अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की रचना की और ब्राह्मणों ने इस मिथक की कि ‘इंडिया’ भारत है (भाग 1)

"मैं यहां ऐतिहासिक रूप से रेखांकित कर रहा हूं कि कैसे उपनिवेशवाद, प्राच्यवाद एवं राष्ट्रवाद ने पूर्ववर्ती और बिल्कुल स्थानीय ब्राह्मण स्वभाव को राष्ट्रीय, प्राकृतिक और सर्व-स्वीकृत बनाकर उसे हर चीज के ऊपर कंट्रोल दे दिया। यह एक ऐतिहासिक विकास है। राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद ने ब्राह्मणवाद की मदद की। पर कुछ लोगों ने इसका लाभ यह कहकर भी उठाया कि ये तो अंग्रेज थे, जिन्होंने जातियों का विकास किया। इसीलिए मैं भौगोलिक स्थिति की चर्चा करूंगा—ब्राह्मणों का असर कुछ निश्चित क्षेत्रों में ही था, इसका मतलब है कि वे अंग्रेजों के आने से पहले से कुछ स्थानों पर प्रभावी थे, मगर हर जगह नहीं। अंग्रेजों ने स्थानीय प्रभाव को सामान्य प्रभाव समझा और यही आधुनिक भारत का राष्ट्रीय एवं सार्वभौमिक सत्य बन गया। इसीलिए इसे आज ब्राह्मण स्वभाव के रूप में जाना जाता है। बहुत से मध्यमवर्गीय मूल्य हमारे हिसाब से ब्राह्मणवादी हैं, और वे सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है। सभी जन, चाहे वे दलित हों या बहुजन, इससे प्रभावित हैं। मध्यमवर्गीय जीवन ब्राह्मणीय तौर-तरीकों से ही प्रदर्शित होता है।"

अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की रचना की और ब्राह्मणों ने इस मिथक की कि ‘इंडिया’ भारत है (भाग 1)

 

स्त्रोत: प्रबुद्ध: सामाजिक समानता का दस्तावेज (2018)
अनुवादक: अशोक थुडगार  

  
यह इंटरव्यू डॉ. कार्तिक नारायण द्वारा रिकॉर्ड किया गया और राकेश एस राम ने इसे लिपिबद्ध किया। यह पीजेएसई के विशेष अंक ‘ब्राह्मण स्वभाव-इतिहास के आईने में आधिक्य, श्रम और संपत्ति तक अविकल पहुंच,’ में प्रकाशित हो चुका है।

्रश्न 1: ब्राह्मण ग्रंथों में `ब्राह्मण स्वभाव’ के बारे में वर्णन है। क्या कोई ऐसी चीज है जिसे `ब्राह्मण स्वभाव’ कहा जा सके? ऐसे कौन से गुण हैं जिनसे ब्राह्मण को बाकी सबसे अलग किया जा सकता है?

यह ज़िंदगी को देखने का ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण है, जिसमें मनुष्य मूल रूप से अपने गुणों के हिसाब से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इत्यादि में विभाजित हो जाते हैं। ये अलग-अलग समूह अलग-अलग स्वभाव से जाने जाते हैं, जो निश्चित विशिष्टता रखते हैं और जो पदानुक्रम में उनका स्थान नियत करते हैं। साथ ही यह भी तय होता है कि वे किन अधिकारों का प्रयोग करेंगे तथा उन पर किन अधिकारों का प्रयोग होगा। पर आधुनिकता के उभरने से ये सभी बातें अपदस्थ हो गई हैं। ज्ञानोद्दीप्ति (एन्लाइटंमेंन्ट) और आधुनिकता ने यह बता दिया है कि सभी मनुष्य अपने जन्म की परिस्थितियों में विविधता के बावजूद एक ही हैं।

तो सभी मनुष्यों की श्रेणी एक ही है और ऐसी कोई चीज नहीं है, जो ब्राह्मण स्वभाव, क्षत्रिय स्वभाव, शूद्र स्वभाव आदि कही जा सके।

हाल-फिलहाल के ब्राह्मण वर्चस्व को स्वभाव की इस धारणा के माध्यम से समझने के बजाय मेरा सुझाव है कि ब्राह्मणों के वर्चस्व को ऐतिहासिक रूप से समझा जाए। उनकी उन ऐतिहासिक और राजनीतिक गतिविधियों से समझा जाए, जिनके कारण परिस्थितियां सचेत, मानवीय, सामूहिक व्यवहार से इस मुकाम तक आईं। जो कार्य उन्होंने किए या नहीं किए, और दूसरों के द्वारा किए गए, या नहीं किए गए। दोनों साथ में बताते हैं कि क्यों और कैसे ब्राह्मण आज की तारीख में उच्चस्थ हैं।

प्रश्न 2: हम ब्राह्मण स्वभाव से समझते हैं ‘सदियों तक अधिशेष, श्रम एवं संपत्ति पर निरंतर रूप से अपना हक जमाए रखना’। हमारी दृष्टि में इसका मतलब सत्ता पर भी निरंतर रूप से अपना हक़ जमाए रखना है। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं?

मैंने कहा है कि यह उनके सचेत ऐतिहासिक कार्य हैं, जिनको हमें समझना है। आज की स्थिति की समझ हमें इतिहास से मिल सकती है, जो कि परिवर्तनशील है, और न कि स्वभाव से, जो कि गैर परिवर्तनशील है। क्योंकि समस्या ब्राह्मणों का वर्तमान प्रभुत्व है। यदि आज ब्राह्मण सर्वोच्च नहीं होते तो हम यहां बैठकर ब्राह्मण स्वभाव पर चर्चा नहीं कर रहे होते। चूंकि वह हमारे सिर के ऊपर बैठा तांडव कर रहा है, हम उसे समझना चाहते हैं कि यह कैसे कायम रखा जा रहा है, कि कैसे ब्राह्मण इस प्रभुत्व तक पहुंचे हैं और वे कैसे इसे बढ़ावा दे रहे हैं।

मैं केवल इतना कहूंगा कि उनका शिखर तक पहुंचना, उनकी वर्तमान सर्वोच्चता, स्त्री और पुरुषों द्वारा इतिहास में व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर किए गए ठोस कार्यों के कारण है; कुछ ऐतिहासिक परिस्थितियां ब्राह्मणों के पक्ष में गईं और कई चीजें दूसरों के खिलाफ; कई चीजें ब्राह्मणों ने की और नहीं की, कई चीजें दूसरों ने की और नहीं की, इन दोनों का मिलकर जो परिणाम निकला वह आज हमारे ऊपर ब्राह्मणों के वर्चस्व को समझाता है। स्वभाव ब्राह्मणवादी मिथक है; पूर्व आधुनिक काल में उन्होंने इस मिथक को गड़ने और फैलाने में धर्म, धार्मिक साहित्य, धार्मिक कार्यक्रम, धार्मिक रीति-रिवाज, त्यौहार, सामाजिक रीति-रिवाज और परम्परा का दबे-छुपे ढंग से प्रयोग किया। पर प्रबुद्धता, आधुनिकता और तार्किकता का नया सवेरा अब सभी जगह आ चुका है और इस मिथक का भण्डा फूट गया है। अब ऐसा कुछ नहीं है, जिससे कहा जा सके कि ब्राह्मण प्राकृतिक रूप से सर्वोच्च हैं।

प्रश्न 3: ब्राह्मण स्वभाव, जो कि असलियत में सिर्फ बाकी समाज पर एक दावा है, ने कैसे इस प्रकार की स्वीकृति प्राप्त कर ली है कि ब्राह्मण बाकी पूरे समाज के लिए ऐसे नियम-कानून बना सकें जिससे हर परिस्थिति में उनके हितों की रक्षा होती रहे?

ऐसे शब्द—सदियों तक अधिशेष, श्रम एवं संपत्ति पर निरंतर रूप से अपना हक जमाए रखना—आधुनिक सोच का नतीजा हैं। ब्राह्मण सत्ता तक कैसे पहुंचे? पूर्व आधुनिक काल में शीर्ष पर बने रहने का प्राथमिक साधन काफी स्थूल रूप में धर्म था; धर्म और जाति तथा जातिगत कार्य-व्यवहार, पदानुक्रम में जाति की स्थिति, इन सभी को पवित्र ग्रंथों की सहायता से हमेशा मजबूती प्रदान की जाती रही। इन सभी लेखन में कोई पवित्रता नहीं है; ब्राह्मण स्वभाव का अनुष्ठान करता यह सारा लेखन मिथकीय, अश्लील और अंधविश्वास से भरा है; यह लेखन ऐसी जाती प्रथाओं का अनुष्ठान करता है, जो किसी भी व्यक्ति की ज़िंदगी में महत्वपूर्ण अवसरों पर—जन्म, मरण, विवाह, आदि—ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक बनाती हैं। ये मुख्य तरीका है जिससे ब्राह्मणीय उच्चता स्थापित और संरक्षित की जाती है।

और यह याद रखना भी जरूरी है कि यह उच्चता सभी जगह प्रचलित नहीं थी। जैसे ही आप एक इंडिया की बात करते हैं, यह उस धारणा का हिस्सा बन जाता है। जब भी आप कहते हैं कि इंडिया एक है तो यही एकमात्र धारणा मजबूत होती है। ब्राह्मण उपमहाद्वीप के बहुत ही चुनिंदा हिस्सों में प्रभावी थे और उनका स्वभाव एवं प्रभुत्व बस वहीं तक सीमित था। ऐसा नहीं है कि इंडिया शुरू से ही ब्राह्मणवाद की चपेट में था, परंतु ब्राह्मणवाद से प्रेम अथवा घृणा करने वाले दोनों गुटों को ही ऐसा कहना पसंद है। वे यह कहना पसंद करते हैं कि हम पिछले 10,000 वर्षों से ब्राह्मणों के दास रहे हैं। यह सच नहीं है, बिल्कुल भी सच नहीं है।

इंडिया एक भौगोलिक और ऐतिहासिक व्यक्तित्व है। अगर ब्राह्मणत्व का मतलब विभिन्न चीजों तक अपनी पहुंच निरंतर रूप से जमाए रखना है तो यह सब इतिहास में प्रारम्भ हुआ है। इसका अपना विकास और पतन हुआ है। मगर चूंकि अब हमें ऐसा लगता है कि यह पूरे इंडिया में लगभग प्राकृतिक है तो हम इस भाव को अतीत में खींच लेते हैं और कहते हैं कि हमेशा से सब ऐसा ही रहा होगा।

जैसा कि मैंने कहा, पूर्व आधुनिक काल में धर्म ही प्राथमिक हथियार था। इसी कारण आप ब्राह्मणों के पवित्र लेखन में ब्राह्मणीय स्वभाव पाते हैं। पर मेरे लिए वह पवित्र लेखन नहीं है। ये उन्हीं चंद जगहों पर पाया जाता था, जहां पर ब्राह्मणवाद प्रचलित था: जिसका मतलब है ब्राह्मण आराम से बैठें और दूसरों द्वारा उत्पादित अधिशेष का उपभोग करें।

आर्थिक दृष्टि से यह व्यवहार्य होना चाहिए और इसकी व्यवहार्यता उपमहाद्वीप के नदी घाटी जैसे कुछ निश्चित क्षेत्रों में ही थी। सभी मैदानों में, तेलंगाना के कई हिस्सों में, डेक्कन के पठारों में, मध्य प्रदेश एवं झारखंड के रेगिस्तानों में, और बहुत से ऐसे क्षेत्रों में, जहां जीवन जीना अत्यंत कठिन है और जहां सबको खाने का उत्पाद करने के लिए श्रम करना पड़ता है, वहां ब्राह्मणत्व नहीं पनप सका।

साधारणतया ब्राह्मणत्व का मतलब है, यहां हम अपने नाखून गंदे करने के लिए नहीं हैं, शारीरिक श्रम निन्दनीय है, हमारा स्वभाव कुछ आध्यात्मिक और पारलौकिक तत्व के लिए है, ‘शूद्र’ स्वभाव यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम हमें पालो और हमारी सेवा करो। इसीलिए शूद्रों को धन-संपत्ति इकट्ठा नहीं करना चाहिए। उन्हें हमें धन दे देना चाहिए। ब्राह्मणों को उनकी किसी भी चीज को हड़प लेने का अधिकार है।

अब जैसा कि मैंने कहा कि ऐसा वहीं हो सकता है जहां पैदावार ज्यादा हो। जहां पांच मेहनत करें और दस खा सकें, क्योंकि ब्राह्मणों की जीवन पद्धति आलसी भोगी की है। शारीरिक श्रम ब्राह्मणों के लिए नहीं है। उसके कर्तव्यों में केवल वेद ऋचाओं का पठन-पाठन ही है, जबकि अन्य उसके लिए अन्न उपजाते, पकाते और देते हैं।

कई क्षेत्रों में यह प्राकृतिक रूप से सम्भव नहीं है। जिन क्षेत्रों में यह सम्भव था, वहां उन्होंने गैर-ब्राह्मणों के श्रम से पैदा अधिशेष का उपभोग करके अपनी महत्ता कायम रखी, इस छलावरण के साथ कि यह उनका स्वभाव है, दूसरों के स्वभाव से भिन्न। यह ज़ाहिर है कि उनका सारा संघर्ष अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार को बढ़ाने के लिए था, जिससे वह और ज़्यादा क्षेत्रों पर अपना वर्चस्व जमा सकें, और इस कार्य के लिए तथाकथित राजा बड़े कामगार रहे। क्योंकि, जहां वे प्रभावशाली थे, नदी-घाटी क्षेत्र जहां पैदावार अच्छी थी, उन्होंने राजाओं को औपचारिक समारोहों में अपने श्लोकों एवं पूजा-पाठ से वैधता प्रदान की। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को भी वैधता प्रदान की। इस तरह ब्राह्मणों और क्षत्रियों का संबंध विकसित हुआ और क्षत्रिय क्षेत्रों के विजय अभियान के लिए प्रस्तुत हुए। तो क्षत्रिय ब्राह्मणों से कहने लगे, ‘हम और स्थानों की विजय के लिए जाएं तो क्या आप उन स्थानों पर आकर रहेंगे?’ ‘हां, पहले तुम जाओ और विजयी हो। जीतने की प्रक्रिया में हम तुम्हें कोई समर्थन नहीं देंगे, यह तुम्हारी समस्या है। तुम्हारा स्वभाव ही युद्ध करना है, वर्णाश्रम धर्म की स्थापना करना है, जिससे कोई हमारे वर्चस्व पर सवाल उठाने की हिम्मत न करे। विजयी हो, हम आएंगे और तुम्हारा राज्याभिषेक कर तुम्हें राजा बनाएंगे। राज्य में सुभिक्ष, समरसता और सुख-समृद्धि होगी।‘

जहां एक हाथ पर यह प्रक्रिया चल रही थी, वहीं दूसरे हाथ पर लोग ब्राह्मणों और क्षत्रियों के वर्चस्व में हुए अपने दासकरण का निरंतर विरोध भी कर रहे थे। गंगा घाटी क्षेत्र में, जैसा हम आज समझते हैं, इसी कारण बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा। जातिगत दमन से जाति विद्रोह भी शुरू हुआ। ये दोनों चीजें नदी-घाटी क्षेत्र में ही हुईं।

लोगों ने जाना कि वे अपने श्रम से काफी ज्यादा अधिशेष पैदा कर रहे हैं, पर उसे किसी और को दे देना होता है, वह हड़प लिया जाता है। अंततः यह स्वाभिमान का प्रश्न बन गया। यह क्या है, काम मैं करूं और खाए कोई और? इन्हीं क्षेत्रों में जाति भी उभरी अथवा प्रतिजाति संघर्ष भी उभरा। जहां ब्राह्मणीय प्रभुत्व नहीं था, वहां जनसमुदाय इस तरह से बंटा नहीं| इसका मतलब यह नहीं है कि वहां जन्नत विकसित हो गई थी। वहां भी लोग विभिन्न मुद्दों पर लड़ते-झगड़ते रहते थे। जैसे कि पानी के लिए, जो उन क्षेत्रों में कम था। पशुओं पर अधिकार, विभिन्न महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार, राजमार्गों एवं भीतरी भागों पर अधिकार और दूर-पास के राजाओं की चाकरी, जो आपके व्यक्तित्व को अतिरिक्त धार देती थी, जिसे निकोलस डिर्क `दि हॉलो क्राउन’ में इंगित करते हैं

शेष देश में प्रभुत्व सिर्फ और सिर्फ आपकी शक्ति पर निर्भर था, चाहे वो शक्ति पारिस्थितिक हो या मौकापरस्त। किसी की शक्ति पानी पर एकाधिकार से आती, तो किसी की मुख्य मार्गों पर अधिकार से, या फिर उपयोगी संपत्ति पर अधिकार से। पर यह सब बिल्कुल भी स्थायी नहीं था। कुछ समूह कुछ स्थानों पर कुछ समय के लिए प्रभावी हो पाते थे और फिर अपना प्रभाव गंवा बैठते थे।

अब हम आभासी रूप से ब्राह्मणीय महत्ता का कैसे सार्वभौमिक अनुभव करते हैं? ब्राह्मणीय स्वभाव के बारे में चर्चा करने को विवश होते हैं? अपने स्वभाव के कारण वे सबके शीर्ष पर अवस्थित हैं। यह पुनर्सामंतीकरण है। यह पूर्व आधुनिक काल में वापसी है। जहां राजनीतिक शक्ति, तंत्र शक्ति और संस्थाओं की शक्ति के बेशर्म प्रदर्शन से अविरल आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है; जहां शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक हिस्सेदारी जैसी आधुनिक आवश्यकताओं को क्रूर तरीके से हड़पा जाता है। इसके साथ ही उनके स्वभाव का प्रयोग करने के पुराने तरीक़े, जैसा कि मैंने मोटे तौर पर कहा कि लेखन और धर्म आज वापस लौट रहे हैं। इस तरह ब्राह्मण स्वभाव और ब्राह्मणीय महत्ता इंडिया की राजनीति और समाज में कायम रखी जा रही है।

अधिकतर देशों में ऐतिहासिक प्रक्रिया यह है कि आधुनिकता के उदय के साथ जीवन के कई क्षेत्रों से धर्म पीछे हटता है, कई तरह के धर्म विलुप्त हो जाते हैं, धर्म अपना रूप बदलता है, कुछ दूसरा स्वरूप गढ़ता है। धर्म भी प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, व्यक्तिवादी होता है। धर्म का राजनीति से स्पष्ट विच्छेद हो जाता है। इसके विपरीत, नजदीकी इतिहास में इंडिया में जो प्रक्रिया हुई वह बाकी दुनिया में होने वाली प्रक्रिया से बिल्कुल उलटी थी।

इंडियन बुद्धिजीवी एवं समाज विज्ञानी आधुनिकता की निंदा करते हैं। आधुनिकता उनके लिए पश्चिमीकरण है। वे कहते हैं, “पश्चिमीकरण छोड़ना होगा, वह हमारे लिए विदेशी है, हमारे मूल्यों के विरुद्ध है, हमारी उस मूल प्रज्ञा के विरुद्ध है, जिसे हमारे प्राचीन संतों ने बहुत पहले ही खोज लिया था” जब आधुनिकता को इस तरह से नकारना संभव नहीं रहता तो बुद्धिजीवी अपनी बी योजना पर उतर आते हैं। उसके तहत यह सुझाया जाता है कि कई तरह की आधुनिकताएं होती हैं। “तुम्हारी आधुनिकता उस प्रकार की हो सकती है पर हमारी आधुनिकता इसी प्रकार की है” पर जब ये पक्ष लेना भी मुश्किल हो गया, तब दार्शनिक और भी आत्मरक्षात्मक हो गए और कहने लगे “यही हमारी आधुनिकता है और इस पर प्रश्न खड़े करने का आपको कोई अधिकार नहीं है

आधुनिकता को एक मूल सर्वमान्य आकांक्षा की तरह, मानवीय जीवन में सकारात्मक आदर्श की तरह सभी स्वीकृत नहीं कर सकते। यह उनकी समझ है।

ब्राह्मण के लिए एक विशिष्ट स्वभाव है, क्षत्रिय के लिए अलग स्वभाव है और शूद्र के लिए अलग। शूद्र का स्वभाव है कि, “वे संपत्ति इकट्ठा नहीं कर सकते, यह उनके स्वभाव के विरुद्ध है, उनके पास जो भी है उसे मुझे समर्पित कर देना चाहिए। और यदि मैं, उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण अगर गैर-ब्राह्मण लड़की का बलात्कार कर दूं तो यह उस लड़की के भले के लिए ही होगा”

ये सब स्वभाव है, ब्राह्मण के विशेषाधिकार हैं, ब्राह्मणीय विशेषता है। जीवन एकांगी है, आप इसे धर्म निरपेक्ष और धार्मिक हिस्सों में नहीं बांट सकते। यह सब मिथक हैं, जो जीवन के लिए विशेष रास्ते बनाते हैं। ये ब्राह्मण स्वभाव को निरंतरता और मजबूती प्रदान करते हैं। सीधे या घुमावदार रास्ते से ऐसी स्थिति को ही कायम रखते हैं, जोकि पूर्व आधुनिक स्थिति है।

संयोग से यही स्थिति यूरोप में भी थी, यह कोई हमारी ही विशेषता नहीं है, जैसा कि वे दावा करते हैं। यह आर्यों की जीवन शैली सिर्फ इंडिया में ही नहीं फैली, यह पहले बाहर फैली थी, तब फिर यह इंडिया में आई। यह विचार कि लोग अपने कार्यों के अनुसार बंटे हुए हैं। एक को प्रार्थना करना है—पादरी या गिरजाघर के लोग; दूसरे हैं राजा, सामंत, मंत्री, योद्धा; और तीसरे वे आमजन जो खेतों में खपते हैं। यह पूर्व आधुनिक यूरोप था। उनके भी इसी के अनुरूप मिथक थे, जैसे कि दस दास एक योद्धा के बराबर और दस योद्धा एक पादरी के बराबर। इस तरह गैर-बराबरी के मूल्य, जो हमारी जाति व्यवस्था के समान हैं, यह सब वहां सभी ओर था। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के चलते हुए आधुनिकीकरण के कारण यह विचार आया कि सारे लोग समान हैं। सभी जन समान माने जाने चाहिए। रंग, बनावट, आकार, ऊंचाई, वजन में अंतर होने के बावजूद उनकी हैसियत समान है। इसी को यूरोप में प्रबोधन बोलते हैं।

प्रबोधन के पूर्व के विचारों में लोग भिन्न थे, कुछ बलशाली तो कुछ कमजोर, कुछ गोरे तो कुछ काले। यह माना जाता था कि इस भिन्नता को ही सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक संस्थाओं को परिभाषित करना चाहिए। जो मोटे-ताज़े मज़बूत हों, वे योद्धा बनें और स्वाभाविक रूप से वे ही देश का नेतृत्व करें। जो कमज़ोर हैं, वह योग्य नहीं है, तो वे कोई साधारण काम ही करें। अब प्रबोधन का विचार यह कहता है कि लोग चाहे दिखने में भिन्न हों, वे सब जगह समान हैं और उन्हें समान अवसर मिलने चाहिए। यही प्रबोधन के युग का विचार है। पर उपनिवेशवादी इंडिया में यह नहीं हुआ।

अब अगर हम एक बार फिर ब्राह्मण स्वभाव की बात करें जिसका पूर्व आधुनिक काल में इंडिया के चुनिंदा क्षेत्रों में ही दबदबा था, तो सवाल उठता है कि वह कैसे सार्वभौमिक बना? यह केवल उपनिवेशवाद और प्राच्यवाद के द्वारा ही सम्भव हुआ।

प्रश्न 4: ईसाई जैसे संगठित धर्मों के प्रतिकूल केन्द्रीय धार्मिक संस्थानों के अभाव में ब्राह्मण कैसे भगवान और जनता के बीच का मध्यस्थ बन गया?

यह पूरी तरह से ऐतिहासिक घटना है। पिछले 300 वर्षों की उपमहाद्वीप के इतिहास की कहानी है। विश्लेषण कर इतिहास का मूल्यांकन करने पर समझ आता है कि आज ब्राह्मण सर्वोच्च कैसे हैं। यही वह कहानी है, जो मैंने अपनी किताब नेशनलिज़्म विथाउट अ नेशन इन इंडिया (इंडिया में बिना राष्ट्र का राष्ट्रवाद) में संक्षेप में बताई है। पर ब्राह्मण स्वभाव पर थोड़ा और ध्यान देकर मैंने ये चीज़ अपनी पुस्तिका दि ब्राह्मनिज्म इन्स्क्राइब्ड इन बॉडी पॉलिटिक (हमारे राज निकाय में स्थापित ब्रह्मणवाद) में समझने की कोशिश की है।

संपूर्ण इंडिया में ब्राह्मण सभी क्षेत्रों में इतने प्रभावशाली कैसे हुए? यह जानने के लिए उपनिवेश के असर के बारे में पढ़ना और समझना होगा, राष्ट्रवाद के उभार को समझना होगा और प्राच्यवाद के उपमहाद्वीप के जीवन पर असर को समझना होगा।

इस तरह 300 वर्षों के इतिहास को समझना उससे बिल्कुल उलट है, जो हमें वामपंथी, राष्ट्रवादी, केम्ब्रिजी या सबाल्टर्न इतिहासकारों की मिली-जुली टोली ने बताया। हमारे पास बहुत ही अच्छा तरीका है जिससे ब्राह्मण दबदबे के इतिहास को हम अपदस्थ और खत्म कर सकते हैं। हमें कहानी बतलानी होगी कि कैसे अंग्रेज आए और उन्होंने क्या किया और अंत में कैसे और कब ये सारा कुछ ब्राह्मणों को सौंप गए।

इसे संक्षेप में कहना सम्भव ही नहीं है पर मैं आपको कुछ संकेत अवश्य दे सकूंगा। आप देखेंगे कि जब अंग्रेज आए तो उनकी नज़र कमाई पर ही थी, और पैसा कहां मिलता? जहां अधिशेष था और अधिशेष कहां था? सिर्फ नदी-घाटी क्षेत्रों में। बाकी सब अधनंगे घूमते फिरते थे। किसी तरह शिकार कर खाने का सामान इकट्ठा कर जीने की जद्दोजहद में ही लगे रहते थे। उनसे अंग्रेजों को क्या काम? अंग्रेजों ने सिर्फ नदी-घाटी क्षेत्रों को ही समृद्ध पाया और ये ही वे स्थान थे जहां से कुछ कमाई हो सकती थी। इन क्षेत्रों को अपने प्रभुत्व में लाने के लिए उन्होंने स्थानीय राजाओं को ध्वस्त कर दिया। और वे आधुनिकीकरण के प्रणेता बन गए, इंडिया में आधुनिकता लाने वाले। उन्होंने कहा कि तुम तलवार नहीं भांज सकते, यह अधिकार सिर्फ राज्य को ही है। राज्य अंतिम उपाय के रूप में ही तलवार का प्रयोग करेगा। इस तरह शासन कलम से चलने लगा। लेखनी से, तलवार से नहीं। मजबूत बलशाली लोग, जिनकी युद्धों में बड़ी उपयोगिता थी, वे बेकार हो गए। राजाओं और योद्धाओं की पूरी जमात ने अपनी महत्ता खो दी।

बैठकर लिखने वाले समूह ने सोचा कि वे बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं। बाबू राज आ गया। वे बहुत ही संगठित, स्वरत, स्वार्थी, संकुचित और हमेशा से अपने क्षेत्र में दबदबा रखने वाले थे। वे अंग्रेजों के हाथों महत्वपूर्ण औजार बन गए। इन्हीं के साथ उत्तर में ज़मींदारी और दक्षिण में रैयतवाड़ी की व्यवस्था बनी। इस तरह नदी-घाटी क्षेत्र में अधिकतर प्रभावशाली लोग ब्राह्मण ही थे। या तो ब्राह्मण या उनसे मान्यता प्राप्त निचले पायदान के लोग। इसका सीधा मतलब है कि मैं तुम्हारे दबदबे में हस्तक्षेप नहीं करूंगा और इसके बदले में तुम्हें सिर्फ यह देखना है कि मुझे कर, धन और लगान लगातार मिलता रहे। तथाकथित उपनिवेशवादी सरकार के सभी कार्य-कलाप इसी मूल भाव से संचालित थे। आप कर दो, मैं आपके दबदबे में हस्तक्षेप नहीं करूंगा। यदि आपको कोई समस्या होगी तो मैं आऊंगा और आपका समर्थन करूंगा, बस कर नहीं रुकना चाहिए।

इस गिरोह के शासन का मतलब सिर्फ साधारण कर संग्रह ही नहीं था। सारा शासन इस मंशा से संचालित होता था कि कर संग्रहण और उसका संरक्षण व रक्षा ही राज्य का मुख्य कार्य है। उपनिवेशवादी राज्य की सेना और लड़ाकों का ऐसा संरक्षात्मक कवच था, जिसके नीचे नदी-घाटी क्षेत्र के ब्राह्मण धनवान होते गए। और इस सहयोग संगठन के कारण अपने दबदबे का क्षेत्र और उसमें गहराई भी बढ़ाते गए। उनकी इंडिया की दृष्टि ही उपनिवेशवादी राज्य की भी दृष्टि बन गई। यह जीवन की एक विभाजनकारी और संकुचित दृष्टि थी। और यही पूरे इंडिया की जीवन दृष्टि बन गई।

अगर पूछा जाए कि समस्या क्या है तो ब्राह्मण कहेंगे कि भारतीय परम्परा के अनुसार यह व्यक्ति उच्च है और वह निम्न है। लेकिन यह परम्परा सिर्फ कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में ही थी। पर अंग्रेजों को लगा कि सभी ओर ऐसा ही है, क्योंकि वे सभी स्थानों पर थे। इसका बहुत ही ठोस उदाहरण है कि कैसे यह विशिष्ट जीवन पद्धति सार्वभौमिक बन गई। तिरुनेलवेली दक्षिण का एक जिला है, जिसमें इन दोनों क्षेत्रों में बहुत ही साफ अंतर है। जिले का नदी-घाटी क्षेत्र थमीरबर्नी धनी इलाका है पर बाकी सबके हालात भयानक हैं। बाकी इलाके में तो चलना भी कठिन है, सभी ओर कांटे फैले हैं, बड़े काले कांटे, जिन्हें कारूवेलम कहा जाता है। इतना सूखा है कि कुछ भी पैदा नहीं होता है। वहां लोग फल या दूसरी चीजें इकट्ठा करके ही ज़िंदा रह पाते हैं।

एक जिलाधीश उपजाऊ इलाके से बदली होकर सूखे इलाके में आया। उसका उद्देश्य उस सूखे इलाके में सड़क बनाने का था। तो वे घोड़े की पीठ पर सवार हो इलाके के गांवों में पहुंचकर कहने लगे कि कल से हमें यहां एक सड़क बनाना है तो तुम सब आ जाना। फिर वे ‘पराया’ बस्ती पर पहुंचा। बस्ती वाले लोग कहने लगे हुजूर, अगर आप सड़क बनाना चाहते हैं तो अवश्य बनवाएं। आपने मजदूरी के लिए बुलवाया है तो कुछ लोग यहां से आ जाएंगे, कुछ वहां से भी आ सकते हैं। जिलाधीश ने कहा तुम पराया हो ना, तुम्हें बेगार करना होगा। जिस व्यक्ति ने जिलाधीश को बेगारी प्रथा के बारे में बताया था, उसे सिर्फ नदी-घाटी क्षेत्र का ही अनुभव था। उस क्षेत्र में माना जाता था कि पराया बेगारी करते हैं, क्योंकि वे अछूत हैं। उन्हें मुफ्त श्रम करना होता है, उन्हें जाति व्यवस्था स्वीकार करनी होती है। उन्हें यह भी मानना होता है कि यही उनका स्वभाव है। वे इसी के लिए जन्मे हैं, और यही उनकी नियती है। इसी धारणा के साथ जिलाधीश ने वहां पहुंचकर कहा, तुम पराया हो, इसलिए बेगारी करना ही होगी। तब उस सूखे इलाके के लोग बोले, महोदय, हमारे यहां कोई बेगारी प्रथा नहीं है, हम स्वतंत्र समुदाय हैं, यहां जो भी सम्भव हो हम करते हैं। यदि आप यहां कुछ करवाना चाहते हैं तो लोगों को बुलाएं और अच्छा होगा कि उन्हें भुगतान करें।

पर वह व्यक्ति अंग्रेज था, शासक था। उसने कहा, ‘तुम पराया हो या नहीं?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘हां, हम पराया हैं’। तब अधिकारी ने फिर कहा, ‘तो बेहतर है कि तुम बेगार के लिए आ जाओ।’ अब तक लोग समझ गए कि यह व्यक्ति इस धारणा को अन्य स्थान से लाया है। तब उन्होंने समझाया, देखिये, अकाल के समय में खाने के लिए कुछ ज़्यादा नहीं होता है। अकाल पूर्व आधुनिक काल में बहुत जल्दी-जल्दी आते थे, या बहुत कम वर्षा होती थी, ऐसी स्थिति में भी लोगों को भोजन आवश्यक होता है। जिन लोगों के खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता वे ऐसे संपन्न क्षेत्रों की ओर पलायन कर जाते हैं, जहां कुछ खाने को मिल सके। ऐसे भोजन संपन्न क्षेत्र में प्रवेश सिर्फ वर्णाश्रम धर्म की महत्ता स्वीकार करने पर ही मिल पाता है। “हमारे गांव में तुम्हारा स्वागत है पर पराया अछूत के रूप में ही। तुम्हें यहां मुफ्त में काम करना होगा, यह आदेश है और इसे तुम्हें मानना ही होगा” भोजन संपन्न क्षेत्र के ब्राह्मण वहां जाने वालों से कहते। हमें ज़िंदा रहने के लिए खाना चाहिए था, तो जो लोग वहां गए, उन लोगों ने उन नियमों को स्वीकार कर लिया। पर जो लोग वहां न जाना सहन कर सकते थे, उन्होंने अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी, अपने सीमित संसाधनों के बल पर जिए, वे सब इस तंत्र में नहीं फंसे। आपका वहां पर पराया के साथ जैसा अनुभव है, उसे वहीं तक सीमित रखें।

उस अधिकारी को तब तक सिर्फ नदी-घाटी क्षेत्र का ठोस अनुभव ही नहीं था, उसका दिमाग ब्रह्मणीय मिथकों, कहानियों और अंधविश्वासों से भी भरा हुआ था। कैसे ब्रह्माण्ड बना, कैसे लोगों की श्रेणियां बनीं—कैसे कुछ पवित्र हुए, कुछ मलिच्छ हुए, कुछ उच्च हुए, कुछ निम्न हुए। यह केवल मानवों पर ही लागू नहीं होता, पशु, पक्षी और ब्रह्माण्ड पर भी लागू होता है। सूर्य चन्द्रमा से बड़ा है, और अन्य बकवास, ब्रहमाण्डीय ब्राह्मणवाद। इस व्यक्ति की समझ ऐसी हो गई कि सारा इंडिया ऐसा ही है।

ऐसे ही सारे क्षेत्र ब्राहमणीय स्वभाव के सिद्धांत के चंगुल में आ गए। यह उपनिवेशवादी शासन द्वारा फैलाया गया। उपनिवेशी सरकार का अधिकारी जब घोड़े पर सवार होकर कहीं जाता तो उसके साथ हमेशा चपरासी भी पीछे-पीछे दौड़ता रहता। चपरासी उपजाऊ नदी-घाटी इलाके का ब्राह्मण होता था। अयोथी दास ने स्पष्ट तौर पर बताया है कि वे चपरासी ही अधिकारियों को तमिल सिखाया करते थे। वे अपना सबक हमेशा जाति से ही शुरू करते थे। कौन ब्राह्मण है, कौन ब्राह्मण नहीं है, बताते थे। उन्हें बताया जाता था कि हम वह भोजन इसलिये नहीं खाते हैं, जो आपके रसोइये पकाते हैं, क्योंकि वे अछूत हैं। इस तरह की मोटी-मोटी जानकारी देने के बाद ही वे तमिल पढ़ाना प्रारम्भ करते थे। इस तरह ये नए शासक इन बातों से परिचित होते थे और सूखे इलाके में अपना वर्चस्व स्थापित करते थे। ब्राह्मण उनके मातहत थे और उनका भी दबदबा बन जाता था। जैसे-जैसे शासनतंत्र विस्तार पाता गया, वैसे-वैसे उनका दबदबा भी बढ़ता गया।

आधुनिक काल में ब्राह्मण सिर्फ सूखे इलाकों की उपज पर ही निर्भर नहीं रहे, उनको शासन से तनख्वाह भी मिलने लगी। पुराने समय में उनका निर्वाह भूमि की उपज से ही होता था। बहुत से क्षेत्रों में भूमि उपजाऊ नहीं होने के कारण ऐसे क्षेत्रों में उनका प्रभाव नहीं था। अब लेकिन अगर भूमि उपजाऊ नहीं भी हो तो भी उपनिवेशी सरकार उन्हें तनख्वाह दे कर वहां रख लेती। इस तरह उपनिवेशवादी शासन अपने कारिंदों के साथ सभी क्षेत्रों में फैलता गया। उनमें चपरासी, जो मुख्यतः ब्राह्मण थे, से ही सब ओर ब्राह्मणीय दबदबा फैला। इसी के समानांतर प्राच्यवाद है, इंडिया की प्राच्यवादी खोज। ये लोग, जो शासक बन गए, इनको अब लोगों के विवादों के लिए न्यायाधीश भी बनना पड़ा। फिर इहोंने सोचा कि लोगों के विवादों को कैसे निपटाएं, किन न्यायिक सिद्धांतों का उपयोग करें। ईसाइयों के बीच के कानूनी विवाद वे बाइबल के आधार पर पादरी की सहायता से विवेचना कर निपटा सकते थे। मुस्लिमों के कानूनी विवाद कुरान और मुल्ला-मौलवियों की सलाह से निपटा सकते थे। पर ये लोग गैर-मुस्लिम थे। वास्तव में पहले-पहल इनके लिए गैर-मुस्लिम श्रेणी ही उपयोग की गई।

मुस्लिम शासक थे और वे हार गए थे। जो अन्य लोग थे, वे कौन थे? गैर-मुस्लिम। अयोथी दास ने इसकी बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है। अंग्रेज पूछते, मेरे पास बाइबिल है, मुस्लिम के पास कुरान है, तुम्हारे पास क्या है? ब्राह्मणों ने अपनी चोटी खुजाई और घर चले गए। सारा मूर्खतापूर्ण लेखन, जो कभी किसी ने नहीं पढ़ा, दीमक लगा, इकट्ठा कर गट्ठे के गट्ठे उठा लाये। ये गैर-मुस्लिमों के धार्मिक, कानूनी, दार्शनिक सिद्धांत थे। पूरे सम्मान के साथ, जो उन ब्राह्मणों ने उन गट्ठों को कभी नहीं दिया, अंग्रेजों ने उन गट्ठों को इकट्ठा किया और स्कूल ऑफ अफ्रीकन एंड ओरियंटल स्टडीज, लंदन ले गए।

मैक्स म्यूलर ही आधुनिक इंडिया का महान मसीहा था। मैक्स म्यूलर ने उन्हें पढ़ा, ठीक वैसे ही जैसे वो बाइबिल की पांडुलिपि हों। उन्होंने पुरानी पांडुलिपियों का बहुत संभालकर उपयोग किया। बहुत से विद्वानों ने उन पर काम किया, जो उनके लिए सर्वथा नया था। पूर्व के पवित्र ग्रंथों के 56 खण्ड तैयार किए। उन्होंने सिर्फ इन ग्रंथों को मान्यता ही नहीं दी, इन्हें बनाया भी, फिर लेकर वापस इंडिया आए और कहा कि ये लो, यह आपका है। आपको इसके ऊपर गर्व होना चाहिए। बाइबिल सिर्फ इतनी बड़ी है, कुरान भी पतली सी है। तुम्हारा ज्ञान सारे विश्व का ज्ञान है। इसी के साथ उन्होंने आर्यों की खोज की। कुछ आर्य पश्चिम की ओर गए, कुछ पूर्व की ओर आए। जो पश्चिम की ओर गए उन्होंने विज्ञान विकसित किया, और जो पूर्व की ओर आए उन्होंने आध्यात्मिकता विकसित की और अब अंग्रेजों के राज में हमारे पास बहुत दिनों से बिछड़े इन दोनों भाइयों का संगम है। अंग्रेजों का शासन दैवीय था, देवताओं के द्वारा भेजा हुआ। हम कुछ नहीं थे, अब सब कुछ हैं।

अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म गढ़ा। इसकी भाषा क्या है? उस समय उन्होंने ग्रीक और लैटिन खोजी तथा यूरोपी भाषाओं से उनका संबंध खोजा। जब उन्होंने यहां संस्कृत खोजी तो उन्होंने माना कि सारी इंडियन भाषाएं उसी प्रकार संस्कृत संबंधित हैं, जैसे यूरोपी भाषाओं का ग्रीक से संबंध है। “हम आपके महाद्वीप में एक भाषा लाए, एक धर्म बनाया और इस धर्म से प्रशासित होने वाले लोग ढूंढे” वे ईसाई नहीं हैं, वे मुस्लिम नहीं हैं। इन लोगों को क्या बुलाया जाए? हिन्दू! और इनके पुजारी कौन? मुल्ला और मौलवी मुस्लिमों के धर्म गुरु हैं। ईसाइयों के अपने पादरी हैं। तुम्हारे कौन? ब्राह्मणों ने कहा “हम हैं”। वे लोग जिन्होंने किसी के लिए कभी कुछ नहीं किया, जिन्होंने किसी को कभी अपने ग्रंथों का अध्ययन नहीं करने दिया, जिन्होंने किसी अन्य को अपने काम नहीं करने दिए; अब जब उन्होंने आधुनिकता का उदय होते देखा और उन्हें संख्या बल की आवश्यकता महसूस हुई तो कहने लगे, हां, हम ही इन सबके पुजारी हैं, जो सच नहीं है। अधिकतर जातियों के अपने खुद के पुजारी हैं, अपनी खुद की परम्पराएं हैं। ब्राह्मणों ने कहा, नहीं, हिन्दुओं के रूप में हम ही हैं (सभी के लिए)।

“हमने उन्हें उनकी बाइबिल दी, हमने उन्हें उनकी भाषा दी, हमने उन्हें पुजारी दिये, हमने उन्हें समाज दिया, इस तरह हिन्दुत्व देश की बहुसंख्य आबादी का स्वाभाविक धर्म बन गया” इस तरह यह सब अंग्रेजों द्वारा गढ़ा गया है। प्राच्यवाद इंडिया को ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए समाज के रूप में देखता है, एक वर्णव्यवस्थित समाज के रूप में। यह सब ब्राह्मणों, उपनिवेश के अधिकारियों, विद्वानों और मिशनरियों का साझा उपक्रम है और इस में प्राच्यवादी विद्वान भी शामिल हैं।

इस तरह आधा विनाश तो कर ही दिया गया। इंडिया की बहुलतावादी दृष्टि, अनेकता, भाषाओं की भिन्नता को छिन्न-भिन्न कर दिया गया। इंडिया यूरोप की तरह कई भाषाओं का क्षेत्र था। बाकी का 50 प्रतिशत विनाश ब्राह्मणवादी स्वभाव ने कर दिया। यही राष्ट्रवाद की मुख्य पहचान बना दी गई। उनकी अंग्रेजों के साथ गहरी छन रही थी। वे धीरे-धीरे उभरते हुए प्रशासन तंत्र में आने के लिए शिक्षित होने लगे। अब उस समय इतिहास में सभी ओर विद्रोह हो रहे थे। गैर-ब्राह्मण लोग, चाहे वे विशेष क्षेत्र में अछूत माने जाते हों या न माने जाते हों, वे अपनी ज़मीनें खो बैठे, क्योंकि ब्राह्मणों के पास पट्टे थे। शिकायतें अगर ये थी कि हम इतनी पीढ़ियों से इस ज़मीन पर खेती कर रहे हैं, तो उनका प्रतिवाद यह था कि नहीं, अब हमारे पास कागज़ हैं, अब ज़मीन के लिए एक कागज़ का टुकड़ा चाहिए। कागज़ी दौर शुरू हो रहा था। न्यायालयों में कागज़ सारे सबूतों के ऊपर है और इसलिए मैं निश्चित करूंगा कि कौन-सा बीज इस ज़मीन में बोया जाएगा, और मैं वही बोऊंगा जो मेरे लिए लाभदायक होगा। मैं चावल बोऊंगा, जो तुम्हें पूरे साल व्यस्त रखेगा। मैं मूंगफली चालू करूंगा, मैं कुछ और भी शुरू कर सकता हूं, जिसकी बाज़ार में मांग होगी। मेरे पास तुम्हें बेदखल करने का अधिकार है। मैं ऐसी फसलें उगाऊंगा, जिसमें तुम्हारे श्रम की जरूरत नहीं होगी।

उन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेदखली हुई और लोगों से उनकी स्वायत्ता छिन गई। कुछ समय पूर्व उन क्षेत्रों के समुदायों का जो भी धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन था, बहुत विकसित नहीं था, पर स्वायत्त तो था, वह अब खत्म हो गया। उन्होंने कहा, तुम सब हिन्दू ही तो हो। वे अपनी धार्मिक स्वायत्ता खो बैठे और सिर्फ हिन्दू के रूप में ही पहचाने जाने लगे। लोगों की नए और उभरते हुए अवसरों—शिक्षा, रोज़गार, राजनीतिक भागीदारी—तक पहुंच बाधित कर दी गई। वे पुरानी दुनिया खो चुके थे और नई दुनिया में कुछ भी नहीं पा सके।

उस मुसीबत के समय हुआ यह कि एक ओर तो आपके पास चुनिंदा ब्राह्मणीय समूह थे, जो अंग्रेजों से जुड़े हुए थे और दूसरी ओर वह विशाल जन-समुदाय, जो सभी ओर से वंचित था और कई तरह से संघर्षरत था। तब अंग्रेजों को लगा कि यह तो बड़ा ही समस्यामूलक है। यदि यह ऐसे ही जारी रहा तो जनसमुदाय हमारे विरुद्ध उठ खड़ा होगा, और हमें खत्म कर देगा। ऐसे तो हम सुरक्षित नहीं रह सकेंगे। तो उन्हें अपनी हस्तक्षेप न करने की नीति बदलनी पड़ी, `हम उनके लिए कुछ अच्छा तो नहीं कर सकते, पर कम से कम अच्छा करते हुए प्रतीत तो हो सकते हैं

तो जो लगान वसूली पर केंद्रित गठजोड़ नदी-घाटी क्षेत्र के ब्राह्मणीय समूहों ने अंग्रेजों के साथ की थी, वह विक्षुब्ध हो गई। क्योंकि इस दौरान अंग्रेज अपने उद्योग भी विकसित कर रहे थे। मैनचेस्टर विकसित हो रहा था और जो अंग्रेज पहले खरीददार के रूप में आये थे, अब विक्रेता बन गए। सस्ता कपास और उस जैसी अन्य चीजें बेचने वाले। अब विक्रेताओं को बेचने के लिए बड़ा बाज़ार चाहिए था। ब्राह्मणों के छोटे से समूह से उनका काम नहीं चल सकता था। कंपनी शासन में जो गठजोड़ ब्राह्मणों के साथ विकसित हुआ, वह बंधन लगने लगा। वे ब्राह्मण समूह के साथ फंसा-फंसा सा महसूस करने लगे। इस बंधन से निकलने की जुगत करने लगे। अन्य जन भी विद्रोह करने लगे। तो उन लोगों को कुछ टुकड़े फेंकना ज़रूरी हो गया।

यह वह समय था जब उन्होंने विशेष नियम-कानून बनाए। किरायेदारी के हित के लिए कानून लाया गया। अब आप किरायेदार को यूं ही बाहर नहीं फेंक सकते थे। मुस्लिम भी उठ खड़े हुए। “तुमने हमसे राज ले लिया और अब हम कुछ भी नहीं रहेठीक है, मुस्लिमों को कुछ छूट शिक्षा में दे दो। और जब साउथ इंडियन गैर-ब्राह्मणों ने देखा कि मुस्लिमों को शिक्षा में छूट मिली है तो उन्होंने भी कहा, “हमें भी यह क्यों न मिले” साउथ इंडियन गैर-ब्राह्मण, नार्थ इंडियन गैर-ब्राह्मणों से ज़्यादा विकसित थे। साउथ इंडिया के बहुत सारे राजा-महाराजा, स्थानीय लोग और ज़मींदार गैर-ब्राह्मण थे। तमिल और अन्य भाषाएं भी काफी विकसित थीं। उनकी एक अलग ही जीवन दृष्टि थी, जिसे उन्होंने द्रविड़ियन दृष्टि कहा।

अब उनकी मांगें भी शुरू हो गईं। दमित जनों की मांगें समय के साथ बाकी सबसे अलग होती गईं। दमित जन भी हिस्सेदारी मांगने लगे। तब अंग्रेजों ने कहा, ठीक है, इन लोगों के लिए भी कुछ टुकड़े इधर-उधर फेंक देते हैंतो इस तरह दमित जनों से पहली बार बातचीत प्रारंभ हुई, जो सर्वथा नई घटना थी। इससे पहले अंग्रेजों ने उनसे कभी कोई बात नहीं की थी। यदि वे बात करना चाहते थे तो स्थानीय रसूखदार लोगों के माध्यम से ही करते थे। यह स्थानीय रसूखदारों का अपमान था कि अंग्रेज उनके ऊपर से जाकर आमजन से ब्राह्मण मध्यस्थता हटाकर सीधे बात करें। यह धर्म, परंपरा और प्रथा के विरुद्ध था। इसी के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ।

अब हमारी चर्चा का मुख्य बिन्दु यह है कि राष्ट्रवाद का सारा विमर्श उपनिवेशवादी, इंडिया की प्राच्यवादी छवि, ब्राह्मणों का उप-कार्यपालिका स्तर पर सशक्तिकरण ही है: इसीलिए वे अंग्रेजों से कहने को उत्सुक थे कि “अरे छोड़ो और जाओ, बाकी हम देख लेंगे” वे यह सब करने के लिए बहुत उतावले थे। ब्राह्मण स्वभाव राष्ट्रवादी इतिहास का एक मिथक बन गया। भारतीय जन का मिथक हिन्दू बन गया। वर्तमान प्रभुत्व, जो उपनिवेशवादी और प्राच्यवादी दृष्टि से गढ़ा और स्थापित किया गया था, उसे न्यायपूर्ण, वैधानिक और पुनर्स्थापित करने में उन्होंने फिर ब्राह्मणीय पवित्र लेखन में इंगित ब्राह्मण स्वभाव का उपयोग किया। उपनिवेशवादी और प्राच्यवादी दृष्टि ही वैधानिक राष्ट्रवाद बन गई।

पेरियार ने इसकी बड़े खूबसूरत ढंग से व्याख्या की है, “ये लोग, ये रट-रटकर उल्टी करते रहते हैं, और इसलिए इन्हें रोजगार मिला; और क्योंकि वे अंग्रेजों के लिए उन सभी चीजों का इंतजाम करते हैं जो उन्हें चाहिए होती हैं, अंग्रेजों ने रटने और उल्टी करने को सभी कामों के लिए योग्यता का पैमाना बना दिया

स्वतंत्रता के बाद इंडिया ने इस ब्राह्मणीय प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया जो उपनिवेशवादी, प्राच्यवादी और अन्य विद्वानों की सांठगांठ से हासिल किया गया था। ऐतिहासिक तथ्य लाक्षणिक इतिहास बन गए, जैसे कि स्वभाव का होना। इंडिया जैसे देश में सभी तरह की दक्षता आवश्यक होती है। पर आज इंडिया में एक ही दक्षता जरूरी है, रटो और उल्टी करो।

इंडिया साधारणतः ऐसा ही है। 70–80 वर्षों बाद भी इतने कम लोग साक्षर हो पाए हैं। सांख्यिकी विवशता के कारण, हर वर्ष उन्हें साक्षर लोगों का प्रतिशत बढ़ाना पड़ता है। साक्षरता का वास्तविक प्रतिशत ऐसा कुछ नहीं है। यह आइआइएम अहमदाबाद के एक अध्ययन से स्पष्ट होता है। इंडिया में साक्षर लोगों का वास्तविक प्रतिशत 22–25 ही सम्भावित है। ऐसा उनका अध्ययन है। अगर शिक्षा की बात करें, तो किन्हीं के पास सीबीएसई है, अन्य के पास राज्य शिक्षा मण्डल हैं, पंचायत की शालाएं हैं, रात्रि शालाएं हैं और सेतु कक्षाएं हैं। अगर मेडिकल कॉलेज होगा तो उनके पास सबसे आधुनिक विशेषज्ञ अस्पताल होंगे, और जिला चिकित्सालय और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र। अगर उच्च शिक्षा की बात करें, तो केन्द्रीय महाविद्यालय हैं, राज्य महाविद्यालय हैं और निजी महाविद्यालय हैं। साधारणतः यह सब वर्णाश्रम धर्म का आम जनजीवन के सभी क्षेत्रों पर आच्छादन ही है। यह स्वतंत्रता के बाद की राज्य नीति कहलाई जाती है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि किसकी सरकार है, भाजपा की या आजपा की।

(इस लेख का दूसरा भाग यहां पढ़ें)

 

जी. आलोयसियस
जी. आलोयसियस

प्रोफेसर जी. आलोयसियस इतिहासकार और सामाजिक विज्ञानी हैं। उनका काम दुनियाभर में प्रसिद्ध है। वे उपमहाद्वीप के इतिहास का गैर-ब्राह्मणवादी दृष्टि से उल्लेख करते हैं। इस कारण वे उन चुनिंदा लेखकों में से हैं जो यह खुल कर कहते हैं कि इंडिया को एक देश नही होना चाहिए। उनके काम से हमें मालूम पड़ता है कि... प्रोफेसर जी. आलोयसियस इतिहासकार और सामाजिक विज्ञानी हैं। उनका काम दुनियाभर में प्रसिद्ध है। वे उपमहाद्वीप के इतिहास का गैर-ब्राह्मणवादी दृष्टि से उल्लेख करते हैं। इस कारण वे उन चुनिंदा लेखकों में से हैं जो यह खुल कर कहते हैं कि इंडिया को एक देश नही होना चाहिए। उनके काम से हमें मालूम पड़ता है कि इंडिया असल में कभी देश बना ही नहीं, बल्कि केवल एक नए तरह का ब्राह्मणवादी उपनिवेश बन कर रह गया। उनका काम इस नए उपनिवेशवाद से लड़ने में हमारी मदद करता है।