क्या गाय के नाम पर मुसलमानों के प्रति हेट क्राइम ‘नये भारत’ का ही तथ्य है?

सौ से भी अधिक वर्षों से गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है| इसकी बढ़ती संख्या और रिपोर्टिंग का श्रेय कुछ हद तक इंटरनेट की उपलब्धता को दिया जा सकता है और ना कि हिन्दुस्तानी समाज में हुए किसी मूलभूत बदलाव को|

क्या गाय के नाम पर मुसलमानों के प्रति हेट क्राइम ‘नये भारत’ का ही तथ्य है?

गौ रक्षा और गौ रक्षक आज राष्ट्रीय चर्चा के विषय हैं: प्रतिनिधित्व छवि: फोटो: रेउटर्स

अनुवाद: मज़ाहिर हुसैन 
स्त्रोत: The Wire

हाल के वर्षों में ऐसा देखा गया है कि ‘मवेशी बचाने’ के नाम पर मुसलमानों के साथ मॉब लिंचिंग की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। पिछले कुछ सालों में हमने ऐसी दर्जनों हत्याएँ देखी हैं। गौ हत्या के अलावा भी मुसलमानों, दलितों, और आदिवासियों पर छिछले आरोप लगा कर हमले और लिंचिंग के किस्से बढ़ते दिख रहे हैं| हालांकि, यह तय किया जा चुका है कि ‘गौ रक्षा’ एक केन्द्रीय व्यपदेश है जिसके चलते पिछले कुछ वर्षों में मुसलमानों की लिंचिंग की जा रही है।

इन हत्याओं में एक सामान्य थीम मरने और मारने वालों के नंबर में असंतुलन की है। अक्सर दो से तीन लोगों पर सैकड़ों की भीड़ द्वारा हमला किया जाता है। हमलावर समर्थक भीड़ से घिरे होते हैं। उनमे से कई समर्थक तो हमले की रिकॉर्डिंग और वीडियो भी बनाते हुए नज़र आते हैं। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि समर्थक तमाशे का आनंद लेते हैं, जिससे हमलावरों को प्रोत्साहन मिलता है। इन सारी मॉब लिंचिंग की एक विशेषता यह भी है कि ये आबादी से दूर के क्षेत्रों में, राजमार्गों पर, या फिर गाँव–देहात में होती हैं। इन क्षेत्रों में कानून व्यवस्था पहले से ही लचर है और अगर अपवाद स्वरूप अतिउत्साहित पुलिस कर्मीं चाहें भी तो भी इन जगहों तक पहुँचना और हत्याओं को रोकना उनके लिए नामुमकिन है।

आश्चर्यचकित करने वाली बात तो यह है कि इन हमलों का अधिकतर गाय से तो कुछ लेना देना भी नहीं होता है। दादरी जिले में मोहम्मद अखलाक की लिंचिंग पका हुआ मांस रखने के कारण हुई, जो शायद भैंस का भी हो सकता था। ऐसे कई सारे प्रकरण हमें देखने को मिले हैं जिनमें पीड़ित को केवल शक के आधार पर या फिर गाय के साथ पाए जाने पर ही मार दिया गया। पीड़ितों के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं मिला जो यह दर्शाता हो कि उनके पास गौ मांस है और न ही पीड़ितों के पास से गाय बरामद हुई। गौ रक्षा के नाम पर लगभग सारे घरेलू पशु और पोल्ट्री हिन्दुत्ववादि संगठनों द्वारा संरक्षित किए जा रहे हैं, जबकि इस सिक्के का दूसरा पहलू मुसलमानों पर एक तरफा हिंसा बन कर रह गया है।

उदारपंथी और ‘धर्मनिरपेक्ष’ गुटों का यह मानना है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का बढ़ता एकीकरण पार्टी के संवर्ग में निर्भयता और कट्टरता का कारण है। ऐसी कई अर्ध स्वतंत्र संस्थाएँ पूरे भारत में खुल गई हैं जो गौ रक्षा का काम करती हैं जिनको क्षेत्रीय नेताओं द्वारा सुरक्षा दी जाती है। इसी कारण यह संस्थाएँ बिना किसी डर के हमलों और हत्याओं को अंजाम देती हैं।

एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण

लेकिन, ऐसी मान्यताएँ बेबुनियादी अनुमानों का नतीजा हैं जो कभी भी सवालों के कठघरे में नहीं खड़ी की गई हैं। पहले तो, ऐसा अनुमान लगा लिया जाता है कि भाजपा गौ वध का विरोध करने वाली एक मात्र संस्था है और वह इसका भावनात्मक इस्तेमाल एकदम नायाब तरीके से करती है। यह मान्यता पूरी तरह से गलत है—क्योंकि पिछले सात दशकों में पूरे भारत में गौ रक्षा की नीति कांग्रेस पार्टी की देन है।

दूसरा, यह अनुमान लगाया जाता है कि 2014 से पहले मॉब लिंचिंग मौजूदा स्तर पर नहीं होती थी। हो सकता है कि यह अनुमान सही हो, लेकिन इसका कुछ ऐतिहासिक शोध करना भी ज़रूरी है। उदाहरण के तौर पर—ऐसा हो सकता है कि लिंचिंग पहले भी होती रही हो मगर पहले उसको अलग तरह से श्रेणीबद्ध किया गया हो।

तीसरा, भाजपा द्वारा हिन्दू–मुस्लिम ध्रुवीकरण केवल मुसलमानों की मॉब लिंचिंग का कारण हो सकता है, इससे बच्चा चोरी जैसे अन्य कारणों से बढ़ती लिंचिंग को नहीं समझा जा सकता।

जहाँ तक पहली मान्यता का सवाल है, काँग्रेस पार्टी द्वारा बनाए गए गौ रक्षा के कानूनों का एक सतही पठन ही काफी है ऐसी किसी भी धारणा को धराशाही करने के लिए जो कहती है कि भाजपा इस मामले में अनोखी है। बीसवीं शताब्दी के शुरुआत से ही काँग्रेस गौ रक्षा संबंधित निरर्थकता फैला रही है और हिंदूओं को गौ रक्षा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है, फिर चाहे इसका मतलब मुसलमानों से बलपूर्वक गाय छीनना ही क्यों ना हो।  

गौ रक्षा के संदर्भ में मुसलमानों पर हमले का चलन कुछ नहीं तो 1890 से शुरू हुआ है, जैसा कि मोहम्मद सज्जाद अपनी किताब, Muslim Politics in Bihar: Changing Contours (बिहार में मुस्लिम राजनीति: बदलती रूपरेखा), में वर्णित करते हैं| काँग्रेस भी इस मुहिम का शुरुआत से ही हिस्सा रही है। हम एम. के. गांधी के हिन्द स्वराज में लिखे गए प्रसिद्ध कथन को ना तो भूल सकते हैं और ना ही हमें उसे भूलना चाहिए: ‘एक आदमी उतना ही उपयोगी है जितना की एक गाय, फिर चाहे वह मोहम्मदन हो या हिन्दू।’ अगर यह कथन गौ रक्षा के नाम पर इंसानों को मारने के खिलाफ भी किया गया था, तो भी इसकी शब्दावली उस समय की गौ रक्षा संबंधित भावनाओं को दर्शाती है।

गौ रक्षा और काँग्रेस पार्टी द्वारा बुलाए गए होम रूल आंदोलन के संदर्भ में 1917 के पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में बकरीद पर हुए उस हमले को समझा जा सकता है जिस पर सज्जाद ने चर्चा की है| मुसलमानों पर ऐसे हमले विभाजन के पहले (1926, 1928, 1934, 1937, 1938, 1939) और विभाजन के बाद (1947–1951, 1953, 1955, 1966, 1968) लगभग हर बकरीद पर होते आए हैं। 1946 में भी बकरीद के दिन ही दक्षिणी बिहार के मुसलमानों पर हमला हुआ था जिस में हजारों मुसलमान मारे गए थे। 

संक्षिप्त में, संविधान सभा में मुसलमान और आदिवासी सदस्यों के विरोध के बावजूद भी काँग्रेस द्वारा बनाए हुए संविधान में गौ रक्षा संबंधित शासनादेश जारी हुए। जो मुसलमान बकरीद का त्योहार मनाने के लिए कुर्बानी देना चाहते थे, उनके लिए विभाजन के बाद के साल भी उतने ही खतरनाक साबित हुए। अपनी नई ताकत का एहसास क्षेत्रीय हिन्दू संगठनों को काँग्रेस पार्टी द्वारा मिले संरक्षण से हुआ और इसके चलते देश भर में उन्होंने मुसलमानों को निशाना बनाया।

काँग्रेस नेता और बिहार के पहले मुख्यमंत्री एस. के. सिन्हा एक आतुर गौ रक्षक थे जिन्होंने यशस्वी अंदाज में कहा था कि, ‘गाय की आजादी ही भारत की आजादी है’। असगर इमाम फ़लसफ़ी ने अपनी छोटी सी किताब, हमारी दुर्गत, में आजादी के अगले पाँच सालों तक (1947–1951) बिहार एवं अन्य राज्यों के उर्दू अखबारों में छपी ऐसी दर्जनों रिपोर्टों को एकत्रित किया है जिनसे ये पता लगता है कि मुसलमान बकरीद पर बारंबार मारे गए और उन्हें अधिकारियों से कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई|

उस समय इन हमलों के शिकार अधिकतर मुसलमान कसाई थे, जिन्हें लिंच किया गया, मारा गया, या फिर गायब कर दिया गया। यह घटनाएँ हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों ने सम्मिलित नहीं की और अगर कभी इनका जिक्र हुआ भी तो इनको एक तरफा नरसंहार के बदले दंगों की शक्ल में दर्शाया गया। ऐसी अनगिनत रिपोर्ट हैं जो ये बताती हैं कि पुलिस द्वारा मुसलमानों की गिरफ्तारियाँ हिंसा भड़काने के कारण की गईं, जबकि सच तो यह है कि गौ हत्या के नाम पर मुसलमानों पर ही हमले किए गए थे| आज भी यह स्थिति कुछ खास नहीं बदली है।

काँग्रेस समर्थक संगठन दारुल उलूम देओबन्द तक ने 1950 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें उसने काँग्रेस की गौ हत्या को लेकर अचानक से बदलती हुई नीति की आलोचना की। संक्षिप्त में, शुरुआत में ही अधिकतर प्रदेशों ने काँग्रेस के शासनकाल में गौ रक्षा कानून लागू किए और अधिकारी इन कानूनों का मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल करने लगे। वास्तव में, पूरे भारत में सिर्फ महाराष्ट्र ही एक ऐसा राज्य है जहाँ गौ रक्षा कानून भारतीय जनता पार्टी द्वारा लागू किए गए हैं, क्योंकि काँग्रेस ने ये कानून सिर्फ वहाँ पूरी तरह से लागू नहीं किए थे|

मॉब लिंचिंग की बारंबारता

दूसरा विषय बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने से पहले मॉब लिंचिंग की बारंबारता का है। इस बात को हमें समझना पड़ेगा कि भाजपा का 2014 में राजनीतिक आगमन इंटरनेट क्रांति के साथ-साथ हुआ। स्मार्ट फोन और सस्ता इंटरनेट 2010 के बाद से ही सामान्य सुविधाओं के रूप में उभर कर सामने आए हैं। सस्ती संचार व्यवस्था का मतलब यह है कि गाँव–देहात में बनाई गई वीडियो आसानी से दूसरी जगहों पर भेजी जा सकती हैं। उदाहरण के तौर पर, राजस्थान के एक राजमार्ग पर की गई पहलू खान की मॉब लिंचिंग की रिपोर्ट बड़े रूप में उभर कर नहीं आ पाती अगर वहाँ की वीडियो फुटेज उपलब्ध नहीं होती तो|

कई मीडिया रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डाल सकती हैं। 1934 का एक समाचार संवाद आज-कल के मॉब लिंचिंग संवादों जैसा ही देखने को मिलेगा| कुछ मुसलमान विवाह कार्यक्रम के लिए पशु ला रहे थे, किसी सुदूर इलाके में उन पर हमला हुआ और उनकी हत्या कर दी गई। 1950 की एक रिपोर्ट भी कुछ ऐसी ही है; सबसे अहम बात यह है की यह रिपोर्ट बकरीद के दिन की घटना की व्याख्या करते हुए बेक़ाबू भीड़ द्वारा की गयी हत्या पर प्रकाश डालती है| औरंगाबाद में प्रकाशित हुई 1968 की यह खबर भी बड़ी अजीबोगरीब है, यहाँ गाय को चाकू घोंपने की अफवाह के कारण बड़े पैमाने पर लूट-पाट और हिंसा की गई जिसमे कम से कम एक व्यक्ति की मौत हुई।

इन तीनों रिपोर्टों की शब्दिकी बहुत ही महत्वपूर्ण है। वीडियो साक्ष्य के अभाव में केवल पुलिस और क्षेत्रीय लोगों का ही विवरण समाचार पत्रों में लेखबद्ध मिलता है। जबकी यह सारे संवाद मॉब लिंचिंग की ओर इशारा करते हैं, इन में से किसी को भी लिंचिंग नहीं कहा गया है। वास्तविक तौर पर, इन एक तरफा हत्याओं के लिए समाचार पत्रों में ‘गड़बड़ी’, ‘मुसीबत’, ‘दंगे’ जैसे निष्पक्ष शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। इस तरह की निष्पक्षता इस बात को छिपाती है कि मुसलमानों की भी भीड़ द्वारा क्रूर हत्याएँ हो सकती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पटना जिले में किया गया हमला है। 

तस्वीरी साक्ष्यों के अभाव के कारण हिंसक वारदातों की यथार्थता को सत्यापित करना तो दूर उनका सही-सही अनुमान लगाना भी मुश्किल होता है| यह भी हो सकता है कि दूर-दराज के इलाकों में हुई बहुत सारी लिंचिंग कभी रिपोर्ट ही नहीं की गई, और अकसर यात्रियों और राहगीरों ने अपने आप को अनजान जगहों पर फँसा पाया| सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है कि ‘गायब’ होने वालों में से कितने असल में लिचिंग का शिकार बने| मृत शरीर न मिलने पर पुलिस में कोई केस भी नहीं दर्ज हुआ होगा।

अगर जनहानी रिपोर्ट भी होती, तो पुलिस और मीडिया की अभिलेखी ‘विवादों ’ के दायरे में ढली पायी जाती। वारदातों को इस तरह से पेश किया जाता जैसे किन्ही दो गुटों में झगड़ा हुआ हो, फिर चाहे एक या दो लोगों को भीड़ ने ही क्यों न मारा हो। रिपोर्टों में ऐसे भी लिखा जाता कि मुसलमानों के ‘उकसाने’ पर हिन्दू ‘प्रतिक्रिया’ करने पर मजबूर हुए।

आज के समय में सोशल मीडिया और मोबाइल फोन ने इस प्रक्रिया को और ज़्यादा हवा दी है। उन दशकों में जब मोबाइल फोन नहीं थे, किसी मुसलमान कसाई की ‘शैतानी हरकत’ के संदेश को फैलने में घंटों या फिर दिन तक लग जाते थे। हालांकि, मोबाईल क्रांति के बाद केवल कुछ ही मिनट लगते हैं ऐसे संदेशों को फैलने में। अतः भीड़ जुटा पाने में देरी नहीं लगती।

गैर मुसलमानों की भीड़ द्वारा हत्या

आखिरी विषय है गैर धार्मिक मॉब लिंचिंग का, खास तौर पर बच्चा चोरी करने की आशंका पर। इस तरह की लिंचिंग की रिपोर्ट भी बढ़ रहीं हैं, और अगर भीड़ द्वारा हत्याओं की संख्या केवल भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण के कारण ही बढ़ी थी तब फिर गैर मुसलमानों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए था| बिहार में आधे दर्जन से अधिक लोगों को बच्चा चोरी के नाम पर लिंच किया जा चुका है। गौ मांस खाने के लिए एक भी मुसलमान को नहीं मारा गया (एक–दो हमले जरूर रिपोर्ट किए गए हैं लेकिन किसी की भी मृत्यु दर्ज नहीं की गई)। इंटरनेट के आने से पहले के दौर में भी ऐसा ही था। 1990 के दशक से बिहार में मुसलमानों पर सांप्रदायिक हमले कम होते देखे गए। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, जब पूरे भारत में मुसलमानों की हत्या की जा रही थी, तब भी बिहार में शांति रही| पिछले चार सालों में भी ऐसा ही कुछ देखा गया।

तथापि, निचली जातियों और कभी-कभार मुसलमानों की मॉब लिंचिंग एवं नरसंहार अलग-अलग बहानों से होती रही हैं और आज के समय में इनकी संख्या में बढ़ोतरी भी देखी जा सकती है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि वृद्धि भीड़ द्वारा हत्याओं की संख्या में नहीं बल्कि इन अपराधों की रिपोर्टिंग में हुई है।

ऊपर पेश की गई दलीलों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि हमें लिंचिंग पर अपनी समझ का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। लिंचिंग की इंटरनेट से पहले के समय की रिपोर्टिंग और काँग्रेस शासन के दौरान गौ रक्षा के अभियानों की भी जांच करना जरूरी है। समूचे भारत में गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों की मॉब लिंचिंग सौ से भी ज़्यादा वर्षों से क्रियान्वित है और यह ऐसी संस्थाएँ कर रही हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण मिला हुआ है। आज के समय की लिंचिंग में इंटरनेट की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। लिंचिंग और उसकी रिपोर्टिंग में बढ़ोतरी का श्रेय कुछ हद तक इंटरनेट की उपलब्धि को दिया जा सकता है और ना कि हिन्दुस्तानी समाज में भाजपा के लाए गए किसी मूलभूत बदलाव को| अगर हम इस समस्या को नया मानते रहेंगे, तो इस चिंताजनक मुद्दे का सही समाधान नहीं ढूंढ पाएंगे।

 

(इस लेख को एडिट करने में अंशुल राय ने मदद की है)

शरजील इमाम
शरजील इमाम

शरजील इमाम ने आईआईटी बॉम्बे से कंप्युटर इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई करी है| वे जेएनयू से मॉडर्न हिस्ट्री में पीएचडी कर रहे थे जब उन्हें एनआरसी/सीएए के खिलाफ आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया| शरजील इमाम ने आईआईटी बॉम्बे से कंप्युटर इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई करी है| वे जेएनयू से मॉडर्न हिस्ट्री में पीएचडी कर रहे थे जब उन्हें एनआरसी/सीएए के खिलाफ आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया|