अरबी से अंग्रेज़ी अनुवाद: नशवा गोवनलॉक
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद: मज़ाहिर हुसैन
स्रोत: द कॉमन
मूसलाधार बारिश हो रही थी, और मिट्टी से बने कच्चे रास्ते पर बहते पानी ने अपने साथ जो कुछ भी मिला, उसे समेट लिया। जैसे कि यह कयामतनुमा दृश्य खुदा के लिए भी काफी नहीं था, बारिश के साथ आई गरज और तेज हवाएं बत्ती के खंभों और पतले साइप्रस के पेड़ों को उखाड़ फेंकने की धमकी दे रही थीं।
जमा देने वाली ठंड थी, और मेरी दादी एक कोने में सिकुड़ी बैठी थीं, वह कमरे में उस जगह थीं जहां दखून को किसी ने नहीं जलाया था। वह काली ऊनी शॉल के नीचे कांप रही थीं। कभी-कभी, वह बुदबुदातीं, “हे मरियम, यीशु की मां, हमारी रक्षा करो!” उनकी ये प्रार्थनाऐं इस सर्दी में सुरक्षा की तलाश का संकेत थीं।
हम सभी बच्चे कंक्रीट के बिस्तर पर बड़ी खिड़की के पास इकट्ठा थे—जिसे हम “रहस्य्मय दरवाजा” कहते थे। हम अपनी दुनिया को देख रहे थे, जो रातों-रात बाढ़, कीचड़ के गड्ढों, गरज और चमक के एक आतंकित दृश्य में बदल गई थी। इस दृश्य ने हमें डर और चिंता से भर दिया था। यह पल हमारे लिए न केवल एक भौतिक परिवर्तन था, बल्कि हमारी मासूमियत और सुरक्षा का भी अंत था।
लेकिन हमारी दादी की बेचैनी के आगे हमारी बेचैनी कुछ भी नहीं थी। हर साल जब फरवरी का महीना आता, तो वह डर जाती, की कहीं कहावतों में जैसा बताया गया है उसके अनुसार फ़रवरी उनको भी अपनी गिरफ़्त में न ले ले। हर बार जब "विचल फरवरी" आती, जिसने “इमाम हुसैन को एक झटके में” अपनी चपेट में ले लिया था, तब मेरी दादी सात बार, या फिर सत्तर बार माला फेरतीं, जैसे कि खुदा से प्रार्थना कर रही हों, "खुदा, इस साल मुझे अगला इमाम हुसैन मत बनाना।" शायद इसी कारण, मेरी दादी कई सालों तक, ज़ैतून के पेड़ की तरह अडिग बनी रहीं, जबकि उनके चारों ओर लोग जीते-मरते रहे, राष्ट्र बने और नष्ट हुए, बीमारियाँ ठीक हुईं और नई बीमारियाँ फैलीं। मेरी दादी अपनी अलमस्त दुनिया में ही रहीं, केवल एक ही चिंता में—फरवरी का भयावह महीना।
दोपहर के तीन बजे थे। यही समय था जब मां आमतौर पर शहर से अपने काम से घर लौटती थीं। हम खिड़की से बाहर देख रहे थे। दिल में मां के लिए चिंता थी, जो इस भयावह दिन में बाहर थीं। हमारे घर की पुरानी दीवारें चिमनी के धुएं से काली पड़ चुकी थीं। पेंट भी जगह-जगह से उतर रहा था। ठंड इतनी थी कि कंक्रीट का बिस्तर मुर्दाघर के फ्रिज जैसा लग रहा था। हम पांचों भूखे थे, लेकिन उस समय भूख से ज़्यादा ज़रूरी था मां का सही-सलामत घर लौटना। छह दिन की जंग के बाद मां को शहर में नई नौकरी ढूंढ़नी पड़ी थी। गांव की कुछ औरतों के साथ वह हर दिन बस स्टॉप से घर तक कीचड़ भरी सड़क पर पैदल चलती थीं। रास्ते में वह कभी-कभी किसी घर के नीचे रुक जातीं और बारिश के कम होने का इंतज़ार करतीं। पर आज बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। दिन मुश्किलों से भरा हुआ था। मुझे उस अभिशप्त युद्ध और मां के काम पर जाने के बीच का रिश्ता समझ नहीं आता था। पर जब मां दिनभर रसोई में खड़े-खड़े थकी हुई घर आतीं, तो मुझे यकीन हो जाता था कि राजनीति और गरीबों की ज़िंदगी में कोई गहरा रिश्ता है।
जैसे ही हमने मां को घर की तरफ आते देखा, ऐसा लगा जैसे हमारे अंदर का सारा कोलाहल थम गया हो। वह पहाड़ जैसी मज़बूत दिख रही थीं, जिन्हें तेज़ हवा भी हिला नहीं सकती थी। उनके सिर से लेकर कीचड़ से सने जूतों तक, सब कुछ भीगा हुआ था। वह थैलों से लदी हुई थीं। उन्हें देखने के लिए हम दौड़कर दरवाज़े की तरफ भागे। यहां तक कि हमारी दादी, जो अब तक मूर्ति की तरह बैठी थीं, अचानक शॉल के नीचे से उठ खड़ी हुईं। उनका शरीर जैसे फिर से जान पा गया हो। उन्होंने हड़बड़ाते हुए कहा, "अरे, अरे! इतनी देर क्यों हो गई? मैंने तो सोचा था तुम अब कभी घर नहीं आओगी…"
मेरी मां ने दादी की तरफ एक उलाहना भरी नज़र डाली, जो मानो कह रही हो, "खुदा आपको माफ़ करे, सासू मां!"
लेकिन मेरी मां ने कुछ नहीं कहा, बस अपना गीला कोट उतारने लगीं। हमने उनके हाथों से थैले ले लिए, उनका फटा हुआ हैंडबैग उठाया, और चारों तरफ दौड़ पड़े। कोई उनके लिए तौलिया लाया ताकि वह अपना चेहरा और बाल पोंछ सकें, कोई उनके घर में पहनने वाले जूते लाया, और कोई पानी का गिलास। फिर हम सब उनके चारों ओर इकट्ठा हो गए, दिल में सुकून महसूस कर रहे थे। उनका चेहरा गोलन हाइट्स के लाल सेब की तरह चमक रहा था, तब ही उन्होंने हमसे पूछा, "तुम लोगों ने खाना खा लिया?"
"हम भूखे नहीं हैं!" हम सबने ज़ोर से कहा।
इसके बाद मां रसोई के कोने में रखे फ्रिज की ओर बढ़ीं, जो चूल्हे के पास था, और खाना बनाने लगीं। वह खाना इतना लज़ीज़ था कि उसका ज़ायका आज भी मेरी ज़बान पर ताज़ा है। घर अचानक एक छोटे से स्वर्ग में बदल गया, जहां जीवन की हलचल थी, और हमने पूरी तरह से बाहर की दुनिया को भुला दिया। मां ने कोने में रखी सूखी लकड़ियों से चूल्हा जलाया। मेरे पिता, जो हर हफ्ते के अंत में घर आते थे, उन्होंने यह लकड़ियां इकट्ठा की थीं, उसके बाद वह फिर से किसी दूर शहर में काम करने लौट गए थे। दादी वापस अपनी जगह पर बैठ गईं, शॉल में लिपटकर। अब उन्हें फरवरी का महीना याद नहीं था। उनके ध्यान में बस यह था कि हमें ज़ोर से हंसते देख, बार-बार डांटती, "हंसते समय मुंह ढककर हंसो। दांत दिखाकर हंसना अच्छा नहीं लगता!"
जब मेरी टीचर ने देखा कि मैं हंसते या बात करते समय मुंह ढक लेती हूं, तो उन्होंने भी डांटा, "मुंह पर से हाथ हटाओ!" इससे मैं पूरी तरह उलझन में पड़ गई।
मां खिड़की से बाहर देख रही थीं। उन्होंने मुझसे कहा, "तुम्हारा जन्म इज़रायल के सैन्य शासन के अंत के बाद हुआ था।" वह 1948 की नकबा के बाद का समय था, जब नए इज़रायली शासन ने उन फ़लस्तीनियों पर सैन्य नियंत्रण लगाया था, जो वहीं रह गए थे और इज़रायली नागरिक बन गए थे। मां] ने एक गहरी सांस ली। "तब मौसम ऐसा ही था। अस्पताल में मुझे देखने कोई नहीं आया। यहां तक कि तुम्हारे पिता भी नहीं। बर्फ गिर रही थी, और किसी ने मुझे दूसरी बेटी होने की बधाई देने की ज़रूरत भी नहीं समझी।" मां ने आह भरी। "मैंने कंबल ओढ़ लिया और रोने लगी।"
मुझे याद आया जब मेरे भाई का जन्म हुआ था, चार बेटियों के बाद। उस दिन स्कूल से लौटते समय, मेरी दो बुआएं स्कूल के गेट पर खड़ी थीं, पुलिसवालों के मानिंद, और वह टीचरों व राहगीरों को मिठाइयां बांट रही थीं।
उस दिन बहुत गर्मी थी। जब मैं घर पहुंची, तो देखा कि बाकी की बुआएं दादी के नेतृत्व में मुर्गियां काट रही थीं, उनके पंख साफ कर रही थीं, और शानदार दावत की तैयारी कर रही थीं। मेरी मां, जो अभी-अभी अस्पताल से लौटी थीं, बर्तन धोते हुए सिंक के पास खड़ी थीं। वह थकी हुई लग रही थीं, लेकिन कभी शिकायत करने की हिम्मत नहीं की।
अब मेरी मां कुछ और कह रही थीं, सैन्य शासन के दिनों के बारे में: "तब से हमें कभी सुकून नहीं मिला, और कुछ भी नहीं बदला। यहां तक कि मरे हुए लोग भी अपनी कब्रों में चैन से नहीं रह सकते।"
लेकिन दादी इससे प्रभावित नहीं हुई। "अब तुम मरे हुए लोगों की बात क्यों कर रही हो?"
यही हाल था मां और दादी के बीच बातचीत का। इतनी देर तक किसी को भी यह ध्यान नहीं आया कि बाहर बारिश रुक चुकी थी, हवाएं शांत हो चुकी थीं। बादल हट गए थे, और सूरज ने घर के ऊपर अपनी रोशनी फैलाई, जिससे पुरानी दीवारें किसी पुराने खजाने की तरह चमकने लगीं। ऐसा लगा जैसे दिन का अंत कुछ अलग होने वाला हो।
हमने अपने पुराने पड़ोसी को आते भी नहीं देखा, जब तक कि उनकी आवाज़ नहीं सुनाई दी। वह अपनी छड़ी के साथ आए थे। हम जल्दी से उनके लिए कुर्सी लाए, ताकि वह हमारे साथ चूल्हे के पास बैठ सकें। उनकी आवाज़, जो उनकी उम्र से मेल नहीं खाती थी, गूंज उठी, "खुदा का शुक्र है। किसने सोचा था कि आज की सुबह इस दोपहर में बदल जाएगी?"
फिर बिना किसी जवाब का इंतज़ार किए, उन्होंने कहा, "जिसने फरवरी को 'विचल' कहा था, वह झूठ नहीं बोल रहा था।"
हमारे पड़ोसी अपनी कहावतों के लिए मशहूर थे। उनके पास कहानियों और कहावतों का अंतहीन भंडार था। वह हमेशा यह कहते कि ज़िंदगी सबसे बड़ी शिक्षक है। वह एक गहरे विश्वास से चलते थे, जो उनके जन्म के समय से ही उनके अंदर था। उनकी बाज़ जैसी आंखों से सिर्फ़ एक बार आंसू गिरे थे। जब 1948 में, इज़रायली सेना ने लेबनानी सीमा के पास के गांवों पर धावा बोला था और तर्बीखा के गांव में सात दिन और सात रातों तक आग लगी रही। वहां उन्होंने गांव के लोगों को भागते देखा था। एक बूढ़ी, अपाहिज औरत को उसके जलते हुए बेटे मोहम्मद को पुकारते देखा था। तब से, जब उन्हें अपने गांव इग्रित से ‘भगौड़ी’ अरब मुक्ति सेना के साथ भागना पड़ा था, वह किसी भी नेता, पार्टी, या वादे पर भरोसा नहीं करते थे। वह बस यह मानते थे, "अगर खुदा हैं, तो हम ज़रूर वापस लौटेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं।"
हमारे पड़ोसी को परिवार का ही एक सदस्य माना जाता था। वह एक जवान आदमी की तरह छरहरे थे, हालांकि वह अब भी हत्ता और इकाल पहनते थे, वह पारंपरिक सिर पर बांधी जाने वाली पोशाक, जो अब हमारे जैसे गांवों में कोई नहीं पहनता था।
उनमें कहानियां सुनाने की अद्भुत कला थी, और यह तर्बीखा और इग्रित की कहानी मुझे हमेशा लुभाती थी। उनकी अजीब सी यह मान्यता कि लोग हमेशा अपना हक वापस पा लेते हैं, चाहे इसमें हज़ार पीढ़ियां क्यों न लग जायें, इस कहानी को खुशी और उत्साह से भर देता था।
यह कहानी सुनकर मेरी दादी अक्सर कहतीं, "इज़रायली दूसरों से बेहतर हैं। कम से कम वे हमें सामाजिक सुरक्षा का लाभ देते हैं।" वह यह भी कहतीं, "वे तुर्कों से बेहतर हैं, जिन्होंने हमें गधों पर बैठाया, और अंग्रेज़ों से भी, जिन्होंने इस देश के युवाओं को फांसी पर लटका दिया।"
लेकिन हमारे पड़ोसी इससे सहमत नहीं होते।
वह कहते, "इज़रायली सबसे ज़ालिम और निर्दयी लोग हैं। वे तब तक कोई एहसान नहीं करते, जब तक उनका कोई फायदा न हो। और वे खुद भी सामाजिक सुरक्षा के लाभों से फायदा उठाते हैं।" हमारे पड़ोसी को इतिहास की किताबें पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा था। कैसे गर्भवती औरतों के पेट चीर दिए जाते थे। कैसे लड़कियों का बलात्कार किया और मर्दों को मार दिया गया। कैसे बच्चे और बुज़ुर्ग दीवार के पास हाथ उठाकर खड़े होते थे, अपने दुखद भविष्य का इंतज़ार करते हुए। और कैसे, "जो ज़मीन बंजर हो, उसे मारकर खेतों की उपज बढ़ाई जाए," इस नीति के तहत पूरे गांव तबाह कर दिए गए, कुछ गांव पूरी तरह मिटा दिए गए, और लोगों में भय फैला। और बाकी सब इतिहास है।
मेरी दादी रोने लगीं, जैसे उन्हें अचानक सब कुछ याद आ गया हो। उन्होंने कहा, "खुदा हमें इंसाफ़ दिलाएंगे।" यह पहली बार था जब मैंने उन्हें "खुदा" कहते सुना था।
हमारे पड़ोसी ने इस बात की पुष्टि की कि हां, खुदा उन बेचारे लोगों को इंसाफ़ देंगे, जिन्होंने कोई पाप नहीं किया था। और इतिहास हमेशा लोगों के साथ होता है। फिर हमारे पड़ोसी चले गए। देर हो चुकी थी इसलिए हम भी सोने चले गए। पहले, दादी सोई नहीं थीं। वह अपनी छाती पर हाथ बांधकर बैठी थीं और बार-बार एक ही बात दोहरा रही थीं, "खुदा महान हैं। वह इंसाफ़ करेंगे।"
लेकिन उसी रात, फरवरी ने हमारी दादी को अपने साथ ले लिया। वह अपने बिस्तर पर शांति से सो रही थीं, आराम और सुकून में, जैसे उन्होंने इन अंतिम दिनों में अपना भविष्य देख लिया हो। उनके सफेद बाल तकिए पर लटक रहे थे, और उनके हाथ उनकी छाती पर बंधे हुए थे, ठीक वैसे ही जैसे मैंने उन्हें आखिरी बार देखा था।
अजीब बात यह थी कि जब सब दादी की मौत पर शोक व्यक्त करने के लिए इकट्ठा हुए, तो मुझे यकीन था कि मैंने उनके होठों को हिलते देखा था। और मुझे पूरी तरह विश्वास था कि वह वही आखिरी शब्द दोहरा रही थीं, जो मैंने रात को उनसे सुने थे।