2022 से अभी तक हमने 35 से ज़्यादा देशों के लेखकों का अनुवाद किया है। हम अंग्रेजी से हिंदी अनुवादकों का एक समूह हैं। हमसे जुड़ने या हमारी अनुवाद सेवाओं का लाभ उठाने के लिए हमसे संपर्क करें: anuvadsamvad@gmail.com

#कल्चर

अकेलापन

अकेलापन

यह कहानी अकेलेपन की एक तीखी, असहज झलक पेश करती है—एक ऐसे पुरुष की जो साथी की तलाश में अपनी गाड़ी पर ‘औरत चाहिए’ का नोट चिपकाता है। लेकिन उसके भीतर की जड़ता, बनावटीपन और हिंसा की प्रवृत्ति धीरे-धीरे उजागर होती है। कहानी का केंद्रबिंदु है एडना—जो पहले जिज्ञासा से खिंचती है, फिर घृणा और अंत में भय के साथ उस अनुभव से खुद को निकाल लेती है। बुकोव्स्की की यह कहानी दिखाती है कि अकेलापन सिर्फ एक भाव नहीं, बल्कि एक डरावनी, अक्सर खतरनाक स्थिति बन सकती है, जब उसमें भावनात्मक गहराई की जगह केवल ज़रूरत और अधूरापन हो।

चार्ल्स बुकोव्स्की
देहाती डॉक्टर

देहाती डॉक्टर

‘देहाती डॉक्टर’ फ्रैंज़ काफ़्का की प्रसिद्ध लघुकथा है, जो पहली बार 1919 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी एक ग्रामीण डॉक्टर की एक रात की असामान्य यात्रा के ज़रिये आधुनिक समाज में इंसान की बेबसी, ज़िम्मेदारी के बोझ और अस्तित्व की विडंबनाओं को उजागर करती है। एक रोगी के बुलावे पर डॉक्टर घर से निकलता है, लेकिन यह यात्रा जल्द ही एक अतियथार्थवादी (surreal) अनुभव में बदल जाती है — जहाँ समय, नैतिकता, और इच्छाओं की सीमाएँ धुंधली पड़ जाती हैं। कहानी प्रतीकों और रूपकों से भरी हुई है — जैसे असंभव गति से दौड़ती घोड़ा-गाड़ी, नौकरानी पर संकट, रोगी का रहस्यमयी घाव, और समुदाय का विवेकहीन व्यवहार — जो काफ़्का की विशिष्ट शैली ‘काफ़्कायन’ का हिस्सा हैं। यह सिर्फ़ एक डॉक्टर की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने कर्तव्यों, समाज की अपेक्षाओं और निजी विवेक के बीच फँसा हुआ है।

फ़्रांज काफ़्का
हेर्ड्रिक मार्समैन की दो कविताएं

हेर्ड्रिक मार्समैन की दो कविताएं

हेर्ड्रिक मार्समैन की इन कविताओं में जीवन, प्राकृति, और मानवीय अनुभवों को पढ़ा जा सकता है।

हेर्ड्रिक मार्समैन
हिंदुत्व की राजनीति और औरंगज़ेब का पुनर्जन्म

हिंदुत्व की राजनीति और औरंगज़ेब का पुनर्जन्म

हर शासक की तरह औरंगज़ेब न तो कोई नैतिक आदर्श थे, न ही महज़ एक खलनायक। एक राजा की तरह उन्होंने भी अपनी प्रजा के प्रति ज़िम्मेदारी को आत्मसात किया था। लेकिन इन सब तथ्यों से इतर, यह भी सच है कि औरंगज़ेब की मृत्यु को तीन सौ साल से ज़्यादा हो चुके हैं। आज उनके ख़िलाफ़ चलाया जा रहा यह अत्यधिक दुश्मनी से भरा अभियान एक अजीब विडंबना को जन्म देता है—वह यह कि यह अभियान खुद उसी विकृत छवि को दोहराता है, जो सत्ता में बैठे लोग औरंगज़ेब को लेकर गढ़ते आए हैं। देश की असली समस्याओं को सुलझाने और देश की सामूहिक ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में मोड़ने के बजाय, हमारे नेतृत्व का ध्यान इस समय औरंगज़ेब की क़ब्र पर बहस करने और मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने में लगा हुआ है।

आनंद तेलतुंबडे
रामबाण

रामबाण

"अपने लिये जिये तो क्या जिये . . ." इंसान चाहे कहीं भी हों और किसी भी परिस्थिति में हों, वे किसी और के लिए और किसी और के माध्यम से जितने अच्छे से जी सकते हैं, उतने अच्छे से कभी खुद के लिए नहीं जी सकते। आज हम जिनको मानसिक रोग कहते हैं, उन में से अधिकतर इसी बात को न समझ पाने के संकेत हैं। हम क्योंकि ऐसा समझते हैं कि हमें किसी और के लिए नही सिर्फ अपने लिए जीना है, इसलिए हम अपने आप के लिए भी नहीं जी पाते। किसी ने सही ही कहा है, खुद का रास्ता दूसरे से होकर आता है। कुछ इसी तरह की बात इस कहानी में भी बताई गई है। जब हम किसी दुख से निपट नहीं पाते, तो हमें दिमाग को सुन्न करने वाली दवाइयों की नहीं, जीने के कारण की जरूरत होती है, क्योंकि जैसा कि किसी दार्शनिक ने कहा है, अगर इंसान के पास जीने की वजह है, तो वह किन्हीं भी परिस्थितियों को झेल सकता है। और किसी और के लिए जीने से अच्छी जीने की वजह क्या हो सकती है।

आरिफ़ अयाज़ परे
कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 3: 1990-2020)

कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 3: 1990-2020)

आत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।

मोहम्मद जुनैद
कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 2: 1948-1989)

कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 2: 1948-1989)

आत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।

मोहम्मद जुनैद
कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 1: भारत से पहले, 1586 - 1947)

कश्मीर: एक ऐतिहासिक कालक्रम (भाग 1: भारत से पहले, 1586 - 1947)

आत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए कश्मीर में किए जा रहे आंदोलन की बुनियाद को सुदृढ़ करने वाली मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत। यह पहला भाग है जिस में हम भारत के कब्ज़े के पहले का इतिहास बता रहे हैं। दूसरे भाग में भारत के कब्ज़े के बाद का इतिहास बताया जाएगा।

मोहम्मद जुनैद
जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक का इंटरव्यू: शिक्षित युवा का बंदूक उठाना कश्मीर के लिए नई बात नहीं है

दिल्ली की एक अदालत ने हाल में जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्रता-सेनानी यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक की सजा के ऐलान का भारत के एक वर्ग और खासतौर से तथाकथित राष्ट्रवादी मीडिया और उन लोगों ने, जिनके लिए यह मीडिया काम करता है, पुरजोश स्वागत किया। स्वागत के उद्घोष में उन लोगों के संशय, शंका और सवालों को दबा दिया गया जो यासीन मलिक को मिली सजा के बहाने ही सही यह उम्मीद करते रहे थे कि अब कश्मीर के वास्तविक मुद्दों पर कुछ चर्चा हो सकेगी। पता चल सकेगा कि आखिर वह क्या बात है जिसकी वजह से कश्मीर के आम तो क्या पढ़ा-लिखा वर्ग भी भारतीय सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है? वे कौन-सी घटनाएं हैं जिन्होंने अहिंसक आंदोलन को एकाएक हिंसक और अराजक बना दिया? आखिर क्यों कश्मीर से जनमत संग्रह का वादा करने के बाद भी भारत सरकार उससे मुंह कर गई? और यदि आज़ादी-परस्त कश्मीरियों की आवाज़ को दबाने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए क्रूर बल का प्रयोग अतीत में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया होता तो भारत आज कहां होता? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब यासीन मलिक ने अपने इस इंटरव्यू में दिए हैं। उम्मीद करते हैं कि इस इंटरव्यू को पढ़कर कश्मीर की वास्तविक स्थिति के बारे में जानने के लिए उत्साहित भारतीय नागरिक अपने कुछ सवालों के जवाब पा सकें...

मीर बासित हुसैन