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कश्मीरी से अंग्रेजी अनुवाद: नीरजा मट्टू
जैसे ही शाहमाल ने गुलाम खान को चिड़िया को पकड़े आंगन में आते देखा, वह उठ खड़ी हुई। वह अपने फेरन को भी धोना भूल गई, जो उसके छह-महीने के बच्चे ने गंदा कर दिया था। उसे लगा कि जैसे उसे कोई खजाना मिल गया हो और वह तुरंत अपने पति से चिल्ला कर बोली, “तो आप ले आए! मुझे डर था आज भी खाली हाथ ही लौट आओगे।”
उसने मुर्गे को अपने पति के हाथों से लगभग छीन लिया और उसके पंख एवं कंघी को सहलाने लगी। “इसके लिए साढ़े-चार रुपए दिए हैं मैंने,” ग़ुलाम खान ने ‘रुपए’ शब्द पर ज़ोर देते हुए बोला, मानो शाहमाल को विश्वास दिलाना चाहता हो कि मुर्गा कोई बेबस-बेचारा नहीं है।
शाहमाल को यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि ग़ुलाम खान ने कितने पैसे दिए थे; उसकी आंखों में सिर्फ मुर्गे के लिए जगह थी और उसको देख-देख शाहमाल के अंदर खुशी के फव्वारे फूट रहे थे। उसने मुर्गे को फर्श पर रखा और भौंहें चढ़ाते हुए बगल के घर की खिड़की पर नजर डाली। फिर उसने अपने पति को और ऊंची आवाज में बोला, “मैं इसी तरह के मुर्गे की तलाश में थी। मैले-कुचैले मुर्गों से तो बाजार भरे रहते हैं, पूरे मोहल्ले ने उन्हें खरीद रखा है।”
ग़ुलाम खान बिना कुछ बोले घर के अंदर चला गया। मुर्गे के पांव डोरी से बंधे हुए थे और वह मुश्किल के साथ इधर-उधर उछल रहा था। वह उस डोरी को कुतरे जा रहा था और नजरें घुमा-घुमाकर सभी ओर देख रहा था, मानो नई जगह को आंकने की कोशिश कर रहा हो।
शाहमाल के पास दो मुर्गियां पहले से थीं। इस दौरान वे आंगन में पड़े कूड़े के ढेर में खाना तलाश रहीं थीं। जब मुर्गे की कुड़कुड़ाहट उनके कानों में पड़ी, तो वे भौचक्की होकर उसकी ओर शक की नज़रों से देखने लगीं; क्या वे इस नए आनेवाले के आचरण और स्वभाव का मूल्यांकन करने कि कोशिश कर रहीं थीं? एक मुर्गी इनायत से मटकती हुई उसकी तरफ आई, जैसे उसे मुर्गे की मौजूदगी से कोई फर्क न पड़ता हो, जैसे बस वो अपनी खुशी के लिए चल रही हो। दूसरी मुर्गी इस पूरे वक्त कूड़े के ढेर में ही लगी थी और धूल से सन गई थी। “हैं? मुझे लगा कोई बड़का आया है। होगा कोई। मेरा इससे क्या लेना-देना?”
शाहमाल ने मुट्ठीभर चावल मुर्गे के सामने फैला दिए। वो चावल के ऊपर ऐसे झपटा और अपना मुंह भर-भर के ऐसे खाने लगा जैसे जन्मों का भूखा हो।
जब मुर्गियों ने देखा कि मुर्गे के साथ विशेष व्यवहार किया जा रहा है, तो वे दौड़ीं और बिखरे हुए चावल के दानों पर जल्दी से चोंच मारने लगीं।
शाहमाल ने बगल के घर की खिड़की की ओर एक बार फिर नजर घुमाई। वहां पर किसी को ना पा कर वह मुर्गियों पर ज़ोर से चिल्लाई, “हटो, हटो। कीड़े पड़ें तुम दोनों को। बेचारा भूखा मुर्गा। उसे शांति से खाने भी नहीं दोगी। तुमको देख के किसी को ऐसे लगे कि पता नहीं कितनों दिनों से कुछ खाने को नहीं मिला है।”
मुर्गियां जोर-जोर से कुड़कुड़ाते हुए भाग गईं। उनको पता था शाहमाल की डांट किसकी तरफ केंद्रित है। वरना वो जान बचाती क्यों भागतीं? लेकिन सुरक्षित दूरी बनाकर वे अभी भी मुर्गे के पास बिखरे चावल के दानों को घबराते-घबराते चुग रही थीं।
“मुबारकां!” हल्की जानी ने खिड़की से बाहर निकल कर शाहमाल को बुलावा लगाया। “ये मुर्गा कब आया?”
जब से मुर्गा आया था शाहमाल इसी बुलावे का इंतज़ार कर रही थी, और वह जैसे ही आया, शाहमाल चौड़ में आ गई, उसने अपना सर ऊंचा किया, अपने फेरन की काल्पनिक सलें सुधारीं, और अपने चांदी के झुमके चमकाते हुई कहने लगी, “मेरा शौहर बस अभी-अभी लेकर आया है। इसके लिए पूरे साढ़े-चार रुपए दिए उन्होंने।” शाहमाल ने ‘रुपए’ शब्द पर उससे भी ज्यादा ज़ोर दिया जितना उसके पति ने थोड़ी देर पहले दिया था।
“ज़रूर देशी होगा,” हल्की जानी ने मासूमियत से अपनी राय दी। “हां ऐसा ही लगता है। अच्छा मुर्गा है।”
“और जरा सोचो, सिर्फ सात महीने का है,” शाहमाल ने मन-मुताबिक मुर्गे की आयु तय कर ली। “ये एक खास नस्ल का है, अपने शहर में ज्यादा लोगों के पास नहीं मिलता। और इतना महंगा! खरीदे भी कौन यहां पर?” कुछ देर रुकने के बाद उसने अवमानना से भरे स्वरों में कहा, “यहां पर तो लोगों को सिर्फ वो मैले-कुचैले लड़ाकू मुर्गे चाहिए!”
शाहमाल के इन शब्दों ने जानी के दिल में आग लगा दी। उसे पता था की इन अपमानजनक शब्दों का निशाना वही है। लाल होकर वह खिड़की से दूर हो गई और चिल्लाई, “चूल्हे पर कुछ पक रहा है। तुम इसको अच्छे से खिलाना-पिलाना।”
शाहमाल खाली खिड़की की तरफ देख कर मुंह दबाकर हंसी और अपनी मुर्गियों को दांत पीसते हुए डांटने लगी, “हटो! हटो! जहन्नुम में जाओ तुम लोग!” फिर वह अपने मुर्गे कि तरफ गर्व और खुशी से मुड़ गई।
सच तो यह है कि शाहमाल को मुर्गा सिर्फ हल्की जानी के प्रति खुन्नस निकालने के लिए चाहिए था। जबकि जानी के पास पांच मुर्गियां और एक मुर्गा था, शाहमाल के पास सिर्फ दो मुर्गियां थीं। असल में उसके पास तीन मुर्गियां हुआ करती थीं लेकिन उनमें से एक अपने पांच चूजों के साथ बीमारी से मर गई थी।
हल्की जानी का मुर्गा उसके आंगन से दोनों घरों के बीच की दीवार के ऊपर छलांग लगाता और वहां से शाहमाल के आंगन में आ टपकता। चूंकि उसके खुद के पास कोई नर पक्षी नहीं थे, इसलिए शाहमाल इन अवसरों को ऊपर वाले की मेहरबानी समझती, लेकिन जब वह धान या मक्के को धूप में सूखने के लिए छोड़ती थी तो उसे उस मुर्गे का आना बिल्कुल पसंद नहीं आता था। वह उसके आंगन से परजीवी की तरह चिपका रहता था। उसको कितना भी भाग लो लेकिन उसको वापस आने और मक्के को खाने और बिखेरने से रोकना नामुमकिन था। धूप में किसी भी चीज को सुखाने के लिए छोड़ने में शाहमाल को डर लगता था। जब आखिरकार उसके सब्र के बांध टूट गए, तो उसका दबाया हुआ सारा गुस्सा फूट निकला और उसने मुर्गे को जी भर के गालियां दी। हल्की जानी ने उसे सुन लिया और खिड़की से बाहर की ओर झुकते हुए उसको ताना मार, “अरे सुनती हो, तुमको अपना खुद का मुर्गा खरीद लेना चाहिए। ऐसे तो तुम हर रोज उसका स्वागत करती हो कि नहीं? फिर भी कुछ चावल के दाने तुमको इतने चुभ गए।”
शाहमाल को उसकी यह बात लग गई। बस उसी पल से वह अपने पति के पीछे पड़ गई कि वह उसके लिए मुर्गा लेकर आए। हल्की जानी ने भी पूरा ध्यान रखा कि उसका मुर्गा दीवार के दूसरी तरफ न जा पाए।
ग़ुलाम खान हफ्ता दो हफ्ता अपनी पत्नी को इधर-उधर के बहाने देकर टालता रहा; लेकिन फिर टालमटोल करना नामुमकिन हो गया। उसको माइसूम बाजार के एक डीलर से तीन रुपये में मुर्गा खरीदना पड़ा। हालांकि, अपनी पत्नी पर प्रभाव डालने के लिए उसने असल दाम में डेढ़ रुपए जोड़ कर उसे बताया, जिससे वह अपने स्वाभाविक स्वरों में न बोले कि, “आय-हाय, क्या बेकार मुर्गा खरीद के लाए हो! क्या इससे बेहतर मुर्गे कहीं नहीं मिल रहे थे?”
हल्की जानी का मुर्गा लाल रंग का था, और इधर-उधर उसके शरीर पर काले धब्बे थे; शाहमाल का नया मुर्गा बर्फ जैसा सफेद था और एकदम गोरा-चिट्ठा। उसकी चाल भी हल्की जानी के मुर्गे से ज्यादा प्रभावी थी। लेकिन हल्की जानी का मुर्गा अपने मजबूत अंगों के कारण ज्यादा ताकतवर दिखता था। उन दोनों के बीच बस वही फर्क था; उसके अलावा दोनों एक ही नस्ल के थे और लगभग एक ही दाम के।
रात हुई। सब सोने चले गए। शाहमाल तकिये पर अपनी कोहनी टिकाए, अपने गाल को हथेली में लिए, अपने बच्चे को दूध पिलाती अपने नए मुर्गे के बारे में सोच रही थी। “मुर्गे को देख कर जानी के दिल में क्या आग लगी होगी! क्या मैं कभी उसके तीखे ताने भूल सकती हूं? अब जरा आने तो दो उसके मुर्गे को दीवार के इस तरफ। अगर उसकी टांगें नहीं तोड़ीं तो मेरा नाम भी शाहमाल नहीं!”
इस फैसले के साथ उसकी आंखें उसके पति के चेहरे पर पड़ीं। वह बेहद सुंदर लग रहा था और यह देखकर शाहमाल का चेहरा लाल हो गया। अपनी कोहनी सीधी करके उसने तकिये पर अपना सर रखा ही था कि बाड़े से अचानक बांग देने की आवाज आई। “कुकड़ूकु…!” शाहमाल भौचक्की रह गई। उसने अपना सर उठाकर ध्यान से सुना, उसको लगा कि शायद उसका दिमाग उसके साथ खेल रहा है। लेकिन एक बार फिर बांग की अचूक आवाज आई, “कुकड़ूकु…!” शाहमाल को ऐसा लगा कि उसकी गर्दन किसी ने मरोड़कर तोड़ दी हो। वह बिस्तर पर उठ बैठी और चिल्लाने लगी, “अरे, सुनते हो! सुनते हो! अरे उठो और देखो।”
“क्यों, क्या हो गया?” ग़ुलाम खान चौककर उठा। “तुमने मुझे बुलाया क्या?”
“आपने सुना नहीं क्या? वो मुर्गा। वो अभी बांग लगा रहा है। रात ढलने के समय!” शाहमाल की आवाज लगभग रोने में बदल गई थी। “यह किस मनहूस को घर ले आए!”
“बांग?” ग़ुलाम ख़ान ने एकदम से उठ कर बोला। “तो क्या? हमें क्या रोज़े के लिए जागना है जो वक्त का धोका हो जाए?”
“देखो क्या बकवास करते रहते हैं!” शाहमाल ने गुस्से में जवाब दिया। “जल्दी से उठो और उसको मार दो। आपको पता नहीं है क्या कि रात ढलने के समय जो मुर्गा बांग देता है, उसको उसी वक्त मार देना चाहिए? वह मनहूस जानवर है।”
“अरे भाई, काहे का मनहूस! सो जाओ और यह फालतू के वहम भूल जाओ,” यह कहकर ग़ुलाम खान ने रज़ाई अपने सर के ऊपर खींच ली। शाहमाल ने कुछ और देर कोशिश की लेकिन ग़ुलाम खान के मुंह से एक और शब्द ना निकलवा पाई। वह गहरी नींद में सो गया और हर रोज की तरह सुबह सात बजे उसकी आंख खुली।
शाहमाल को मुर्गे के बांग लगाने से ज्यादा इस बात की चिंता खाए जा रही थी कि पतली जानी ने उसे सुना होगा। ज़रूर इससे उसकी तीखी ज़बान चलने लगेगी। उसके ताने शाहमाल की चमड़ी में छेद कर जाएंगे: “इसीलिए तुम कह रही थी तुम्हें शानदार मुर्गा चाहिए? दुनिया भर में मुर्गे भोर और रोशनी के आगमन की घोषणा करते हैं, लेकिन इस मनहूस को तो देखो; कैसे शैतान रात ढलने के बाद उसकी नाक में आता है!”
बाड़े का दरवाजा खोलकर शाहमाल हल्की जानी के डर से आंगन में नहीं गई। यह उसके लिए बहुत मुश्किल था क्योंकि वह इस आशा के साथ सोने गई थी कि हल्की जानी के तीखे शब्दों का जवाब वह खुद के तीखे तानों से देगी, जो वैसे तो दीवारों और खिड़कियों की तरफ केंद्रित होंगे लेकिन असल में होंगे उसकी पड़ोसिन के लिए ही।
शाहमाल भारी दिल के साथ घर के अंदर ही बैठी रही, जबकि मुर्गियां मुर्गे के साथ पूरे आंगन में मटरगश्ती कर रहीं थीं। मुर्गे को देखने से ही उसके दिल में घृणा भर जाती। और मुर्गा, इस सब से अनभिज्ञ, अपने पंख फैलाकर एक-एक करके दोनों मुर्गियों के इर्दगिर्द नम्रता से पंख फड़फड़ाता नाचे जा रहा था। लेकिन मुर्गियां उससे दूर भाग रही थीं, जैसे कि उससे कह रही हों, “ये तुमको क्या हो गया है? क्या ये सब तुमको शोभा देता है? अपने आस-पास तो देखो जरा।”
फिर वे रसोई के दरवाजे की ओर देखतीं और सोचतीं, “आज वो दिख क्यों नहीं रही है? अरे हमारी तरफ कुछ दाने तो फेंक जाती चुगने के लिए!” वे रसोई की तरफ भागी। मुर्गे ने उनका मन पढ़ लिया और उनके पीछे-पीछे चला गया।
शाहमाल की नजर धोखे से उसके पैरों पर पड़ गई। उसे लगा कि पंजों से लेकर ऊपर तक उसने उनसे ज्यादा बदसूरत पांव किसी मुर्गे पर कभी नहीं देखे। उसकी घृणा और गहरी हो गई। लेकिन वह मुर्गियों को भगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उसकी आवाज सुनकर हल्की जानी खिड़की पर आ जाए। उसने जल्दी से मुट्ठीभर चावल निकालकर दूर से ही मुर्गियों की तरफ फेंक दिए। वह मुर्गे को कुछ खाने के लिए नहीं देती लेकिन मुर्गियों के बारे में वह क्या कर सकती थी? उन बेचारों को तो पूरा दिन भूखा नहीं रखा जा सकता था।
जब हल्की जानी के मुर्गे ने दीवार के दूसरी तरफ से अजनबी बांग की आवाज सुनी, तो उसने अपनी गर्दन ऊंची की और सीना तान लिया; उसका शरीर तनावग्रस्त हो गया, उसकी सारी नसें तन गईं। “कुकडूकू,” उसने ज़ोर से बांग लगाई, जैसे कि बगल वाले अहाते में किसी को बुला रहा हो।
“कुकडूकू,” जैसे कि जवाब में शाहमाल के मुर्गे ने भी अपनी गर्दन ऊंची कर ली। “मैं हूं गोरा मुर्गा। मैं चाहता हूं तू यहां आ कर खुद देख ले। वहां से क्यों चिल्लाए जा रहा है?”
शाहमाल को यह शोर अच्छा नहीं लगा। वह चाहती थी कि मुर्गे का दम घुट जाए और वह गूंगा हो जाए, जिससे हल्की जानी उसको ना सुन सके और ऐसे खिड़की पर ना चिपकी रहे।
उसको भागने की जगह, उसने मिट्टी का एक ढेला उठाया और गुस्से से मुर्गे के सर पर निशाना साधकर उसकी ओर फेंक दिया। निशाना तो चूका लेकिन मुर्गा चौंक गया और ज़ोर-ज़ोर से कुकडूकू करने लगा। हल्की जानी खिड़की से बाहर की ओर झुकी, “इत्ती सुबह-सुबह क्यों इत्ता गुस्सा हो रही हो? क्या कर दिया बेचारे ने?” उसने पूछा।
शाहमाल को ऐसे लगा कि जैसे वो चोर है जिसको रंगे हाथों पकड़ लिया गया है। उसके पूरे शरीर से पसीना छूटने लगा। इसी मुलाकात से बचने के लिए जो उसने सावधानीपूर्वक कदम उठाए थे उनका कुछ फायदा नहीं हुआ। हल्की जानी के शब्द सुनकर शाहमाल का शक विश्वास में बदल गया कि उस औरत ने रात ढलने पर मुर्गे की लगाई बांग सुनी थी और वह उसका मज़ाक उड़ा रही थी। उसने हिम्मत जुटाई और कहा, “भला मैं क्यों गुस्सा होने लगी? वो बेचारी मुर्गियों को दानों के पास नहीं आने देता। इसलिए उसे डरा कर दूर भगा रही थी।”
“नया है ना, इसीलिए। थोड़ा रुको, कल से खुद ही उनको खिलाने लगेगा,” हल्की जानी ने हंसते-हंसते बोला।
“हां, लेकिन वो तो तब ही सच होता अगर हमें इसको रखना होता। इसको तो हमने गोश्त के लिए खरीदा है।” शाहमाल को लगा उसे जानी को ताने मारने की जरा भी गुंजाइश नहीं देनी चाहिए। “हम तो इसको कल ही मार देते, लेकिन फिर हमने सोचा सुबह तक रुक जाते हैं”।
“अरे पर क्यों? इसको क्यों मार रहे हो?” जानी को शायद ऐसा लगा कि अगर वे उसे मार देंगे, तो उसका खुद का मुर्गा अकेला रह जाएगा। “देखो कितना सुंदर है! और उसकी आवाज तो माशाअल्लाह!”
शाहमाल मुड़ गई। जानी ने सुन ही लिया इसका मतलब, वरना वो उसकी आवाज की बड़ाई क्यों करेगी? लेकिन शाहमाल ने इस ताने को नजरंदाज करना ठीक समझा।
“अरे, तुमको लगता है मैं इन मैले, बदबूदार लड़ाकू मुर्गों को रखना पसंद करूंगी, जो बाज़ारों में थोक के भाव मिलते हैं? हमें वो नस्ल नहीं मिल रही जो हमें चाहिए। लेकिन एक जन ने हमसे वादा किया है कि हमारे लिए उसको लेकर आएगा।”
हल्की जानी को कुछ समझ नहीं आया, ना शाहमाल के शब्द ना उसका नया रूखापन। कल ही तो वो मुर्गे के गुणगान गा रही थी। लेकिन शायद शाहमाल के शब्द उसकी ओर निर्देशित थे—कि उसके पास मैला-कुचैला मुर्गा है जो कोई रखना नहीं चाहेगा। वो कोई तीखा जवाब देने ही वाली थी कि शाहमाल घर के अंदर चली गई। जानी को अपना गुस्सा निगलना पड़ा।
समोवार में फूंक मारते हुए भी शाहमाल गहरी सोच में थी कि मुर्गे की समस्या का क्या करना है। वो अपने पति से उसे मरवा देगी; और अगर वो ऐसा करने के लिए नहीं मानेगा, तो वो उनके पास के कसाई समद के पास जाएगी। “जब खाने में उनको मैं उसे परोसूंगी तो मैं भी देखूं वो क्या बोलते हैं।”
जब ग़ुलाम खान मस्जिद से घर आया, तो शाहमाल ने उसको चाय का प्याला पकड़ाया और सख्त शब्दों में कहा, “चाय पी लो और फिर मुर्गे को ठिकाने लगा दो। पड़ोसी क्या बोलेंगे? हमें उनके साथ नहीं रहना क्या?”
“इसका पड़ोसियों से क्या लेना-देना” ग़ुलाम खान ने ब्रेड का टुकड़ा मुंह में डालते हुए पूछा। “ये रमजान का महीना तो है नहीं कि सुबह के बारे में कोई कन्फ़्युशन होगा।”
“हूं! आपको तो सिर्फ बातें बनानी आती है!” उसने थोड़ी देर बाद आगे जोड़ा, “अगर आपको नहीं करना, तो मत करिए। मैं उसको जा कर समद से कटवा लाऊंगी। आपको लगता है मैं इस मनहूस को अपने घर में रखूंगी?”
“जो करना है करो,” ग़ुलाम खान ने चर्चा खत्म करते हुए कहा। “बस मेरे को वापस से मुर्गा खरीदने मत बोलना।”
“नहीं बोलूंगी। जैसे शहर में मुर्गों की कोई कमी हो रही है!” शाहमाल ने गुस्से से समोवार में फूंक मारी। “और वैसे भी हल्की जानी का मुर्गा हमारे आंगन में ही दिन भर घूमता रहता है; हमें दूसरे मुर्गे की क्या जरूरत?”
शाहमाल किसी भी कीमत पर मुर्गे से छुटकारा पाना चाहती थी। उसके मन में मुर्गे के लिए बहुत ही गहरी घृणा पैदा हो चुकी थी। उसको जानी के सफेद दांत अपने ऊपर मुसकुराते दिखते। मुर्गे के पंखों की फड़फड़ाहट उसको जानी की हंसी जैसी सुनाई देती। उसको ऐसा लगने लगा कि उसके सारे शर्म और अपमान का वो मुर्गा ही एकमात्र कारण है।
जैसे ही ग़ुलाम खान काम के लिए निकला, शाहमाल समद के पास चली गई। वो दो या तीन घर छोड़ कर ही रहता था; और मुर्गों को काटना उसकी विशेषता थी। दूसरे भी थे जो इस कला को जानते थे लेकिन किसी न किसी तरह मुर्गों को काटने में उसकी महारत मोहल्ले में स्थापित थी।
समद घर पर ही था। उसने अपनी खिड़की से शाहमाल को आते देखा और उसके आने की वजह का अनुमान लगा लिया, “जाओ उसको लेकर आओ। मैं अभी ही उसे काट दूंगा। पर याद रखना, मैं रात के खाने के लिए आऊंगा। ऐसा मत सोचना कि सिर्फ तुम दोनों ही दावत का लुत्फ उठाओगे!”
“बिल्कुल-बिल्कुल, तुम्हारा स्वागत है,” शाहमाल ने कहा।
वह हल्के मन और चेहरे पे मुस्कुराहट के साथ घर लौटी। वह खुश थी कि अब वह अपना सर ऊंचा उठाकर चल सकेगी; अब उसे दिन-रात जानी के तीखे ताने नहीं सुनने पड़ेंगे। लेकिन अपने आंगन में आने पर उसे एक अनोखा नजारा देखने को मिला। मुर्गियों एक कोने में दुबक कर बैठी थीं। जानी का और उसका मुर्गा सब जगह धूल उड़ाते एक दूसरे से बुरी तरह से लड़ रहे थे। हल्की जानी अपनी खिड़की से मुर्गों की लड़ाई के मज़े ले रही थी। शाहमाल ने उसके चेहरे पर खुशी की चमक देखी। उसको यकीन था कि उसका मुर्गा ही जीतेगा, शायद इसलिए क्योंकि उसकी कंघी छोटी लेकिन मोटी थी, उसकी कमर उसके गले से चिपकी हुई थी, और उसके मजबूत अंग उसे एक संपूर्ण योद्धा बनाते थे। वह मोहल्ले के सभी मुर्गों को लड़ाई में हरा चुका था।
शाहमाल के चेहरे से रंग उतर गया और उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मुर्गों की गरदनों पर पंख एकदम गोल घेरों में खड़े थे। उनके सर गुस्से से कांप रहे थे। उनके कांपने से ऐसा लग रहा था कि उनके पंखों से बिजली दौड़ रही है। उनके शरीर लंबे और पुंछ के पंख फूले हुए लग रहे थे। वे एक-दूसरे को क्रोध में घूर रहे थे और अपनी कांपती गरदनें उठा-उठा कर एक दूसरे पर आग बरसा रहे थे। वे एक-दूसरे पर अपनी चोंचों से बेधड़क हमले किए जा रहे थे।
जब हल्की जानी ने शाहमाल को आंगन में आते देखा, तो वह बेबाक अपनी खिड़की पर बैठ गई। “तुम्हारे साढ़े चार रुपये के मुर्गे के सामने मेरा कमजोर मुर्गा क्या ही टिकेगा? लेकिन एक गधे को जोखिम उठाने से कौन रोक सकता है? उसको कोई शर्म थोड़ी है।”
अपना व्यंग्य कम करते हुए उसने आगे कहा, “लेकिन मैं तुमको सावधान कर दूं। वह तुम्हारे मुर्गे को उलटे-पांव भगा देगा। सच तो यह है कि वह पहले ही आस-पड़ोस के सभी मुर्गों को हरा चुका है।”
शाहमल का दिल बैठ गया। पर वो जवाब में बोल भी क्या सकती थी? वारदातों को देख कर वह भौचक्की रह गई थी। उसके मन में शक उठा कि जानी ने जानबूझकर अपने मुर्गे को उसके आंगन में भेजा है। जानी के मुर्गे का गला घोंटने से खुद को रोकने के लिए और जानी के ताने सुनने से पहले उसने खुद का बचाव करना शुरू कर दिया।
“विदेशी मुर्गा देशी मुर्गे को भगाता है! पुरानी कहावत नहीं सुनी? और वैसे भी, मेरा मुर्गा लड़ने के लिए नहीं है। वो अलग नस्ल का है। इसीलिए तो इतना महंगा है।”
मुर्गों की लड़ाई और तीव्र हो गई थी और वे बहुत शोर मचा रहे थे। वे एक दूसरे के पंख नोचे जा रहे थे और अब दोनों से खून बहने लगा था।
हल्की जानी ने खिड़की को कस के पकड़ रखा था और मुर्गों की हर गति के साथ उसका सर झटका लेता, उसके चेहरे में खून भर आता।
शाहमाल भी रोमांच से भरी हुई थी। जो हो रहा था उसे देख कर वह तबाह हो गई थी, दुख में डूब गई थी। जानी के मुर्गे को देखकर उसके अंदर इतना डर और इतनी घृणा भर रही थी कि उसने मन ही मन उसे गालियां देना शुरू कर दिया, “काश तेरी चोंच टूट कर गिर जाए! तू अपाहिज हो जाए!”
उसके लाल-काले रंग के कारण जानी के मुर्गे पर खून उतना नहीं दिख रहा था। लेकिन ऐसा लग रहा था कि शाहमाल का बेदाग सफेद मुर्गा खून में सना हुआ है। यह देखकर वह खुद को रोक नहीं पाई और चिल्ला उठी, “जहन्नुम में जाए कमीना! कीड़े पड़ें इसकी पैनी चोंच को!”
“ध्यान रखो शाहमाल; ज्यादा मत बोलो,” हल्की जानी ने झूठी मुस्कुराहट के साथ कहा। “बस देखती जाओ कैसे इनमें से एक दूसरे को दुम दबाकर भागने पर मजबूर करता है। तुमने क्या सोचा था?” उसने व्यंग्य के साथ जोड़ा, “बदबूदार लड़ाकू मुर्गे इतने भी सस्ते नहीं।”
शाहमाल बेहद बेबस थी। मुर्गे के आने के बाद से उसके ऊपर आफ़तों का पहाड़ टूट पड़ा थी। वह जानी को उसी कड़वी ज़बान में जवाब देती जिसमें जानी उसका मज़ाक उड़ा रही थी, लेकिन जानी फिर पलटवार करती क्योंकि तीखे जवाब देने में जानी शाहमाल से कोई कम नहीं थी। इससे दोनों के बीच गलियों की लेन-देन शुरू होती, ज़बानों की जंग, अगर उनमें से एक मुर्गा अचानक बच कर भागना शुरू नहीं करता। वह हल्की जानी का मुर्गा था और शाहमाल का मुर्गा उसे पूरे आंगन में इधर-उधर दौड़ा रहा था।
शाहमाल ने देखा कि हल्की जानी के शरीर से पसीना टपक रहा है और उसका चेहरा तवे के कालिख लगे हिस्से के रंग का हो गया है। लेकिन उसने यह भी देखा कि जानी लड़ाई के नतीजे में दिलचस्पी नहीं रखने का ढोंग कर रही है।
“तुम इस मुर्गे को काटने वाली हो?” जानी ने अपनी ठुड्डी को हथेली पर रखते हुए पूछा। “क्या तुम मेरी सुनोगी; और इसे नहीं काटोगी?”
"क्या तुमने मेरी बात सही में मान ली थी?" शाहमाल ने सिर के झटके से अपनी चांदी के झुमके चमकाते हुए कहा। “मेरे मुर्गे में हजारों खामियां हो सकती हैं, वो रात ढलने पर बांग भी लगा सकता है, लेकिन अगर वह अच्छा लड़ाका है तो मुझे इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे ऐसा ही मुर्गा चाहिए था। नहीं तो क्या बाजार सैकड़ों मैले-कुचैले लड़ाके मुर्गों से भरा हुआ नहीं है?”