द कश्मीर फाइल्स: तथ्यों के कंकाल से बना एक भयानक सच

‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में कश्मीर की ऐतिहासिक सच्चाई बताने या एक निर्वासित समुदाय के घर लौटने को आसान बनाने के लिए नहीं है । इसके बजाय, फिल्म कश्मीरी मुस्लिम को खूंखार जानवर के रूप में दिखाने के लिए बनाई गई है, जिससे सुलह की संभावना और कम हो सके। कश्मीरी पंडित के घर लौटने को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर यह फिल्म एक ऐसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनती है जो कश्मीर के 700 वर्षों के विविध इतिहास को ठुकराकर कश्मीर को वापस हिन्दू मातृभूमि बनाने का बीज बो रही है| यह एक ऐसा विचार है जो बेदखली और उपनिवेशण की मंशा से भरा हुआ है। यही है जो इस फिल्म की “सच्चाई” को खतरनाक बनाता है।

द कश्मीर फाइल्स: तथ्यों के कंकाल से बना एक भयानक सच

पटचित्र: मीर सुहैल 

अनुवाद: शहादत खान
स्त्रोत: Al Jazeera  

भगवा पगड़ी पहने साधु के वेश में एक आदमी सिनेमाघर की लाल मखमली दीवारों के सामने खड़ा है। उसके एक हाथ में स्टील का चमकदार त्रिशूल है और दूसरे हाथ में मोबाइल फोन। जैसे फिल्म के क्रेडिट्स के साथ संगीत बजना शुरू होता है, वैसे दाढ़ी वाला साधु आतंकी उपदेश देना शुरू करता है| “आप सभी ने देखा कि कश्मीरी हिंदुओं के साथ क्या हुआ,” वह स्क्रीन की ओर इशारा करते हुए कहता है, “इसीलिए जरूरी है कि विश्वासघाती मुसलमानों से हिन्दू अपनी रक्षा करें और हथियार उठाने की तैयारी करें।”

जिस हिंदू का खून ना खौला,” वह बुलंद आवाज़ में नारा लगाता हुआ सामने बैठे दर्शकों को जवाब देने के लिए प्रेरित करता है: “वो खून नहीं पानी है!”1

यह वीडियो हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन के हाल का बस एक चिह्न स्वरूप है। कश्मीर फाइल्सके 11 मार्च को पूरे भारत में 600 से ज्यादा सिनेमाघरों में रिलीज के बाद इसके जैसे कई वीडियो इंटरनेट पर घूम रहे हैं।

यह फिल्म 1990 में भारत के खिलाफ शुरू किए गए उस विद्रोह की पृष्ठभूमि पर आधारित है जिसने पिछले तीन दशक से कश्मीर को झुलसा रखा है। फिल्म कश्मीरी पंडितों के कश्मीर से विस्थापित होने की कहानी बताने का दावा करती है। भारतीय मीडिया में शुरुआती समीक्षाओं ने फिल्म को इस्लामोफोबिक, बेईमान2 और उकसाने वाला3 बताया था। साथ ही फिल्म के रिलीज होने से पहले ही इसके ट्रेलर के खिलाफ जनहित याचिका दायर कर दावा किया गया था कि फिल्म के “भड़काऊ दृश्य सांप्रदायिक हिंसा का कारण जरूर बनेंगे।”4 अपने बचाव में फिल्म निर्देशक ने जोर देकर कहा था, “मेरी फिल्म का हर फ्रेम, हर शब्द सच है।”

‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज होने के कुछ दिन बाद इसे एक असामान्य आशीष प्राप्त हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संसदीय दल की बैठक में कहा, “आप सभी को इसे देखना चाहिए... फिल्म ने वह सच दिखाया है जिसे सालों तक दबाया गया था। कश्मीर फाइल्स में सच्चाई की जीत हुई है।”5 फिल्म के सच्चाई दिखाने के दावे का यह जोरदार समर्थन, साथ ही यह दावा कि इस सच्चाई को अतीत में दबा दिया गया था, फिल्म में निवेश की जा रही राजनीतिक पूंजी का एक शुरुआती संकेत था

इस बीच भाजपा द्वारा शासित आठ राज्य सरकारों ने फिल्म को कर मुक्त कर दिया, जो कि एक ऐसी रिआयत है जिससे राजकोष की लागत पर टिकट की कीमतों में कटौती हुई6 कॉर्पोरेट ग्रुपों ने अपने कर्मचारियों के बीच मुफ्त टिकट वितरित किए, और असम के मुख्यमंत्री ने कहा कि फिल्म की टिकट दिखाने पर सरकारी कर्मचारियों को आधे दिन की छुट्टी मिल जाएगी। रिलीज होने के दो हफ्ते बाद फिल्म दुनिया भर में 4000 स्क्रीन पर प्रदर्शित हो रही थी। रिलीज के तीन हफ्ते बाद इसकी रिकॉर्ड बॉक्स ऑफिस कमाई 245 करोड़ रुपये को पार कर गई।7

लगभग दो दशक से कश्मीर केंद्रित डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता और लेखक के तौर पर मैं 1990 में कश्मीर से पंडित समुदाय के लोगों के चले जाने के तथ्यों से (या उनके अभाव से) हमेशा चकित रहा हूं। कश्मीरी पंडित समुदाय को मुझे मेरा समुदाय कहना चाहिए, क्योंकि मैं भी जन्म से कश्मीरी पंडित ही हूं। इस मामले में ​​सबसे प्राथमिक चीजों के बारे में भी बहुत कम स्पष्टता है। इसके लिए आधिकारिक शब्द प्रवास है, हालांकि आप अक्सर इसे पलायन के रूप में संदर्भित होता हुआ पाएंगे, जिसको एक नरसंहार द्वारा अंजाम दिया गया था। (इन अंतिम दो शब्दों का बार-बार उपयोग कोई संयोग नहीं है; कश्मीरी पंडित समुदाय के भीतर के दक्षिणपंथी तत्वों ने लंबे समय से यहूदी लोगों के पलायन, नरसंहार और मातृभूमि (homeland) की जिओनवादी विचारधारा के साथ समानता बनाने की कोशिश की है।)

हम निश्चित रूप से क्या कह सकते हैं? हम कह सकते हैं कि 1989 के मध्य से कश्मीर में हिंदू अल्पसंख्यकों के कई महत्वपूर्ण लोगों की नियोजित हत्याएं हुई, जिससे व्यापक दहशत और असुरक्षा की भावना पैदा हुई। इन्हीं महीनों में कश्मीर में कई मुसलमानों की भी हत्या हुई। मरने वालों में राजनीतिक कार्यकर्ता, पुलिसकर्मी और सरकारी अधिकारी शामिल थे। यह सब इस अवधि के व्यापक राजनीतिक उतार-चढ़ाव का हिस्सा था। यह उतार-चढ़ाव ऐसी घटनाओं की भविष्यवाणी कर रहा था जो जल्द ही स्थापित व्यवस्था को उलट देने वाली थीं। हम यह भी जानते हैं कि 1990 की शुरुआत में कुछ कश्मीरी पंडित परिवार डर के मारे भागने लगे। उनका जाना संभवतः एक अस्थायी कदम के रूप में था। हालांकि, भविष्य में यह कदम अधिकांश के लिए दुखद रूप से स्थायी साबित हुआ।

90 के बाद के दशक में कश्मीर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की आग में घिर गया और उसके बाद एक पूर्ण सशस्त्र विद्रोह हुआ, जिसका उद्देश्य भारत से आज़ादी हासिल करना था। इसके जवाब में हिंसा का जो क्रूर दौर शुरू हुआ वह कश्मीर में रहने वाले सभी लोगों के जीवन पर भारी पड़ा। हिंसा और निरंतर भय ने घाटी के पंडितों के साथ-साथ मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को भी अपना घर-बार छोड़ने के लिए विवश कर दिया। हम यह भी जानते हैं कि कश्मीरी पंडितों के प्रवास की अंतिम लहर दो भयानक नरसंहारों के बाद आई थी—1998 में वंधमा में 23 नागरिक मारे गए और 2003 में नंदिमार्ग में 24 पुरुष, महिलाएं और बच्चे। दोनों ही मामलों में भारतीय सेना की वर्दी पहने अज्ञात लोगों ने रात में हत्याएं कीं। हैरत की बात है कि आधिकारिक जांच दोनों मामलों में सतही रही और कभी पूरी नहीं हुई।8

हम यह भी जानते हैं कि इस सब के बावजूद कम से कम 4000 कश्मीरी पंडितों ने अपना घर कभी नहीं छोड़ा। उन्होंने कश्मीर में ही रहने का फैसला किया। ये पंडित सुरक्षित बस्तियों में नहीं रह रहे हैं, बल्कि घाटी में अलग-अलग जगहों पर बिखरे हुए हैं। पारिवारिक और समुदायिक संबंधों के बिना वे तीन दशकों से ऐसे रह रहे हैं मानो एक युद्ध क्षेत्र में हों। और उनका जीवन आसान नहीं है। लेकिन जीवन तो उनके मुस्लिम पड़ोसियों के लिए भी आसान नहीं है वे दोनों ही ऐसे इलाके में एक साथ रहते हैं जिसको दुनिया भर में सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक के रूप में पहचाना गया है

बड़ी संख्या में आलोचकों ने पाया कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ तथ्यात्मक अयथार्थता9 और प्रोपैगेंडा10 से भरी हुई है। यहाँ तक कि फिल्म देखने पर ऐसा भी लगता है कि स्क्रीन पर दिखाए जाने वाले प्रत्येक मुस्लिम पर निशाना साधा गया है। लेकिन फिर भी फिल्म ने भारत में बॉक्स-ऑफिस में धमाका कर दिया। दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा लामबंद पुरुषों के समूह तिरंगा लहराते हुए सिनेमाघरों में दिखाई दिए। सिनेमाघरों में अक्सर फिल्म खत्म होते ही नारेबाजी और भाषण  शुरू हो जाते । इन भाषणों और नारेबाजियों में केवल कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि भारत के सभी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का आह्वान दिया गया11 इन अत्यधिक दृश्यमान प्रतिक्रियाओं को दक्षिणपंथी समूहों के व्यापक सोशल-मीडिया नेटवर्क द्वारा बढ़ावा दिया गया। इस सब के माध्यम से लगातार रेखांकित किया गया कि फिल्म में एक ऐसी सच्चाई दिखाई गई है जिसे अतीत में दबा दिया गया था।

हालांकि यह बहुत ही अजीब सा दावा है खासकर इसलिए कि भाजपा और उसके समर्थकों ने कम से कम 1990 के दशक के मध्य से कश्मीर में घटी घटनाओं के अपने नज़रिये को आक्रामक रूप से बढ़ावा दिया है। इस नज़रिये में कश्मीरी पंडितों के निष्कासन की एक तारीख (19 जनवरी 1990) है, और इस बात पर जोर दिया गया है कि उनका पलायन व्यापक हत्याओं, पंडितों के घरों और मंदिरों को लूटने, जलाने और पंडित महिलाओं पर यौन आक्रमण का परिणाम था। तर्क दिया गया कि पंडित समुदाय नरसंहार का शिकार हुआ था और इसे हिंदू सभ्यता के लिए एक ऐसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित किया गया जिसका मुकाबला केवल भाजपा और उसके सहयोगी ही कर सकते हैं।

उतना ही हैरान करने वाला दावा यह था कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने कश्मीर को लेकर बॉलीवुड की चुप्पी की साजिश को तोड़ा है। 1992 की हिट फिल्म ‘रोजा’ से शुरुआत करें तो इन घटनाओं पर दर्जनों फिल्में बनाई गई हैं।12 अधिकांश फिल्में निश्चित ही देशभक्ति के आधिकारिक रूप को स्वीकारती हैं। इन फिल्मों में सशस्त्र विद्रोह को प्रेम और विश्वासघात की घिसी पिटी कहानियों के लिए केवल एक नई, थोड़ी खतरे से भरी पृष्ठभूमि के रूप में दिखाया गया है13 अगर इन फ़िल्मों में कभी कश्मीरी मुसलमान नायक के रूप में होते भी हैं तो उनका चरित्र बड़ा ही भोला-भाला दर्शाया जाता है, जैसे कि वे सही राह से भटक गए हैं। वे अधिक द्वेषपूर्ण शक्तियों के हाथों में मासूम मोहरे की तरह दिखाए जाते हैं, पाकिस्तान में बैठे तथाकथित आतंकवादी आकाओं से हुक्म लेने वाले।14 कुछ फिल्में सीधे-सीधे कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर भी बनी हैं, जैसे ‘शीन’ (2004) और ‘शिकारा’ (2020)।15 हालांकि दोनों फिल्में बॉक्स-ऑफिस पर बुरी तरह विफल रहीं और बिना कोई छाप छोड़े ही भुला दी गईं। एक प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द बनाई गई, ‘शिकारा’ फिल्म भारतीय दक्षिणपंथियों के निशाने पर रही क्योंकि वह मुसलमानों पर आरोप लगाने के लिए व्याकुल नहीं थी। यहां तक ​​कि कश्मीरी पंडित समुदाय के कुछ लोगों ने भी फिल्म की आलोचना की। फिल्म पर आरोप लगाया गया कि उस में कहानी को उस तरह नहीं बताया जैसा कि बताना चाहिए था। उसकी यह कह कर व्यापक रूप से आलोचना की गई कि वह केवल पंडितों के दर्द से लाभ उठाती है। (इस बीच ‘द कश्मीर फाइल्स’ का बॉक्स-ऑफिस कलेक्शन मैन्स्ट्रीम मीडिया द्वारा हर रोज दिखाया जाता रहा।)

हालांकि मेरी अपनी दिलचस्पी कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के तथ्यों में है, मैं उस सच्चाई के बारे में भी उत्सुक हूं जिसका उल्लेख फिल्म में किया जा रहा है। उस अवधि के आसपास की हर चीज लंबे समय तक दृश्य से बाहर रही है, यह इसलिए भी कि उस पर कभी कोई गंभीर ध्यान ही नहीं दिया गया। पत्रकारों और न शोधकर्ताओं द्वारा, न ही राज्य और केंद्र सरकार द्वारा—तब भी नहीं जब इन सरकारों का नेतृत्व भाजपा ने किया था।

आसान सवालों के भी विश्वसनीय जवाब नहीं मिल पाते हैं। 1990 से पहले घाटी में कितने कश्मीरी पंडित रहते थे? दक्षिणपंथियों द्वारा संकलित आंकड़े 500,000 से 700,000 के बीच की संख्या बताते हैं। हालांकि माना जाता है कि उस वक्त अनुमानतः लगभग 170,000 पंडित घाटी में रहते थे।16 इनमें से कितने लोगों ने 1990 के बाद कश्मीर घाटी छोड़ी? राज्य सरकार के राहत और पुनर्वास आयुक्त की एक हालिया रिपोर्ट ने यह आंकड़ा 135,426 बताया।17 हालांकि टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में सुई फिर से 500,000–700,000 के बीच के उतार-चढ़ाव पर घूमती दिखती है। संघर्ष में कितने कश्मीरी पंडित मारे गए? ‘द कश्मीर फाइल्स’ में पात्रों द्वारा किए गए संवादों में यह आंकड़ा 4,000 के आसपास बताया गया है। हालांकि राज्य पुलिस द्वारा उपलब्ध कराए गए हालिया आंकड़ों ने इसे केवल 89 बताया है।18 पहले आधिकारिक अनुमानों में 270 कहा गया था, जबकि कश्मीर में ही रहने वाले नागरिक समूह ‘कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति’ लगभग 700 का आंकड़ा बताती है। वे कब अपना घर छोड़ के गए? और वह सबसे ज्यादा परेशान करने वाला सवाल: किन परिस्थितियों में उन्होंने अपने घर छोड़े? इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर किसी भी हद तक निश्चित रूप से नहीं दिया जा सकता।

दावों और आक्षेपों की इस धुंध में से ‘द कश्मीर फाइल्स’ निकल कर आई है, जो खुद को कश्मीर नरसंहार की सच्चाई का एकमात्र स्त्रोत बताती है। फिल्म निर्माताओं का दावा है कि उन्होंने फिल्म बनाने के लिए घाटी से विस्थापित हुए “पहली पीढ़ी के 700 पीड़ितों” से बातचीत की और उनका इंटरव्यू लिया उनकी बताई बातें जाने माने’ इतिहासकारों, कश्मीरी विद्वानों और विशेषज्ञों, और उस समय ड्यूटी पर तैना रहे प्रशासक और पुलिस अधिकारियों से मिलाई गईं। यही कारण है कि फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में हल्के से दिए गए डिसक्लेमर ने मुझे पूरी तरह से आश्चर्यचकित कर दिया: “यह फिल्म ... ऐतिहासिक घटनाओं की सटीकता या तथ्यात्मकता का दावा नहीं करती है।”19

काल्पनिक होने के कारण, ‘द कश्मीर फाइल्स’ तथ्य की बंदिशों से मुक्त है। इसलिए फिल्म उस चीज़ को एक शक्तिशाली रूप देने में सक्षम है जिसे दक्षिणपंथी तीन दशकों से संवार रहे हैं, और जिसे वे कश्मीर की एकमात्र सच्चाई बताते हैं। सच तक पहुंचने के लिए कश्मीर के पिछले डेढ़ दशक के इतिहास की कुछ भीषण घटनाओं को चुनकर एक ऐसी कहानी बनाई गई है जैसे कि वह एक वर्ष में घटी हो। दुखद घटनाओं का यह ढेर फिर एक काल्पनिक परिवार पर लाद दिया जाता है। और अगर दुःख का यह बोझ फिर भी असहनीय नहीं लगता तो इसके ऊपर अकथनीय क्रूरता के कुछ और कृत्यों को मिला दिया गया है| जैसे कि एक  पैशाचिक मिलिटेंट कमांडर एक महिला को उसके हाल ही में मारे गए पति के खून में भीगे कच्चे चावल निगलने के लिए मजबूर करता है।

यह घटना 1990 में हुई बी.के. गंजू की निर्मम हत्या से संबंधित है, जिनका कत्ल तब हुआ था जब वे अपने घर की अटारी में चावल के ड्रम में छिपे थे। खून से लथपथ चावल वाला ट्विस्ट हाल ही का एक जुड़ाव लगता है। कुछ हफ्ते पहले जब इस घटना के बारे में पूछा गया तो गंजू के भाई ने कहा कि उसने इसके बारे में कभी नहीं सुना और उसकी भाभी ने भी कभी इसका जिक्र नहीं किया था।20 इस तरह के कट्टर प्रक्षेप के साथ-साथ कुछ सूक्ष्म मगर घातक प्रक्षेप भी हुए हैं| राशन डिपो में परेशान कश्मीरी पंडित महिलाओं के एक समूह को उनके मुस्लिम पड़ोसियों द्वारा खाद्यान्न लेने तक से वंचित कर दिया जाता है। इस अपुष्ट घटना में दिखाया गया चरम अमानवीयकरण एक अधिक गंभीर दावे के लिए आवाज़ तय करता है: 1990 में कश्मीर की स्थिति नरसंहार की परिभाषा को पूरा करती है। और जैसा होना ही था, फिल्म की रिलीज के कुछ ही हफ्तों बाद यह घटना मीडिया में उदाहरण की तरह पेश की जाने लगी यह बताने के लिए कि 1990 के कश्मीर में हालात कैसे थे21

यह फिल्म अपने दर्शकों पर हिंसा से भरे दृश्यों के साथ ऐसे वार करती है कि अंततः उन वैकल्पिक आख्यानों पर विचार करने की संभावना अपने आप खत्म हो जाती है जो हमें पता है कि सच हैं। मैं उन में से कुछ के बारे में बात कर सकता हूं: हालांकि कई लोगों के साथ भयानक त्रासदी हुई, फिर भी अधिकांश कश्मीरी पंडित परिवारों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने धोखा नहीं दिया था। जरूर ही कुछ संपत्तियों को जला दिया गया और नष्ट कर दिया गया, फिर भी अधिकांश मंदिरों और घरों में तोड़फोड़ या लूटपाट नहीं की गई। ज्यादातर कई वर्षों की उपेक्षा के कारण बर्बाद हुए। यद्यपि मीडिया, नौकरशाही और पुलिस के तत्व अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उपेक्षापूर्ण रहे होंगे, लेकिन हर कोई पंडितों के उत्पीड़न में शामिल नहीं था।

सबसे महत्वपूर्ण, यह संकुचित कथा इस तथ्य को छुपाने में सफल रही है कि 1990 के दशक में कश्मीर में जो हुआ वह मुख्य रूप से मुसलमानों और हिंदुओं के बीच का संघर्ष नहीं था। यह भारतीय राज्य के खिलाफ एक विद्रोह था। यह रातों-रात नहीं हुआ था, बल्कि इसका एक अतीत था, इसकी शुरुआत कम से कम भी नहीं तो 1947 में हुई थी, जब जम्मू-कश्मीर की रियासत का विभाजन हुआ थाइस इतिहास में भी अन्य नरसंहार और बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन शामिल है

तथ्यों के कंकाल से कश्मीर की सच्चाई का निर्माण करने में, और गैर-जिम्मेदाराना तरीके से इन्हें भड़काऊ कल्पनाओं के साथ मिलाने में, 'द कश्मीर फाइल्स' एक बड़े एजेंडा की ओर इशारा करती है। यह फिल्म के अंत में इसके केंद्रीय नायक ‘कृष्णा’ द्वारा दिए गए एक लंबे भाषण में सबसे स्पष्ट रूप में देखने को मिलता हैनौजवान युवक कहता है कि भारत की सारी महानता कश्मीर से जुड़ी हुई है और यही वह जगह है जहां प्राचीन काल में सब कुछ फला-फूला,  भारत की विद्वता, सका विज्ञान और चिकित्सा, सका नाट्यशास्त्र, व्याकरण और साहित्य भी। कश्मीर एक विशेष स्थान है। सामान्य और घिसे-पिटे तरीके से वह कहता है, हमारी अपनी “सिलिकॉन वैली”, लेकिन शायद उसके मन में जो कुछ भी है यह उसका सटीक प्रतिपादन है। 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों का कश्मीर छोड़ के जाना हिन्दू सभ्यता के उस पतन का प्रतीक है जो मुसलमान शासकों के आने से शुरू हुआ था, और इस शर्मिंदगी भरे घटनाक्रम को ठीक किया जाना चाहिए। इस भाषण से मालूम पड़ता है कि फिल्म 1990 के दशक में कश्मीर के बारे में सच्चाई को दिखाने से बढ़कर कुछ और पेश करने में दिलचस्पी रखती है। फिल्म असल में नया सच गढ़ रही है, मातृभूमि के विचार के इर्द-गिर्द बुना हुआ सच, केवल कश्मीरी पंडितों की मातृभूमि नहीं बल्कि सभी हिंदुओं की

तीन दशक से भाजपा और उसको जन्म देने वाले आरएसएस के लोग एक वादे की नोक पर एक बड़े हिंदू वोट बैंक को सफलतापूर्वक सक्रिय करते आए हैं। भगवान राम के जन्मस्थान पर बनी मस्जिद की शर्म को मिटाने के लिए 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराया गया। इसके स्थान पर एक भव्य मंदिर के निर्माण के अभियान ने लगभग एक पीढ़ी तक भाजपा की राजनीति को जीवनदान दिया और भाजपा को भारत की केंद्रीय सत्ता में लाया। आरएसएस की प्रतीकात्मक कल्पना में कश्मीर लंबे समय से चर्चा का केंद्र बनने का इंतजार कर रहा था। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के साथ कश्मीर को आखिरकार वह स्थान दिया जा रहा है, आने वाले दशकों में हिंदुत्व ताकतें अब कश्मीर के मुद्दे का इस्तेमाल करके हिंदुस्तान में अपनी राजनीतिक पकड़ बनाए रख सकती हैं।

यही कारण है कि फिल्म में दिए गए निरूपण को पवित्रता का दर्जा दे दिया गया है और उसके अतिरिक्त घटनाओं को देखने और समझने के हर तरीके को दबाया जा रहा है। अगर ऐसा करने के लिए उन पंडितों के विचारों को नकारना पड़े जो अभी भी कश्मीर में या जम्मू में जर्जर शरणार्थी घरों में रहते हैं, या उन दलीलों को अनदेखा करना पड़े जो कहती हैं कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच तनाव और नहीं बढ़ाना चाहिए, तो वो भी मंज़ूर है

फिल्म की आलोचना को हल्के में नहीं लिया जा रहा है। फिल्म के निर्देशक ने हाल ही में कहा कि फिल्म की आलोचना केवल वही लोग कर रहे हैं जो “आतंकवादी समूहों” का समर्थन करते हैं।22 क्या वह उन्हें जवाब देना चाहेंगे? इस पर विवेक अग्निहोत्री सीधा बोले, “मैं आतंकवादियों को कुछ क्यों कहूं?”23 इस बीच आरएसएस द कश्मीर फाइल्स’ के समर्थन में खुलकर सामने आ गया। उसने इसे “ऐतिहासिक वास्तविकता” का दस्तावेज कहा। उसने कहा कि “ये ऐसे तथ्य हैं जिन्हें आने वाली पीढ़ियों को तथ्यों के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।”24 चार अप्रैल को जब कश्मीरी पंडितों ने अपना नववर्ष ‘नवरेह’ मनाया तो आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने न केवल कश्मीरी पंडितों का बल्कि फिल्म का भी समर्थन किया। उसने उनसे यह प्रतिज्ञा लेने को कहा कि कश्मीर वापस लौटने में उन्हें अब बहुत समय नहीं लगेगा।

आखिर में, ‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में कश्मीर की ऐतिहासिक सच्चाई बताने या एक निर्वासित समुदाय के घर लौटने को आसान बनाने के लिए नहीं हैइसके बजाय, फिल्म कश्मीरी मुस्लिम को खूंखार जानवर के रूप में दिखाने के लिए बनाई गई है, जिससे सुलह की संभावना और कम हो सके। कश्मीरी पंडित के घर लौटने को एक गौरवशाली प्राचीन अतीत के सपने से जोड़कर यह फिल्म एक ऐसी राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनती है जो कश्मीर के 700 वर्षों के विविध इतिहास को ठुकराकर कश्मीर को वापस हिन्दू मातृभूमि बनाने का बीज बो रही है| यह एक ऐसा विचार है जो बेदखली और उपनिवेशण की मंशा से भरा हुआ है। यही है जो इस फिल्म की “सच्चाई” को खतरनाक बनाता है।

 

रेफरेंस

1.https://twitter.com/zoo_bear/status/1506344097006583811?s=20&t=yhWteifmv5oZwy93feqUZA

2.https://www.filmcompanion.in/reviews/bollywood-review/the-kashmir-files-movie-review-a-defensive-and-dishonest-dive-into-the-past/

3.https://www.newindianexpress.com/entertainment/review/2022/mar/12/movie-review-kashmir-files-a-limp-attempt-at-provocation-2429076.html

4.https://liveadalat.com/the-kashmir-files-trailer-hurt-sentiments-of-muslims-pil-in-bombay-hc-against-vivek-agnihotris-film/

5.https://timesofindia.indiatimes.com/india/truth-suppressed-for-long-is-coming-out-pm-modi-on-the-kashmir-files/articleshow/90220573.cms

6.https://www.cnbctv18.com/india/the-kashmir-files-heres-list-of-states-where-the-film-is-tax-free-12837352.htm

7.https://www.bollywoodhungama.com/movie/the-kashmir-files/box-office/

8.https://scroll.in/article/1009536/the-death-of-a-pakistani-militant-near-loc-leaves-lingering-questions-about-a-massacre-in-kashmir

9.https://scroll.in/article/1019863/here-are-five-things-the-kashmir-files-gets-wrong-about-kashmir

10.https://thewire.in/film/the-kashmir-files-propaganda-anti-muslim

11.https://thewire.in/communalism/kashmir-files-hindutva-anti-muslim-hate

12.https://kashmirlife.net/bollywoods-kashmir-tales-vol-13-issue-51-288857/

13.https://www.news18.com/news/movies/the-kashmir-files-roja-raazi-shikara-fitoor-bollywood-films-based-in-kashmir-4879454.html

14.(Mission Kashmir 2000, Yahaan 2005, Fanaa 2006, Tahaan 2008, Haider 2014, Hamid 2018)

15.https://www.indiaglitz.com/sheen-review-hindi-movie-7083

16.https://www.aljazeera.com/news/2011/8/1/kashmir-the-pandit-question

17.https://thewire.in/rights/rti-findings-shed-light-on-sufferings-of-kashmir-residents-since-1990

18.https://timesofindia.indiatimes.com/india/what-the-official-kashmir-files-say-about-1990s-exodus/articleshow/90272404.cms

19.https://www.economist.com/asia/2022/03/26/a-new-film-on-kashmir-has-found-a-fan-in-narendra-modi

20.https://english.newstracklive.com/ampnews/the-kashmir-files-was-it-really-the-bloody-rice-that-was-fed-to-bk-ganjus-wife-brother-replied-ta303-1219220-1.html

21.https://www.bhaskar.com/db-original/news/the-kashmir-files-flashback-kashmiri-pandits-story-129553995.html- https://openthemagazine.com/feature/an-inconvenient-truth-2/

22.https://www.indiatoday.in/movies/celebrities/story/the-kashmir-files-director-vivek-agnihotri-says-people-who-support-terrorist-groups-are-criticising-the-film-1929422-2022-03-25

23.https://www.hindustantimes.com/entertainment/bollywood/the-kashmir-files-director-vivek-agnihotri-says-people-who-support-terrorist-groups-are-the-ones-criticising-the-film-101648178573666.html

24.https://theprint.in/india/the-kashmir-files-is-fact-should-be-presented-as-fact-to-generations-says-rss/888773/

 

संजय काक
संजय काक

संजय काक डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर और लेखक हैं। वह नई दिल्ली में रहते हैं। कश्मीर पर उनके हालिया काम में 2007 में बनी फिल्म जश्न-ए-आजादी है और दो संपादित किताबें हैं—Until My Freedom Has Come - The New Intifada in Kashmir (Haymarket Books 2013) and Witness - Kashmir 1986-2016 / 9 Photographers... संजय काक डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर और लेखक हैं। वह नई दिल्ली में रहते हैं। कश्मीर पर उनके हालिया काम में 2007 में बनी फिल्म जश्न-ए-आजादी है और दो संपादित किताबें हैं—Until My Freedom Has Come - The New Intifada in Kashmir (Haymarket Books 2013) and Witness - Kashmir 1986-2016 / 9 Photographers (Yaarbal Books 2017).