पैदा होने की असुविधा - अध्याय 1

एमिल सिओरन की पुस्तक 'The Trouble with Being Born' एक गहन दार्शनिक रचना है जिसमें उन्होंने अस्तित्व और जन्म की विडंबनाओं पर विचार किया है। इस पुस्तक में सिओरन ने जीवन की अनिवार्यता और उसके साथ जुड़ी व्यर्थता का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार, जन्म लेना एक प्रकार की त्रासदी है, और वे इस बात को विभिन्न आत्म-मननशील और निराशावादी टिप्पणियों के माध्यम से प्रकट करते हैं। इस पुस्तक में दर्शाए गए विचार जीवन के प्रति एक गहरी संवेदनशीलता और अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जिससे यह दर्शन के छात्रों और विचारशील पाठकों के लिए एक महत्वपूर्ण पठन बन जाता है। यह उस पुस्तक का पहला अध्याय है।

पैदा होने की असुविधा - अध्याय 1

पटचित्र: Sam Woolfe

अनुवादक: अक्षत जैन 

 

सुबह के तीन बजे, मैं इस पल को महसूस करता हूं, फिर इसको, फिर इसको: मैं हर एक मिनट का आकलन करता हूं। और ये सब क्यों? क्योंकि मेरा जन्म हुआ था। एक खास किस्म की बेख्वाबी है जो सज़ा-ए-जन्म को पैदा करती है।

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जब से मेरा जन्म हुआ है—मेरे कानों में उस जब से की गूंज ना-काबिल-ए-बर्दाश्त है।

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एक तरह का इल्म है जो आपकी करी हुई हर चीज को बेकार और संकुचित बना देता है: ऐसे इल्म के लिए, खुद के सिवा सब बे-बुनियाद है। इतना शुद्ध कि मकसद के ख़याल से भी उसे घिन आती है, वह उस परम विज्ञान के अनुकूल है जिसके मुताबिक कुछ करना और न करना एक बराबर हैं और एक-सी संतुष्टि देते हैं: हर बार यह खोज दोहरा पाना कि हमारा किया कुछ भी बचाव के लायक नहीं है, कि अस्तित्व में आने से किसी चीज में कोई सुधार नहीं आता, कि ‘हकीकत’ पागलपन के दायरे में आती है। ऐसा इल्म जिसको हो वह बेजान कहलाने योग्य है: क्योंकि यह इल्म ऐसे काम करता है जैसे आलिम जिंदा भी हो और मुर्दा भी, मौजूद भी हो और मौजूदगी की याद भी। यह सब बीती बातें हैं, वह अपनी हर कामयाब मुहिम के बारे में कहता है, तब भी जब उसकी मुहिम कामयाब हो रही होती है, और इस तरह वह हमेशा वर्तमान से वंचित रहता है। 

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हम मौत की ओर नहीं दौड़ते, बल्कि जन्म की आपदा से दूर भागते हैं, उसे भुलाने के संघर्ष में जुटे उत्तरजीवी। मौत का डर कुछ और नहीं, सिर्फ ज़िंदगी के पहले पल में महसूस किए गए डर को भविष्य में डालना है।

जाहिर है कि हम जन्म को अभिशाप का दर्जा देना पसंद नहीं करते: क्या हमारे अंदर यह नहीं कूटा गया है कि जन्म सर्वोपरि तोहफा है—क्या हमें यह नहीं बताया गया है कि हमारे सबसे बदतरीन हालात अंत में आते हैं, ज़िंदगी की शुरुआत में नहीं। जबकि दुष्टता, असली दुष्टता, हमारे अतीत में है,  भविष्य में नहीं। जो बात येशु के समझ में ना आई वह बुद्ध के समझ में आ गई: हे शिष्यों, यदि दुनिया में तीन चीजें मौजूद नहीं होतीं, तो बुद्ध दुनिया में प्रकट नहीं होता…” और बुढ़ापे एवं मृत्यु के आगे वह जन्म को रखते हैं, हर दुर्बलता, हर दुर्घटना का स्त्रोत।  

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हम घातक से घातक सच को सह सकते हैं, बशर्ते वह हमारी पूरी दुनिया बदल दे, बशर्ते वह हमें उस उम्मीद जितनी ही जीवंतता प्रदान करे जिसकी जगह वह ले रहा है।

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चलो माना कि मैं कुछ नहीं करता। लेकिन मैं घंटों को बीतते देखता हूं—जो उन्हें भरने की कोशिश करने से तो बेहतर ही है।

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कोई बड़ा काम करने की जरूरत नहीं है—बस कुछ इतना कह जाओ जो किसी बेवड़े या मरते आदमी के कानों में फुसफुसाया जा सके।

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इंसान के पतन का इससे बेहतर कोई सबूत नहीं है—एक ऐसा राष्ट्र, एक ऐसी कौम खोजना नामुमकिन हो गया है जिसमें जन्म अभी भी शोक और क़ोहराम पैदा करता हो। 

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अपने वंश की विरासत को ठुकराना हजारों करोडों सालों को ठुकराना है, पहली कोशिका को ठुकराना है।

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भले ही हर अंत में न सही, लेकिन हर खुशी की शुरुआत में कोई एक भगवान ज़रूर होता है।

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मैंने कभी भी मेरे आस-पास मौजूद चीजों में आराम नहीं पाया, मुझे सिर्फ वो चीज लुभाती है जो मेरे से पहले थी, जो मुझे यहां से दूर करती है, वो अनगिनत पल जब मैं नहीं था: गैर-जन्मा।

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ज़िल्लत की शारीरिक जरूरत। काश मैं जल्लाद का बेटा होता! 

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आप किस हक से मेरे लिए दुआ करते हैं? मुझे किसी हिमायती की ज़रूरत नहीं, मैं अकेला ही काफ़ी हूं। किसी अभागे की दुआ मैं शायद स्वीकार कर भी लूं, मगर किसी और की नहीं, किसी संत की भी नहीं। मेरे उद्धार की आप चिंता करें यह मैं सह नहीं सकता। अगर मैं अपने उद्धार को पहचानकर उससे पीछा छुड़ाता हूं, तो आपकी दुआ महज़ एक गुस्ताखी है। अपनी दुआएं कहीं और निवेश करें; वैसे भी, हमारे भगवान अलग हैं। अगर मेरे नपुंसक हैं, तो ऐसा मानने का कोई कारण नहीं के आपके कुछ बेहतर हैं। अगर हम यह मान भी लें कि वे वैसे ही हैं जैसे आप उनकी कल्पना करते हैं, तो भी उनके पास उतनी शक्ति नहीं होगी कि मुझे उस दहशत से मुक्त कर पायें जो मेरी स्मृति से भी पुरानी है।

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संवेदना भी क्या दुखदायी है! आनंद ख़ुद शायद कुछ और नहीं।   

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अगर इंसान, जैसा कि सब देख पता चलता है, खुद को विधाता से अलग करने की आकांक्षा रखता है, तो वह सिर्फ नष्ट करने का या बेनक़ाब करने का कार्य अपने हाथ ले सकता है।

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मुझे पता है कि मेरा जन्म आकस्मिक है, एक हास्यजनक हादसा, और फिर भी, जैसे ही मैं दुनियादारी में खो जाता हूं, मैं ऐसे पेश आता हूं कि मानो वह एक मुख्य वारदात हो, दुनिया की उन्नति और संतुलन के लिए अनिवार्य।

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हर अपराध कर जाना सिवाय बाप बनने के।  

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सामान्य तौर पर इंसान निराशा की अपेक्षा करते हैं: उन्हें पता है कि बेसब्र होने की जरूरत नहीं है, निराशा ख़ुदबख़ूद आ जाएगी, वह बस तब तक रुकेगी जब तक काम चल रहा है। मोह-माया से मुक्त व्यक्ति अलग होता है: वह निराशा के साथ ही काम करता है; उसको इंतज़ार करने की कोई जरूरत नहीं, उसके हर पल में निराशा मौजूद है। खुद को अनुक्रमण से आज़ाद कर, उसने संभाव्य को निगल लिया है और भविष्य को निरर्थक बना दिया है| “मैं तुमसे तुम्हारे भविष्य में नहीं मिल सकता,” वह दूसरों से कहता है। “हमारा एक भी पल साझा नहीं है।” क्योंकि उसके लिए, पूरा भविष्य पहले से ही यहां है।  

जब हम अंत को शुरुआत में ही अनुभव कर लेते हैं, हम समय से तेज़ चलते हैं। प्रकाश, बिजली की तरह गिरती निराशा, एक ऐसा यकीन उत्पन्न करती है जो मायूसी को मुक्ति में तबदील कर देती है।

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मैं मायाजाल से खुद को निकालता हूं, बहरहाल उसमें फ़ंस  ही जाता हूं; या फिर: मैं माया और उस चीज़ के बीच में अटका हूं जो उससे मुक्ति दिलाए, जिसका ना नाम है ना अर्थ, जो सब कुछ है और कुछ भी नहीं। मैं मायाजाल से बाहर निर्णायक कदम कभी नहीं रखूंगा; मेरा स्वभाव मुझे सदैव अनिश्चित, इधर-उधर मंडराते रहने पर विवश करता है, और अगर मैं किसी एक दिशा में स्पष्ट तौर से बढ़ने की कोशिश करूंगा, तो मेरी मुक्ति मेरा विनाश कर देगी। 

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मेरी निराशा की क्षमता समझ के परे है। ये ही है जिसके द्वारा मैं बुद्ध को बूझ पाता हूं, लेकिन ये ही उनके रास्ते पर मुझे चलने नहीं देती।  

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हम जिसके साथ संवेदना नहीं रख पाते, वह हमारे लिए महत्व रखना बंद कर देता है—हमारे लिए उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रहता। हमें समझ आता है कि हमारा अतीत इतना जल्दी ‘हमारा’ होना कैसे बंद कर इतिहास में बदल जाता है, एक ऐसी चीज़ जो अब किसी के मतलब की नहीं।

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अपनी गहराई में, उतना हीन होने की महत्त्वाकांक्षा रखिए, उतने शोकजनक जितने भगवान हैं।

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जीवों के बीच असली राब्ता मूक मौजूदगी में ही स्थापित होता है, बिना किसी ज़ाहिरी संपर्क के, उस रहस्यमय और निःशब्द आदान-प्रदान से जो आंतरिक प्रार्थना के सुरूप है।

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जो मुझे साठ साल की उम्र पर पता है, वह मुझे बीस की उम्र पर भी उतने ही अच्छे से पता था। प्रमाणीकरण के लंबे, अनावश्यक श्रम के चालीस साल।

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मैं इस तर्क से इतना कायल हूं कि किसी चीज़ का ना कोई आधार है, ना नतीजा और ना औचित्य, कि अगर कोई इस बात का विरोध करने की कोशिश करेगा तो चाहे मैं उसका कितना भी आदर करता हूं, मेरी नज़रों में वह ढोंगी या बेवकूफ बन जाएगा।

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अपने बचपन में भी मैं घंटों को बीतते देखता था, किसी भी संदर्भ, प्रक्रिया और वाकया से परे, समय का अलगाव उससे जो वह नहीं है, उसकी स्वायत्त मौजूदगी, उसका विशेष दर्जा, उसका साम्राज्य, उसकी तानाशाही। मुझे वह दोपहर अच्छे से याद है जब, पहली बार, खाली ब्रह्मांड का सामना करते हुए मैं उन लम्हों के गुज़रने से ज़्यादा कुछ नहीं था, जो अपनी उचित भूमिका निभाने के लिए अनिच्छुक थे। समय ब्रह्मांड से अलग हो रहा था—मेरी खपत पर

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जोब से भिन्न, मैंने उस दिन को नहीं कोसा जिस दिन मेरा जन्म हुआ था; लेकिन बाकी सारे दिन मैंने अपने अभिशापों से भरे हैं . . .

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अगर मौत के सिर्फ नकारात्मक पहलू होते, तो हमारे लिए मरना नामुमकिन हो जाता।

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सब वास्तविक है; सब माया है। दोनों ही फार्मूला समान शांति प्रदान करते हैं। व्याकुल आदमी का दुर्भाग्य है कि वह उन दोनों के बीच रहता है, कांपता हुआ और भ्रमित, सदैव छोटी-छोटी चीज़ों के रहम पर, ना मौजूदगी के आश्रय में पैर जमाने के काबिल और ना ही गैर-मौजूदगी के।

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यहां, नॉरमैंडी के तट पर, सुबह के इस वक्त, मुझे किसी की जरूरत नहीं। सीगल की भी मौजूदगी मुझे परेशान कर रही थी: मैंने उन्हें पत्थरों से भगा दिया। और उनकी अलौकिक किलकारियां सुनने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल यही चाहता था, कि कुछ मनहूस ही मुझे शांत कर सकता था, और उसी का सामना करने मैं भोर के पहले उठा था।

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“इस हमारी ज़िंदगी में”—ज़िंदगी में होना: अचानक इस अभिव्यक्ति की विचित्रता से मैं ठिठक जाता हूं, मानो ये किसी के ऊपर लागू ना होती हो।

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जब भी मैं थक कर अपने दिमाग पर तरस खाने लगता हूं, तो मैं घोषणाएं करने की अप्रतिरोध्य इच्छा में बह जाता हूं। उस क्षण मुझे एहसास होता है कि समाज-सुधारक, पैगम्बर और उद्धारक किन तुच्छ गहराइयों से उठते हैं।

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मैं आज़ाद होने के लिए तरसता हूंबेहद आज़ाद। मृत जन्मे की तरह आज़ाद।

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अगर स्पष्टता में इतनी बेचैनी और अनिश्चितता है, तो वह इसलिए कि स्पष्टता हमारी निंद्राहीन रातों के खराब उपयोग का नतीजा है।

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जन्म को लेकर हमारी सनक, हमको अपने अतीत से पहले किसी क्षण पर ले जा कर, हमारे भविष्य, वर्तमान और यहां तक की हमारे अतीत से भी मज़ा ठग लेती है।

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ऐसे दिन कम ही आते हैं, जब मैं इतिहास के अंत के बाद के समय के बारे में सोचकर, भगवानों को इंसानों की उपकथा के ऊपर हंसते हुए नहीं देखता।

जब कयामत के दिन की कल्पना किसी को संतुष्ट नहीं कर पाएगी, तब हमें चाहिए होगी दूसरी परिकल्पना।

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एक विचार, एक जीव, जो भी साक्षात होता है वह अपनी पहचान खो देता है, कुरूप बन जाता है। सब कार्यों में विफलता। कभी संभाव्य को ना छोड़ना, अनंत इधर-उधर लुढ़कते रहना, जन्म लेना भूल जाना।

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असल, अद्वितीय दुर्भाग्य: चलन में आना। ऐसी त्रासदी जो आक्रामकता से शुरू हुई, जीवों की उत्पत्ति के अंदर विस्तार और रोष के बीज से, बदतरीन तक जाने की प्रवृत्ति जिसने उन्हें सबसे पहले जगाया।

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जब हम किसी को बहुत सालों बाद मिलते हैं, तब हमें एक दूसरे के सामने घंटों तक बिना कुछ कहे बैठ जाना चाहिए, जिससे कि चुप्पी के माध्यम से हमारी भयाकुलता अपना लुत्फ़ उठा सके।

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ऊसरपन के चमत्कारी दिन। उनके कारण खुश होने, जीत घोषित करने, इस अकाल का जश्न मनाने की बजाय, उनको अपनी तृप्ति, परिपक्वता, अगर संक्षेप में कहें तो, अपने अलगाव के स्पष्टीकरण के रूप में देखने की बजाय, मैं अपने आप को द्वेष और रोष से भर जाने देता हूं: प्राचीन आदम हमारे अंदर इतना दृढ़ है, हलचल करते आवारा कुत्ते, आत्म-विलोपन के लिए अनुपयुक्त।

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हिन्दू दर्शन, जिसका मूलभूत प्रयास स्वयं के ऊपर विजय पाना है, मुझे मंत्रमुग्ध कर देता है; और जो भी मैं करता हूं, जो भी मैं सोचता हूं वह केवल मैं हूं और मेरी दीनता।

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जब हम किसी प्रक्रिया में जुटे होते हैं, तो हमारा एक लक्ष्य होता है; हो जाने के बाद ना तो प्रक्रिया और ना ही उस लक्ष्य की हमारे लिए कोई वास्तविकता रह जाती है| इसमें कुछ महत्वपूर्ण नहीं है—एक खेल से ज़्यादा नहीं। लेकिन हम में से कुछ प्रक्रिया के दौरान ही इस खेल से अभिज्ञ होते हैं: हम नतीजे का आधार में, उपलब्धि का आभासी में ही अनुभव कर लेते हैं—हमारे अस्तित्व की वास्तविकता से हम ‘गंभीरता’ को खोखला कर देते हैं।

गैर वास्तविकता, एवं सार्वभौमिक अभाव, की परिकल्पना रोज़मर्रा के एक एहसास की उपज है, और एक आकस्मिक रोमांच भी। सब कुछ खेल है—बिना इस इलहाम के, उस एहसास की, जो हम अपनी आम ज़िंदगी में ढोते रहते हैं, वह विशेष छाप नहीं होती जो हमारे आध्यात्मिक अनुभवों को उनकी अनुकृति, हमारी बेचैनी, से अलग करने के लिए जरूरी है। क्योंकि हर बेचैनी एक अधूरा आध्यात्मिक अनुभव है।

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जब हम अपनी मौत में रुचि को शिथिल कर देते हैं, जब हमें एहसास होता है कि हमें उससे कोई और लाभ नहीं, तब हम जन्म पर वापस आ गिरते हैं, हम मौत से कहीं ज़्यादा गहरी खाई की ओर मुड़ जाते हैं।

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इस समय, मैं पीड़ा में हूं—जैसा की फ्रेंच कहते हैं, j’ai mal। ये घटना, जो मेरे लिए अति महत्वपूर्ण है, किसी दूसरे के लिए, सभी दूसरों के लिए, अवास्तविक है, कल्पनातीत है। सिवाय भगवान के, अगर उस शब्द का कोई मतलब हो सकता है तो।

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हम हर तरफ से सुनते हैं, कि अगर सब कुछ व्यर्थ है, तो जो भी काम कर रहे हो वह काम अच्छे से करना व्यर्थ नहीं है। मगर फिर भी, वो है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए, और इसे सहने के लिए, ये जरूरी है कि आप कोई काम न करें, या ज़्यादा से ज़्यादा, राजा का काम करें—जैसे कि सोलोमन का।

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मेरी प्रतिक्रियाएं दूसरों की ही तरह होती हैं, उनकी तरह भी जिनसे मैं सबसे ज़्यादा घृणा करता हूं; पर इसके उपाय में मैं अपनी हर प्रक्रिया की निंदा करता हूं, चाहे वह अच्छी हो या बुरी।

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मेरे एहसास कहां हैं? वे पिघल गए हैं . . . मेरे अंदर, और यह मैं, यह स्वयं, और क्या है सिवाय इन वाष्पित एहसासों के योगफल के?

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असामान्य और अमान्य—ये दो विशेषण लागू होते हैं यौन क्रिया पर, और, फलस्वरूप, उस हर चीज़ पर जो इसका नतीजा है, सबसे पहले ज़िंदगी पर।

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स्पष्टता अकेला दोष है जो हमें आजाद करता है—रेगिस्तान में आजाद।

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जैसे साल बीतते हैं, उनकी संख्या कम होती जाती है जिनके साथ हम संपर्क जमा सकते हैं। जब कोई बात करने के लिए नहीं बचेगा, तो आखिरकार हम वापस वैसे हो जाएंगे जैसे हम नाम तक झुकने के पहले थे।  

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एक बार हम गीतात्मकता को ठुकरा दें, पन्ना काला करना अग्नि परीक्षा बन जाती है: बिल्कुल वही कहने के लिए जो हम कहना चाहते हैं, लिखने का क्या फायदा?

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हम उसको अपना न्यायाधीश मानने के लिए सहमत नहीं हो सकते जिसने हमसे कम दुख झेला हो। और क्योंकि हम सब खुदको न पहचाना गया जोब मानते हैं . . .

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मैं एक आदर्श गुरु की कल्पना करता हूं, जिसको सब बता सकूं, जिसके सामने सब उगल सकूं: मैं ऊबे हुए संत की कल्पना करता हूं।   

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मौत के सारे युगों के बाद, जीवित ने चाल समझ ली होगी; ये और कैसे समझें की कीड़े, चूहे और मनुष्य ने खुद, थोड़े हंगामे के बाद, इतने ढंग से ये करना सीख लिया?

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जन्नत असहनीय थी, वरना पहला आदमी उसके अनुकूल बन जाता; ये दुनिया भी कुछ कम नहीं है, क्योंकि यहां हम जन्नत खोने का पछतावा करते हैं या दूसरी जन्नत की प्रत्याशा करते हैं। क्या करें? कहां जायें? कुछ मत करो और कहीं मत जाओ, सबसे आसान।

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स्वास्थ्य अवश्य ही अच्छी चीज़ है; मगर जिनके पास वह होती है वह उसको पाने की संभावना से वंचित है, क्योंकि आत्मचेतन स्वास्थ्य या तो जोखिम में होता है या होने वाला होता है। क्योंकि कोई बीमारियों के अभाव से खुश नहीं होता, स्वस्थ लोगों के लिए न्यायोचित  सज़ा की बात हम बिना अतिशयोक्ति के कर सकते हैं।

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कई के आफतें होती हैं; दूसरों की सनकें। किसके ज़्यादा बुरे हालात हैं?

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मेरे साथ न्याय मत करो: मैं सब चीजों के बिना रह सकता हूं सिवाय अन्याय के टॉनिक के।

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“सर्वम् दुखम”—आधुनिकीकरण के बाद ये बौद्धिक अभिव्यक्ति कुछ ऐसी हो गई है: “सब कुछ बुरा सपना है।”  

इस प्रकार से, निर्वाण, जिसका उद्देश्य अब बहुत ज़्यादा बड़े पैमाने पर यातना खत्म करना है, अब कुछ गिने चुने लोगों का आश्रय नहीं है, वह बुरे सपने जितना विश्वव्यापी हो चुका है।

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वो एक सलीबी मौत उसके सामने क्या है जो अनिद्रा रोगी हर रोज सहता है? 

मैं एक रात देर से पेड़ों से घिरी सड़क पर सैर कर रहा था; मेरे कदमों में एक शाहबलूत गिरा। उसने जो फटते हुए शोर किया, जिस तरह से वह मेरे अंदर गूंजा, इस महत्त्वहीन घटना ने मेरे हृदय में अनुपात से कहीं ज़्यादा जो हलचल की, उसने मुझे अचंभे में धकेल दिया, निश्चितता के उत्साह में, मानो कोई और सवाल न बचे हों—सिर्फ जवाब। मैं हजारों अप्रत्याशित खोजों के नशे में था, जिनमें से किसी का मैं कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता था . . .

इस तरह मैं सर्वोच्च के इतने करीब पहुंचा। मगर, उसके बजाय, मैं अपनी सैर पर आगे बढ़ गया।

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हम किसी दूसरे को अपनी तकलीफ़ें सिर्फ़ उसको पीड़ित करने के लिए बताते हैं, जिससे वो हमारी तकलीफ़ों का बोझ उठा सके। अगर हम उसे अपनी तरफ़ आकर्षित करना चाहते, तो केवल अमूर्त चिंताओं को ही स्वीकार करते, क्योंकि जो हमसे प्यार करते हैं वे सिर्फ़ इसी तरह की मुसीबतों के बारे में सुनने के लिए उत्सुक होते हैं।

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जन्म लेने के लिए मैं ख़ुद को माफ़ नहीं करता। ऐसा लगता है जैसे इस दुनिया में आके मैंने किसी रहस्य को विकृत किया है, किसी अहम वादे को तोड़ा है, कोई बेहद बड़ी भूल की है। फिर भी, कम निश्चित मनोदशा में, जन्म एक ऐसी आपदा प्रतीत होती है जिससे अनजान रहकर मैं दुखी होता।

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विचार कभी निर्दोष नहीं होते, क्योंकि वे बेरहम होते हैं, आक्रामक होते हैं, वे हमें अपनी बेड़ियां तोड़ने में मदद करते हैं। अगर हम विचारों में निहित बुराई और दानवत्व को दबा दें, तो हमें मुक्ति की संकल्पना को ही त्यागना पड़ेगा।

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धोखा नहीं खाने का सबसे पक्का तरीक़ा एक के बाद एक हर निश्चितता को ठुकराना है। फिर भी, इस सच को नहीं ठुकराया जा सकता की हर महत्वपूर्ण काम संदेह से परे रहकर ही पूरा हुआ है।

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बहुत ही लंबे समय से—वास्तव में हमेशा से—मुझे यह ज्ञात है कि इस धरती पर ज़िंदगी मेरी ज़रूरत के मुताबिक़ नहीं है और मुझसे वह झेली भी नहीं जाती; इस कारण से और सिर्फ़ इसी कारण से मेरे अंदर आध्यात्मिक गर्व की एक छाप है, जिसकी वजह से मेरा अस्तित्व मुझे एक स्तुति गीत के पतन जैसा प्रतीत होता है।

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हमारे विचार, जो हमारे भय के अधीन हैं, भविष्य की ओर केंद्रित होते हैं, हर डर के मार्ग का अनुसरण करते हैं, मृत्यु की ओर खुलते हैं। जब हम उन्हें जन्म की ओर मोड़ते हैं और उन्हें वहां ठहरने के लिए मजबूर करते हैं, तब हम उनकी राह को उलट देते हैं, उन्हें पीछे की और भेजते हैं। इस तरह वे उस जोश, उस अतृप्तीय तनाव को भी खो देते हैं जो मौत के ख़ौफ़ के अंतर्गत रहता है और जो हमारे ख़यालों के लिए मददगार होता है, अगर वो बढ़ना, तरक्की करना, शक्ति जमा करना चाहें। इस कारण हम देखते हैं कि जब उन्हें उल्टी दिशा में ले जाया जाता है, वे इतने उत्साहहीन और थके हुए हो जाते हैं, कि जब अंततः वे अपनी प्रारंभिक सीमा से टकराते हैं, तो उनमें “कभी न जन्मे” की ओर देखने की ऊर्जा नहीं बचती।

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मेरे लिये अपनी शुरुआत नहीं, कायनात की शुरुआत मायने रखती है। अगर मैं अपने जन्म, एक छोटी-सी सनक, से टकराता हूं, तो यह सिर्फ़ इसलिए कि मैं समय के पहले पल से झूंझने की शक्ति नहीं रखता। हर व्यक्तिगत तकलीफ़, आख़िरकार, एक ब्रह्मांडीय तकलीफ़ की ओर ले जाती है, हमारी प्रत्येक अनुभूति उस प्रारंभिक अनुभूति के अपराध का प्रायश्चित करती है, जिसके ज़रिए वजूद कहीं से उभरा था . . .

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हालांकि हम ब्रह्मांड की तुलना में ख़ुद को ज़्यादा पसंद करते हैं, फिर भी हम ख़ुद से इतनी नफ़रत करते हैं जिसका हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। अगर बुद्धिमान व्यक्ति इतने दुर्लभ हैं, तो यह इसलिए कि हम उन्हें उस स्वयं की नफ़रत से झूंझते नहीं पाते, जो सब जीवों की तरह, वे भी ख़ुद के लिए महसूस करते होंगे।    

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अगर हम उन्हें एक ही शिद्दत से समझें तो होने और न होने में कोई फर्क नहीं।

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अज्ञानता सब चीज़ों का आधार है, एक प्रक्रिया को हर पल दोहराकर वो ही सब चीज़ों की रचना करती है, वो ही इस और किसी भी और दुनिया की उत्पत्ति करती है, क्योंकि वो लगातार उस चीज़ को वास्तविक मानती है जो असल में वास्तविक है नहीं। अज्ञानता वो विशाल भूल है जो हमारे सभी सत्यों का आधार है, वो सारे भगवानों से ज़्यादा पुरानी और शक्तिशाली है।

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इस प्रकार हम ऐसे व्यक्ति को पहचानते हैं जिसमें आंतरिक खोज की प्रवृत्तियां होती हैं: वह हर कामयाबी के ऊपर नाकामयाबी को रखता है, यहां तक की वो नाकामयाबी को ढूंढ़ता है, बेशक अनजाने में। ये इसलिए कि नाकामयाबी, सदैव आवश्यक, हमें ख़ुद से परिचित करवाती है, हमें ख़ुद को वैसे देखने की इजाज़त देती है जैसे हमें भगवान देखते हैं, जबकि कामयाबी हमें उससे दूर ले जाती है जो हमारे अंदर ही नहीं बल्कि किसी भी चीज़ में सबसे अंदरूनी है।

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एक समय था जब समय अस्तित्व में नहीं आया था . . . जन्म को ठुकराना और कुछ नहीं बल्कि इस समय के पहले के समय की हसरत है।   

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मैं बहुत सारे दोस्तों के बारे में सोचता हूं जो अब नहीं रहे और उन पर तरस खाता हूं। जबकि उन पर इतना तरस खाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उन्होंने सारी समस्याओं को हल कर लिया है, सबसे पहले मौत की समस्या को।

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पैदा होने के तथ्य में आवश्यकता की इतना ज़्यादा कमी है की जब आप उसके बारे में रोज़मर्रा से ज़्यादा सोचते हैं, तो चेहरे पर बेवक़ूफ़ी भरी मुस्कान लाने के सिवा आपके पास कोई प्रतिक्रिया नहीं रह जाती।

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दो तरह के मन: दिन का और रात का। उनके न तो समान तरीक़े होते हैं, न ही समान नैतिकता। भरी दोपहरी में आप बच-बच के चलते हैं; जबकि रात में खुल के बोलते हैं। वह व्यक्ति जो दूसरों के सोने के समय ख़ुद से सवाल करता है, उसे अपने ख़्यालों के लाभकारी या अजीबोग़रीब नतीजों की ज़्यादा परवाह नहीं होती। इसलिए वह दूसरों या स्वयं को हानि पहुंचाने की चिंता किए बिना जन्म लेने की बदनसीबी पर गौर करता है। आधी रात के बाद ही हानिकारक सच्चाइयों का नशा शुरू होता है।

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सालों के इकट्ठा होने के साथ, हम भविष्य की ज़्यादा गंभीर छवि बनाते हैं। क्या ये सिर्फ़ इसलिए कि हम उससे हटाये जाने पर ख़ुद को सांत्वना दे सकें? सतही तौर पर हां, वास्तविक तौर पर नहीं, भविष्य तो हमेशा से ही भयावह रहा है, क्योंकि मनुष्य अपनी बुराइयों का उपचार केवल उन्हें और अधिक बढ़ाकर करता है, जिसके कारण हर युग में, उस वक़्त की मुसीबतों का हल निकालने के पहले मनुष्य का जीवन अधिक सहनीय होता है।

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बड़ी तकलीफ़ें आने पर ऐसे जीने की कोशिश करें जैसे इतिहास ख़त्म हो चुका है और उसके कारण शांति से भरे दानव की तरह प्रतिक्रिया दें।

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अगर मैं ताबूत के ऊपर खड़े होकर ख़ुद से यह पूछता था: “इसमें पड़े इंसान को पैदा होने का क्या फ़ायदा हुआ?”, तो अब मैं यही सवाल हर ज़िंदा व्यक्ति के लिए पूछता हूं।

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जन्म पर जोर देना केवल अघुलनशील की तलब को दीवानगी की हद तक ले जाना है।

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मौत को लेकर, मैं लगातार “रहस्य” और “महत्वहीनता” के बीच डगमगाता रहता हूं—पिरामिड और मुर्दाघर के बीच।

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यह महसूस करना नामुमकिन है कि ऐसा भी कोई समय था जब हम अस्तित्व में नहीं थे। यही वजह है कि हमें उस शख़्सियत से लगाव है जो हम पैदा होने से पहले थे।

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सिर्फ़ एक घंटा स्वयं के न होने पर ध्यान करो और तुम अपने आप को दूसरा व्यक्ति बनता महसूस करोगे,” जापानी कुश समुदाय के एक पंडित ने पश्चिमी आगंतुक से कहा।

बुद्ध विहार गये बिना, कितनी बार मैंने दुनिया की अवास्तविकता पर ध्यान किया है, और इस कारण अपनी ख़ुद की? भले ही इससे मैं कोई दूसरा व्यक्ति नहीं बन गया, बिलकुल नहीं, लेकिन निश्चित तौर पर मेरे अंदर एक एहसास घर कर गया कि मेरी पहचान पूरी तरह से मायावी है, और इसे खोने से मैं कुछ भी नहीं खोउंगा, सिवाय किसी एक चीज़ के, सिवाय सब कुछ के।    

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समझदारी अनुसार जन्म के तथ्य को पकड़े रखने के बजाय, मैं जोखिम उठाता हूं, पीछे मुड़ता हूं, किसी अनजान शुरुआत की तरफ़ बढ़ता जाता हूं, एक मूल से दूसरे मूल तक चलता रहता हूं। किसी दिन, शायद, मैं मूल तक पहुंचने में कामयाब हो भी जाऊं, या तो वहां आराम करने के लिए या बर्बाद होने के लिए।

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कोई मेरा तिरस्कार करता है। मैं उसे मारने के लिए आगे बढ़ता हूं। लेकिन इसके बारे में एक बार और सोचकर ख़ुद को रोक लेता हूं।

मैं कौन हूं? मेरा असली स्वयं कौनसा है: जो मारने आगे बढ़ा था या जो रुक गया? मेरी पहली प्रतिक्रिया हमेशा ऊर्जा से भरी होती है; दूसरी ढीली। जिस चीज़ को “समझदारी” कहते हैं, वह बस एक लगातार एक और बार सोचने” की कला है, यानी पहली प्रवृत्ति के रूप में निष्क्रियता।

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अगर मोह करना बुराई है, तो हमें इसका कारण जन्म के कांड में ढूंढ़ना होगा, क्योंकि पैदा होने का मतलब ही मोह करना है। इसका मतलब वैराग्य की प्रक्रिया इस कांड के निशान मिटाने की होनी चाहिए, जो सबसे ज़्यादा गंभीर और असहनीय है।

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बेचैनियों और मुश्किलों के दरमियान, उस भ्रूण के खयाल पर अचानक सुकून, जो कभी आप थे।

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इस पल इंसानों और भगवानों द्वारा की गई कोई निंदा मुझ पर असर नहीं कर सकती: मेरा ज़मीर इतना साफ़ है कि जैसे मैं कभी अस्तित्व में आया ही न हूं।

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यह सोचना ग़लत है कि दुख सहने और पैदाइश के ख़िलाफ़ सख़्त विरोध में सीधा रिश्ता है। ऐसा विरोध गहरे और सुदूर कारणों से उत्पन्न होता है, और यह तब भी होता है जब किसी के पास अस्तित्व के खिलाफ केवल एक मामूली शिकायत हो। वास्तव में, यह सबसे ज़्यादा तीव्र अत्यधिक सौभाग्य के मामलों में ही होता है।

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थ्रेशियाई और बोगोमिलमैं यह नहीं भूल सकता कि मैं उन्हीं जगहों पर भटका हूं जहां वे भटका करते थे, और यह भी कि बच्चों के जन्म लेने पर थ्रेशियाई शोक मनाते थे, और बोगोमिल, ख़ुदा को बरी करने के लिए, रचना के पागलपन का दोष शैतान पर डालते थे।

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गुफाओं की लंबी रातों में कितने हैमलेटों ने अपने अनंत एकालाप बड़बड़ाए होंगे—क्योंकि यह संभावित है कि आध्यात्मिक पीड़ा का चरम उस सार्वभौमिक नीरसता से बहुत पहले स्थित हो, जो दर्शनशास्त्र के उदय के बाद आई थी।

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जन्म के प्रति जुनून स्मृति की तीव्रता, अतीत की सर्वव्यापकता, और कठिनाई के प्रति, विशेष रूप से पहली कठिनाई के प्रति, लालसा से उत्पन्न होता है। कोई खुलापन नहीं, इसलिए अतीत से कोई आनंद नहीं, बल्कि केवल वर्तमान से, और एक ऐसे भविष्य से जो समय से मुक्त हो।

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बहुत सालों तक, असल में पूरी ज़िंदगी, सिर्फ़ अपने आख़िरी पलों के बारे में सोचते रहना, सिर्फ़ यह पाने के लिए, की जब आप आख़िरकार अपने आख़िरी पलों तक पहुंचते हैं, तो इतने सालों की सोच किसी काम की नहीं रहती, की मौत के ख़यालात मरने के अलावा सब चीज़ में मददगार होते हैं!

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हमारी पीड़ाएं ही चेतना को उकसाती हैं, उत्पन्न करती हैं; उनका काम पूरा होने पर वे कमज़ोर होकर एक-के-बाद-एक ग़ायब होती जाती हैं। लेकिन चेतना रह जाती है, उनके जाने के बाद भी, बिना इस स्मृति के की वह अपनी रचना के लिए किसकी आभारी है, इस तथ्य को कभी जाने बिना। इसलिए चेतना लगातार अपनी स्वायत्तता की, संप्रभुता की, घोषणा करती फिरती है, तब भी जब वह ख़ुद से नफ़रत करती है और ख़ुद को दबा देना चाहती है।

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सेंट बेनेडिक्ट के नियम के अनुसार, अगर कोई संन्यासी किसी कार्य को करते हुए गर्व या केवल संतुष्टि भी महसूस करने लगता है, तो उसे वो कार्य वहीं की वहीं त्याग देना चाहिए। 

उस व्यक्ति को इस ख़तरे का भय नहीं होता जिसने असंतोष की प्यास में, पछतावे और घृणा के उन्माद में जीवन जिया हो।

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अगर यह सच है कि भगवान पक्ष लेना पसंद नहीं करते, तो मुझे उनकी मौजूदगी में बिलकुल अजीब नहीं लगेगा, उनकी नक़ल करके मुझे बहुत सुख मिलेगा, हर चीज़ में उनकी तरह बनके, “बिना किसी राय के”।

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सुबह उठकर नहाना-धोना, और फिर किसी अप्रत्याशित प्रकार के डर या अवसाद का इंतजार करना। मैं पूरी सृष्टि और शेक्सपीयर के समग्र कार्यों को एक कण मानसिक शांति के लिए त्यागने को तैयार हूं।

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नीत्शे का बड़ा सौभाग्यजैसे उसका अंत हुआ: उत्साह में!

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एक ऐसी दुनिया का बार-बार उल्लेख करना, जहां अब तक कुछ भी घटित होने के लिए झुका नहीं, जहां आपने चेतना की प्रतीक्षा की लेकिन उसे चाहा नहीं, जहां संभावनाओं में डूबे हुए आप स्वयं से पहले के एक अस्तित्व की शून्यपूर्ण परिपूर्णता में आनंदित होते थे . . .

जन्म न लेना, सिर्फ उस पर विचार करनाक्या सुख, क्या स्वतंत्रता, क्या विशालता!

 

एमिल सिओरन
एमिल सिओरन

एमिल सिओरन एक रोमानियाई-फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक थे, जिनका जन्म 1911 में हुआ था और उनका निधन 1995 में हुआ। उन्हें उनके निराशावादी और सांस्कृतिक आलोचनात्मक विचारों के लिए जाना जाता है। उनकी लेखनी में जीवन, मृत्यु, और मानवीय अस्तित्व की व्यर्थता के विषयों पर गहरी चिंतनशीलता देखने को मिलती है। सिओरन... एमिल सिओरन एक रोमानियाई-फ्रांसीसी दार्शनिक और लेखक थे, जिनका जन्म 1911 में हुआ था और उनका निधन 1995 में हुआ। उन्हें उनके निराशावादी और सांस्कृतिक आलोचनात्मक विचारों के लिए जाना जाता है। उनकी लेखनी में जीवन, मृत्यु, और मानवीय अस्तित्व की व्यर्थता के विषयों पर गहरी चिंतनशीलता देखने को मिलती है। सिओरन अपने गहरे और कभी-कभी विवादास्पद विचारों के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें उन्होंने मानव अनुभव और संस्कृति के संकटों को व्यक्त किया है।