जब शिकारी अपना जाल बिछाता है तो उसमें भालू और हिरण, सियार और खरगोश, सभी फंस जाते हैं। तब फिर जब भालू हिरण की गर्दन मरोड़ता है और सियार खरगोश को दबोचता है, तो हम भालू को कोसते हैं और सियार को फटकारते हैं, लेकिन भूल जाते हैं उस जाल को जिसके कारण यह सब कुछ हुआ।
आरिफ़ अयाज़ परे‘देहाती डॉक्टर’ फ्रैंज़ काफ़्का की प्रसिद्ध लघुकथा है, जो पहली बार 1919 में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी एक ग्रामीण डॉक्टर की एक रात की असामान्य यात्रा के ज़रिये आधुनिक समाज में इंसान की बेबसी, ज़िम्मेदारी के बोझ और अस्तित्व की विडंबनाओं को उजागर करती है। एक रोगी के बुलावे पर डॉक्टर घर से निकलता है, लेकिन यह यात्रा जल्द ही एक अतियथार्थवादी (surreal) अनुभव में बदल जाती है — जहाँ समय, नैतिकता, और इच्छाओं की सीमाएँ धुंधली पड़ जाती हैं। कहानी प्रतीकों और रूपकों से भरी हुई है — जैसे असंभव गति से दौड़ती घोड़ा-गाड़ी, नौकरानी पर संकट, रोगी का रहस्यमयी घाव, और समुदाय का विवेकहीन व्यवहार — जो काफ़्का की विशिष्ट शैली ‘काफ़्कायन’ का हिस्सा हैं। यह सिर्फ़ एक डॉक्टर की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपने कर्तव्यों, समाज की अपेक्षाओं और निजी विवेक के बीच फँसा हुआ है।
फ़्रांज काफ़्काहेर्ड्रिक मार्समैन की इन कविताओं में जीवन, प्राकृति, और मानवीय अनुभवों को पढ़ा जा सकता है।
हेर्ड्रिक मार्समैनजिस देश ने अति-भारी सैन्य बल के ज़रिये कश्मीर पर अवैध क़ब्ज़ा जमा रखा है, वही देश कश्मीर में आज़ाद चुनाव आयोजित करवाने के बड़े-बड़े दावे करता दिखता है। इस विडंबना के कारण कई अजीबोगरीब घटनाएं होती हैं। एक ऐसी वारदात का ज़िक्र अख़्तर मोहिउद्दीन इस अनोखी कहानी में करते हैं।
अख्तर मोहिउद्दीनकुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जो अच्छे-भले इंसानों को हैवान बनने पर मजबूर कर देती हैं। कश्मीर के अंदर भारतीय राज्य की भूमिका कुछ ऐसी ही परिस्थितियों को बनाने और बनाए रखने की रही है। कश्मीर पर अपना अवैध राज कायम रखने के लिए भारतीय राज्य एक कश्मीरी को दूसरे कश्मीरी से लड़ने पर मजबूर करता है। जबकि कश्मीरी मजबूरी में बुरे काम कर रहे हैं और इसलिए अपनी इंसानियत कहीं न कहीं बचा पा रहे हैं, भारतीय राज्य अपनी इंसानियत अपनी स्वेच्छा से पूरी तरह से खो चुका है।
अख्तर मोहिउद्दीन"अपने लिये जिये तो क्या जिये . . ." इंसान चाहे कहीं भी हों और किसी भी परिस्थिति में हों, वे किसी और के लिए और किसी और के माध्यम से जितने अच्छे से जी सकते हैं, उतने अच्छे से कभी खुद के लिए नहीं जी सकते। आज हम जिनको मानसिक रोग कहते हैं, उन में से अधिकतर इसी बात को न समझ पाने के संकेत हैं। हम क्योंकि ऐसा समझते हैं कि हमें किसी और के लिए नही सिर्फ अपने लिए जीना है, इसलिए हम अपने आप के लिए भी नहीं जी पाते। किसी ने सही ही कहा है, खुद का रास्ता दूसरे से होकर आता है। कुछ इसी तरह की बात इस कहानी में भी बताई गई है। जब हम किसी दुख से निपट नहीं पाते, तो हमें दिमाग को सुन्न करने वाली दवाइयों की नहीं, जीने के कारण की जरूरत होती है, क्योंकि जैसा कि किसी दार्शनिक ने कहा है, अगर इंसान के पास जीने की वजह है, तो वह किन्हीं भी परिस्थितियों को झेल सकता है। और किसी और के लिए जीने से अच्छी जीने की वजह क्या हो सकती है।
आरिफ़ अयाज़ परेयह कहानी मेजर अवतार सिंह की है, जो किसी समय भारतीय सेना के काउंटर-इन्सर्गेंसी यूनिट, 35 राष्ट्रीय राइफल का अफसर था। अवतार कश्मीरी मानवाधिकार वकील जलील अंद्रबी और कम से कम अट्ठाईस अन्य लोगों के क़त्ल के लिए वांटेड था। 9 जून 2012 को सलमा, कैलिफ़ोर्निया में उसने अपनी बीवी और तीन बच्चों को गोली मारने के बाद बंदूक अपनी ओर घुमा ली। देखा जाए तो अपने परिवार के प्रति अवतार का यह पागलपन/बर्बरता उसके पापों का भुगतान था। साथ ही यह तथ्य भी की और जो अन्य भारतीय सैनिक कश्मीर में तैनात रहते हैं, ऐसे नहीं तड़पते, सिर्फ भारतीय राष्ट्रीय परियोजना की निहित हिंसा का बयान भर है।
आरिफ़ अयाज़ परे'हिंसा की नहीं जाती, करवाई जाती है।' यह वह वाक्य है, जिससे कोई भी आम हिंदुस्तानी कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझ सकता है, जिसे मीडिया और कथित सरकारी टट्टु-लेखकों ने अपने रिसर्च पेपरों में 'चरमपंथियों' के खिलाफ हिंदुस्तानी सेना का युद्ध घोषित कर रखा है। एक आम कश्मीरी क्यों इतना 'हिंसक' हो जाता है? और क्या वह वाकई 'हिंसक' है या उसे हिंसक बनने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वजह है कि इतने लंबे समय से लाखों हिंदुस्तानी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद कश्मीर में हिंसा रुकने के बजाय बढ़ती ही जा रही है? आख़िर वे कौन से तथ्य हैं कि एक आम कश्मीरी का गुस्सा इतने चरम पर पहुंचा हुआ है कि जो लोग उनके साथ बदसलूकी करते हैं, उनके पास उन्हें मारने के अलावा और कोई ऑपशन नहीं बचता? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन्हें प्रस्तुत कहानी के जरिये समझा जा सकता है। कि कैसे हिंदुस्तानी सेना की मौजूदगी ने एक आम कश्मीरी मियां-बीवी की निजी ज़िंदगी को भी इस कद्र प्रभावित किया कि रुक़सान जैसी लड़की ऐसा क़दम उठाने पर मजबूर हो जाती है, जिसे वह शायद ही आम स्थिति में अंजाम देने का सोचती।
आरिफ़ अयाज़ परेपांच साल से वह मुंबई की एक आई. टी. कंपनी में सफाई कर्मचारी की नौकरी कर रहा है। किसी ने उससे अभी तक उसकी जाति के बारे में नहीं पूछा। उसे इस शहर के बारे में यही बात पसंद है। यहां आदमी आज़ादी से रह सकता है।
योगेश मैत्रेय