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Published as 'A Victorous Campaign' in Until My Freedom Has Come.
कश्मीर के पहाड़ों में स्थित एक छोटे से सुंदर गांव में कुछ समय पहले आज़ाद नाम का मोट्ट[1] रहता था। उन सभी की तरह जिन्होंने विचारशीलता के क्षेत्र को त्याग कर नासमझ आजादी चुनी हो, आज़ाद नाम के मोट्ट का सम्मान इसलिए किया जाता था क्योंकि उसे दुनिया के बारे में, जितना सामान्य निःसंदेह लोग समझने की क्षमता रखते हैं, उससे कहीं ज्यादा पता था। साथ ही साथ, सभी को यह ज्ञात था कि आध्यात्मिकता में दृष्टि इतनी तेज़ होने के कारण वह ज़िंदगी के रोजमर्रा के कार्यों में अनाड़ी था। इस वजह से गांव वाले उसके प्रति विचित्र रूप से दोगुना भाव रखते थे, एक तरफ उसका रोजमर्रा की ज़िंदगी में प्रत्यक्ष बेढंगापन उनको हास्यजनक लगता था और वे चाह कर भी खुद को उससे बेहतर समझने से नहीं रोक पाते थे, लेकिन दूसरी तरफ जब वे ऐसी परिस्थितियों में फंसते थे जो उनकी समझ और नियंत्रण के परे हों, तो वे उसकी विलक्षणता की तरफ वैसा आस्था का भाव रखते थे जैसा कि भगवानों के लिए रखा जाता है।
वह अपने फटे-पुराने फेरन में घूमता रहता, उसकी बेधुली बू की महिमा से लोगों को उसके आने-जाने का पता लग जाता और वे उसे अपने साथ खाना खाने का, बीमार का इलाज करने का, बेरोजगार को ठीक करने का, औरतों के गर्भ भरने का, हाल में पैदा हुए बच्चों को आशीर्वाद देने का या फिर केवल उनके फेरन पर बुद्धिमानी के दो शब्द दान करने का आमंत्रण देते। वह खुद में खोया-खोया सभी के वांछित काम कर देता। और अपनी जरूरत के समय भी लोगों के उसकी तरफ हैरानी भरे रवैये से वह जाहिरा तौर पर बेखबर रहता।
उसका मुंह झेलम था। शब्द उसके दांत के ऊपर से गिरकर अविरल धारा की तरह बहते जाते। उसकी बड़बड़ में कश्मीरी, उर्दू, फारसी, अरबी, अंग्रेजी, संस्कृत, पश्तो, हिंदी, सिन्धी, शीना, बाल्टी और पंजाबी भाषाओं का मिश्रण था और अक्सर ही उसके मुंह से निकलते शब्दों का संयोजन वैध वाक्य या ज्ञान का भी रूप धारण करता; यदि ऐसा करने में उसकी कोई भूमिका होती थी कि नहीं, ऐसा कौन बता सकता है। लोग उसके कहे हर शब्द को ध्यान से सुनते और समय-समय पर शब्दों का एक विशेष अनुक्रम किसी न किसी के लिए उपयुक्त और शिक्षाप्रद साबित होता। उन शब्दों में मिले संदेशों की रहस्यपूर्ण प्रकृति का मतलब था कि प्राप्तकर्ता को उसके बारे में लंबे समय तक ध्यान से सोचना पड़ता। इस तरह से, आज़ाद की प्रतिभा के कारण लोगों को अपनी तकलीफों के समाधान को ढूंढने के लिए अपने अंदर ठीक से झांक कर देखने की अनुमति मिलती। जाहिर है कि इस वजह से समय-समय पर कुछ-कुछ छोटे-मोटे करिश्मे भी हो जाते।
यदा-कदा कोई मोट्ट के लिए वाज़वां साल[2] का आयोजन कर देता और उससे मिलने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को भी बुला लेता। खाने के पहले और बाद में, लोग आज़ाद के चारों तरफ इकट्ठा हो जाते और सलाह की वास्तविक आवश्यकता या श्रद्धा या जिज्ञासा या शोखी से उससे हर तरह के सवाल करने लगते। ऐसे अवसरों पर, आज़ाद के चेहरे पर आते भाव इस बात की गवाही देते कि सवाल पूछते वक्त लहजे के हल्के-फुल्के बदलाव के अलावा, उसके अभेद्य विशाल दिमाग में ज्यादा कुछ दर्ज नहीं होता। इसलिए, उसके जवाबों का पूछे गए सवालों से किसी तरह मेल बनाना चमत्कार से कम नहीं था। मिसाल के तौर पर, आज़ाद की आदत थी कि वह गांव में घूमते-फिरते इधर-उधर पड़ी हुई हर तरह की छोटी-मोटी चीजें इकट्ठी करता था। फिर वह यह सब गांव के कोने में स्थित एक परित्यक्त झोपड़ी में जमा करता था, जिससे कचरे से ज्यादा आज़ाद की बू आती थी। कुछ कचरा वह शाम को जलाता भी था और ढलते सूरज की रोशनी में आग की लपटों को खेलते देख वह बच्चे जैसे खुशी से कूदने लगता था। एक बार, वाज़वां की बैठक के दौरान किसी ने उससे सवाल किया, ‘पाने चुख योट मोकुर रोज़ान, तेले क्याज़ी चुख जानदे जम्मा कारेथ गाम साफ कर्ण?’ (‘आप खुद को इतना मैला रखते हो, तो फिर आप सब जगह से कूड़ा-कर्कट उठाकर पूरे गांव को साफ क्यों करते हो?’) आज़ाद ने अपना बड़बड़ाना एक पल के लिए बंद किया, जैसे कि वह जवाब ढूंढ रहा हो, और फिर कहा, ‘वोजूद चुह पानस वारे सोरे केंह। येले सू साफ, तेले बू साफ।’ (‘अस्तित्व स्व से अलग सब कुछ है। जब वह साफ है, तो मैं साफ हूं।’) एक बार और, किसी को उससे जानना था कि कश्मीर को आजादी कब मिलेगी। आज़ाद ने जवाब दिया, ‘पोइन चुह वारेवार बालस गालन। वेइन ते चह दुनिया वूचन।’ (‘पानी धीरे-धीरे पहाड़ को गिरा देता है। दुनिया को अभी भी एक दुनिया देखना बाकी है।’)
आज़ाद राजनीतिक तौर से सचेत था और उसकी बड़बड़ में राजनीति की भाषा और समझ भरी होती थी। ‘हिंदुस्तानुन नेऊ एबे अव्वल, पाकिस्तानुन नेऊ एबे दोवोम, कोशरें पाथेय गास-चराएं,’ वह अक्सर कहा करता था। (भारत कश्मीर से (अव्वल) जमीन ले लेता है, पाकिस्तान को दूसरे दर्जे (की जमीन) मिलती है, और कश्मीरियों के पास केवल बेकार (जमीन) बच जाती है।’) एक और विचार जो उसको बड़ा प्रिय था, वह था ज़ाल या जाल का विचार। ज़ाल उसके लिए किसी भी घटना या प्रत्यक्ष वस्तु का अंतर्निहित ढांचा था। एक बार आश्चर्यजनक लंबे मानसिक स्थिरता के दौरे में उसने कहा था, ‘येले शिकाएर ज़ाल चुह त्रवां, हपुत ते हिरान, शाल ते खरगोश, सारे फसन। पत्ते येले हपुत हिरनेस कैद वोथान ते शाल खरगोशएस ज़ागां, एस दीवान हपूतास लेके ते शालस शलक, ज़ाल चुह गटसान मूषिते।’ (जब शिकारी अपना जाल बिछाता है तो उसमें भालू और हिरण, सियार और खरगोश, सभी फंस जाते हैं। तब फिर जब भालू हिरण की गर्दन मरोड़ता है और सियार खरगोश को दबोचता है, तो हम भालू को कोसते हैं और सियार को फटकारते हैं, लेकिन भूल जाते हैं उस जाल को जिसके कारण यह सब कुछ हुआ।)
हर सुबह सूर्योदय के पहले आजाद नियमित रूप से पहाड़ चढ़ने जाता था। वह सुबह नौ-दस बजे तक पहाड़ पर बैठकर वापिस गांव लौट आता। जब उससे पूछा जाता कि वह हर रोज ऐसा क्यों करता है, तो वह जवाब देता, ‘बू गतसान गाश छलनी’। (‘मैं रोशनी को धोने जाता हूं।’)
जुलाई की एक सुबह, बड़ी संख्या में मिन्टरी गांव में आने लगी। कुछ समय से वे गांव में नहीं आए थे तो उनके अचानक आ टपकने से लोग थोड़ा आश्चर्यचकित थे। मोकदम[3] ने उनसे पूछा कि क्या उसे गांव के मस्जिद से अक्सर किए जाने वाली क्रैकडाउन की घोषणा करनी है। इन्चार्ज अफसर ने उससे कहा कि कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे लोग ठहरने आए हैं; वे गांव के बगल में शिविर बनाने वाले हैं।
हालांकि, आदत से मजबूर लोग पहले ही स्कूल के मैदान में इकट्ठे होने लगे थे। मिन्टरी ने इकट्ठे हुए गांव वालों में से युवा लड़के उठाए और उन्हें बंकर, बैरक, दीवार और शिविर के चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगाने के काम पर लगा दिया। युवाओं को गुलाम बनाकर जोरदार मेहनत कराई गई, जिसके कारण शिविर का निर्माण एक हफ्ते के अंदर-अंदर पूरा हो गया।
अब शिविर रणनीतिक तौर से पहाड़ की ढलान पर सही जगह पर बैठा था, गांव के बिल्कुल ऊपर, जिसका मतलब यह था कि गांव वालों को पहाड़ के ऊपर जंगल में या अपने मैदानों में जाने के लिए शिविर से होते हुए जाना पड़ता था। पहले ही कुछ दिनों में दुराचार, उत्पीड़न और मार-पीट के आरोप लगाए गए। साथ ही, स्थिर शिविर की स्थापना के कारण लोग मिन्टरी के आदी होने लगे और भूलने लगे कि उन्हें हर वक्त मिन्टरी से बच के रहना होता है। जहां पहले वे बड़े गुटों में ही निकलते थे, अब वह दो-दो, तीन-तीन के गुटों में निकलने लगे और कभी-कभी तो अकेले भी। मिन्टरी ने यादृच्छिक पहरा लगाना जारी रखा। बलात्कार और गायब कर देने के आरोप बढ़ने लगे और गांव वालों ने हड़तालों की अनुष्ठानिक क्रिया से अपना विरोध दर्ज भी किया, लेकिन इस विशाल दुनिया में कौन ही कुछ ऐरे-गैरे पहाड़ियों की शिकायतों को गंभीरता से सुनता है। लोगों के अनुष्ठानों का सामना राज्य के अनुष्ठानों से हुआ और हमेशा की तरह जांच-पड़ताल की जादुई कार्रवाई से कुछ बाहर निकल कर नहीं आया।
ज़िंदगियों और सम्मान को खतरे का मतलब था कि गांव वालों ने कुछ और चीजें केवल देखीं लेकिन उन्हें विरोध दर्ज करने लायक नहीं समझा। गांव के ऊपर स्थित जंगल प्रत्यक्ष तौर से हल्का होने लगा। पहाड़ के नीचे जाती मिन्टरी की गाड़ियां अच्छे से ढकी तो रहती लेकिन कश्मीर के अप्रत्याशित हवा के झौंको के कारण गांव वालों को उनमें पड़ी लकड़ी की झलक दिख ही जाती। फिर अचानक से गांव में मिन्टरी के करीब माने जाने वाले कुछ लोगों द्वारा पट्टीआरा स्थापित हो गई। लोग सिर्फ तब अपनी परेशानी व्यक्त करने लगे जब पट्टीआरा की अत्यंत भूखी धार का पेट भरने के लिए उनके अखरोट के पेड़ों को काटा जाने लगा।
इस दौरान, आज़ाद का शिविर के पहरेदारों के साथ कई बार आमना-सामना हुआ। उन्होंने उससे उसके सवेरे इतनी जल्दी पहाड़ पर जाने का कारण पूछा, तो उसने जवाब दिया, ‘रोशनी धोनी है,’ जिसके बाद जम कर उसका मज़ाक उड़ाया गया। आखिर कौन अल्लाह का बंदा रोशनी धोने के लिए पहाड़ चढ़ता है! एक अवसर पर, मोकदम ने हस्तक्षेप किया, ‘ये मोट्ट है ना, आज़ाद, दुनिया की खबर नहीं है, मोट्ट है बेचारा, इजाजत दो, प्लीज।’ लेकिन पहरेदारों ने उसे शिविर से गुजरने की इजाजत देने से इनकार कर दिया। गांव की ओर वापस जाते वक्त मोकदम ने आज़ाद को थोड़ा झिड़काया, ‘त्से क्याज़ी कर्ण हज्जे कथा? सोद पेठ बनने ना कथा वानिन?’ (‘ऐसी उलटी-सीधी बातें क्यों करते हो? क्या एक बात भी सीधे तरीके से नहीं कर सकते?) आज़ाद ने जवाब दिया, ‘दानिश दरदस्ते कबेलाए सितमगरान दिरहम अस्त। पी आसने नशे फिक्र तरुन सेथा जान।’ (ज्ञान उत्पीड़कों के कबीले की मुद्रा है। समझ बढ़ाओ, फिर चाहे उसके बदले ज्ञान कम भी रह जाए।’)
आज़ाद भोर के समय आता गया। वह कंटीले तारों के नीचे से रेंगता हुआ जाता और लोहे के बने गेट को ज़ोर-ज़ोर से पीटने लगता। पहले कुछ दिन तो पहरेदार उस पर हंसे, फिर वे उसे नजरंदाज करने लगे, फिर वे उससे चिड़ने लगे और आखिरकार वे उस पर गुस्सा होने लगे। ‘साले, तेरी मां की . . . तेरी बहन का . . . सुबह-सुबह आ जाता है डिस्टर्ब करने, दोबारा आया तो गोली मार देंगे।’ अगले दिन, आज़ाद वापस गेट पर आ खड़ा हुआ। पहरेदारों ने गेट खोला और उसे अंदर ले लिया—सीधे उस कमरे में जिसको वे ‘सेल नंबर दो’ कहते थे। आज़ाद को पांच दिन तक टॉर्चर किया गया। उसके शरीर से बिजली दौड़ाई गई, एक इलेक्ट्रोड उसके मुंह में और दूसरा उसकी गांड में; उसके पिछवाड़े में, लंड में, आंखों में और कानों में लाल मिर्च घुसेड़ी गई; उसकी छाती और पैरों पर रोलर चलाए गए, जिससे उसकी हड्डियां टूट गईं। उसके जख्मों में नमक रगड़ा गया। कहा जाता है कि उनके सवालों का उसके पास एक ही जवाब था, ‘इन्नल इंसान लफ़ी खुस्र, इज़ इट गॉड’स पोज़िशन ओर मैन’स?’ (बेशक इंसान घाटे में है[4] . . . यह भगवान की पोज़िशन है कि इंसान की?’)
उन्हें समझ नहीं आया—वे समझना नहीं चाहते थे, उन्हें समझने की जरूरत नहीं थी—कि उनका बुरे से बुरा टॉर्चर भी उसको उनके सवालों के जवाब में, उनके हिसाब से बेतुकी बातें करने से नहीं रोक सकता। जब वे थक गए तो उन्होंने उसे गेट के बाहर फेंक दिया।
गांव वालों ने आज़ाद के क्षतिग्रस्त शरीर को वहां से उठाया और उसे वापस गांव ले गए। पूरे गांव ने मिलकर उसकी सेवा की। इस देखभाल और उसकी कभी हार ना मानने वाली अंतरात्मा के संयोजन के कारण इतनी बुरी हालत में होने के बावजूद भी आज़ाद का स्वास्थ्य सुधरने लगा।
कुछ दिन बाद, शिविर से गुजर कर जाने के अधिकार को लेकर गांव के कुछ युवाओं की गेट पर तैनात सैनिकों के साठ मुठभेड़ हो गई। मामला बिगड़ते-बिगड़ते आज़ादी के नारों तक बिगड़ गया। सैनिकों ने गोलियां चलाना शुरू कर दिया। चार लड़के वही कि वहीं मर गए। तीन और अस्पताल जाते वक्त खत्म हो गए। गांव के ऊपर दुख का साया छा गया।
जब आज़ाद का स्वास्थ्य थोड़ा और बेहतर हुआ तो उसने इन बच्चों की मौत की खबर सुनी। उसने एक छोटी लड़की से जाकर बिच्छू बूटी लाने को कहा। बिच्छू बूटी अपने पट्टीदार हाथों में लेकर वह उसे सहलाने लगा। फिर उसने कहा, ‘सोई, सोई, वाट्टे खावू।’ (‘बिच्छू बूटी, बिच्छू बूटी, पथ-भक्षक।’)
शिविर में अजीबों-गरीब घटनाएं होने लगीं। गांव वालों ने बताया कि मिन्टरी अपने बैरक और तंबुओं में सोने जाती लेकिन सुबह अपने आप को बाहर पाती। उस इलाके में बहुत सारे पोपलार के वृक्ष थे जिनको शिविर में बदला गया था। वे रहस्यजनक तरीके से बंकर और बैरक पर गिरने लगे, जिसके कारण बहुत से सैनिक घायल हुए और कम से कम पांच मारे गए। शिविर का सबसे बड़ा बैरक, जिसके अंदर कैन्टीन भी था, एक युवा चिनार पेड़ के इर्द-गिर्द बनाया गया था। चिनार ने एकाएक अपनी शाखाएं फैलाईं और ईंटों को और लोहे की चादरों को अस्त-व्यस्त कर दिया। इन वारदातों की पुष्टि तब हुई जब शिविर को छोड़ कर जाने के निर्णय की खबर मोकदम द्वारा उत्तेजित गांव वालों तक पहुंचाई गई। गांव वालों ने समझा कि सैनिकों को उनके पापों के फल मिल रहे हैं। एक बुढ़िया चिल्लाई, ‘येम्माव लोई आज़ाद मोट्टेस, खुदा-दोस्तास, येम्मान करी परवर-दिगार नेस्तनाबूद!’ (‘उन्होंने आज़ाद नाम के मोट्ट को पीटा, जो खुदा का दोस्त है; सब की खबर रखने वाला परवरदिगार उनका खात्मा कर देगा!’) उसके भाई ने जवाब में कहा, ‘अहानहे, येम मारीख, येम्मान सतावेख, तूहुंड खून हाय-हेख ना बदले।’ (‘हां बिल्कुल, जिन लोगों का उत्पीड़न हुआ और मृत्यु हुईं, उनका खून लौट कर इन्हें प्रताड़ित करेगा।’) जब मिन्टरी गांव से जाने लगी, तो उनके पीछे-पीछे कुछ पत्थर भी पहाड़ के नीचे गए।
इनचार्ज अफसर का अभी भी यह कहना है कि शिविर को वहां से हटाने का निर्णय रणनीतिक था और उसका ‘अलौकिक प्रतीत होने वाली’ घटनाओं से कुछ लेना देना नहीं था। उसके पास उन घटनाओं का स्पष्टीकरण करते व्याख्या भी मौजूद हैं। ‘देखिए, हमारा शिविर पहाड़ की ढाल पर स्थित था, तो यह तो प्राकृतिक है कि जब हम सोते थे, तो कभी-कभार लुढ़क कर बिस्तर से गिर जाते थे; और वे पोपलार, हो सकता है कि कुछ जवानों ने उनके नीचे मूत कर उनके बेस कमजोर कर दिए हों और इसलिए वे गिर गए। चिनार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा; कैन्टीन का कचरा वहां फेंके जाने के कारण उसको हमेशा से ज्यादा पोषण मिलने लगा होगा।’
लेकिन गांव के लोग इन सब बातों को सुनने के मूड में नहीं हैं। हवा में एक खुशबू छूट गई है, आजादी की खुशबू; एक विचार गाड़ा गया है, जीत का विचार; और पागलपन और सभ्यता की एवं शक्ति और शक्तिहीनता की श्रेणियां आने वाले सारे समय के लिए समस्यात्मक हो गई हैं।
[1] मोट्ट के कई अर्थ हो सकते हैं: सूफी, पागल, जिद्दी इत्यादि।
[2] अधिकतर मांसाहारी पर कुछ शाकाहारी भोजन के साथ पारंपरिक कश्मीरी दावत।
[3] गांव का मुखिया
[4] अल-कुरान। सूरह 103, आयत 2