वक्त का दरिया

"पानी और वक़्त जुड़वां भाई हैं, दोनों एक ही कोख से जन्मे हैं।" बहाव चाहे पानी का हो या वक्त का, उसका विरोध करना मुनासिब नही है। वक्त के दरिया के पार हम अपने पूर्वजों से कैसे जुड़े हैं? जुड़े भी हैं कि नही? क्या यह जुड़ाव प्राकृतिक है, या फिर हर चीज की तरह इस जुड़ाव को भी बनाए रखने के लिए सामाजिक शिक्षा की जरूरत है? जुड़ाव चाहे प्राकृतिक हो, उस जुड़ाव का अनुभव ज़रूर सामाजिक है। उस जुड़ाव को चेतना में बनाए रखना हम सब का दायित्व है।

वक्त का दरिया

 

अनुवादक: मुहम्मद फ़ैसल

 

उन दिनों मेरे दादा मुझे साथ लिए दरिया की ओर चल पड़ते और अपनी छोटी-सी कश्ती, जिसे वह कोंचव कहते थे, में मुझे भी बैठा लेते। वह बहुत आराम से चप्पू चलाते, चप्पू शायद ही लहरों से टकराते, मुझे तो यूं महसूस होता जैसे वह पानी के ऊपर ही उन्हें हरकत दे रहे हैं। छोटी-सी कश्ती उछलती, डोलती, लहरों में फंसी, दरिया में तन्हा, उसे देखकर ख़्याल आता कि जैसे किसी गिर जाने वाले दरख़्त का तना तैर रहा है।

पर आप दोनों जा कहां रहे हैं?

मेरा यूं जाना मां के लिए तकलीफ़ का कारण था। दादा मुस्कुराकर रह जाते। उनके जबड़ों में दांत बहुत मानी-ख़ेज़ हैसियत रखने वाले थे। दादा उन लोगों में शामिल थे, जो सब कुछ जानने के बावजूद ख़ामोश रहते और कुछ न बोल कर भी बातचीत करते थे। वह सिर्फ इतना कहते,

हम अभी वापस आ जाएंगे

मुझे भी मालूम न था कि वह किसका पीछा कर रहे हैं। मछली पकड़ना तो उनकी सूची में शामिल न था। जाल अपनी जगह पड़ा रहता और मैं उसे कुशन की तरह इस्तेमाल कर लेता। यह तो उनका पक्का मामूल था कि जैसे ही दिन की शुरुआत होती, वह मेरे बाज़ू को मज़बूती से थामते और दरिया की ओर ले चलते। वह मुझे किसी दृष्टिहीन की तरह पकड़ते। बिल्कुल इसी तरह, वह मेरी राहनुमाई करते और हमेशा एक क़दम आगे रहते। मुझे उनकी सीधी कमर और दुबले मगर मज़बूत जिस्म को देखकर हैरानी होती।

दादा उम्र के उस हिस्से में थे, जहां उनका बचपन वापस आ चुका था, वह भरपूर ज़िंदगी गुज़ारने के बाद भी उसकी रंगीनियों का मज़ा लेते। हम कश्ती पर सवार होते तो यूं महसूस होता जैसे हमारे क़दमों से किसी ढोल पर थाप लग रही हो। कश्ती को खींचा जाता और ख़्वाबों में डुबो दिया जाता। चप्पू चलाने से पहले दादा एक तरफ़ झुकते और दोनों हथेलियों में पानी भर लेते। मैं उनकी नक़ल करता।

हमेशा पानी के साथ चलना, कभी मत भूलना!

यह उनकी तरफ़ से एक लगातार दी जाने वाली सीख थीबहाव के विरुद्ध लहर से पानी इकट्ठा करना बदक़िस्मती लाता है। बहाव में बहने वाली रूहों का विरोध नहीं किया जा सकता

इसके बाद हमारा सफ़र शुरू होता और हम उस विशाल झील में पहुंच जाते, जहां यह छोटा-सा दरिया आकर मिलता था। यह अनजाने प्राणियों की कायनात थी, जो कुछ भी यहां दिखाई देता था, सब उन्ही की रचना थी। इस जगह ज़मीन और आसमान की हद ख़त्म हो जाती थी। इस शोर भरे सन्नाटे में, कंवल के फूलों के दरमियान, हमारे अलावा और कोई न होता। हमारी छोटी-सी कशती आराम बल्कि नीम-मद्धिम रफ्तार से बहती रहती। हमारे चारों और सर्द हवा होती, रोशनी सायों में ढल जाती और यूं महसूस होता जैसे दिन होते ही यहां किसी ख़्वाब का-सा मंज़र तारी हो जाता। हम यहां इस तरह इत्मीनान से बैठते जैसे इबादत कर रहे हों, और यह पूरा मंज़र मुकम्मल हो जाए।

तब अचानक दादा कोंचव में खड़े हो जाते। इस तरह खड़े होने से कश्ती उलटते-उलटते बचती। दादा जोश-ओ-जज़्बे से हाथ हिलाते। फिर वह एक लाल कपड़ा उठाते और उसे तेज़ी से हिलाने लगते। वह किसे इशारा कर रहे थे? शायद किसी को भी नहीं। इस पूरे समय, एक लम्हे के लिए भी इस दुनिया तो क्या किसी भी दुनिया के किसी ज़ी-रूह की झलक न दिखाई देती। मगर दादा अपना काम जारी रखते।

तुम्हें नज़र नहीं आ रहा, वह उस किनारे की तरफ़, धुंध के उस पार।

मुझे कुछ नज़र न आता। मगर वह ब-ज़िद रहते और पूरी एकाग्रता के साथ अपना काम जारी रखते।

वहां नहीं, ज़रा और ग़ौर से वहां देखो, तुम्हें कोई सफ़ेद कपड़ा हिलता दिखाई नहीं दे रहा।

मुझे सिर्फ धुंध और उसके पीछे ख़ौफ़ नज़र आता था, यहीं क्षितिज ग़ायब होता था। थोड़ी देर बाद मोहतरम बुज़ुर्ग इस सराब से बाहर निकलते और ख़ामोशी से बैठ जाते। फिर हम कुछ बोले बग़ैर वापसी का सफ़र करते।

घर पहुंचने पर मां सर्द-महरी से हमारा स्वागत करतीं। वह मुझे बहुत-सी चीजें करने से रोकती। उन्हें मेरा झील पर जाना पसंद नहीं था, कि वहां बहुत से ख़तरे छिपे थे। पहले तो वह दादा पर ग़ुस्सा उतारतीं। मगर हमारी वापसी की ख़ुशी में ठंडी पड़ जातीं और मज़ाक करते हुए कहतीं,

—तुम्हें कम से कम नामस्कटो-मोहा को ढूंढना चाहिए था! उससे शायद हमारे लिए ख़ुशक़िस्मती का दरवाज़ा खुल जाए . . .

नामस्कटो-मोहा एक रूह थी, जो रात को निकलती थी। यह आधे वजूद की मलिका थी, यानी एक टांग, एक बाज़ू, एक आंख। हम बच्चे उसे ढ़ूढ़ने बाहर निकल पड़ते मगर कभी ऐसी चीज़ से टाकराव नहीं हुआ। दादा मज़ाक़ उड़ाते और कहते कि जब वह छोटे थे तो उन्होंने मोहा को ढूंढ निकाला था। मां मुझे ख़बरदार करती कि यह सब उनका दिमाग़ी फितूर है। मगर मुझे दादा की हर बात सच्ची लगती थी।

एक बार हम झील पर दादा की तय रस्म का इंतज़ार कर रहे थे। हम किनारे पर थे, जहां हरे रंग की घास उगी हुई थीकहा जाता है कि कि पहला इन्सान यहां पैदा हुआ था। पहला इन्सान? मेरे ज़हन में तो अपने दादा से बूढ़ा कोई इन्सान हो नहीं सकता था। उस वक़्त न जाने मेरे दिल में ख़्वाहिश जागी कि मैं किनारे पर जाऊं और उस घास पर क़दम रखूं। मैं कश्ती के किनारे की तरफ़ बढ़ा तो दादा ख़ौफ़नाक अंदाज़ में गरजे,

नहीं, ऐसा कभी नहीं करना!

उनकी आवाज में बेहद गंभीरता थी। मैंने उन्हें कभी ऐसे बोलते हुए नहीं सुना था। मैंने फ़ौरन माफ़ी मांगी: मैं कश्ती से थोड़ी देर के लिए उतरना चाह रहा था। उन्होंने जवाब दिया:

इस जगह कोई भी लम्हा छोटा नहीं होता। यहां से आगे हर पल अनंत है।

मेरा एक पैर कश्ती से आधा बाहर था, किनारे पर दलदली फर्श को ढूंढ रहा था। पानी में क़दम डालकर मैंने सतह की उम्मीद की मगर वहां तो कुछ न था और मेरी टांग पानी में उतरती जा रही थी। मानो पाताल में उतर रही हो। दादा फौरन मेरी तरफ़ बढ़े और मुझे वापस कश्ती में खींचने लगे। मगर मुझे नीचे खींचने वाली ताक़त ज़्यादा ताक़तवर थी। इस खींचा-तानी में कश्ती उलट गई और हम दोनों पानी में गिर पड़े। झील हमें नीचे खींच रही थी और हम दोनों कश्ती के किनारे पकड़ कर उसमें चढ़ने की कोशिश करने लगे। अचानक दादा ने जेब से कपड़ा निकाला और अपने सिर के ऊपर बुलंद करके हिलाना शुरू कर दिया।

शुरू हो जाओ, तुम भी हाथ हिलाओ!

मैंने किनारे की तरफ़ देखा मगर कोई नज़र न आया। फिर भी मैंने दादा की बात मान ली और हाथ हिलाना शुरू कर दिया। अचानक एक हैरत-अंगेज़ बात हुई, एकाएक हमारा गहराई की तरफ़ खिंचना बंद हो गई। जो भंवर हमें अपने अंदर लेने की कोशिश कर रहा था, कहीं ग़ायब हो गया। हम दोनों कश्ती में सवार हुए और इत्मीनान की सांस ली। वापस जाने का काम हमने बांट लिया। कश्ती को किनारे पर बांधने के बाद वह बोले,

आज जो कुछ हुआ, किसी से कोई बात नहीं करनी, अपने आपसे भी नहीं, समझे?

उस रात उन्होंने मुझे यह वाक़िया समझाया। मैंने पूरे ध्यान से उनकी बात सुनी। मगर उनकी बातें मैं समझ न सका। उन्होंने लगभग यह कहा था, हमारी कुछ आंखें हैं, जो हमारे अंदर खुलती हैं, उन्हें हम-ख़्वाब देखने के लिए इस्तेमाल करते हैं। अब बात यह है बच्चे कि ज़्यादातर लोग अंधे हो चुके हैं, वे उस दुनिया से आने वाले मुलाक़ातियों को नहीं देख पाते। अब तुम पूछोगे कि यह लोग कौन हैं? वे मुलाक़ाती जो दूसरे किनारे से हमें देखकर हाथ हिलाते हैं। और यूं हम उनकी पूरी उदासी को उजागर कर देते हैं। मैं तुम्हें वहां इसलिए लेकर जाता हूं कि शायद तुम उन्हें देखना सीख पाओ। कपड़ों से मुलाकात करने वाला मुझे आख़िरी शख़्स नहीं होना चाहिए

—मेरी बात समझे?

मैंने झूठा इक़रार किया। अगली दोपहर दादा मुझे दोबारा झील पर ले गए। शाम के वक्त पहुंच कर वह वहां बैठ कर देखने लगे। वक़्त हमेशा से ज़्यादा सुस्ती से गुज़र रहा था। दादा बेचैन हुए और कश्ती के सिरे पर खड़े होकर एक ओर देखने लगे। दूसरी ओर कोई भी नहीं था। इस बार तो दादा को भी धुंध भरी दलदलों की तन्हाई नज़र आ रही होगी। अचानक वह बोले,

यहीं इंतज़ार करो!

उन्होंने कश्ती से बाहर छलांग लगाई और ख़ौफ़ से मेरी सांस बंद हो गई। क्या दादा उस अनजान मुल्क में दाख़िल हो रहे थे? हां, मेरी दहशत के विपरीत वह मज़बूत क़दम उठाते जा रहे थे। कश्ती मेरे हल्के से वज़न से अपना संतुलन खो रही थी। दादा दूर होते चले गए और यहां तक कि धुंध में गुम हो किसी ख़्वाब का हिस्सा बन गए। हर चीज़ धोखे की तरह नज़र आ रही थी। मुझे याद आया कि मैंने एक बगुले को तेज़ी से किनारे की तरफ़ जाते देखा था। यूं महसूस हो रहा था जैसे एक तीर तीसरे पहर की चादर को चीरता हुआ, ख़ून फैलाता जा रहा है।

और फिर उस वक़्त उस किनारे पर, दूसरी दुनिया की तरफ़ मुझे सफ़ेद कपड़ा नज़र आया। मुझे वह कपड़ा नज़र आ गया, जो मेरे दादा देखा करते थे। हालांकि मुझे शक हो रहा था कि मैं क्या देखा रहा हूं, मगर सफ़ेद कपड़े के साथ दादा का लाल कपड़ा भी हरकत करता नज़र आ रहा था। मैं हिचकिचाया मगर मैंने अपनी क़मीज उतारी और उसे हिलाने लगा। मैंने देखा कि उनका लाल कपड़ा सफ़ेद होता जा रहा है। उसका रंग धुंधला होता जा रहा था। मेरी आंखें इतनी नम हुईं कि आंखों के आगे अंधेरा छा गया।

मैं कश्ती खेते हुए वापसी के लंबे सफ़र पर रवाना हुआ तो दादा की बातें दिमाग़ में गूंज रही थीं: पानी और वक़्त जुड़वां भाई हैं, दोनों एक ही कोख से जन्मे हैं।

मैंने अपने वजूद में एक दरिया खोज लिया था जो कभी नहीं सूखेगा। यह वह दरिया है, जिसमें अब मैं बार-बार आता हूं, अपने बेटे की रहनुमाई करता हूं और उसे दूसरे किनारे पर से सफ़ेद कपड़े की झलक ढूंढना सिखाता हूं।

 


 

मिया कोउतू
मिया कोउतू

मिया कोउतू का पूरा नाम ‘एंटोनियो एमिलियो लेइट कूटो’ है। उनका जन्म 5 जुलाई, 1955 मोजाम्बिक के बेइरा शहर में हुआ था। उनके पिता पुर्तगाली प्रवासी थे, जो 1950 के दशक में मोज़ाम्बिक के पुर्तगाली उपनिवेश बनने के बाद वहां रहने चले गए। कोउतू जब 14 वर्ष के थे, तब उनकी कुछ कविताएं स्थानीय समाचार पत्र... मिया कोउतू का पूरा नाम ‘एंटोनियो एमिलियो लेइट कूटो’ है। उनका जन्म 5 जुलाई, 1955 मोजाम्बिक के बेइरा शहर में हुआ था। उनके पिता पुर्तगाली प्रवासी थे, जो 1950 के दशक में मोज़ाम्बिक के पुर्तगाली उपनिवेश बनने के बाद वहां रहने चले गए। कोउतू जब 14 वर्ष के थे, तब उनकी कुछ कविताएं स्थानीय समाचार पत्र ‘नोटिसियास दा बेइरा’ में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की। उनकी कविताओं की पहली किताब ‘राइज़ डी ओरवाल्हो’ 1983 में प्रकाशित हुई। उन्होंने अपने लेखन के लिए 2013 में कैमोस पुरस्कार जीता, जो पुर्तगाली भाषा का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार है। इसके बाद 2014 में उन्हें साहित्य के लिए ‘न्यूस्टाड इंटरनेशनल अवार्ड’ से सम्मानित किया गया।