रात के तीन प्रेमी

'हिंसा की नहीं जाती, करवाई जाती है।' यह वह वाक्य है, जिससे कोई भी आम हिंदुस्तानी कश्मीर की मौजूदा स्थिति को समझ सकता है, जिसे मीडिया और कथित सरकारी टट्टु-लेखकों ने अपने रिसर्च पेपरों में 'चरमपंथियों' के खिलाफ हिंदुस्तानी सेना का युद्ध घोषित कर रखा है। एक आम कश्मीरी क्यों इतना 'हिंसक' हो जाता है? और क्या वह वाकई 'हिंसक' है या उसे हिंसक बनने के लिए मजबूर किया गया है? क्या वजह है कि इतने लंबे समय से लाखों हिंदुस्तानी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद कश्मीर में हिंसा रुकने के बजाय बढ़ती ही जा रही है? आख़िर वे कौन से तथ्य हैं कि एक आम कश्मीरी का गुस्सा इतने चरम पर पहुंचा हुआ है कि जो लोग उनके साथ बदसलूकी करते हैं, उनके पास उन्हें मारने के अलावा और कोई ऑपशन नहीं बचता? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिन्हें प्रस्तुत कहानी के जरिये समझा जा सकता है। कि कैसे हिंदुस्तानी सेना की मौजूदगी ने एक आम कश्मीरी मियां-बीवी की निजी ज़िंदगी को भी इस कद्र प्रभावित किया कि रुक़सान जैसी लड़की ऐसा क़दम उठाने पर मजबूर हो जाती है, जिसे वह शायद ही आम स्थिति में अंजाम देने का सोचती।

रात के तीन प्रेमी

पटचित्र: गीता विल्सन  

अनुवाद: अक्षत जैन और अंशुल राय
स्तोत्र: Kashmir Lit 

सतही तौर पर रुक़सान के बारे में कुछ मामूली नहीं था। उसकी त्वचा में फ़रवरी के हिमपात की चमक थी और आंखें सर्दी की स्याह रात की तरह गहरी। उसका रवैया चिलय कलान1 जैसा था, उसके होंठों की अठखेलियां मर्दों के दिलों में ऐसे ही गर्मी छोड़ती थी, जैसे चिलय कलान में सूरज छोड़ता होगा। उसका यह अंदाज़ लोगों को एहसास-ए-जुर्म में मुब्तला कर देता। वह उन पर अपना प्रभाव तो छोड़ता था, लेकिन बिना किसी अंजाम तक पहुंचे, जैसे हिन्दुस्तानी सेना ने रुक़सान के पैदा होने के लगभग पच्चीस साल पहले कश्मीर पर कब्ज़ा किया था। मगर शायद रुक़सान ने कभी खुद को उन सख़्त अल्फ़ाज़ को भूलने नहीं दिया, जो उसकी खाला ने कहे थे, ‘रुक़सान नाम की कोई भी लड़की अपनी तकदीर में सात पति लिखा कर ही लाती है।’ वह अपने नाम को लेकर बेचैन रहती थी और शायद इसीलिए अपने उपनाम ‘लैला’ को ज़्यादा पसंद करती थी। उसको लगता था कि वह उपनाम उसकी आंखों के रहस्य के हिसाब से ज़्यादा मुनासिब है।

छियानबे की पतझड़ में उसने शब्बीर अहमद से शादी की। उसका पति मुजाहिद हुआ करता था, लेकिन एक दिन एनकाउंटर के दौरान उसकी बंदूक जाम हो गई और उसको हिन्दुस्तान के किसी अर्धसैनिक दल ने पकड़ लिया। चार साल तक अलग-थलग जेलों में सड़ाने के बाद उसे आखिरकार तब रिहा किया गया, जब डॉक्टरों ने यह बताया कि उसकी दाईं टांग अब कभी ठीक नहीं हो सकती। उसकी रिहाई के बाद उसके परिवार ने अपनी अधिकतर ज़मीन बेचकर उसके लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान खुलवा दी। धंधा बुरा नहीं था, लेकिन मुनाफे का ज़्यादातर हिस्सा नकद और सामग्री के रूप में इखवानी2 हजम कर जाते थे। शब्बीर की उनसे अक्सर झड़प होती थी, जिसकी वजह से उसकी कई बार अच्छी तरह से पिटाई भी हुई। उसके परिवार वालों ने सोचा कि शादी के बाद उसका कठोर रवैया शायद बदल जाए। लैला जवान, खूबसूरत और मेहनती लड़की थी। इलाके में उसका नाम बहुत अच्छा तो नहीं  था, मगर शब्बीर जैसे आदमी पर नकेल कसने के लिए वह एकदम सही थी।

शादी के प्रस्ताव पर लैला की प्रतिक्रिया सर्दी के दिनों में बादलों वाली धूप जैसी थी। उसे ‘पूर्व मिलिटेंट’ सुनने में उलझन महसूस हुई। ‘क्या कोई पूर्व औरत भी हो सकती है?’ उसने अपने ज़हन में उठते सवाल को अपनी करीबी सहेली साइमा के सामने रखा। ‘क्या कोई पूर्व सुंदरी भी हो सकती है?’ साइमा ने सुर में सुर मिलाते हुए कहा। वे दोनों शब्बीर से छिपकर मिलने गईं। लैला को उस दिन मिली शब्बीर की दिलकश मुस्कराहट, उसकी बातों की छटपटाहट, उसकी अनाड़ी और लगभग हास्यजनक चाल और उसकी हमेशा नम रहने वाली आंखें, जो कुछ कोनों से देखने पर ज़रा चमक-सी जाती थीं।

शादी के लगभग एक साल बाद लैला ने अपने हालात आखिरकार साइमा से बयान किए। शब्बीर अहमद एक सराहनीय पति था और लैला को भोर के हसीन सपने की तरह प्यार करता था। दोनों में काफी समानताएं थीं, जैसे उनका अड़ियलपन, बच्चों के लिए बेहद प्यार, बारिश में चलने की अथक गैर-कोशुर चाहत और शलजम के लिए अतृप्त भूख। मगर वह लैला के साथ अभी तक सेक्स नहीं कर पाया था। लैला ने सारे तौर-तरीके अपना लिए थे, नरमी एवं शालीनता, जिज्ञासा एवं हमजोलीपन, उत्साह एवं जुनून और आखिरकार संयम और बेफिक्री। मगर कुछ भी काम नहीं किया। सच तो यह है कि शब्बीर पहले से भी ज़्यादा चिड़चिड़ा हो गया था। उसकी चिड़चिड़ाहट को घर पर तो किसी तरह बर्दाश्त कर लिया जाता था, लेकिन दुकान पर यही रवैय्या कई बार इखवानियों और पास के कैम्प के हिंदुस्तानी फौजियों से पिटने का सबब भी बन चुका था। साइमा ने लैला को सब्र करने का बोला; उसके पति को भी कभी-कभार ‘खड़ा करने में तकलीफ’ होती थी। उसके ऐसा बोलने पर लैला ने अपनी भौंहों को मटकाया और उसके साथ खूब मसखरी की। इसी दौरान वे दोनों यादों के उड़नखटोले पर बैठ बीते दिनों के खुशबूदार सफ़र पर निकल गए और जब अतीत के बादल छंटे तो साइमा ने लैला से कहा कि वह शब्बीर के साथ थोड़ा और वक़्त बिताए तो शायद कुछ बात बन जाए। उसने लैला को दुकान पर शब्बीर का हाथ बंटाने की सलाह दी।

यह सुनते ही शब्बीर की त्योरियां चढ़ गईं। उसको दुकान पर किसी की सहायता की ज़रूरत नहीं थी। वैसे भी लैला के पास घर में ही काफी काम था। वह उस पर और बोझ नहीं डालना चाहता था। लैला ने अपने मां-बाप और सास-ससुर को भी इस मसले में शामिल कर लिया। आख़िरी फैसले में शब्बीर की बात नहीं चली और लैला का दुकान में हाथ बंटाना तय हुआ। इसके दौरान, शब्बीर का उग्र विरोध उसके क्रोधी स्वभाव का एक और उदाहरण बताकर ख़ारिज कर दिया गया।

इस बात को साफ़ होने में कुछ ही हफ्ते लगे कि दुकान में लैला का होना समझदारी भरा फैसला नहीं था। इखवानी और सैनिक उसकी तरफ ऐसे देखते थे, जैसे वह एक और इलेक्ट्रॉनिक आइटम हो, जिसके साथ वह आसानी से छेड़छाड़ कर सकते थे। शब्बीर उनकी हवस भरी नीयत में बड़ी उद्दंडता से दखलंदाजी करता। बस, उसे अक्सर ही आर्मी कैंप बुलाया जाने लगा। अब ये बात शीशे की तरह बिलकुल साफ़ थी कि ऐसा बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला था।

एक दिन उसने अस्र की नमाज़ के बाद दुकान में ताला मारा और लैला को सीधे पास के मुग़ल गार्डन ले गया। लैला बाहर घूमने की आस में बहुत ख़ुश तो थी, लेकिन शब्बीर की खामोशी और एकदम सीधी चाल में कोई बात भी थी, जो उसके मन में शुब्हा पैदा कर रही थी कि सब ठीक नहीं है। तो भी वह शब्बीर के बगल में चुपचाप अपनी ख़ुशी को छिपाने की पूरी कोशिश करते हुए चली जा रही थी। शब्बीर ने गेट के पास से थोड़ा नादिर-मोंजी3 खरीदा। वे एक चिनार के पेड़ के पीछे बैठ गए और गार्ड ने देखा कि शब्बीर अपना सिर लैला की गोद में रखे लेटा है। कुछ समय बाद शब्बीर उठ बैठा और वे दोनों एक-दूसरे से बातचीत करने लगे, जो जल्द ही झगड़े में तब्दील हो गई। उनकी चिल्ल-पों गेट तक सुनाई पड़ने लगी। तब उनको वहां से शांतिपूर्वक जाने की हिदायत देने के लिए एक गार्ड भेजा गया।

उसके बाद उन दोनों को जोड़ने वाली गांठ जल्दी ही ढीली पड़ने लगी। लैला ने दुकान में काम करना जारी रखा, लेकिन उसका रवैया पूरी तरह से बदल गया। इखवानियों और सैनिकों के प्रति उसका रूखापन कम होने लगा। वे लोग अब दुकान पर जमघट लगाने लगे। लम्बे और हैंडसम इखवानी कमांडर बख्तावर के प्रति लैला का व्यवहार लगभग दोस्ताना हो गया। शब्बीर लाचारी से चुपचाप यह सब देखता रहा। अधिकतर वक़्त उसको लैला से बाग में की गई बातचीत का पछतावा होता। अगर उसे ख़ुदकुशी करने के या जानलेवा विचार आते थे तो न तो उसने उन पर अमल किया और न ही उनको किसी के साथ साझा करने का सोचा। बदले में बख्तावर और उसके आदमी शब्बीर के प्रति कम निर्दयी हो गए। लैला यहां वहां के बहाने बताकर दुकान से गायब रहने लगीकुछ सहमी और आवारा किस्म की अफवाहें शब्बीर के कानों तक पहुंचने लगीं। लैला बख्तावर से अक्सर ऐसी जगहों पर मिलती, जहां उससे नहीं मिलना चाहिए था। शब्बीर रात को जब बातों-बातों में इस बात का ज़िक्र करता तो लैला साफ़ मना कर देती। हालांकि उसकी आंखे कुछ और ही कहानी बयां करतीं। शब्बीर लैला की आंखों में न जाने क्या देखकर डरा हुआ महसूस करता।

कुछ महीनों बाद दीवाली पर बख्तावर लैला को पास के कैंप में मेजर सुशील देशपांडे से मिलवाने ले गया। जब बख्तावर ने उसका परिचय दिया तो उसने बख्तावर की गलती सुधारी। उसका नाम लैला नहीं, रुक़साना था। पूछने पर उसने मेजर को बताया कि उसके नाम का मतलब है जंगली डान्सर। मेजर को अपनी नज़रें घुमानी पड़ीं। बाद में लैला ने मेजर को बताया कि उसे मेजर की मूंछें कितनी प्यारी लगी।

पतझड़ के बाद सर्दी और सर्दी के बाद बसंत; वक़्त यूं ही करवटें बदलता गया और यह बात साफ़ हो गई कि मेजर और बख्तावर दोनों लैला के प्यार में डूब चुके हैं। बख्तावर लैला को बांटने का ख्याल बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह लैला को जलती हुई सिगरेटों से टॉर्चर करने लगा। लैला ने कसम खाई कि उसका मेजर से कोई लेना देना नहीं, जबकि मेजर हाथ-धोकर पागलों की तरह उसके पीछे पड़ा था और उसके परिवार को मारने की धमकियां भी दे रहा था। बख्तावर ने उससे कहा कि वह उस पर भरोसा नहीं करता। लैला ने उसे लगभग लताड़ते हुए कहा कि वह बहुत अच्छे से यह जानता है कि लैला का दिल फ़रवरी में गिरने वाली बर्फ जितना साफ है, लेकिन वह उस पर भरोसा सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहता, क्योंकि वह मेजर से डरता है। लैला ने उसकी अवहेलना करते हुआ कहा, ‘आखिरकार, तुम तो बस हिन्दुस्तानी सरकार के गौरवान्वित नौकर हो।’ बख्तावर ने अपने दिल की सारी भड़ास उसे पीट कर निकाली

अगले शुक्रवार को वह मेजर से मिलने गई। उसकी यह दशा देखकर मेजर भड़क गया। मेजर के पूछने पर उसने बख्तावर के बारे में बताया। गुस्से में मेजर ने अपनी मुट्ठी टेबल पर दे मारी। ‘वो लांड़ चाटने वाला कुत्ते का पिल्ला। मैं उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा जो वो ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगा।’

‘मेहरबानी करके जल्दबाजी में कोई कदम ना बढ़ायें सुशील जी,’ लैला ने मिन्नत की, ‘अगर मैं यहां पर नहीं भी रही तो भी मेरा परिवार हमेशा खतरे में रहेगा। बख्तावर यहीं का लोकल है और उसकी इलाके में अच्छी पकड़ है।’ वह थोड़ा रुकी और फ़िर मानो जैसे उसका गुस्सा उसकी आवाज़ में उतर आया, ‘उसके जैसे लोग वहशी दरिंदे होते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि सरकार उनको खिलाती ही क्यों है?’

मेजर टेबल के एक हिस्से को घूर रहा था। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, ‘तुम क्या कहती हो, हमें क्या करना चाहिए?’

लैला मुस्कुराई और मेजर को समझाने लगी, ‘हमें बहुत सावधानी से प्लान तैयार करना पड़ेगा। मेरे ख्याल में आप घर पर आई कोई इमरजेंसी के बहाने छुट्टी पर चले जाएं। एक हफ्ते दूर रहिए और अगले रविवार रात को आकर मुझे उठा ले जाइए। अफवाह फैला दीजिए की अज्ञात बंदूकधारियों ने मेरा अपहरण कर लिया। मैं काफी नामवर हूं; लोग सोचेंगे कि मिलिटेंट ने मुझे वाकई अगवा कर लिया होगा। तब आप मेरे ठहरने का कहीं और बंदोबस्त कर सकते हैं और एक हफ्ता बीतने पर वापस आ सकते हैं; फिर आप अपनी ड्यूटी संभाल लें और अपना तबादला जल्द से जल्द कहीं और करवा लें। किसी को कानों कान खबर तक नहीं होगी।’ लैला नरमी से, मगर तेज़ रफ्तार में बोलती गई। मेजर अपना सिर हिलाता गया और उसका चेहरा चमकता गया। आख़िरकार, उसके चेहरे पर एक तिरछी मुस्कराहट खिल आई।

‘रुक़साना तुम कमाल की हो। मैं कितना खुशकिस्मत हूं कि मुझे तुम मिली।’

‘नहीं, मैं किस्मत वाली हूं,’ लैला ने मेजर के पीछे खड़े होकर कहा। उसने अपने हाथ मेजर की गर्दन पर डाले और उसकी मूंछ को सहलाने लगी।

‘लेकिन अगर मैंने तुम्हारे अपहरण पर गुस्सा और नाराजगी ज़ाहिर नहीं की तो लोगों को शक हो सकता है,’ मेजर ने ऐसे ही मज़ाकिया अंदाज़ में कहा। लेकिन लैला ने कुछ दूर की सोचते हुए कहा,

‘तो फिर रचो नाराजगी और गुस्से का स्वांग, जितना ज़्यादा रच सकते हो। बख्तावर को पकड़ो और उसे अच्छे से सबक सिखाओ, ताकि ढोंग थोड़ा ज्यादा सच्चा भी लगे। इस बहाने अपना बदला भी पूरा कर पाओगे और शक भी गायब हो जाएगा।’ यह कहकर लैला खींसे निकालने लगी, ‘मगर पहले आपको बख्तावर से मिलना होगा और उसे बताना होगा कि मुझे आप में कोई दिलचस्पी नहीं है; कि मैंने आपकी सारी कोशिशें ठुकरा दी हैं।’

‘तुमने तो सब सोच रखा है मेरी जान,’ मेजर उत्साह से भर गया। योजना फुलप्रूफ थी। सो उसने इमरजेंसी के कारण घर जाने का नाटक किया। हवाईअड्डे तक छोड़ने के लिए बख्तावर को बुलाया और अगले रविवार वह लैला को उठाने आ गया। लैला ने उसे मुग़ल गार्डन में चिनार पेड़ के पीछे इंतज़ार करने को कहा। उसने एक स्कार्फ़ पहन रखा था, जो लगभग उसका चेहरा ढके हुए था। जब उसने क़दमों की आहट सुनी तो वह मुस्कुराया और उठ खड़ा हुआ।

टोटल तीन गोलियां चली। मुस्कराहट मेजर के चेहरे पर जमी की जमी रह गई। बाद में महाराष्ट्र में उसके परिवार को एक चिट्ठी पहुंची, जिसमें बताया गया कि उनका बेटा किसी सीक्रेट ऑपरेशन में मारा गया है। वह बड़ी बहादुरी से लड़ा—यह बात अंत में कुछ इस तरह से लिखी हुई थी कि मानो बिल्कुल आखिर में यह ख़्याल आया हो।

मेजर सुशील देशपांडे की मृत्यु के दो दिन बाद बुरी तरह से कटा-फटा बख्तावर का शव पास की एक नदी से बरामद किया गया। उसके कटे हुए लिंग और अंडकोष उसके मुंह में ठूंसे हुए थे। उसके सीने और चूतड़ों पर लंबे चीरे के निशान थे और उसकी नाक गायब थी। पत्रिकाओं में छपा था कि एक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी के लीडर की बड़ी बर्बरता के साथ कुछ अज्ञात तत्वों ने हत्या कर दी।

उन दिनों अखबार शाम तक ही पहुंचा करते थे। शब्बीर रात के खाने के लिए दस्तरख़्वान पर बैठ चुका था, जब मौहल्ले के एक लड़के ने उसे अखबार लाकर दिया। जब उसने अख़बार के छठे पन्ने पर बख्तावर की नाक के साथ और नाक के बिना छपी दो तस्वीरें देखीं, तो उसने लैला की ओर इस तरह देखा कि लैला को आकर एक नज़र घुमानी ही पड़ी शब्बीर ने बहुत कोशिश की लेकिन वह लैला के चेहरे पर कोई हरक़त नहीं भेद पाया।

‘तुम रंडी हो,’ आख़िर में उसने चावल को लगभग गले में घोंटते हुए कहा।

‘शब्बीरा, मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि अपनी ज़बान इन ग़लीज़ शब्दों से मैली मत किया करो। लो, थोड़े और शलजम खाओ। आज तो ये मज़ेदार बने हैं,’ उसने शलजम के गाढ़े सालन का एक और कलछुल उसकी प्लेट में परोसते हुए कहा।

***

वे दोनों चिनार के पेड़ के पीछे जाकर एकांत में बैठ गए। नादिर-मोंजी स्वादिष्ट थी। शब्बीर के साथ तंज़ीम4 में और फिर जेल में रहे उसके दोस्त जावेद अहमद ने उससे कहा था कि लैला को अपनी तकलीफ के बारे में बताने का सबसे अच्छा तरीका उसके सामने सोने का ढोंग करना है।

‘जावेदा, तुम तो जानते हो कि एक बार बिस्तर में गिरने पर मैं तुरंत ही सो जाता हूं।| मैं नाटक कर ही नहीं पाऊंगा, मैं सच में सो जाऊंगा।’

अपने स्वभाव के विपरीत जावेद की हंसी छूट गई । उसने कहा, ‘तो फिर लैला को कहीं बाहर ले जाओ और वहां सोने का नाटक करो।’

शब्बीर को यह तरकीब पसंद आई।

तो अब वह लैला से पूछ रहा था कि क्या वह उसकी गोद में अपना सिर रख सकता है। वह मुस्कुराई और बोली, ‘ख़ुशी से।’ उसने अपनी आंखें कुछ देर बंद की और फिर धीरे से कुछ बड़बड़ाने लगा। लैला ने अपना चेहरा उसके चेहरे पर झुका दिया। वह कह रहा था, ‘प्लीज, सुशील जी, आप मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते। मेरी पॉटी निकल रही है। प्लीज प्लीज’ उसने लैला की गोद में करवट ली, उसकी ठुड्डी लगभग लैला के चेहरे को सहला रही थी। ‘बख्तावर तुम मेरे भाई जैसे हो। मैं और सहन नहीं कर सकता,’ वह थूक घूंटने लगा और सिसकियां भरने लगा, ‘मैं ठीक से बैठ नहीं पा रहा हूं। मुझे बहुत गीला-सा लग रहा है। ऐसा लग रहा है कि नमी नीचे से मेरे बदन के अंदर लगातार घुसती ही जा रही है।’ लैला ने अपने आंसू पोंछे ताकि उनकी टपकन शब्बीर को जगा ना दे।

खैर जल्द ही वह वैसे भी उठ बैठा। लैला अपने चेहरे पर जबरन हंसी ले आई।

‘मैं कितनी देर से सोया हुआ हूं?’ शब्बीर ने पुछा।

‘ज़्यादा देर नहीं।’

उसने अपनी आंखें रगड़कर लाल कर लीं।

‘मैं इन दिनों हमेशा ही थका रहता हूं।’

दोनों ख़ामोशी की चादर में लिपटे हुए थे। लैला ने कई बार कुछ कहना चाहा लेकिन हर बार ही लफ़्ज़ अपना सफ़र अधूरा छोड़ देते। एक अरसे बाद उस ख़ामोशी को तोड़ते हुए लैला ने पूछा, ‘क्या तुम मुझसे कुछ कहना चाहते हो?’

‘हां, मेहरबानी करके दुकान पर आना छोड़ दो।’

असहमति से ज़्यादा निराशा में सर हिलाते हुए उसने पूछा, ‘क्यों? मुझे असल कारण बताओ कि तुम क्यों नहीं चाहते कि मैं दुकान पर आऊं और मैं वादा करती हूं कि मैं उस पर गौर करूंगी।’

‘तुम्हें असल कारण जानना है? तो सुनो, मुझे नहीं पसंद जब वे मादरचोद कुत्ते तुम्हें ऐसे घूरते हैं।’

‘अपनी ज़बान गंदी मत करो शब्बीरा,’ लैला ने उसे डांटा, और फिर नरमी से कहा, ‘क्या ये ही असली कारण है?’

‘हां,’ शब्बीर ने उसकी तरफ बेचैनी से देखा।

‘नहीं, मेरा मतलब है कि क्या कोई और ऐसी राज़दार बात है, जो तुम साझा करना चाहते हो?’ 

‘हमारे बीच कोई राज़दार बात नहीं हैं।’

लैला ने अपना अगला वाक्य अपने मुंह में ही समेटते हुए कहा, ‘क्या ऐसा हो सकता है कि मेरा मुजाहिद अपने सपनों में कोई जंग अकेले लड़ रहा है?’

शब्बीर ने अपनी खून भरी आंखें उसकी ओर तरेरी। उसने एक घास का तिनका उठाया और दूसरी घास को काटने लगा।

‘हमें अकेले ही लड़ना होता है। हमेशा। यही एक सीख है, जो ज़िन्दगी ने मुझे दी है। हथियार भी वफादार नहीं होते। वे भी तब ही साथ छोड़ देते हैं, जब उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।’

‘शब्बीर, मैं तुम्हारी बीवी हूं।’

‘क्या तुम चाहती हो कि मैं ख़ुदकुशी कर लूं?’ शब्बीर गुस्से में बोला।

लैला ने अपनी आंखें उस पर गड़ा दीं।

तभी वे दोनों एक दूसरे पर चिल्लाने लगे। गहरा होता अंधेरा उनके चिल्लाने को और भी बुलंद कर रहा था। जब एक गार्ड ने उनके पास आकर खंखारा तो वे उठ कर चले गए।

आदिल शेख के लिए             

 

शब्दकोश

चिलय कलान = शाब्दिक अर्थ: ‘लम्बा कारावास’। कश्मीर में सबसे सर्द समय 21 दिसम्बर से 31 जनवरी तक होता है।

इखवानी = हिन्दुस्तानी सरकार समर्थक कश्मीरी मिलिटेंट।

नादिर-मोंजी = कश्मीर में बनाया जाने वाला पकवान। इसे कमल के तने को बेसन में डुबो कर तलकर बनाया जाता है। 

तंज़ीम = कश्मीर में हिंदुस्तान से ‘आज़ादी का आंदोलन’ को तंज़ीम बोलते हैं। 

                    

(इस कहानी को एडिट करने में शहादत खान और अविनाश द्विवेदी ने मदद की है)

आरिफ़ अयाज़ परे
आरिफ़ अयाज़ परे

आरिफ़ अयाज़ परे दुनिया के प्रमुख पक्षी सुरक्षा विश्लेषक हैं| वे अपने खाली समय में लोगों को देखना पसंद करते हैं| आरिफ़ अयाज़ परे दुनिया के प्रमुख पक्षी सुरक्षा विश्लेषक हैं| वे अपने खाली समय में लोगों को देखना पसंद करते हैं|