Crop from a map by J.G. Bartholomew, titled “North-West Frontier Provinence and Kashmir,” from the Imperial Gazetteer of India, 1907-1909.
अनुवादक: अक्षत जैन
स्त्रोत: आदी मैगजीन
1947 में कश्मीर ‘अंतर्राष्ट्रीय विवाद’ के रूप में उभरा, लेकिन कश्मीर के सवाल को केवल उस चश्मे से देखने का मतलब है कश्मीर के अपने खुद के विशिष्ट राजनीतिक इतिहास को मिटाकर भारत-पाकिस्तान के राज्य-केंद्रित दृष्टिकोणों को विशेषाधिकार देना। आत्म-निर्णय के लिए कश्मीरियों की आकांक्षा को समझने की शुरुआत करने के लिए उन सब मुख्य घटनाओं को जानना और समझना जरूरी है जिन्होंने कश्मीरियों की राजनीतिक आत्म-चेतन को आकार दिया। कश्मीर का राजनीतिक इतिहास बाहरी शक्तियों और आंतरिक संघर्षों के बीच परस्पर जटिल और अस्थिर क्रिया से बना है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैं यह कालक्रम उन लोगों के लिए विस्तृत रूप से प्रस्तुत कर रहा हूं, जो यह जानना चाहते हैं कि कश्मीरियों द्वारा आत्म-निर्णय का अधिकार पाने के लिए किया जा रहा आंदोलन इतने दुर्लभ हालातों का सामना करते हुए भी अपने आप को बरकरार कैसे रख पा रहा है। एक बात स्पष्ट है, यह कालक्रम कश्मीर का इतिहास नहीं है, यह सिर्फ मुख्य राजनीतिक घटनाओं का वृतांत है। इस प्रकार, यह कालक्रम कश्मीरी वृतांत लेखन की लंबी परंपरा का हिस्सा है। मैंने सन् 1586 से इसकी शुरुआत इसलिए की है, क्योंकि बहुत से कश्मीरी मुग़ल आगमन को दक्षिण एशिया के साथ अपने पहले दुखद टकराव के रूप में देखते हैं।
1586
कुछ संक्षिप्त अवधियों के अलावा, जब वह अशोक (~ 300 ईसा पूर्व) और कुषाण वंश (~ 130 ईस्वी) के बौद्ध साम्राज्यों का हिस्सा था, कश्मीर हिंदू-बौद्ध कार्कोटक और मुस्लिम शाह-मिरी सहित अन्य क्षेत्रीय राजवंशों के शासन में कमोबेश स्वतंत्र ही रहा। कश्मीर के मूल निवासियों एवं आर्यन अधिवासियों, और बाद में दक्षिण भारत, मध्य एशिया और ईरान से आने वाले उपदेशकों के बीच सदियों से चलते मेलजोल के कारण कश्मीरियों ने पहले बौद्ध धर्म, फिर शैव धर्म और आखिरकार इस्लाम में सामूहिक धर्म परिवर्तन किए। सन 1586 में मुग़ल बादशाह अकबर ने कश्मीर पर विजय पाने की कोशिश की लेकिन उनके प्रयासों को कश्मीर के आखिरी मुसलमान मूल शासक यूसफ़ शाह चाक ने नाकाम कर दिया। समझौता वार्ता करने के बहाने अकबर ने चाक को बंदी बना लिया और कश्मीर को अपनी अफ़गान रियासत का हिस्सा घोषित कर दिया। चूंकि उन्हें कभी कश्मीर लौटने नहीं दिया गया, इसलिए चाक की कब्र समकालीन बिहार में है।
1750-1846
मुग़ल साम्राज्य के कमजोर होने के साथ, कश्मीर पहले अफ़ग़ानों के अधीन हुआ और फिर लाहौर के सिखों के।
1846
1840 के दशक में हुए आंग्ल-सिख युद्धों के परिणामस्वरूप, अपने सिख शासकों को धोखा देने के ईनाम में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने डोगरा कबीले के सरदार गुलाब को कश्मीर की रियासत दे दी। 9 मार्च 1846 को हस्ताक्षर की गई अमृतसर संधि ने गुलाब को जम्मू और कश्मीर राज्य के महाराजा की उपाधि पर दावा करने की अनुमति दी। इस राज्य में अब लद्दाख का राज्य भी शामिल है, जिसे 1834 में पिछले सिख साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया था। बदले में गुलाब बफर स्टेट के रूप में (मुख्य तौर पर ज़ारिस्ट रूस के खिलाफ) ब्रिटिश हितों की सेवा करने और जरूरत पड़ने पर ब्रिटिश अभियानों में कश्मीरी सैनिकों को भेजने की सहमति देता है। सिखों द्वारा नियुक्त कश्मीर के मुस्लिम राज्यपाल इमाद-उद्दीन के नेतृत्व में संधि के खिलाफ किया गया विरोध तेजी से दबा दिया जाता है। अधिकतर प्रजा के मुसलमान होने के बावजूद, डोगरा शासक कश्मीर को हिंदू राज्य घोषित कर देते हैं। 1889 से 1905 की अवधि के अलावा, जब ब्रिटिश ने कुछ डोगरा शक्तियों पर पाबंदी लगाई थी, डोगरा महाराजाओं ने कश्मीर के ऊपर लगभग संपूर्ण संप्रभुता का लाभ उठाया। डोगरा शासन उत्पीड़न, जबरन मजदूरी और भारी कर लगाए जाने से पहचाना जाता है। कारीगरों द्वारा किए गए कई विद्रोह बेरहमी से दबा दिए गए। खास तौर से, राज्य की अधिकतर प्रजा कश्मीरी मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से गरीब बनाया गया, उनके सारे अधिकार छीन लिए गए और उनका निर्दयता से शोषण किया गया। वहीं, उच्च जाती के अल्पसंख्यक हिंदुओं को सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बना लिया गया।
1931
कश्मीरियों को डोगरा शासकों के खिलाफ विद्रोह के लिए भड़काने के लिए अब्दुल क़दीर के ऊपर चल रहे मुकदमे के दौरान, बहुत लोग राजधानी सृनगर में 13 जुलाई के दिन इकट्ठे हुए। डोगरा सेनानियों ने 22 कश्मीरियों को गोलियों से मार गिराया। पूरे देश में महाराजा हरी सिंह के खिलाफ व्यापक विद्रोह भड़क उठे, लेकिन इन सभी को बड़ी बेरहमी से दबा दिया गया। अगले कुछ दिनों में दर्जनों कश्मीरियों को इस्लामाबाद (अनंतनाग) और कुपवाड़ा में गोलियों से मार दिया गया। पुंछ के पहाड़ी इलाके में विद्रोह शुरू हुआ, जो कई सालों तक चलने वाला था।
1932
कश्मीरी मुस्लिम लीडर ब्रिटिश और डोगरा शासकों के पास सुधार लागू करवाने की याचिका दायर करते हैं। उनमें से कुछ सरकारी सुधार, शिक्षा के हक, और सरकार में कश्मीरी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के लिए लड़ने के उद्देश्य से ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस (एमसी) की स्थापना करते हैं। इसके बाद प्रजा सभा स्थापित करने सहित महाराजा द्वारा शिकायतों का निवारण करने के प्रयास खोखले साबित होते हैं, क्योंकि मुस्लिम प्रतिनिधित्व अभी भी असमान रूप से कम रहता है। शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में उग्र कश्मीरी युवाओं का एक ग्रुप मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के अंदर लोकप्रिय गुट के तौर पर उभरता है।
1939
राजनीतिक रणनीति में असहमति के कारण एमसी का दो अलग-अलग गुटों मैं बंटवारा हो जाता है। प्रमुख गुट का नाम शेख अब्दुल्लाह जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) रखते हैं। इससे वह यह संकेत देना चाहते हैं कि उनका उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना और सामंतवाद का अंत करना है। एनसी कश्मीर के किसानों की लामबंदी करती है।
1940 का दशक
मजदूर-किसान पार्टी सहित कई छोटी कश्मीरी पार्टियां उभरकर आती हैं। कुछ समाजवादी और कम्युनिस्ट संगठन भी बढ़ने शुरू होते हैं। डोगरा को चुनौती देने के कारण एनसी की लोकप्रियता बढ़ती है। दूसरी तरफ चौधरी ग़ुलाम अब्बास पुरानी मुस्लिम कॉन्फ्रेंस को पुनर्जीवित करते हैं और जम्मू प्रांत के मुसलमानों के बीच भारी समर्थन जुटाते हैं।
1944
राजशाही और सामंतवाद का अंत, कश्मीर को प्रजातांत्रिक गणतंत्र बनाना, और जम्मू और कश्मीर के सारे लोगों को पूरे नागरिकता के अधिकार देने सहित कई बुनियादी सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के प्रस्ताव के साथ एनसी ‘नया कश्मीर संकल्प’ अपनाती है।
1945
इस्लामी सामाजिक सुधार में अधिक पुरानी जड़ों के साथ, जमात-ए-इस्लामी कश्मीर में पहला सम्मेलन करती है। पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करने वाली जमात-ए-इस्लामी ब्रिटिश भारत में अपनी मूल संस्था से प्रभावित होकर कश्मीर में एनसी के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और एमसी के मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों के खिलाफ खड़ी होती है।
1946
एनसी ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन शुरू करती है और एमसी कार्रवाई का अभियान शुरू करती है; दोनों ही राजशाही के खिलाफ हैं। शेख अब्दुल्लाह और चौधरी ग़ुलाम अब्बास को गिरफ्तार कर लिया जाता है। पिछले कुछ सालों में, अब्दुल्लाह भारतीय कांग्रेस के नेताओं के करीब और जिन्नाह की मुस्लिम लीग के विरोध में आ गए हैं। लेकिन फिर भी वह यह मानते हैं कि कश्मीर की अपनी स्वतंत्र पहचान बरकरार रहनी चाहिए। मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का झुकाव जिन्नाह की तरफ है।
1947
अगस्त और अक्तूबर के बीच कश्मीर स्वतंत्र है। यदि पाकिस्तान इस्लामी राज्य बनता है तो जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ता चाहते हैं कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बने, जबकि ब्रिटिश इंडिया में स्थित उनका मूल संगठन जिन्नाह के विरोध में है। सोशलिस्ट पार्टी भी पाकिस्तान में जुड़ना चाहती है। लेकिन एनसी इसके खिलाफ है। अंग्रेजों की निकासी और ब्रिटिश इंडिया के इंडिया और पाकिस्तान में बंटवारे के चलते बंगाल, दिल्ली, पंजाब और कई अन्य जगहों पर हिंसा भड़क उठी है। कश्मीरी राज-तंत्र के विरुद्ध लड़ रहे थे और वे अपने संघर्ष को दक्षिण एशिया के सेक्युलर, हिंदू या मुस्लिम राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं मानते हैं, लेकिन ब्रिटिश ने रियासतों के शासकों एवं नवाबों से भौगोलिक निकटता और धार्मिक जनसांख्यिकी के आधार पर पाकिस्तान या इंडिया में सम्मिलित होने का आग्रह किया। बंटवारे के तर्क के अनुसार, कश्मीर पाकिस्तान को जाना चाहिए था, क्योंकि राज्य की लगभग 77 प्रति शत आबादी मुसलमान है। सितंबर और अक्तूबर 1947 में हिंदू नागरिक सेना और डोगरा सैनिकों ने जम्मू के मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया और सैकड़ों-हजारों लोगों की हत्या कर दी। नव-निर्मित पाकिस्तान की सीमा पर स्थित पुंछ में बागियों ने स्वतंत्र राज्य का गठन कर लिया, जिसका नाम उन्होंने “आज़ाद जम्मू कश्मीर (एजेके)” रखा। चलते हुए नरसंहार के कारण जम्मू के सैकड़ों मुसलमान एजेके और पाकिस्तान भाग गए। एमसी के बहुत से नेता और सदस्य विस्थापित हो गए। उस समय की जनगणना रिपोर्ट और बाद में किए गए शोध बताते हैं कि 200,000 से भी अधिक मुसलमानों की हत्या कर दी गई और समान संख्या में लोग शरणार्थी बन गए। बाद में ‘जम्मू हत्याकांड’ के नाम से पहचाने जाने वाली इस घटना के बाद जम्मू हिंदू-बहुसंख्यक शहर बन गया। इस दौरान, उत्तर में स्थित गिलगित-बल्तिस्तान प्रांत पर डोगरा का नियंत्रण छूट गया। उनके लीडर शेख अब्दुल्लाह के जेल में होने के कारण एनसी इस दौरान शांत रही। सितंबर में पड़ोसी राज्य पटियाला से सैनिक और आरएसएस के हिंदू राष्ट्रवादी अर्धसैनिक डोगरा को सहारा देने आ धमकते हैं। पाकिस्तान कश्मीर की तरफ जाने वाली आपूर्तियां में बाधा डाल देता है। भारतीय कांग्रेस के लीडर भारत में सम्मिलित होने और अब्दुल्लाह को रिहा करने के लिए डोगरा पर दबाव डालते हैं। डोगरा महाराज स्वतंत्र रहना चाहता है और उसने पाकिस्तान के साथ ठहराव का समझौता कर लिया है, लेकिन भारत ने उस समझौते पर हस्ताक्षर करने ने इनकार कर दिया है। सीमाओं पर विद्रोह जारी रहने के कारण, 22 अक्तूबर 1947 के दिन अफ्रीदी और पश्तून समूह सरहद पार इकट्ठे होने लगते हैं और कश्मीरियों की सहायता करने बारामुला में घुस आते हैं, लेकिन स्पष्ट नेतृत्व के अभाव में उनका प्रयास बिखर जाता है। महाराजा कश्मीर घाटी से भाग जाता है और भारत से सहायता की विनती करता है। भारत मांग रखता है कि महाराजा अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर करे और कश्मीर की रक्षा, विदेशी मामलों और संचार की बागडोर भारत के हाथ में दे। अब्दुल्लाह को आपातकालीन प्रशासक बना दिया जाता है और वह पश्तूनों को खतरे के रूप में देखते हैं। 26 अक्तूबर को भारतीय सैनिक सृनगर आ टपकते हैं और अगले दिन महाराजा समझौते पर हस्ताक्षर कर देता है। भारत के आक्रमण के कारण पाकिस्तानी सैनिक भी मामले में फंस जाते हैं। कश्मीर के मुद्दे पर पहली भारत-पाकिस्तान जंग छिड़ जाती है। 21 नवंबर को नेहरू कहते हैं: “मैंने बारंबार कहा है कि शांति और अनुशासन के बहाल होते ही कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन की छत्रछाया में जनमत-संग्रह या रेफरेंडम के माध्यम से निर्णय लेना चाहिए कि वह कौन से देश में सम्मिलित होना चाहता है।”
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