अनुवादक: अफ़्शां नूर
यह एक ऐसा टकराव था, जिसका तजुर्बा कोई इन्सान कभी नहीं करना चाहेगा, लेकिन यह एक ऐसा टकराव था, जिससे गुरेज़ भी नहीं किया जा सकता था। उसकी कहानी मुझे ख़ुद उस लौंडी ने नहीं बल्कि दक्षिणी समुंद्री लहरों की भारी और नीरस गरज ने सुनाई थी, जो नौअग्राद के प्राचीन और अंधेरे क़िले की बुनियादों से टकराती हैं। एक रात मेरी हवेली की तन्हाई में मुझ तक यह आवाज़ पहुंची; उसने मुझे मेरी पहली नींद से जगाया और मजबूर किया कि मैं उसकी कहानी सुनूं।
हरज़े गोवेना की मुहिम के बाद, जो एक लंबे अर्से तक जारी रही और बहुत-सी बातों को जन्म दिया, यह क़स्बा हरज़े गोवेना के ग़ुलामों के आने की उम्मीद कर रहा था। लेकिन जब वे आख़िरकार पहुंचे तो शदीद मायूसी छा गई। यहां तक कि बच्चों में भी, जो अपने रिवाज के मुताबिक़ सड़क के किनारे खड़े होने के लिए बाहर भाग निकलते हैं। ग़ुलाम बहुत थोड़े और ख़स्ता-हाल शक्ल-ओ-सूरत के थे। उनमें से ज़्यादातर को फ़ौरी तौर पर अल्बानवी जहाज़ पर ले जाया गया, जो बंदरगाह पर लंगर डाले हुए था। बाक़ी सब क़स्बे में ठहरे थे और सिर्फ दो दिन बाद बाज़ार में नज़र आए। ग़ुलामों को आराम करने, नहाने और कुछ माक़ूल लिबास पहनने में इतना ही समय लगा।
छोटा-सा बाज़ार, जिसमें उम्दा पत्थर का फ़र्श लगा हुआ था, चट्टान और उस पर बने क़िले के साय में था। यहां फ़रोख़्त के दौरान ग़ुलामों को रखने के लिए लाठियों और छड़ियों से पिंजरे बनाए जाते थे। उनमें ग़ुलाम बैठ जाते या लेट जाते, जिससे हर कोई देख सके और उन्हें सिर्फ वास्तविक ख़रीदारों की दरख़्वास्त पर बाहर निकाला जाता था, जो उनका और क़रीब से मुआइना करना चाहते और जायज़ा लेना चाहते थे।
एक बड़े पिंजरे में पांच मर्द ग़ुलामों को ठूंसा गया था; सब के सब किसान थे और अपना इब्तिदाई दौर गुज़ार चुके थे। एक और निस्बतन छोटे पिंजरे में एक ख़ूबसूरत, मज़बूत और पुख़्ता जिस्म की नौजवान लड़की थी। वह किसी जंगली दरिंदे की तरह लग रही थी, हमेशा लकड़ी की सलाख़ों से चिपकी हुई, जैसे उनमें से अपना रास्ता बनाना चाहती हो।
उसके पिंजरे के क़रीब दोनों में से एक सुरक्षाकर्मी तीन टांगों वाले एक निचले स्टूल पर बैठा था, जबकि दूसरा, बंदरगाह पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक टहल रहा था। दोनों की बैलट में एक छोटी बंदूक़ उड़सी हुई थी और उसके साथ एक छोटा कड़ा लटका हुआ था।
पहाड़ी पर कोई दस क़दम आगे एक छोटे से बाग़ के साथ एक पथरीला टीला था। वहां ग़ुलामों का व्यापारी बैठता और ख़रीदारों के साथ बातें करता था। वह एक परदेसी था मगर इस साहिल पर उसकी अच्छी जान-पहचान थी; फ़ाज़िल मगर सख़्त, तेज़ नज़र और खुले मिज़ाज वाला। उसका नाम इज़ोन अली था। सुरक्षा कर्मी नीचे से कुछ ग़ुलामों और लौंडियों को जायज़ा लेने के लिए ऊपर लाते और दोबारा नीचे, उनके पिंजरों में ले जाते और मालिक और ख़रीदार अलग-अलग ग़ुलामों की क़ीमत पर मोलतोल करते हुए उनके बारे में अपनी बातचीत जारी रखते।
उस सुबह सबसे पहले जिसे वहां लाया गया, वह छोटे पिंजरे वाली लंबी लड़की थी। उसका नाम जगोदा था, वह परीबीलो नचि के गावं से थी। ख़रीदार इज़ोन अली के पास साय में बैठा था। तंबाकू के लंबे तुर्की पाइप उनके सामने धुएं के मरगोलों में लिपटे पड़े थे। लौंडी ने ख़ुद को मज़बूती से संभाले रखा। उसकी बेक़रार आंखें हर एक की नज़रों से बचने के लिए तेज़ी से इधर-उधर हरकत कर रही थीं। सुरक्षा कर्मियों ने उसे अपने बाज़ू फैलाने, चंद क़दम उठाने और अपने दांत और मसूड़े दिखाने का हुक्म दिया। सब कुछ उम्दा और सही-सलामत था। वह लंबी, तर-ओ-ताज़ा और मज़बूत थी, उम्र लगभग उन्नीस साल। यह सच है कि उसका रवैय्या जंगली और अक्खड़ था, लेकिन इससे उसकी मौजूदा सूरत-ए-हाल और मानसिक हालत का अंदाज़ा लगाना चाहिए।
ख़रीदार, जिसने लौंडी का मुआइना किया था, क़स्बे का रिहायशी हसन अबीस था, जो इज्ज़त के एतबार से नहीं तो यक़ीनन दौलत के एतबार से इस समुद्री किनारे बसे क़स्बे का सबसे बड़ा आग़ा था। वह दुबला, कमान नुमा सीने और खोखले चेहरे वाला शख़्स था। उसने गांव की उस लड़की के बड़े और सरसब्ज़ जिस्म को अपने सामने मुड़ते और फैलते देखकर जज़्बात की कोई अलामत ज़ाहिर न करते हुए ख़ामोशी से अपने पाइप का कश लिया। बाद में इसी अदम दिलचस्पी के साथ धुआं उड़ाते हुए उसने इज़ोन अली से लौंडी की क़ीमत के बारे में बात की।
अपनी करख़त आवाज़ में उसने व्यापारी को बताया कि इक्कीस तिलाई सिक्कों की छोटी रक़म। ये ख़रीदार को फांसने के लिए बताई गई है, ताकि ख़रीदार लम-सम करके बीस तिलाई सिक्कें देने को तैयार हो जाए। लेकिन इतने बेवक़ूफ़ ग्राहक का मिलना मुश्किल होगा। अगर व्यापारी को पंद्रह या ज़्यादा से ज़्यादा सोलह तिलाई सिक्कों की पेशकश की गई होती तो उसे अपने आपको ख़ुश-क़िस्मत समझना चाहिए था। यह बड़े ख़र्च पर एक लंबे सफ़र के बाद किसी दूर-दराज़ जगह पर होता, क्योंकि इस क़ीमत पर भी तैयार ग्राहक यहां नहीं मिलेगा। सामान मामूली था। तवान की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, क्योंकि जिस गांव से वह आई थी, उसे तबाह कर दिया गया था और कोई ज़िंदा नहीं बचा था। आख़िककार हरज़े गोवेना के किसी ग़ुलाम को यहां रखना मुश्किल था, क्योंकि फ़रार होने का डर था।
व्यापारी ने किसी हद तक ज़्यादा मुतहर्रिक अंदाज़ में लेकिन उसी नपी-तुली बे-हिसी के साथ जवाब दिया और हसन आग़ा से पूछा कि क्या उसने कभी इस छोटे से क़स्बे में लाई गई ऐसी लौंडी को देखा है? हसन आग़ा ने ख़ामोशी से रद्द करने के अंदाज़ में हाथ हिलाया, जबकि व्यापारी ने अपनी बात जारी रखी:
“ये लड़की नहीं बल्कि क़िला बंद शहर है, आपने ख़ुद देखा। ये व्यापारिक सामान का कोई टुकड़ा नहीं है, जो एक बाज़ार से घसीट कर दूसरे में लाया गया हो, या ख़ाक समेटने के लिए दुकानों में छोड़ दिया गया हो। तावान की बात करें तो ये सामान तावान के लिए नहीं है। मेरी बात लिख लो, जो इसे ख़रीदेगा दोबारा कभी नहीं बेचेगा। अगर वह वाक़ई बेचना चाहे तो वह कभी भी एक या दो इज़ाफ़ी तिलाई सिक्कों के साथ अपनी रक़म वापस ले सकता है। जहां तक फ़रार का सवाल है तो कोई भी ग़ुलाम भाग सकता है, लेकिन इस पर बात करने का क्या फ़ायदा, सामान ख़ुद बोल रहा है, ये वाक़ई लाजवाब है।”
उसने उदास और राज़दाराना जज़्बाती आवाज़ में ये बताने की कोशिश करते हुए कि वह दुर्घटनावश तौर पर अपना नुक़सान करके एक कारोबारी राज़ बता रहा है, होंठों ही होंठों में कुछ और भी कहा।
हसन आग़ा ने बेतवज्जुही से सुना। वह बख़ूबी जानता था कि व्यापारी के अल्फ़ाज़ में झूठ और सच दोनों उसके ख़्याल में तक़रीबन बराबर हैं, लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी और तनाव का तास्सुर, जो उसकी बनावटी बे-हिसी से मिलता था, इस बात की वजह से ज्यादा नुमाया था।
वह ख़ुद ऐसे घराने से था, जो हाल ही में इस क़स्बे में पहुंचा था। वह एक अमीर और प्रभावशाली शख़्स था, लेकिन वह नौ-दौलतिया था। वह इस क़दर जल्द अमीर हुआ था कि सोते हुए भी वह अपनी गुर्बत को कभी नहीं भूल सकता था, जिसने उसकी तमाम कोशिशों और कामयाबियों को ख़ाक में मिला दिया। उसकी बीवी एक आलाईबेगोविच थी। आलाईबेगोविच नौअ में सबसे पुराना और सम्मानित ख़ानदान है। उसने उससे छः साल पहले शादी की। एक साल के अंदर उनके यहां एक लड़की हुई। वह बमुश्किल उसे ज़िंदा रखने में कामयाब हो सके। यहां तक कि अब भी वह अपनी उम्र के लिहाज़ से कमज़ोर और छोटी थी। उसकी बीवी के और बच्चे नहीं थे और ऐसा लगता था उसके और बच्चे होंगे भी नहीं। हसन आग़ा ने, जो हमेशा शहवत-परस्त और बेलगाम हवस का पुजारी माना जाता था, कभी ख़ुद को अपनी बीवी की पेश कर्दां लज़्ज़तों तक सीमित नहीं रखा। हत्ताकि शादी के पहले साल में भी नहीं। वह अपने घर के नौकरों में हमेशा किसी नौजवान और ख़ूबसूरत औरत को रखने का एहतिमाम करता। वह ऐसा किसी हवस में मुब्तला होने के लिए नहीं करता था बल्कि घर के किसी फ़र्द की तरह उन्हें रखता था। चाहे एक ग़ुलाम छूने के लिए नहीं है, लेकिन वह अपनी सर्द और दुबली बीवी और बीमार बेटी के अलावा कुछ ताक़तवर और ख़ूबसूरती देखना चाहता था। इसलिए उसने अपने घर से बाहर पैसे के लिए मुहब्बत हासिल की और उसने उसे दुनिया से और खासतौर पर अपनी बीवी से पोशीदा रखने के लिए जो हो सकता था, किया। वह दुबली-पतली, होशियार, फ़ैसला करने वाली और सबसे बढ़कर आलाईबेगोविच ख़ानदान की एक काबिल-ए-फ़ख़्र औरत, जिसका मज़बूत खानदानी असर-ओ-रसूख़ घर की हर चीज़ की रहनुमाई करता था, उसकी ज़्यादतियों के साथ तालमेल बैठाने को तैयार न थी। अपने तौर पर हसन आग़ा ख़ुद भी उसे नाराज़ करना या बे-सोचे समझे उसे और उसके सम्मानित भाइयों को अपने ख़िलाफ़ करना नहीं चाहता था। (वह उसके भाइयों के साथ बड़ा हुआ था। उनके साथ जंग में गया, उनके साथ शिकार किया और जवानी की हर तरह की शरारत में उनके साथ शरीक रहा।) वह कम बोलती थी, शिकायत नहीं करती थी, न ही धमकी देती थी, लेकिन उसके लिए उसकी गहरी नीली आलाईबेगोविच घूरती आंखों को बर्दाश्त करना मुश्किल गया।
एक दिन पहले जब इज़ोन अली ने उसे पेशकश की तो उसने अपनी बीवी से इस तरह ज़िक्र किया कि घर में हाथ बंटाने और बाग़ में काम करने के लिए एक सस्ती लौंडी ख़रीदने का मौक़ा मिला है। उसकी बीवी ने उसे मलामत से देखा और उसने फ़ौरन अपनी नज़रें झुका लीं। फिर उसने कहा कि उसके पास काफ़ी नौकर हैं, उसे किसी लौंडी की ज़रूरत नहीं और वह घर में लौंडी को बर्दाश्त नहीं करेगी। उसने अपनी आवाज़ में बमुश्किल छपी नफ़रत के साथ नरमी मगर मज़बूती से कहा। जब कभी हसन आग़ा का इस आवाज़ और इस निगाह से सामना होता, वह ख़ुद को शर्मिंदा और कमज़ोर महसूस करता और हमेशा अपने इरादों को तर्क करके पीछे हट जाया करता, या कम अज़ कम कुछ वक़्त के बाद सिर्फ खु़फ़िया और न दिखाई देने वाले तरीक़े से उन्हें अंजाम देने के लिए यूं ज़ाहिर करता कि वह अपने इरादे तर्क कर देगा। कभी-कभार वह वाक़ई उन्हें तर्क कर देता। और अब, व्यापारी के साथ उस लौंडी की क़दर-ओ-क़ीमत पर बात करते हुए उसे अपनी बीवी की आवाज़ और नज़रें याद आईं और वह सोच न सका कि आया इस लौंडी को ख़रीद कर अपनी ख़िदमत में रखने के लिए कुछ किया जा सकता है। वह फिर भी लंबे तने वाला तुर्की पाइप पीते हुए और जिस महारत से इज़ोन अली अपने बेचने वाले सामान की तारीफ़ कर रहा था, उससे ख़ुशी और हवासों पर छा जाने वाली तस्कीन हासिल करते हुए सौदेबाज़ी करता रहा।
नीचे, उनसे चंद क़दम के फ़ासले पर लौंडी अपने पिंजरे में दो ज़ानू होकर बैठी थी। उसकी आंखें बंद थीं और उसके सिर का उक़बी हिस्सा लकड़ी की खुरदुरी पट्टियों के दरमियान टिका हुआ था। उसने सोचने की कोशिश की और अपनी सूरत-ए-हाल को जांचने, इससे निकलने का रास्ता तलाश करने या कम अज़ कम उसकी बेबसी के दर्जे का अंदाज़ा लगाने की कोशिश की। उसने कोशिश की मगर बेसूद। उसे याद आया कि एक वक़्त था, जब वह अपने इर्द-गिर्द होने वाली हर चीज़ के बारे में सोच सकती थी, न सिर्फ ख़ुशगवार चीज़ों के बारे में बल्कि किसी गुमशुदा बच्चे या किसी दूसरे नुक़सान के बारे, घर या ख़ानदान में बीमारी या झगड़े के बारे में भी। तब भी वह हमेशा मुकम्मल नहीं सोच पाती थी, न ही कोई रास्ता निकाल पाती। ताहम वह अपने ख़्यालात से निकलने का रास्ता तलाश कर सकती थी। लेकिन यह उस काले दिन से पहले उसके गांव और उसमें उसके ख़ानदान के लापता होने से पहले की बात है। अब तो वह सोच भी नहीं पाती थी।
सोचने का कोई फ़ायदा नहीं था, न ही वह कोशिश करने के काबिल थी। उसका गांव पर्बेलवोंची अब नहीं रहा था। जैसे ही उस गांव को क़ायम रखने वाले तीस घर जलकर ख़ाक हुए, फ़ौरन ही उसकी रूह में आप ही आप एक नया पर्बेलवोंची का गांव पैदा हो गया; स्याह, भारी, और मुर्दा... और अब यह उसके सीने में पड़ा था और उसे गहरी सांस लेने से रोक रहा था और पर्बेलवोंची के लोग, उसके लोग; उनमें से जो मारे नहीं गए थे, ग़ुलाम बन गए और पूरी दुनिया में तितर-बितर कर दिए गए थे। वह ख़ुद एक ग़ुलाम थी और ग़ुलाम के सिवा कुछ न थी। उस की ज़िंदगी अब ऐसी ही थी; यह वाहिद रास्ता था, जिससे वह दुनिया और अपने आस-पास के लोगों को देख सकती थी, क्योंकि उसके अंदर की दुनिया की तस्वीर तारीक और मस्ख़ हो चुकी थी। हर मर्द एक ग़ुलाम था। औरतें और बच्चे ग़ुलाम थे, क्योंकि पैदाइश से लेकर मौत तक वे किसी न किसी चीज़ या शख़्स की गु़लामी में रहते थे। हर दरख़्त एक ग़ुलाम था, हर पत्थर और अपने बादलों समेत आसमान, उसका सूरज, उसके सितारे ग़ुलाम थे। पानी जंगल और गंदुम; जो कहीं ऐसी जगह, जहां उसे जलाया या ज़मीन में रौंदा न गया हो, अब खान बना रहे होंगे, ग़ुलाम थे। उसका अनाज चक्की के नीचे नहीं जाएगा, लेकिन उसे जाना होगा, क्योंकि ये ग़ुलाम थी। वे अल्फ़ाज़, जिनके साथ उसके आस-पास के लोग आपस में बातचीत करते थे, ग़ुलामों के अल्फ़ाज़ थे, चाहे वह कोई भी ज़बान बोलते हो और इस सबको चार हुरूफ़ तक सीमित किया जा सकता था: ग़ुलाम। हर ज़िंदगी गु़लामी थी, जो बमुश्किल अपनी मुद्दत पूरी कर रही थी और जो नादीदा और नाक़ाबिल-ए-समाअत थी। इन्सान के ख़्वाब ग़ुलाम थे। इसी तरह उसकी आहें, उसके खाए गए लुक़्मे, उसके बहाए गए आंसू और उसके सोचे गए ख़्यालात सब ग़ुलाम थे। लोग गु़लामी की ज़िंदगी जीने के लिए पैदा होते और बीमारी और मौत के ग़ुलाम के तौर पर मर जाते। दूसरे ग़ुलामों की ख़िदमत करने वाले ग़ुलामों के सिवा वहां कुछ न था, क्योंकि सिर्फ हाथ पांव-बांध कर बाज़ार में बेचा जाने वाला ग़ुलाम न था बल्कि ग़ुलामों को ख़रीदने और बेचने वाला भी ग़ुलाम था। हां, हर कोई जो पर्बेलवोंची में सांस न लेता था और वहां न रहता था, ग़ुलाम था। और पर्बेलवोंची का वजूद बहुत पहले ख़त्म हो था।
पर्बेलवोंची अब मौजूद नहीं था; उसका घर, उसका ख़ानदान अब बाक़ी नहीं थे। ठीक है, तो उसका वजूद भी न रहे! यही वाहिद हल था, निजात का सबसे छोटा तरीन रास्ता: ज़िंदगी की ख़ातिर ज़िंदगी को तर्क कर देना। वह शोलों के ख़्वाब देखती रही और इनसे उसे ख़्वाहिश पैदा हुई कि इन शोलों में भस्म हो जाये; ख़त्म हो जाएगी, लेकिन मुकम्मल तौर पर और हमेशा के लिए, जैसा कि हर चीज़, जिसे वह जानती थी, ख़त्म हो चुकी थी, मगर कैसे?
जूंही उसने आंखें खोलीं, उसकी नज़र अपने गुलाबी और मज़बूत हाथों पर पड़ी। फिर उसने किसानों की पतली ओपेंसी (जूते) में अपने नंगे पांव देखे। उसके पांव ख़ून से भरे और सूजे हुए थे। वे उसके लिए मौजू न थे। उसके लिए वे बेफ़ाइदा थे, लेकिन उसकी ख़्वाहिश के बावजूद ज़िंदा और गर्म थे। उसकी देखने वाली आंखों समेत ये सब कुछ उन शोलों में भस्म हो जाएगी और ख़त्म हो जाएगी ताकि वह अपने आपको इस आफ़त से आज़ाद कर सके। पिछले कई हफ़्तों से सोते और जागते उसने यह डरावना ख़्वाब देखा था। अगर सिर्फ उसको मिटाया जा सकता हो तो वह दोबारा उनके साथ होगी, जो उसके अपने हैं। वह वहां होगी, जहां सब कुछ उसका था।
लेकिन दुनिया क़ायम रही; पर्बेलवोंची के बग़ैर दुनिया जो गु़लामी, रुस्वाई और दर्द जैसी थी और इस दुनिया में ख़ून, आग और ताक़त से भरपूर उसका लाज़वाल जिस्म सांस लेता रहा और क़ायम रहा। अगर ऐसा है तो दुनिया ख़त्म हो जाएगी, उसके जिस्म के साथ-साथ पूरी दुनिया तबाह हो जाएगी। फिर सलेट साफ़ हो जाएगी, तमाम हिसाब चुकताए जाएंगे। कुछ बाक़ी नहीं रहेगा, जिसका मतलब है सब ठीक होगा, या कम-अज़-कम काबिल-ए-बर्दाश्त होगा, क्योंकि बर्दाश्त करने को कुछ नहीं होगा। वह यही सोच रही थी, लेकिन साथ ही उसने महसूस किया कि उसकी कमज़ोर और ग़लत सोच कुछ नहीं कर सकती। ये उसके पिंजरे का ताला नहीं तोड़ सकती या कम-अज़-कम इस मंज़र, इस ख़ून, उसके अंदर की गर्म सांस को तबाह करके इस पूरी ख़ौफ़नाक, नादीदा दुनिया को उसके बग़ैर तन्हा नहीं कर सकती। ये ऐसा नहीं कर सकती थी, लेकिन फिर भी वह इस सोच को सुनती रही और अपनी इस एकमात्र ख़्वाहिश का पीछा करती रही। अपने पिंजरे की लकड़ी की सलाख़ों से पीठ टिकाए उसने नफ़ीस संगमरमर से अपने पैरों को सहारा दिया। उसके बाज़ू उसके सीने पर लिपटे थे और आंखें बंद थीं। वक़्तन-फ़वक़्तन वह उन्हें हल्का-सा खोलती, फिर उसकी नज़रें उसके पांव के नीचे संगमरमर से हट जातीं और एक बहुत बड़े और बदसूरत घर के सामने के हिस्से से होते हुए काले क़िले की दीवारों तक और उनके ऊपर साफ़ आसमान के तंग सिरे तक जातीं। फिर वह फ़ौरन अपनी आंखें दोबारा मूंद लेती, उन्हें मज़बूती से भींच लेती और ज़्यादा मज़बूती से, जैसे उसने उन्हें कभी खोला ही न हो, कुछ देखा ही न हो। वहां और ज़्यादा घर नहीं थे, न छोटे न बड़े। वे सब जल चुके थे। ये बहुत बदनुमा मंज़र था। आसमान का वजूद ख़त्म हो चुका था, क्योंकि ये धोएं और शोलों में हमेशा के लिए ग़ायब हो चुका था।
किसी को देखना नहीं चाहिए, किसी को सांस नहीं लेनी चाहिए। सांस लेना ऐसे ही होगा जैसे याद रखना, और इसका मतलब यह होगा कि कोई वह नहीं देख रहा था, जो उसे दिखाई दे रहा था, बल्कि वह जो किसी ने आग के अलाव की रोशनी में क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी के तूफ़ान में देखा था। इसका मतलब सिर्फ एक बात जानना होगा कि किसी का कोई रिश्तेदार ज़िंदा नहीं है; कि किसी की ज़िंदगी कुछ ख़ौफ़नाक थी, एक लानत, एक रुस्वाई थी। सांस लेने का यही मतलब था। वह उछल खड़ी हुई और किसी जंगली जानवर की तरह अपने पिंजरे के अंदर की जगह नापने लगी।
“मैं सांस नहीं लूंगी। मैं नहीं लूंगी,” उसने ग़ुस्से में सरसराते हुए सरगोशी में कहा। एक कोने से दूसरे कोने की तरफ़ जाते हुए उसने देखा कि सुरक्षाकर्मी, जो थोड़ी देर के लिए अपनी निगरानी से ग़ायब हो गया था, अपनी फोल्डिंग वाली कुर्सी को उसके दरवाज़े के क़रीब छोड़ गया था। उसने कुर्सी की तरफ़ देखा, नीचे बैठी, अपना हाथ सलाख़ों से निकाला, कुर्सी को एक टांग से पकड़ा और उसे घुमाना शुरू किया और इसके साथ-साथ हिलने लगी जब तक कि उसे तहकर के पिंजरे में खींचने में कामयाब नहीं हो गई। आराम से सोचे बिना और अपने आपसे इस काम की वज़ाहत किए बग़ैर वह पिंजरे के दूसरे सिरे तक गई, कुर्सी को खोला और उसे सलाख़ों के साथ रख दिया। फिर वह इस पर चढ़ गई, जैसे कोई बच्चा अकेला रह गया हो और ग़ैरमामूली खेल ईजाद करने लगी। उसने पिंजरे की पट्टियों को ज़ोर से दबाना शुरू कर दिया और अपने सिर के उक़ाबी हिस्से को और भी मज़बूती से उनमें फंसाने लगी। इसी वक़्त उसने अपने आपको अपने पांव तले कुर्सी की तरफ़ धकेलना किया।
कभी-कभार, लेकिन ये बहुत पहले की बात है, अपने बचपन में वह तीन टांगों वाली, लकड़ी की बाज़ुओं वाली कुर्सी पर चढ़ती, जिस पर सिर्फ उसका बाप बैठा करता था और अपने छोटे से जिस्म का पूरा वज़न इस्तेमाल करते हुए झूलने लगती। वह तीन टांगों वाली बड़ी कुर्सी के सिर्फ दो पैरों पर ही झूलती। वह अपना संतुलन खो देने और कुर्सी समेत नीचे गिर जाने के ख़ौफ़ में एक तकलीफ़-देह लुत्फ़ के साथ झूलती रहती। वह अब भी यही कर रही थी। वह झूलती रही, झूलती रही, गिरने के क़रीब आगे-पीछे हिलती रही और गिरते-पड़ते संतुलन को बरक़रार रखा। लेकिन संतुलन के इस नुक़्ते तक उसकी वापसी कम हो गई, आगे-पीछे झूलने की हरकत तेज़ हो गई और उसका सिर लकड़ी की पट्टियों के बीच और मज़बूती से फंस गया। दर्द ख़ौफ़नाक था और उसे शोले की तरह जला रहा था। हां, एक शोला, उस लम्हे वह यही चाहती थी, जहां इसी ख़्वाहिश के तहत हर नौजवान जिस्म को अपना बचाव करना और अपनी बक़ा को यक़ीनी बनाना पड़ता है, वह ख़ुद को तबाह करने की कोशिश कर रही थी। वह ख़त्म हो जाएगी ताकि दुनिया ख़त्म हो सके।
ऐसा ही होने दो। सब कुछ ख़त्म हो जाने दो, हर चीज़ जो ज़िंदा थी और सांस लेती थी और हक़ीक़ी और ठोस थी और जिसका इन्सानों से और आग से और जंग की बीमारी से और गु़लामी से ताल्लुक़ था। दुनिया को ख़त्म हो जाने दो! या उसे ऐसी बन जाने दो जो पहले कभी नहीं थी। कभी नहीं, कभी नहीं, यही बेहतर था। इसका मतलब ये होगा कि ख़ूंरेज़ी, या आतिशज़नी, या गु़लामी, या दुख, या अपनों से जुदा होना न कभी था न कभी होगा। कुछ भी नहीं था!
उसका जिस्म सिर्फ दो मुक़ामात पर छू रहा था: उसके सिर का उक़ाबी हिस्सा और उसके पांव; इन दो जगह के बीच उसका जिस्म झटके खाते हुए किसी मुर्दा मछली के जिस्म की तरह मुड़ा हुआ था। उसने दांत भींचते हुए और अपने पुट्ठे अकड़ाते हुए दर्द से सिसकियां भरीं, जो बमुश्किल ही किसी को सुनाई देतीं। उसे लग रहा था कि इस तरह वह अपने दिल को भी रोक सकती है; ऐंठन ख़त्म हो जाएगी और आख़िर का रुदल धड़कना बंद कर देगा, तारीकी जो कभी ख़त्म नहीं की जा सकती, छट जाएगी और वह ख़त्म हो जाएगी, दुनिया भी ख़त्म हो जाएगी।
उसने दोबारा ज़ोर लगाया। दो गठीली लकड़ियों में फंसे उसके सिर में दर्द तेज़ और तेज़ हो गया और आख़िरकार दर्द की एक सुस्त लहर में तहलील होने लगा। यक़ीनन! अचानक यह उस पर साफ़ हो गया कि वह अपने बाप की बड़ी कुर्सी के साथ, जिसके साथ वह बचपन में खेली थी, उलट चुकी थी और एक ग़ैर-फ़ित्री हालत में हवा में तैर रही थी। उसके पांव अब छोटी कुर्सी की सतह को नहीं छू रहे थे न ही वे उम्दा संग-ए-फ़र्श को छू रहे थे और अपने तमाम वज़न से खिंचा हुआ उसका जिस्म नीचे लटक रहा था और उसका सिर लकड़ी की पट्टियों के दरमियान फंसा हुआ था। यूं लग रहा था, जैसे दुनिया उल्टी खड़ी हो। गोया सारी ज़मीन का वज़न उसके पैरों के तलवों पर आ गया हो, जो अब बेसहारा थे। ये वज़न अब दो सख़्त छड़ियों, जो अब एक फंदे की सूरत इख़्तियार कर चुकी थीं, उसके दरमियान फंसे उसके सिर की गहराई में उतर रहा था; एक तंग घाटी की मानिंद, जिसमें से किसी का गुज़रना दूसरी जानिब की किसी जगह पर पहुंचने के लिए ज़रूरी हो, जैसा कि अपनी पैदाइश के लम्हे कोई गुज़रता है। कमज़ोरी और नक़ाहत से लेकिन हैरत-अंगेज़ तौर पर तकलीफ़-देह अंदाज़ में उसने अपनी गर्दन में कुछ टूटने की आवाज़ सुनी और इस आवाज़ के साथ ही अंधेरे की एक लहर उसके वजूद से गुज़रने लगी। इससे पहले कि ये अंधेरा गहरा होता, जलती हुई लहर उसे अपनी लपेट में लेती, डर और ख़ौफ़ एक बार फिर उसके अंदर भड़क उठे। उसने अचानक अपने आपको बचाने और असल हालत में वापस आने का सोचा। बिजली के कौंधे की तरह मुज़ाहमत की एक नई और शदीद ख़्वाहिश, इस दबाव और फंदे के ख़िलाफ़ अपने बचाव की ख़्वाहिश उसके अंदर भर नहीं रही! ये नहीं, मौत नहीं! दर्द होने दो, अज़ियत होने दो! लेकिन मरना नहीं। जीना है, बस जीना है, चाहे कैसे भी, कहीं भी, यहां तक कि किसी अपने के बग़ैर भी, किसी ग़ुलाम की हैसियत से भी। लेकिन ये सब बिजली की आख़िरी लहरों की तरह जारी रहा। बस एक आख़िरी झटका लगा, उसके जिस्म की इन पट्टियों से टकराने की एक तेज़ आवाज़ आई फिर वह साकित हो गई।
जब दोनों में से एक सुरक्षाकर्मी इस तरफ़ से गुज़रा और पिंजरे पर एक सरसरी निगाह डाली, उसने दहश्त से ख़ूबसूरत लौंडी के बड़े जिस्म को नीचे झूलते और उसके सिर को सलाख़ों के दरमियान जकड़े देखा। वह दूसरे सुरक्षाकर्मी को बुलाने लगा, जिसके पास चाबियां थीं। वे दोनों एक वक़्त पिंजरे की तरफ़ भागे। उन्होंने देखा कि लड़की अभी तक गर्म थी। उसका चेहरा पीला पड़ चुका था और पहले ही किसी हद तक पत्थर में तब्दील हो चुका था। हैरान और परेशान, वह बमुश्किल उसे उठाने में कामयाब हुए और उसका सिर सलाख़ों से निकाला। लाश ख़ुद बख़ुद फ़र्श पर फिसल गई और दोहरी होकर वहीं पड़ी रही। उन्होंने उसे सीधा क्या, उसके पास घुटनों के बल बैठ गए और उसे दोबारा ज़िंदा करने के लिए हर मुम्किन कोशिश की लेकिन बेसूद।
ये काफ़ी देर तक जारी रहा और जब सुरक्षाकर्मी खड़े हुए, वे उसके सिर और बेबसी से ढीले पड़े उसके बाज़ुओं के पास परेशानी में मुब्तला रहे; एक उसके बाएं तरफ़, दूसरा दाएं तरफ़। उन्होंने पलकें झपकाए बग़ैर एक-दूसरे को देखा, बिना कोई लफ़्ज़ कहे हैरान-परेशान; मालिक के पास पहले जाने की हिम्मत कौन करेगा, उसकी आंखों में देखकर उसे इस होने वाले बड़े नुक़्सान से कौन आगाह करेगा।