हर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।
आनंद तेलतुंबडेदिल्ली की एक अदालत ने हाल में जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक की सजा के ऐलान का भारत के एक वर्ग और खासतौर से तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया और उन लोगों ने, जिनके लिए यह मीडिया काम करता है, पुरजोश स्वागत किया। स्वागत के उद्घोष में उन लोगों के संशय, शंका और सवालों को दबा दिया गया जो यासीन मलिक को मिली सजा के बहाने ही सही यह उम्मीद करते रहे थे कि अब कश्मीर के वास्तविक मुद्दों पर कुछ चर्चा हो सकेगी। पता चल सकेगा कि आखिर वह क्या बात है जिसकी वजह से कश्मीर के आम तो क्या पढ़ा-लिखा वर्ग भी भारतीय सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है? वे कौन-सी घटनाएं हैं जिन्होंने अहिंसक आंदोलन को एकाएक हिंसक और अराजक बना दिया? आखिर क्यों कश्मीर से जनमत संग्रह का वादा करने के बाद भी भारत सरकार उससे मुंह कर गई? और यदि आज़ादी-परस्त कश्मीरियों की आवाज़ को दबाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए क्रूर बल का प्रयोग अतीत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया होता तो भारत आज कहां होता? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब यासीन मलिक ने अपने इस इंटरव्यू में दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि इस इंटरव्यू को पढ़कर कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने के लिए उत्साहित भारतीय नागरिक अपने कुछ सवालों के जवाब पा सकें...
मीर बासित हुसैन‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में कश्मीर की ऐतिहासिक सच्चाई बताने या एक निर्वासित समुदाय के घर लौटने को आसान बनाने के लिए नहीं है । इसके बजाय, फिल्म कश्मीरी मुस्लिम को खूंखार जानवर के रूप में दिखाने के लिए बनाई गई है, जिससे सुलह की संभावना और कम हो सके। कश्मीरी पंडित के घर लौटने को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर यह फिल्म एक ऐसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनती है जो कश्मीर के 700 वर्षों के विविध इतिहास को ठुकराकर कश्मीर को वापस हिन्दू मातृभूमि बनाने का बीज बो रही है| यह एक ऐसा विचार है जो बेदखली और उपनिवेशण की मंशा से भरा हुआ है। यही है जो इस फिल्म की “सच्चाई” को खतरनाक बनाता है।
संजय काकसौ से भी अधिक वर्षों से गौ रक्षा के नाम पर मुसलमानों की लिंचिंग हो रही है| इसकी बढ़ती संख्या और रिपोर्टिंग का श्रेय कुछ हद तक इंटरनेट की उपलब्धता को दिया जा सकता है और ना कि हिन्दुस्तानी समाज में हुए किसी मूलभूत बदलाव को|
शरजील इमाम