ू गीला हो जाना लड़की को अच्छा न लगा और उसे इस नन्हे हैवान पर ग़ुस्सा आ गया

“तुमने मुझसे पूछे बग़ैर, मेरा हाथ क्यों चाटा...? तुम क्या समझते हो कि तुम चेयरमैन के बेटे बिज्लव हो...? तुम कुछ भी नहीं लेकिन एक गंदे कुत्ते के बच्चे हो... जाओ... दफ़ा हो जाओ...”

क़रीब खड़ा एक लड़का आम की गुठली चूस रहा था। वह ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा।

“तुम उसके साथ इन्सानों जैसा सुलूक क्यों कर रही हो...?”

“एक बंदे और एक कुत्ते में क्या फ़र्क़ होता है...?” उसने कहा, लड़के ने आम की गुठली को दूर फेंका।

“क्या तुम्हारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है...?”

“हां... है... क्यों...? तुम क्या समझते हो कि मैं फ़क़ीर हूं...?”

“तो फिर घर जाओ... ” उस लड़के ने कहा।

“नहीं... मैं नहीं जाऊँगी।”

“तो फिर तुम कहां रहोगी,” लड़के ने पूछा।

“इसी गली में... ”

“गली रहने के लिए अच्छी जगह नहीं... ”

“दफ़ा हो जाओ... मैं वही करूँगी जो मेरा जी चाहेगा।”

“क्या तुम्हें भूख नहीं लगी...?”

“हां... मैं भूख से मर रही हूं...”

“आओ... इस रेस्टोरेंट में चलें... इसका मालिक तुम्हें कुछ चावल दे देगा।”

“मालिक क्यों मुझे चावल देगा...? क्या उसने मेरा कुछ देना है...?”

“नहीं... उसने कुछ नहीं देना, लेकिन तुम्हें पता है कि वह एक रहमदिल इन्सान है, जो ग़रीबों को खाना खिलाता है... आओ चलें...”

लड़की कुछ देर तक बदगुमान-सी रही। उसे अपने अंदर कुछ न मालूम ख़ौफ़नाक-सी बेचैनी महसूस हो रही थी। उसने ग़ुस्से में अपने बाप को छोड़ दिया था और एक ही लम्हे के फ़ैसले में वह ढाका जाने वाली बस में सवार हो गई थी। अब वह हैरान हो रही थी कि इस अनजान शहर में वह कहां का रुख करेगी...! लड़का अभी तक उसके सामने खड़ा था। गहरे सियाह-रंग और हड्डियों के ढांचे में वह लड़का किसी बंदर की तरह दिख रहा था, लड़की ने एक लम्हे के लिए सोचा। हां, दरहक़ीक़त वह एक बंदर ही था। आज, वह छोटा है लेकिन जल्द वह बड़ा हो जाएगा। सर-दर्द की एक तेज़ टीस ने उसको अपनी गिरिफ़्त में ले लिया और उसको कमज़ोरी महसूस हुई। तेज़ चलाती हुई आवाज़ में वह लड़के से मुख़ातब हुई,

“तुम क्यों अभी तक यहां ठहरे हुए हो...?”

“सिर्फ तुम्हारे लिए... मुझे मालूम है कि तुम्हारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है वरना अब तक तुम वहां जा चुकी होती...”

“क्या नाम है तुम्हारा...? तुम छोटे शैतान...?”

“जुल्फ़ो... जुल्फ़ो अली...”

“तुम्हारे बाप का नाम क्या है...?”

“मुझे नहीं मालूम...”

“क्या तुम्हारी मां नहीं है...?”

“मेरी मां मर गई है... मैंने उसे कभी भी नहीं देखा...”

“ओ... अच्छा...”

“क्या अच्छा...?”

“कि तुम चूहड़े हो...”

जुल्फ़ो अली खिलखिला के हंसने लगा। उसको मज़ा आया। इसमें कोई हैरत नहीं थी कि वह इस तरह के तंज़िया मज़ाक़ कई बार सुन चुका था। लोग ऐसे अल्फ़ाज़ इन बच्चों के लिए भी इस्तिमाल करते थे जिनके बाक़ायदा पैदाइश के रिकार्ड मौजूद थे। गलियों के ये बच्चे अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा सियाने थे। जुल्फ़ो अकड़ा के लड़की के सामने आ गया और पूछा,

“आंटी... आपका नाम क्या है?”

“गड़ीगांव...”

“ये कैसा नाम है?”

“चुप हो जाओ, बंदर...”

लड़का एक-बार फिर खिसियानी हंसी हंसने लगा। एक बूढ़ी भिखारन उनकी तरफ आई।

“ये औरत का भूत किसका है...?” लड़की ने उसको देखने की कोशिश की। बिल्कुल ख़ुश्क, रूखे और उलझे हुए बाल, घुटने की लंबाई तक गंदी साड़ी, जिसका धड़ को छिपाने के लिए कोई ब्लाउज़ और पेटी कोट नहीं था। उसके हाथ में टीन की एक ख़ाली प्लेट थी। उसकी कमर में कुछ उड़ेसा हुआ था, शायद पान या फिर रक़म... उसका बग़ैर दांतों के मुँह, सामने की तरफ़ से बहुत भद्दा था। उसके चेहरे की जिल्द की मुख़्तलिफ़ तहों ने सड़क की सारी धूल जमाकर रखी थी। लड़की उसको देखकर परेशान-सी हो गई और धीरे से बुदबुदाई, “मैंने ऐसी चुड़ैल पहले कभी नहीं देखी...”

बूढ़ी औरत उसके क़रीब बैठ गई और पूछा, “क्या तुम आज कुछ नहीं कमा सकी...?”

“नहीं... मैं भीख नहीं मांगती...”

“आह...,” बूढ़ी औरत ने लड़की पर बुरा-सा मुंह बनाया, “ए लड़की... नाम क्या है तेरा...?”

“गड़ीगांव...” उसने फौरन जवाब दिया।

“गड़ीगांव तो तुम्हारे गांव का नाम है... तुम अपना नाम बताओ...?”

“गड़ीगांव...”

“ये कैसा नाम है...?”

“क्या मसला है...? कोई नाम तभी काम कर सकता है जब तक आप मुझे उस नाम से बुलाते रहें और मैं जवाब देती रहूं... नाम का मक़सद पूरा होता रहता है... इस नाम वाले सारे ड्रामे का मक़सद ही क्या है...?”

बूढ़ी औरत उसके इस ख़्याल पर खिलखिला उठी। उसके ख़ुशक और खुरदुरे बाल हवा में लहराए, कुछ उसके चेहरे पे आ गए जिन्होंने उसे और ज़्यादा भयानक बना दिया। उसके हंसते हुए चेहरे ने लड़की को वह चुड़ैलें याद दिला दीं जिनके बारे में उसने अपने बचपन में सुना था।

“तुम क्यों हंस रही हो...? हंसना बंद करो...” वह ज़ोर से चिल्लाई।

बूढ़ी औरत अचानक ही ख़ामोश हो गई। आंखें फैलाते हुए उसने कहा, “अरे लड़की... मैंने तुम्हारे लिए नाम ढूंढ लिया है; मैं तुम्हें शहज़ादी कहूंगी।”

जुल्फ़ो ने उछलना शुरू कर दिया, “हमने ढूंढ लिया... हमने ढूंढ लिया... हमने तुम्हारे लिए नाम ढूंढ लिया...”

लड़की ने महसूस किया कि वह वाक़ई बंदर जैसी हरकात कर के बंदर ही लग रहा था। शायद वह बंदरों के किसी गिरोह में पैदा हुआ था। लड़के ने तेवरी चढ़ाई, “तुम क्यों मुझपे नाक-भौं चढ़ा रही हो...? आओ... हम सब इस होटल पे चलें... तुमने अभी कहा नहीं कि तुम्हें बहुत भूख लगी है... शहज़ादी आंटी...?”

“चुप करो... नन्हे शैतान...!”

“लेकिन क्या आप भूखी नहीं हो...?”

लेकिन इससे पहले कि लड़की कोई जवाब देती, बूढ़ी औरत ने जुल्फ़ो का हाथ पकड़ लिया।

“मैं भी बहुत भूखी हूं... क्या तुम मुझे कुछ चावल ले के दे सकते हो...?”

“नहीं... नहीं... मैं तुम्हें नहीं खिला सकता... अगर मालिक ने तुम्हें देख लिया तो वह बहुत ग़ुस्सा करेगा।”

“लेकिन तुमने अभी नहीं कहा कि तुम्हारा मालिक बहुत रहमदिल है,” बूढ़ी औरत ने उसे जवाब दिया।

लड़की ने तेज़ निगाहों से उसे देखा। जुल्फ़ो से कोई जवाब नहीं बन पा रहा था। वह कुछ समा-ख़राश अल्फ़ाज़ बड़बड़ाया और पेशान करने के लिए थोड़ी दूर चला गया। बूढ़ी औरत ने जब कोई बात बनती न देखी तो जाने के लिए उठ खड़ी हुई।

“शहज़ादी... इस दुनिया में मेहरबानी की बहुत-सी किस्म हैं; एक किस्म की मेहरबानी तुम्हारे लिए है जबकि मेरे लिए कोई और क़िस्म है।”

वह दोबारा दिल खोल के हंसने लगी और उसका लुआब हर तरफ़ गिरने लगा। लड़की ने एक नज़र उसके बदसूरत चेहरे पे डाली।

“तुम बिल्कुल एक चुड़ैल लगती हो।”

बूढ़ी औरत ने चौंकते हुए जवाब दिया, “तुम ये क्यों कहती हो? अगर तुम शहज़ादी हो तो मैं शहज़ादी की दादी हूं।”

“हां... दादी... जाओ अब...!”

बूढ़ी औरत के जाने के बाद जुल्फ़ो आया और लड़की के क़रीब बैठ गया।

“आओ चलें... शहज़ादी आंटी!” उसने लाड करते हुए कहा।

“तुम्हारे मालिक का नाम क्या है?”

“तोफ़ा अली। सभी लोग उसे तोफ़ा बाबू कहते हैं।”

“कितनी शादियां हैं उसकी?”

जुल्फ़ो हंसा। उसकी हंसी के अंदाज़ ने बता दिया जैसे इस जवाब में कई कहानियां पोशीदा थीं। लड़की को ये अच्छा न लगा।

“अच्छा तो उसने कभी भी शादी नहीं की? क्या यही बात है?” लड़की ने उससे जवाब निकलवाने के लिए पूछा।

“क्यों नहीं की? क्या एक मर्द शादी के बग़ैर रह सकता है?”

“तुम्हें कैसे पता है कि वह नहीं रह सकता?”

“मुझे सब पता है। मेरे मालिक ने पांच शादियां की हैं। पहली बीवी बच्चा जनते हुए मर गई, और फिर नवजाद बच्ची भी दार-ए-फ़ानी से कूच कर गई। दूसरी किसी और मर्द के साथ भाग गई थी। उसके बाद आने वाली बीवी को मालिक ने ख़ुद ही तलाक़ दे दी थी। तो, मैंने कितनी गंवा दी हैं?”

“सिर्फ़ तीन,” लड़की ने दिलचस्पी से जवाब दिया।

“जहां तक चौथी बीवी का ताल्लुक़ है तो उसे चेयरमैन का बेटा पटसन के खेत में ले गया।”

“रुको... तुम्हें और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।”

“यक़ीनी तौर पर मालिक को उसे तलाक़ देनी पड़ी। अब हाल ही में उसकी पांचवीं शादी हुई है। उनका कोई बच्चा नहीं है। क़ुदरती तौर पर मालिक इस बारे में बहुत उदास है।”

“उदास। उसने अभी तक कुछ भी नहीं देखा!” लड़की ने आह भरी। वह इस अजीब-ओ-ग़रीब इन्सान से मिलना चाहती थी। वह उठी और अपनी टांगें और बाज़ू सीधे किए, अपना पांव सीधा किया और ज़ोर-ज़ोर से हिलाया, जो कि शल हो चुका था। जुल्फ़ो ने महसूस कर लिया कि बिल-आख़िर वह उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गई थी।

उसने अपना बाज़ू उसकी तरफ़ बढ़ाया और कहा, “आओ चलें।”

“हां, आओ चलें।” आख़िर-ए-कार लड़की बेनियाज़ी के साथ उठी और ख़ुद को संभलते हुए जाने के लिए तैयार हो गई। अगर वह अभी कुछ भी न खाती तो रात को खड़े होने के काबिल न रहती। उन्होंने गली पार की और तोफ़ा अली रेस्टोरेंट में दाख़िल हो गए। वहां पर ज़्यादा लोग न थे, सिर्फ दो आदमी खाना खा रहे थे। जुल्फ़ो ने दरवाज़े के क़रीब खड़े होकर लड़की की आमद की इत्तिला दी।

“मालिक... मैं उसे ले आया हूं,” उसने ऊंची आवाज़ में कहा, “आओ आंटी।”

“मालिक… मैं उसे ले आया हूं,” जुल्फ़ो ने दोबारा वही अल्फ़ाज़ अगली रात भी दोहराए थे।

लड़की के लिए दोबारा वही अल्फ़ाज़ सुनना बहुत तकलीफ़-देह अमल था। उसने महसूस किया जैसे गर्म तपते हुए लोहे का रॉड उसके कानों में डाल दिया गया हो। उसको मालूम न था कि इस रॉड की लंबाई कितनी थी या ये दाख़िल होने में कितना वक़्त लेगा। तोफ़ा बाबू अपने चेहरे पे दांतों की नुमाइश करती खिसियानी हंसी लिए क़रीब ही बैठा हुआ था। उसकी मोतियों की तरह काली आंखों पर दो काली बहुत ही घनी-आबरू लटक रही थीं और एक मोटा और बड़ा-सा नाक उसके चेहरे पे क़ब्ज़ा जमाए हुए था। सामने से उसके बालों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा उड़ गया था। उसका मोटा छूलता हुआ पेट उसे गर्भवती गाय की याद दिलाता था। लड़की यह मंज़र ज़्यादा देर न देख सकी। उसने दूसरे दो खाना खाते मर्दों को देखने के लिए नज़रें दूसरी तरफ़ मोड़ दें। जुल्फ़ो ने उसका परिचय कराना शुरू किया,

“मालिक! इसका नाम शहज़ादी है। बूढ़ी भिकारन ने उसे ये नाम दिया।”

यह सुनकर दोनों आदमी हंसी से लौट-पोट हो गए और खाने के जर्रात उनके मुंह से बाहर उछल पड़े। तोफ़ा बाबू भी हंस रहा था। वह इशारे से उसे बुलाकर अंदर ले गया।

“आओ और बैठ जाओ... शहज़ादी!”

“मेरा नाम गड़ीगांव है,” लड़की ने कहा।

“मुझे समझ आ गई। आप औरत नहीं हो। आप एक गांव हो। आओ... आओ... क्या तुम भूखी नहीं हो?”

“हां, मैंने दो दिन से कुछ नहीं खाया।”

“अरे जुल्फ़ो... उसे चावल और गोश्त की दो प्लेटें ला दो। क्या तुम ये सब ख़त्म कर लोगी?”

“हां, मैं कर लूंगी। चावल खाना कोई इतना मुश्किल काम भी नहीं है।”

तीनों मर्द और लड़का एक-बार फिर हंसी से लोट-पोट हो गए, जैसे लड़की ने बहुत अनहोनी और मज़ाकिया बात कह दी हो। दोनों मर्दों का दम घुट गया, क्योंकि उन्होंने अपने भरे हुए मुंह के साथ बोलने की कोशिश की। लड़का भाग कर उनके लिए पानी का गिलास ले आया।

तोफ़ा ने लड़की के कान में सरगोशी की, “खाओ... मेरी जान!”

लड़की जल्दी से बंच पर बैठ गई और चावलों की प्लेट अपने क़रीब खिसकाई। वह हाथ तक धोना भूल गई थी। तोफ़ा का गर्म सांस अभी तक उसके कानों में था। उसने महसूस कर लिया कि ये तोफ़ा बाबू ही था जिसने इस छोटे बंदर को उसे फांसने के लिए भेजा था। शायद इसने बहुत फ़ासले से ही उसको देख लिया था और उसे ख़ासी देर अकेला बैठे हुए देखकर उसने सही चांच लिया था कि उसके पास कोई ठिकाना नहीं था। उसने खाना रोका, अपना सिर उठाया और देखा कि दोनों मर्द अपना खाना ख़त्म कर चुके थे। वह बग़ौर उसका जायज़ा ले रहे थे।

उसकी कानों में जुल्फ़ो की आवाज़ गूंजी, “मैं इसे लाया हूं...”

कैसी ज़िंदगी है! एहसास ज़िल्लत ने उसे आ लिया। उसने जल्दी-जल्दी मुट्ठियां भरकर चावल अपने मुंह में डाले। उसको खाना भला लगा और उसकी आँखें ख़ुशी के आंसुओ से भर गईं, जो उसने अपने बाएं हाथ से साफ़ कीं। तीनों मर्द उसके सामने आकर बैठ गए।

“आप क्यों रो रही हो...?” एक आवाज़ ने पूछा, जिसे वह नहीं पहचानती थी।

“शहज़ादी, किस बात ने तुम्हें रुला दिया?” तोफ़ा भी बातों में शामिल हो गया।

लड़की ने ग़ैर-यक़ीनी नज़रों से उनको देखा, “मैं क्यों रोने लगी? मैं क्यों रोऊँगी जब मेरे पास चावल हैं? मैं बहुत ख़ुश हूं। तुमने मुझे खाने के लिए बहुत कुछ दिया है। मैंने एक वक़्त के खाने में कभी भी उतना गोश्त नहीं खाया। ख़ुदा का लाख लाख शुक्र है!”

“शहज़ादी...! क्या तुम आराम करना चाहती हो?”

“हां... चावल खाने के बाद मुझे बहुत नींद आती है।”

उसने एक बड़ी डकार ली, लंबी जमाई ली और अपनी थकी हुई आंखों को ज़ोर से रगड़ा। उसने प्लेट पर अपने हाथ धोए और पांव समेट कर बैंच पर बैठ गई। उसने अपनी पीठ, कंधे और गर्दन ढांपने के लिए अपनी साड़ी का आंचल ठीक किया लेकिन उसकी छातियां अभी भी नुमायां थीं। गहरे रंग-ओ-रूप और अच्छे नैन-क़्श के साथ उसका जिस्म ग़ुर्बत के बावजूद, सेहतमंद और जवानी से भरपूर था और दिल मोह लेने वाला चेहरा इसके उलावा था। क़िस्सा मुख़्तसर, उस की शख़्सियत लुभावनी थी।

लड़की ने महसूस कर लिया कि तीनों मर्द अभी तक उससे इश्वा-गरी कर रहे हैं। उसने तसल्ली बख़्श मासूमाना मुस्कुराहट के साथ वहां खड़ा रहने की कोशिश की। वे मर्द उसकी मुस्कुराहट को न समझ सके। वह इतनी मासूम थी जैसे अभी तक दुनिया का कोई गुनाह उसे छू कर भी न गुज़रा हो और ऐसे हो भी कैसे सकता था? क्या वह अभी-अभी आसमानों से उतर कर नहीं आई थी? तीनों मर्द मुकम्मल तौर पर दंग रह गए।

“शहज़ादी... तुम कहां सोओगी।”

“यहीं। बैंच पर ही।”

“क्या तुम्हारे पास तकिया और कम्बल है?”

“नहीं... मैंने अपने बाप का घर बहुत ही ग़ुस्से के आलम में छोड़ा। मैं तकिया और कम्बल तो एक तरफ़ अपने कपड़े तक नहीं ला सकी।”

“शहज़ादी... मैं तुम्हें तकिए और कम्बल दूंगा। मैं एक ट्रक चलाता हूं। तुम मेरे ट्रक में सो सकती हो। हक़ीक़त में तुम्हें वहां पर बहुत सुकून मिलेगा।”

“नहीं, नहीं, वह क्यों ट्रक में सोएगी? मैं चार बैंच आपस में मिलाऊंगा; उनपर एक गद्दा और ख़ूबसूरत चादरें डालूंगा। तुम्हें फौरन ही नींद आ जाएगी, जैसे ही तुम उसपर लेटोंगी।”

इससे पहले कि दूसरा आदमी बोलता, तोफ़ा ने तहक्कुमाना लहजे में कहा, “अपनी बकवास बंद करो। नहीं तो मुझे तुम लोगों को बाहर फेंकना पड़ेगा।”

“क्यों? मैं क्यों न बोलूं?” उन दोनों में से एक आदमी बोला, जो वहां खाना खा रहे थे।

“तुम भूल रहे हो कि मैंने उसे खाना दिया है।”

“खाना कितने का था? मैं तुम्हें पैसे देता हूं।”

“क्या-क्या तुम मुझे अपना पैसा दिखा रहे हो? यहां से दफ़ा हो जाओ।”

जब दोनों आदमी तोफ़ा को घूंसे मारने के लिए उठे तो लड़की अपने दोनों बाज़ू फैलाकर भागती हुई आई और उनके बीच में खड़ी हो गई।

“तुम क्यों लड़ रहे हो? तुम लोग मुझसे क्यों नहीं पूछते कि मैं कहां पे सोऊंगी? तुम लोग ख़्वामख़्वाह ही झगड़ रहे हो।”

लम्हे भर के लिए तीनों मर्दों और लड़के ने ख़ुद को अहमक़ समझा और बिल्कुल ख़ामोशी से खड़े हो गए। अब वे अपनी असलियत इस पर ज़ाहिर कर चुके थे, वे दोनों मर्द लड़की को किसी भूत की तरह लगे। एक का हड्डियों से भरपूर जिस्म था, जिस पर गिध की तरह तुड़ा-मेढ़ा चेहरा था। उसके बाल छोटे-छोटे थे और उसकी खुरदरी आवाज़ किसी और फटे बांस की तरह थी। वह कोई बुरे-चरित्र का पुलिस वाला लगता था। दूसरा आदमी फ़िल्म के किसी विलेन की तरह दिखाई देता था। बटन की तरह उसकी आंखों में एक क़ातिल जैसी बद-रूह एक ही नुक्ते पर जमी हुई थी। लड़की को उसका मोटा-ताज़ा चर्बी-ज़दा जिस्म देखकर मतली आने लगी। हर शख़्स हवस के साथ उसको तक रहा था और वह महज़ूज़ हो रही थी।

अचानक जुल्फ़ो ने पूछा, “शहज़ादी आंटी, तो आप सोच लो कि आपने कहां सोना है?”

कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद लड़की ने जवाब दिया, “आज रात मैं यहीं सोऊंगी। कल रात मैं ट्रक में सोऊंगी। अब ढाका शहर में हर कहीं एक बिस्तर मेरा मुंतज़िर है।”

लड़की ने एक ऊंचा क़हक़हा लगाते हुए कहा, जिससे सारे मर्द लुत्फ़-अंदोज़ हुए।

तोफ़ा बाबू ने तहक्कुमाना लहजे में कहा, “शहज़ादी। मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगा। तुम इसी होटल में काम करोगी और मैं तुम्हें तनख़्वाह दूंगा। तुम यहीं, मेरे साथ रहोंगी।”

लड़की अपने जिस्म को लहराते हुए खिलखिला के हंसी। उसने तोफ़ा की राय पे कोई तवज्जा न दी; इसके बजाय उसने दोनों मर्दों से मुख़ातिब होकर कहा, “अभी तुम लोग घर जाओ और कल वापस आना।”

उन दोनों के चले जाने के बाद आज रात के लिए उसने अपने पांव बैंच पर समेट लिए। दो नए ग्राहक खाने के लिए आए और तोफ़ा और जुल्फ़ो उन दोनों के साथ व्यस्त हो गए। दाल, गोश्त, चावल और भुनी हुई सब्ज़ी की भरी हुई प्लेटें उनको ला दी गईं। उन्होंने जल्दी-जल्दी अपना खाना ख़त्म किया और चले गए। उन्होंने लड़की को देख लिया था लेकिन उन्होंने इस पर कोई तवज्जो न दी। कम-अज़-कम, अभी तक इस ज़मीन पर कुछ इन्सान बस रहे थे। अपने ज़हन में उन्हीं ख़्यालात के साथ लड़की ने अपना सर मेज़ पर टिकाया और सो गई।

रात के किसी पहर लड़की ने महसूस किया कि वह लकड़ी के बैंचों के जोड़े पर सोई हुई थी, जिनको मिलाकर एक बिस्तर बनाया गया था। तोफ़ा उसके क़रीब सोया हुआ था। वह इस रात घर नहीं गया था। उसके नंगे बदन पर हमलावर होने के बाद वह बेसुद्ध हुआ पड़ा था। क्या वह वाक़ई ही सोया हुआ था? जब लड़की ने उसे कोहनी मारी तो वह बहुत ही दिलफ़रेब आवाज़ में बोला, “शहज़ादी! क्या तुम कुछ कहना चाहती हो?”

“मेरा नाम गड़ीगांव है।”

“किसी को किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है।”

“मुझे गड़ीगांव ही कहो।”

“ठीक है। मैं ऐसा ही करूंगा। क्या तुम ख़ुश हो, गड़ीगांव? या तुम्हें कुछ और चाहिए।”

ख़ुश... लड़की की हालत रोने वाली हो गई; उसे दुख और ग़म का शदीद एहसास हुआ। वह अपना कुंवारापन इसी तरीक़े से खो चुकी थी; जिस तरह ज़बरदस्ती बिस्तर से धकेलकर दो मर्दों ने उसे अपने कमरे से पटसन के खेत में ले जाकर नोचा था। उसको न तो ख़ुशी महसूस हुई और न ही उदासी; उसे अपनी पीठ पे बिच्छू के डंग जैसा दर्द महसूस हुआ और शदीद नफ़रत की लहर उसके मन में फैल गई। तोफ़ा दोबारा उस पर सवार हो चुका था। उसने कोई विरोध न किया। आज उसको इस बैंच पर सिर्फ एक मर्द को खुश करना था। कल रात ट्रक में उसे दो मर्दों से निबटना पड़ेगा।

तोफ़ा ने लड़की से दोबारा पूछा, “गड़ीगांव... क्या तुम ख़ुश हो?”

तब लड़की ने तोफ़ा को अपनी कहानी सुनाना शुरू की।

“एक दिन जब मेरा बाप घर पर नहीं था। तक़रीबन आधी रात के क़रीब बिज्लव दीवार फलांग कर हमारे घर में घुस आया और मेरे कमरे में दाख़िल हो गया। बिज्लव के साथ दो-तीन और बंदे भी आए थे। उन्होंने मेरा मुंह कपास के तोलिए से बांधा और फिर अपनी बारियां लेने लगे। हमारे पड़ोसियों को पता चल गया और उन्होंने बिज्लव को पकड़ लिया। लेकिन दूसरे सारे भाग गए। बिज्लव चेयरमैन का बेटा है, जिसने इस तरह की कार्यवाहियां कई दफ़ा की हैं। हर बंदा उसे जानता था। अगले दिन मेरे बाप को सारी कहानी पता चली और वह ठिटककर रह गया। हवास के बहाल होते ही उसने इन्साफ़ का मुतालिबा कर दिया। पहले वह इस मसले को गांव के सरदार के पास ले गया, जिसने उसे बताया कि वह कुछ भी नहीं कर सकता। गांव का चेयरमैन बिज्लव का बाप गांव का बहुत ही ताक़तवर आदमी था। उसने बताया कि वह हमारी ज़िंदगियां तक तबाह कर सकता था। फिर मेरा बाप पुलिस के पास गया, जहां पर उन को सिर्फ-ओ-सिर्फ पैसे से मतलब था। किसी को भी परवाह न थी कि एक दिहाड़ी करने वाला मज़दूर उनसे क्या कहना चाहता था। इसके बावजूद भी वह बिज्लव के ख़िलाफ़ केस को सामने ले आया। बिज्लव के बाप ने केस ख़त्म कराने के लिए पैसे का ख़ूब इस्तिमाल किया। लेकिन मेरे बाप ने हक़ीक़त को बदलने से इनकार कर दिया। वह कहता रह गया कि एक ऐसा मुल्क़ जहां पर इन्साफ़ न हो कभी भी समस्याओं से छुटकारा नहीं पा सकता। मैंने भी उसे कहा कि वह केस ख़त्म कर दे लेकिन वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार न था। आख़िरकार, चेयरमैन ने अपने गुंडे भेजे ताकि हमें अपने घर और गांव से बेदख़ल किया जा सके। मैंने अपने बाप के साथ जाकर बिज्लव के बाप से इल्तिजा की और उससे माफ़ी की दरख़ास्त की ताकि हम अपने घर में वापस जा सकें। मैंने कहा कि हम जैसे ग़रीब लोग इतने ग़रूर और इज़्ज़त के कभी जांबदार नहीं हो सकते। पूरे घर में सारे लोग सिर्फ मेरी वजह से तकलीफ़ क्यों बर्दाश्त करें? मेरी मां है, भाई और बहनें हैं; अब वे सब कहां रहेंगे? जब उसने मेरी इल्तिजा की कोई परवाह नहीं की तो मैंने अपना रास्ता ढ़ूढ़ने का फ़ैसला किया। मैं शहर जाने वाली एक बस पर सवार हो गई और अब मैं यहां हूं।”

“ओहो अच्छा... फिर तो तुम कुंवारी न हुई। ये काम पहले ही कोई तुम्हारे साथ कर चुका है,” तोफ़ा ने अफसोस करते हुए कहा।

“अगर मैं कुंवारी होती तो क्या मैं तुम्हें इस तरह हाथ लगाने देती?” एक झलकती हुई बेइज़्ज़ती के साथ अल्फ़ाज़ उसके मुंह से फ़िसले, जैसे ही लड़की ने बिस्तर पर अपना पहलू तब्दील किया।

तोफ़ा घर में अपनी बीवी होने के बावजूद उसके साथ अपना वक़्त गुज़ार रहा था। उसने जुल्फ़ो को उसे बताने के लिए भेजा था कि वह कारोबार के सिलसिले में नारंगिंग जा रहा है। जुल्फ़ो अपनी उम्र से ज़्यादा चालाक लड़का था और सब कुछ समझता था। शायद एक दिन वह भी बग़ैर पैसों के उसके साथ सोने की फ़र्माइश करेगा। लड़की ने एक सर्द आह भरी। उसे बेइज़्ज़ती महसूस नहीं होगी। उसने वहां सब कुछ सीखना ख़त्म कर दिया था, क्योंकि वह अब काफ़ी कुछ सीख चुकी थी। तोफ़ा ने उसकी जवानी सिर्फ दो प्लेट चावलों में ख़रीद ली थी।

अगली रात उसे कुछ रक़म ज़रूर हासिल करना होगी। उसे शिद्दत से रक़म की ज़रूरत थी। तोफ़ा को उसकी सारी ख़िदमात का मुआवज़ा चुकाना पड़ेगा। उसने बिस्तर पर दोबारा अपना पहलू बदला और पूछा, “क्या तुम जाग रहे हो?”

“क्या तुमने कुछ कहना है?”

“क्या तुम मुझे पैसे दे रहे हो?”

तोफ़ा बिलबिला उठा, “मैंने तुम्हारे खाने और सोने का बंदोबस्त किया है। इसके अलावा तुम मुझसे पैसे भी मांग रही हो? तुमने किया ही क्या है?”

“आह... हम दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने तुम्हारा क्या काम किया है। अगर तुम मुझे पैसे नहीं दोगे तो मैं तुम्हारी बीवी से शिकायत कर दूंगी।”

“क्या कहा तुमने।”

“जो भी मैंने कहा वह सच ही है। मुझे पैसों की बहुत ज़रूरत है। मेरा बाप जो दीहाड़ी का एक मज़दूर है, उसे घर वापस लेने के लिए रक़म की शदीद ज़रूरत है, जो मेरी वजह से उसके हाथ से निकल गया है। मैं उसे कुछ रक़म भेजना चाहती हूं, घर के खर्चों के लिए और उसकी मुरम्मत के लिए भी, क्योंकि बिज्लव ने मेरे कमरे में दाख़िल होने के लिए उसकी एक दीवार तोड़ दी थी।”

“मेरे ख़ुदाया... मुझे तो अब पता चला कि तुम बहुत चालाक औरत हो!”

“तुम मुझे कितने पैसे दोगे।”

“मैं तुम्हें बताऊंगा। मुझे इस बारे में सोचना पड़ेगा। एक दफ़ा फिर?”

“ठीक है। फिर हिसाब करते रहना कि तुमने मुझे कितने पैसे देना हैं।”

“क्यों? क्या तुम गिन नहीं रही हो?”

“यक़ीनन। मैं गिन रही हूं।”

“तुम गिनती में बहुत अच्छी लगती हो। तुम्हारी तालीम कितनी है?”

“इस तरह के हिसाब-किताब के लिए ज़्यादा तालीम की ज़रूरत नहीं होती। ये गिनती औरत ख़ुदबख़ुद सीख जाती है।”

“दरअसल। तुम बहुत अच्छी तरह सीख चुकी हो,” तोफ़ा दिल खोलकर हंसा।

जब अगली सुब्ह-सवेरे तोफ़ा ने दोबारा उसको हिलाया तो लड़की का दिल चाहा कि वह सचमुच ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाए। उसने महसूस किया कि वह यह जंग ज़्यादा देर नहीं लड़ सकती। उसने सोचा कि उसकी ज़िंदगी दरिया की तरह थी, जो उसके गांव गड़ीगांव के साथ बहता था। कभी उसमें बड़े-बड़े लदे हुए बहरी जहाज़ सफ़र करते थे लेकिन अब यग दरिया एक नहर से ज़्यादा नहीं बचा। इसका ज़्यादातर हिस्सा कटाव की वजह से ख़त्म हो चुका था और अब इसमें दो कश्तियां भी एक साथ नहीं तैर सकती थीं। उसने ख़ुद को भी इस मुर्दा दरिया की तरह समझा, जिसकी ज़िंदगी सीम-ज़दा हो चुकी थी, जो कभी भी ठीक न होने वाली थी। काम ख़त्म होने के बाद लड़की कमरे से बाहर निकली। अभी बहुत सवेरा था और दिन का आग़ाज़ हुआ चाहता था। सड़कें बिल्कुल ख़ामोश थीं। सभी लोग अपने अपने घरों में सो रहे थे। सिर्फ वह नहीं जानती थी कि उसने कहां जाना था। वह वापस कमरे में आई और तोफ़ा के साथ लेट गई। उसने याद किया कि पिछली रात वह घर नहीं गया। इसकी तरह इसकी बीवी ने भी नींद के बग़ैर रात गुज़ारी होगी। उसने उसको बिस्तर से धकेल दिया और इस पर लानत भेजी।

“बेग़ैरत गिद्ध!!!”

तोफ़ा की तिजोरी में से पैसे हथियाने के बाद लड़की ने अपनी साड़ी के पल्लू के आख़िर में उस रक़म को बांधा और कमरे से बाहर निकल आई। जब तोफ़ा मेज़ के नीचे से निकला, जहां वह लेटा था, लड़की ने एक रिक्शा कर लिया था और वह वहां से रुख़स्त हो गई।

“कहां जाना चाहती हो?” रिक्शे वाले ने पूछा।

लड़की ने बग़ैर किसी तकल्लुफ़ के कहा, “भाई, क्या तुम काम ढ़ूढ़ने में मेरी मदद कर सकते हो?”

“काम? कैसा काम?”

“किसी घर में कोई काम-काज, या किसी तामीराती जगह पर ईंटें तोड़ने का काम, जहां से मुझे कुछ पैसे मिल जाएं।”

“फिर मेरी बीवी के पास जाओ। वह तुम्हें कोई न कोई काम ढूंढ देगी। चाहे वह कोई छोटा काम ही क्यों न हो। लेकिन मेरी एक शर्त है।”

“वह क्या है?”

“नौकरी मिलने के बाद तुम्हें मेरे साथ एक दिन के लिए सोना पड़ेगा।”

लड़की के क़हक़हे फूट पड़े। दिन के इस वक़्त सड़कों पे किसी किस्म का कोई रश न था। हवा में थोड़ी-सी ख़ुनकी थी, उसे इतना ऊंचा हंसना बहुत भला लगा। इतना ऊंचा कि रिक्शे वाले ने वापस मुड़कर देखा और उससे पूछा, “तुम हंस क्यों रही हो?”

“ये सबसे आसान काम है, जो मैं कर सकती हूं,” लड़की ने कहा, “तुम ये कब करना चाहते हो? पहली बार यह मुफ़्त होगा; बाक़ी तमाम बार तुम्हें पैसे देना पड़ेंगे। मुझे अपने दीहाड़ीदार बाप को पैसे भेजना होते हैं, जो सरासर मेरी वजह से मुश्किलात में घिरा हुआ है।”

“मैं समझ गया। और अगर मैं तुम्हें आज जैसी ठंडी सुब्हों में रिक्शे की मुफ़्त सवारी देकर तुम्हारा मुआवज़ा चुका दूं तो?”

“नहीं। मुझे पैसों की ज़रूरत है। तुम मुझसे काम लेना चाहते हो लेकिन मुझे पैसे देने के लिए राज़ी नहीं हो। इस तरह कैसे काम चलेगा,” लड़की ने ऊंची आवाज़ में जवाब दिया।

उस आदमी ने कोई जवाब न दिया। वह लड़की को अपने घर के करीब ले गया और ख़ासे फ़ासले से एक ओर इशारा किया, “उसके पास जाओ। वह ईंटें तोड़ती है। अगर मुम्किन हुआ तो वह तुम्हें काम ज़रूर देगी। अभी मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकता। लेकिन तुमने अपना वाअदा याद रखना है।”

लड़की ने कोई जवाब न दिया।

इसके बाद उसे यूं महसूस हुआ कि यहां पर काम की कोई कमी न थी। अब वह बाक़ायदगी से अपने बाप को रक़म भेजती।

वह ढाका शहर में लाखों लोगों में से एक हो गई थी। वह ख़ुद पे अजीब-ओ-ग़रीब-सी ख़ुशी महसूस करती। अगर वह किराया न दे सकती तो गलियों में सो जाती या फिर किसी ट्रक की छत पर। एक दफ़ा वह कुछ मर्दों के साथ एक दूसरे शहर भी गई और वहां पर यादगार वक़्त गुज़ारा।

एक दिन उसने वह मुश्किलात महसूस कीं, जो चोबी की गर्भवती मां गली में महसूस करती थी।

“तुम्हारे इतने ज़्यादा बच्चे क्यों हैं?” उसने एक दिन पूछा था।

“मैं गली में सोती हूं; भला हर रात में कितने मर्दों को ख़लीज पर रख सकती हूं?”

लड़की हक्का-बका रह गई। उसकी आंखों में एक अजीब-ओ-ग़रीब-सा ख़ौफ़ लहराया। उसने जल्दी-जल्दी हिसाब लगाया, उसको पिछले महीने तय वक्त में माहवारी नहीं हुई थी। शायद यह इसी वजह से हो? उसे सिर्फ इंतज़ार करना और देखना पड़ेगा। दिन गुज़रे और हक़ीक़त में उसको इस नंगे सच का सामना करना पड़ा। वह अपनी पुरानी नौकरी करने के काबिल नहीं रही थी। कोई भी उसे घर में नौकर रखने को तैयार न था। अब उसको सिर्फ एक ही नौकरी मिली थी, एक होटल में बावर्ची के मुआविन की नौकरी, जिसमें उसका काम मसाले कूटने का था। उसकी छोटी-सी तनख़्वाह में इतनी रक़म ही होती कि वह एक दिन से दूसरे दिन तक बमुश्किल गुज़ारा करती। लोग उसके बड़े पेट को हिक़ारत के साथ मज़ाक़ उड़ाते। कुछ उसका मुंह चिढ़ाते जबकि कुछ कभी-कभार उसके कपड़ों में पांच रुपेय का एक नोट उड़ूस देते। अभी भी लड़की चाहती थी कि वह ढाका शहर के इस अस्तबल में किसी सम्मानित बच्चे को जन्म दे। एक ऐसा बच्चा, जो ढाका शहर से सारी गंदगी को दूर बाहर करे और ये ऐलान करे,

“देखो मैं न कहता था कि यह शहर बहुत ख़ूबसूरत है!!! मर्द अपने दलों को टटोलेंगे और वहां उन को कोई गंदगी नज़र नहीं आएगी बल्कि सिर्फ़ साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ पानी नज़र आएगा। लेकिन इनमें से कुछ ऐसे भी होंगे जिनके पथरीले दिल इतने साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पानी से भी न धुल सकेंगे। वह हाथों में फंदे लेकर हरवक़्त तैयार होंगे और गिराते हुए कहेंगे,

“शहर को साफ़ करो। जल्दी करो। ओह, इस जुर्म के लिए तुम्हारी सज़ा मौत है!”

ठिटकते हुए लड़की ने ख़ौफ़ज़दा होकर अपने दिन-ब-दिन बढ़ते हुए पेट को छुआ। चोबी की मां ने एक-बार इशारा दिया था कि वह जुड़वां बच्चों की मां बनेगी। लड़की हंसी थी।

“एक के बजाय मुझे इस मज़दूरी के दो बच्चे मिलेंगे। ये तो और भी अच्छी बात है।”

“यह तो अच्छी बात है। लेकिन उनके बाप का कोई अता-पता नहीं है। तुम उनको कैसे पालोंगी।”

“गली में पैदा होने बच्चों को बड़ा होने के लिए रक़म की ज़रूरत नहीं होती; वे ख़ुदबख़ुद बड़े हो जाते हैं।”

वह दोबारा खिलखिलाकर हंसी। उसका भी एक बाप था, जो दीहाड़ीदार मज़दूर था। वह उस की ज़िंदगी में कितना फ़ायदामंद साबित हुआ था। वह हैरान थी।

यह आम-सी नीली चांदनी वाली रात थी। लड़की को मज़दूरी जैसे दर्द की टीस उठीं। वह कच्ची आबादी में अपने घर से बाहर निकली। दर्द आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता गया, जो लहरों की तरह उसके सारे जिस्म में हिचकोले खा रहा था। वह ख़ामोश गली के दरमियान बैठ गई। रात की सर्द हवा ने उसके जिस्म को ठिठरा कर रख दिया। वह इस शदीद दर्द पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रही थी। उसकी चीख़ों ने पड़ोस में सारे कुत्तों को मुतवज्जा कर दिया था। वे आकर उसके क़रीब बैठ गए और कभी-कभार उसका सिर चाटने लगते।

उस रात उसने दो बच्चों को जन्म दिया, एक लड़की और एक लड़का। वह ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। वह सोच भी नहीं सकती थी कि इस शहर की ये गली, जो निकासी के किसी नाले की तरह गंदी थी, पूरे चांद की किसी रात में कभी इतनी ख़ूबसूरत भी हो सकती है। आख़िरी कुछ महीनों में उसने इस शहर में ख़ूबसूरती की कोई भी शैय महसूस नहीं की थी। किसी न किसी तरह वह उठने में कामयाब हो गई और अपनी कमरबंद में से अपना पर्स निकाला और उसमें से एक नया सिक्का निकालकर बच्चों की नाल काट कर अपनी नाफ़ से अलग किया

लड़की जानती थी कि अभी कुछ देर में सुबह हो जाएगी। कच्ची आबादी में से औरतें उसकी दोस्त उसको तलाश करती हुई आएंगी औरउसे इस गली में पाएंगी। वह बच्चों को देखेंगी और एक दूसरे को कहेंगी,

“देखो, गड़ीगांव ने बिल-आख़िर कुछ अच्छा किया है। इसने एक ही वक़्त में दो बच्चों को जन्म दिया है। एक छोटी-सी ख़ूबसूरत लड़की और एक प्यारा-सा छोटा लड़का। आओ... उनको उठाएं और उनको घर ले चलें। हम उनको सब कुछ देंगे जो भी हमारे पास है। और... अरी गड़ी गांव... क्या अब आख़िरकार तुम हमें अपना असल नाम बताओगी।”

लड़की ने अपना सिर ख़ुशी के मारे झटका। वह बहुत ज़्यादा ख़ुश थी। वह चिल्लाई, उसकी आवाज़ ख़ुशी के मारे बुलंद हो गई।

“हाँ... मैं बताऊंगी। मैं हर किसी को ख़ुशी-ख़ुशी अपना नाम बताऊंगी। सुनो... सब सुनो... जो भी इस शहर में रहता है... मेरा नाम पुष्प-लता है... फैलने वाला फूल... और मुझमें यह ताक़त है कि मैं हज़ारों फूल खिला सकती हूं।

 

 

 

सलीना हुसैन
सलीना हुसैन

सेलिना हुसैन का जन्म 14 जून 1947 को हुआ था। उन्हें आधुनिक बंगाली साहित्य के अग्रणी लेखकों में से एक माना जाता है। उनके अभी तक इक्कीस उपन्यास, सात कहानी संग्रह, चार निबंध संग्रह और बच्चों की कहानियों के चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी रचनाएं समकालीन सामाजिक और राजनीतिक संकटों और संघर्षों के... सेलिना हुसैन का जन्म 14 जून 1947 को हुआ था। उन्हें आधुनिक बंगाली साहित्य के अग्रणी लेखकों में से एक माना जाता है। उनके अभी तक इक्कीस उपन्यास, सात कहानी संग्रह, चार निबंध संग्रह और बच्चों की कहानियों के चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी रचनाएं समकालीन सामाजिक और राजनीतिक संकटों और संघर्षों के साथ-साथ संघर्षरत जनता के जीवन के आवर्ती चक्रों का विस्तृत दस्तावेज हैं। उनके कई उपन्यासों का भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं और फ्रेंच, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद किया जा चुका है। उनका उपन्यास ‘हैंगोर नादी ग्रेनेड’ (ए शार्क, ए रिवर, ए ग्रेनेड) 1971 को बांग्लादेश मुक्ति संग्राम पर लिखा गया मौलिक उपन्यास माना जाता है। हाल तक उन्होंने राज्य-वित्तपोषित स्वायत्त निकाय ‘बांग्ला अकादमी’ की पहली महिला निदेशक के रूप में कार्य किया। उन्हें कई साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिनमें प्रतिष्ठित बांग्ला अकादमी साहित्य पुरस्कार (1980) भी शामिल है। 1994-95 में उन्होंने अपने उपन्यास ‘गायत्री संध्या!’ के लिए फोर्ड फाउंडेशन फ़ेलोशिप जीती। वह बांग्लादेश, ढाका में रहती हैं।