मैं अकेला नहीं हूं

कहते हैं कि जेब से खाली इंसान पर सबसे पहली और सबसे ज़्यादा मार अपने घर से ही पड़ती है। अगर आपके पास काम नहीं है और आप बेरोज़गार हैं तो आप पर सबसे पहला और तीख़ा वार आपके मां-बाप और भाई-बहन ही करते हैं। इस कहानी में लेखक ने ऐसे ही बेरोज़गार और काम की तलाश में भटकते एक नौजवान की रुदाद बयान की है। कहानी का प्रमुख चरित्र फिलिस्तीन के हाइफ़ा शहर में रहता है, जहां वह शुरू में एक छोटी-मोटी नौकरी करता है। मगर राजनीतिक और साथियों की तिकड़मबाज़ियों की वजह से उसकी वह नौकरी भी चली जाती है। इसके बाद काम की तलाश में वह कैसी-कैसी मुसीबतों, तकलीफ़ों और अत्याचारों से दो-चार होते हुए किस तरह अपनी ज़िंदगी के लिए एक सार्थक पहल पर पहुंचता है, उसकी इसी जद्दोजहद ने कहानी को बेहद दिलचस्प बना दिया है।

मैं अकेला नहीं हूं

 

अनुवाद: शहादत 

(1)

अख़ी-मुदीरे अल रोज़नामा अल इत्तिहाद!

सलाम मस्नून,

मैं आज आपको अपनी एक तहरीर भेज रहा हूं। यह मेरी ज़िंदगी की हक़ीक़ी कहानी है, कड़वे अनुभवों पर आधारित एक ऐसी कहानी, जिसका सामना यहां हर ग़रीब आदमी को करना पड़ता है।

मैं सैकेण्डरी स्कूल का विद्यार्थी हूं। गर्मियों की छुट्टियों में मैंने आरिज़ी तौर पर कोई काम तलाश करने का सोचा। सारा दिन इधर-उधर मारा-मारा फिरने के बाद मेरे हिस्से में सिर्फ भूख और प्यास आई। मारे थकन के सारा बदन फोड़ा बन गया है।

मुझे इस दुनिया की हर चीज़ से नफ़रत हो गई है, क्या ज़िंदगी के ये सारे दुख मेरी तक़दीर में ही लिखे थे। अब तो मैं यह सोचने लगा हूं कि जैसे इस दुनिया में मेरे आने का कोई कारण है ही नहीं। किसी और से तो क्या मैं ख़ुद से भी उकता गया हूं। ज़रा सोचिए कि दुनिया के बाक़ी लोग तसव्वुर करें और मुझे मेरे दुखों समेत भाड़ में झोंक दिया जाये, तक़दीर लिखने वाले ने ऐसे नसीब लिखे हैं मेरे। मैं अपने ग़मों की रूदाद पूरी तरह बयान नहीं कर पा रहा, शायद दिमाग़ी तौर पर बहुत ज़्यादा थक चुका हूं और सिर में भी शदीद दर्द है। थकान की वजह से मेरे बदन की सारी हड्डियां चटख़ गई हैं।

मैंने शहर की हर गली में सदा लगाई, हर दरवाज़े पर दस्तक दी, हर कारख़ाने, वर्कशॉप और दफ़्तर का चक्कर लगाया, लेकिन क़ुदरत ने वहां मेरे रिज़्क़ का कोई इंतज़ाम नहीं किया था। ये बदतमीज़ कारोबारी लोग हर वक़्त झूठ बोलने के लिए तैयार रहते हैं। जब भी सवाली बनकर उनके पास जाओ, यही कहते हैं,

“आज तो कोई काम नहीं, कल आ जाना। शायद कोई बंदोबस्त हो जाए।”

“भई! हम तुम्हारी मुश्किलात को समझते हैं। तुम कारोबारी हालात को तो जानते ही हो, कितने मसले हैं। अच्छा अगले हफ़्ते आ जाना, कुछ न कुछ हो जाएगा।”

कल भी आ जाता है, अगला हफ़्ता भी पलट आता है, लेकिन वादे पूरे नहीं होते। मेरी क़िस्मत वैसी की वैसी है, बिल्कुल कोरी और ख़ुशियों से खाली।

इनकी हमदर्द मुस्कुराहटें देखने में बड़ी नर्म दिखाई देती हैं, लेकिन मैं जान गया हूं कि इनके पीछे किया है, ये लोग मेरे हमदर्द बनने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके चेहरे पर लिखी हुई बदनीयती पुकार-पुकार कर कहती है,

“ग़रीब लड़के ओब्द्रो! हम तो बस तुमसे मज़ाक़ कर रहे थे, जाओ अपना काम करो।”

इस वक़्त मुझे अपने चारों तरफ़ से तंज़िया क़हक़हों की आवाज़ें सुनाई देती हैं। जैसे दुनिया की हर चीज़ मेरा मज़ाक़ उड़ा रही हो। मैं दिल ही दिल में ख़ुद से वादा करता हूं कि आइन्दा इन झूठों के पास हरगिज़ नहीं जाऊंगा, लेकिन हर बार मुझे अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अमल करते हुए उनके व्हाइट हाउस पर हाज़िरी देनी पड़ती है, मेरी भूख हरबार मुझे घर से बाहर धकेल देती है। क्या मेरे दिल की आवाज़ आप तक पहुंच रही है?

मैंने सरमायादारों से कहा, “शदीद मुश्किल में हूं, नौबत भूखो मरने तक पहुंच गई है।”

जवाब मिला, “माफ़ करो यार, कारोबारी हालात ठीक नहीं। हमारे पास कोई नौकरी की जगह ख़ाली नहीं।”

उस वक़्त मुझे यह महसूस हुआ कि यह मेरा शहर नहीं बल्कि मेरी दोनों टांगों के दरमियान स्थित एक गहरी काली शक्ल का बदबूदार स्याह डिब्बा है, और इतना स्याह कि उसने पूरे शहर को निगल लिया है। मुझे इस बेरहम शहर में अपना वजूद गै़रज़रूरी और फालतू महसूस हुआ।

पतझड़ की ख़ुनक हवा मेरे चेहरे और सीने पर थप्पड़ रसीद करती हुई बे-इख़्तियार मेरे नथनों में घुस गई, मुझे अपने वजूद में से मौत की बू आती हुई महसूस हुई। ये तेज़ हवाएं भी अजीब होती हैं, पतझड़ के मौसम में हम जैसे बेकार लोगों को भी गलियों में उड़ते हुए आवारा पत्ते समझती हैं। अपनी क़िस्मत के हाथों मजबूर और लाचार। मैं भी दरख़्तों के इन आवारा और मजबूर पीले पत्तों में से एक हूं जिन्हें सड़कों पर गिरने के बाद झाड़ू फेरकर कचरा गाड़ियों में डाल दिया जाता है।

 

(2)

ये घृणा करने वाले और बुरा चाहने वाले लोग मेरा ख़ून चूसते हैं। इन्होंने मुझे आने-जाने वाली गाड़ियों के नीचे कुचलने के लिए सड़क पर फेंक दिया है। मेरे अधिकारों को स्वीकार करने के बावजूद लगातार मेरे बारे में एक मुजरिमाना-सी ख़ामोशी इख़्तियार किए हुए है। बस यही सवाल मुझे अक्सर परेशान करता रहता है, इन्होंने मुझे नौकरी से क्यों निकाला?

मैं एक मामूली-सा क्लर्क था, ज़िंदगी के मसलों में उलझा हुआ, परेशान और ग़ैर-अहम इन्सान। मैं हाइफ़ा घाटी में रहता था। मेरी थोड़ी-सी तनख़्वाह दड़बा-नुमा मकान के किराए और पानी और बिजली के बिलों की अदायगी में खर्च हो जाती थी। मेरा खाना एक अच्छे रेस्तरां से आ जाता था। मैं अपनी ज़िंदगी में मगन था। मुझे बहुत ऊंचे ज़िंदगी के मयार की भी तलब न थी। मैं एक आम-सी ज़िंदगी जी रहा था, बस यही काफ़ी था मेरे लिए; लेकिन जब इन्होंने मुझे नौकरी से निकाल दिया तो मेरा ये आख़िरी सहारा भी मुझसे छिन गया। मुझे सियासी वजहों की बिना पर नौकरी से निकाला गया, मैं व्यक्तिगत तौर पर आज भी इसमें ख़ुद को क़सूरवार नहीं समझता।

सवाल यह पैदा होता है कि कौन था जिसने मेरी मुख़बिरी की? यह वही शख़्स था जो आम तौर पर हमारी उन रैलियों के इंतिज़ामात संभालता था, ये रैलियां जो हम क्लर्कों के अधिकारों के लिए आयोजित करते थे। इन रैलियों में सरकारी पॉलिसियों पर नुक्ता-चीती भी होती रहती थी। मेरा इशारा समीर की तरफ़ है, जिसने मेरी मुख़बिरी की। वह मुझसे व्यक्तिगत तौर पर सख़्त नफ़रत करता था। उसके अल्फ़ाज़ इस बात की गवाही देते हैं, उसने एक दफ़ा मुझसे कहा था,

“मर्हबा! अक़ाइद-ए-अवाम... कहिए आज की ताज़ा ख़बर क्या है?”

“कैसी ख़बर?” मैंने बे-तकल्लुफ़ी से जवाब दिया।

“जी हां क़ाइद-ए-अवाम!! ताज़ा ख़बर... मैं जानता हूं, रोज़नामा ‘अल इत्तिहाद’ आपकी जेब में है। मुझे तलाशी लेने दीजिए।”

यह कहकर उसने किसी सरकारी अधिकारी की तरह बे-तकल्लुफ़ी से अपना हाथ मेरी जेब में डाल कर मेरी तलाशी लेना शुरू कर दी। मुझे आज तक इस बात की हैरत है, मैंने उसके मुंह पर थप्पड़ क्यों न रसीद किया। तमाम क्लर्कों ने मुझे बताया कि यह मुनाफ़िक़ शख़्स दरअसल एक सरकारी जासूस है।

जासूस ने एक दिन अपना काम दिखा दिया और मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। मैं काम की तलाश में हाइफ़ा शहर की ख़ाक छानता रहा, लेकिन कोई फ़ायदा न हो सका। मेरी ख़ाली जेब देखकर सभी दोस्तों और रिश्तादारों ने मुझसे आंखें फेर लीं। मैंने कभी उनके तानों का जवाब नहीं दिया। बस ख़ामोश रहता था, बेबसी की हालत में बस मेरी आंखें आंसुओं से तर हो जाती थीं, यूं लगता था जैसे हलक़ कांटा बन गया है। कोई और तो शायद न जानता हो लेकिन हाइफ़ा की सरज़मीन मेरे तमाम दुखों की चशमदीद गवाह है।

शदीद माली मुश्किलात के इस दौर में मुझे अपने बाप की बातचीत का ग़ुस्सैला अंदाज़ नहीं भूलता, भाइयों की तंज़िया बातें मुझे आज तक याद हैं। मेरे सबसे प्यारे भाई ने तो एक दिन मेरा बाक़ायदा मज़ाक़ उड़ाया। मेरी सबसे छोटी बहन (जो मुझे दुनिया में सबसे ज़्यादा अज़ीज़ है) ने तो हद ही कर दी, उसने मुझ पर आवाज़ कसी,

“देखो, देखो!! मेरा भाई अली, मेरे लिए नया सूट लेने जा रहा है।”

उसने ये बात उस वक़्त की जब मैं नौकरी की तलाश में घर से बाहर निकल रहा था। ये अल्फ़ाज़ मुझ पर बिजली बनकर गिरे, यूं महसूस हुआ जैसे मैं सीढ़ियों से मुंह के बल नीचे जा गिरा हूं। मैं घर से बाहर निकला और गलियों में आवारागर्दी करता रहा। उस रोज़ कोई तेज़-रफ़्तार गाड़ी मुझे कुचल कर निकल जाती तो अच्छा था। बेरोज़गारी के दिनों में अपने क़रीबियों के अलावा मुझे अन्य लोगों के रवैय्यों को जांचने का मौक़ा भी मिला। मैं जहां भी गया, क़र्ज़ देने मेरे पीछे थे। एक दिन मैं शहर से बाहर जा रहा था कि लॉन्डरी वाले ने मेरा रास्ता रोक लिया। उसने मुझसे अपने बिल की अदायगी का मुतालिबा किया। सिगरेट शॉप की सीढ़ियां चढ़ा तो दुकानदार ने उधार चुकाने का कहा। अख़बार वाले को देखकर मैंने वैसे ही रस्ता बदल लिया; तीन माह से अख़बार का बिल जो अदा नहीं कर सका था। ये क़र्ज़ख़ाह रिश्तेदारों से फिर भी ज़्यादा मेहरबान और नर्म मिज़ाज थे। मैं जब भी उनसे देरी के लिए माफ़ी मांगता, ये लोग मुझे दुआ देते, “अल्लाह तुम्हारे लिए आसानियां पैदा करे।”

पांच माह से मैं बेरोज़गार हूं। इस दौरान में मेरे साथ जो अच्छा-बुरा सुलूक हुआ, मुझे हमेशा याद रहेगा।

एक दिन न जाने कहां से मुझमें इतनी हिम्मत आ गई। मुझे लगा मैं कोई काम भी कर सकता हूं, मैं चाहूं तो अपने ज़ोर-ए-बाज़ू से पहाड़ों को भी हिला सकता हूं। थोड़ी कोशिश के बाद मुझे एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में मज़दूरी मिल गई। ये एक मुश्किल काम था, पहले ही दिन मेरा बदन थकन से चूर-चूर था। मेरी गर्दन, बाज़ू, टांगें और कमर में शदीद दर्द हो रहा था। इसके बावजूद मैं आगे बढ़ने के लिए आत्मविश्वास से भरा था। मैं अपनी ज़िंदगी के मसलों को हर सूरत में हल करना चाहता था।

उस रोज़ मैं देर से घर लौटा और खाना खाकर सो गया। शदीद थकावट की वजह से मुझे बहुत गहरी नींद आई, सुबह जागा तो पिछले दिन की थकान अभी बाक़ी थी। मेरा पूरा हफ़्ता इसी तरह कंस्ट्रक्शन कंपनी में मज़दूरी करते गुज़र गया। मुझमें ये हिम्मत कैसे आ गई, मैं हैरान था। मैंने यक़ीनन बहुत मेहनत की थी, उम्मीद थी कि मालिक मुझसे बहुत ख़ुश होगा।

लेकिन हफ़्ते के आख़िरी दिन कंपनी के मालिक ने मुझसे माज़रत करते हुए कहा, “सैय्यद अली हम माफ़ी चाहते हैं, कल से तुम्हें काम पर आने की ज़रूरत नहीं।”

“क्या आप मुझे इसकी वजह बता सकते हैं, जनाब? आख़िर मेरी ग़लती क्या है?”

“तुम इस काम के लिए सही आदमी नहीं हो,” ये जुमला मेरे लिए एक थप्पड़ से कम न था।

उस शाम मैं अपनी जेब में चंद पाउंड और हवास पर बहुत-सा बोझ लिए वापस घर पहुंचा।

कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक की बातों ने मुझे अंदर से तोड़-फोड़ कर रख दिया था। ज़िंदगी की इन पै-दर-पै नाकामियों से मैं सख़्त मायूस हो गया था।

“क्या मैं मर्द नहीं हूं? मेरी कोई हैसियत नहीं। मैं एक बेकार आदमी हूं, बहुत ही बेकार, अगर मैं इतना ही निकम्मा था तो मुझे पैदा ही क्यों किया गया था।”

जब मैंने आईने मैं ख़ुद को देखा तो यक़ीन हो गया। मैं एक पस्त-क़ामत, दुबला-पतला और क़बूल सूरत आदमी हूं। बड़ी बकवास और फ़ुज़ूल शख़्सियत थी मेरी। मैंने पिछले हफ़्ते की मज़दूरी से जो चंद पाउंड कमाए थे, उन्हें जल्दी-जल्दी ख़र्च किया और दोबारा बीती ज़िंदगी की तरफ़ पलट आया। अब मैं बिल्कुल बे-हिस हो चुका था। मैंने एक दफ़ा फिर हाइफ़ा की गलियों में आवारागर्दी शुरू कर दी। मैं अपनी परेशानियों को हर सूरत में भूला देना चाहता था।

एक दिन हर्ज़ल स्ट्रीट पर मटर-गश्त करते हुए मैं एक रेस्तरां की तरफ़ गया। अंदर से संगीत की धीमी-धीमी आवाज़ आ रही थी। मेरे क़दम बे-इख़्तियार रेस्तरां की तरफ़ बढ़े, मैन गेट पर पहुंचकर मुझे ख़्याल आया कि मेरी जेब में तो एक खोटा सिक्का भी नहीं है। यह सोचकर मैं आराम से वापस मुड़ा ही था कि रेस्तरां के अंदर से एक ज़ोरदार आवाज़ आई, किसी ने तंज़िया लहजे में मेरा नाम लेकर पुकारा था, “क़ाइद-ए-अवाम अंदर आ जाओ, तुम्हारे खाने का बिल मैं अदा कर दूंगा।”

मैं इस आवाज़ को ख़ूब पहचानता था। यह उसी समीर की आवाज़ थी, जिसने मुझे नौकरी से निकलवाया था।

मैं अपने साथ होने वाली ज़्यादती का ज़रूर बदला लूंगा। ये लोग अब मेरा मज़ाक़ उड़ा सकते थे। इन्होंने मुझे ज़िंदगी में शिकस्त जो दे दी थी; गोया मेरा वजूद इस दुनिया के लिए बिल्कुल बेकार हो गया था। मेरे मन में एक जंग-ए-जारी थी। ज़िंदगी की इन लगातार नाकामियों ने मुझे एक अजीब ताकत बख़्शी थी। मेरे बाज़ुओं में बिजलियां-सी दौड़ गईं। मेरे अंदर से आवाज़ आई

“बड़े लोग! बड़ा मक़सद!”

मैंने कुछ सोचा और एक दफ़ा फिर हाइफ़ा की गलियों में बे-मक़सद घूमने के लिए चल पड़ा। मैं एक आवारा शख़्स की तरह गलियों की ख़ाक छान रहा था। मुझे अपनी मंज़िल की कोई ख़बर न थी। अचानक मेरे क़रीब एक कार के ब्रेक चरचराये। उसमें से एक बदतमीज़ इंसान निकला और मुझ पर थप्पड़ों, मुक्कों और गालियों की बोछार कर दी। मैंने विरोध के तौर पर कोई रद्द-ए-अमल ज़ाहिर न किया और बग़ैर कुछ सोचे-समझे गलियों में आवारगी जारी रखी। जैसे मुझे किसी ख़ास चीज़ की तलाश थी या जैसे मैं ट्रेन पकड़ने के लिए जल्द-से-जल्द किसी रेलवे स्टेशन पर पहुंचना चाहता हूं।

कुछ फ़ासले पर एक और रेस्तरां दिखाई दिया। उसके अंदर से आने वाली संगीत की मधुर आवाज़ ने मुझे अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया।

“मैं इन लोगों के साथ नाच तो सकता हूं,” मेरे अंदर एक दबी-दबी-सी ख़ाहिश उभरी। लेकिन नहीं। ये मेरी मंज़िल न थी।

“आख़ थू।।थू!!” मैंने नफ़रत से ज़मीन पर थूक दिया।

मैंने देखा कि सड़क पर तेज़ रफ़्तार कारें आ-जा रही हैं। एक अजीब हंगामा-सा बरपा था। लोग तेज़-तेज़ क़दम बढ़ा रहे थे। ज़िंदगी की रफ़्तार अचानक बहुत तेज़ हो गई थी। इन चीज़ों ने मेरे इरादे और हौसले में इज़ाफ़ा कर दिया था। मुझे ज़िंदगी के बेपनाह बोझ से निजात हासिल करनी थी। मुझे अपनी सारी महरूमियां याद आ गईं, अब मैं किसी तरह भी हालात से समझौता नहीं करूंगा।

“मैं दुनिया से अपनी एक-एक महरूमी का बदला लूंगा,” मैंने सोचा।

मैं ख़ुद ही अपने मुक़ाबिल आन खड़ा हुआ था।

अचानक क्षितिज से बादल उमड़ आए, बारिश की बूंदों ने मेरे बदन को गुदगुदाया, ख़ुनक हवाओं ने मेरे कानों में सरगोशी की और बारिश ने मुझे सिर से पांव तक सराबोर कर दिया। बारिश और तेज़ हो रही थी। शदीद सर्दी और बारिश में यूं खड़े रहना, अपनी मौत को दावत देने की तरह था

कुछ फ़ासले पर मुझे एक छोटी-सी झोंपड़ी दिखाई दी। मैं उसमें पनाह ले सकता था। झोंपड़ी के अंदर अंधेरा था। मैंने जेब में से सिगरेट निकाल कर सुलगाया। दीया-सलाई की रोशनी में मुझे अपने अलावा किसी और की भी मौजूदगी का एहसास हुआ। ये चार कम उम्र लड़के थे, उनकी उम्र पंद्रह साल से कम होगी। सबके बदन पर फटा-पुराना लिबास था, बारिश में भीग जाने की वजह से उनके दांत बज रहे थे। ये लड़के भी मेरी तरह मुफ़लिस, वक़्त के मारे और परेशान हाल दिखाई देते थे। मुझे पता चला कि दिन के वक़्त वो काम की तलाश में निकल जाते थे और रात को आकर इस झोंपड़ी में पनाह ले लेते थे। मुझे उनकी आंखों में एक अनजाना ख़ौफ़ और परेशानी दिखाई दी। इन चंद घड़ियों में मेरा उनके साथ दोस्ती का अटूट रिश्ता क़ायम हो चुका था।

बारिश अब रुक गई थी। हमने एक साथ इस झोंपड़ी से निकलने का फ़ैसला किया। मेरे साथ गपशप के बाद इन लड़कों के चेहरों पर एक अजीब किस्म की ताज़गी दिखाई दे रही थी।

“इन बच्चों के चेहरों पर भरपूर ज़िंदगी गुज़ारने का इरादा दिखाई देता है तो मैं क्यों इस क़दर मायूस हूं,” मैंने सोचा।

“हम ज़िंदगी की मुसीबतों का अकेले ही मुक़ाबला करते हैं, ग़म सहने के मामले में हम कितने अकेले हैं। लेकिन इस ज़मीन पर बहुत से लोग हमारी तरह परेशानियों का निशाना बनते हैं।

“हमें ज़िंदगी के मसलों का मुक़ाबला करने के लिए इन मज़लूमों के साथ मिलकर संघर्ष करना चाहिए।

“इस दुनिया में अगर हम तन्हा ज़ुल्म सहते हैं तो क्या एक होकर उसका ख़ात्मा नहीं कर सकते।

“तो फिर हम अकेले कैसे हुए।

मेरे मन में एक खुशगवार ख़्याल उभरा। थोड़ी देर बाद सब मेरे छोटे से कमरे में मौजूद थे। मुझे ज़िंदगी की इन मुश्किलात से निजात हासिल करने के लिए क्या करना चाहिए। बहुत-सी योजनाएं मेरे दिमाग़ में आ रही थीं। शुक्र है उन पर अमल करने के लिए अब मैं अकेला नहीं था।

 

 

ज़की दरवेश
ज़की दरवेश

ज़की दरवेश फ़लस्तीन के लेखक हैं। ज़की दरवेश फ़लस्तीन के लेखक हैं।