अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की रचना की और ब्राह्मणों ने इस मिथक की कि ‘इंडिया’ भारत है (भाग 2)

"मैं यहां ऐतिहासिक रूप से रेखांकित कर रहा हूं कि कैसे उपनिवेशवाद, प्राच्यवाद एवं राष्ट्रवाद ने पूर्ववर्ती और बिल्कुल स्थानीय ब्राह्मण स्वभाव को राष्ट्रीय, प्राकृतिक और सर्व-स्वीकृत बनाकर उसे हर चीज के ऊपर कंट्रोल दे दिया। यह एक ऐतिहासिक विकास है। राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद ने ब्राह्मणवाद की मदद की। पर कुछ लोगों ने इसका लाभ यह कहकर भी उठाया कि ये तो अंग्रेज थे, जिन्होंने जातियों का विकास किया। इसीलिए मैं भौगोलिक स्थिति की चर्चा करूंगा—ब्राह्मणों का असर कुछ निश्चित क्षेत्रों में ही था, इसका मतलब है कि वे अंग्रेजों के आने से पहले से कुछ स्थानों पर प्रभावी थे, मगर हर जगह नहीं। अंग्रेजों ने स्थानीय प्रभाव को सामान्य प्रभाव समझा और यही आधुनिक भारत का राष्ट्रीय एवं सार्वभौमिक सत्य बन गया। इसीलिए इसे आज ब्राह्मण स्वभाव के रूप में जाना जाता है। बहुत से मध्यमवर्गीय मूल्य हमारे हिसाब से ब्राह्मणवादी हैं, और वे सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है। सभी जन, चाहे वे दलित हों या बहुजन, इससे प्रभावित हैं। मध्यमवर्गीय जीवन ब्राह्मणीय तौर-तरीकों से ही प्रदर्शित होता है।"

अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की रचना की और ब्राह्मणों ने इस मिथक की कि ‘इंडिया’ भारत है (भाग 2)

स्त्रोत: प्रबुद्ध: सामाजिक समानता का दस्तावेज (2018)
अनुवादक: अशोक थुडगार  

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यह इंटरव्यू डॉ. कार्तिक नारायण द्वारा रिकॉर्ड किया गया और राकेश एस राम ने इसे लिपिबद्ध किया। यह पीजेएसई के विशेष अंक ‘ब्राह्मण स्वभाव-इतिहास के आईने में आधिक्य, श्रम और संपत्ति तक अविकल पहुंच,’ में प्रकाशित हो चुका है।

प्रश्न 5: संक्षेप में बताएं कि इस भौतिक जगत में—धन, दौलत, श्रम या उत्पादन—सभी पर ब्राह्मणों का नियंत्रण कैसे है?

यह वामपंथी दलों में भी है—वास्तव में पूंजीवादी हों या श्रमवादी, इंडिया में एक से ही हैं। वे सिर्फ संगठित समूहों के साथ ही काम करते हैं। यहां कोई भी गंभीर प्रयास नहीं है। ब्राह्मण जाते हैं और वार्ता करते हैं। वे ही संघों के प्रतिनिधि हैं, उनके ही भाई-भतीजे दूसरी ओर संस्थानों के प्रतिनिधि हैं। वे आपस में वार्ता करते हैं, निर्णयों पर पहुंचते हैं। जीवन के समस्त क्षेत्रों में, यदि कोई विपक्ष आता भी है तो वह मूल मुद्दों पर चुनौती नहीं दे सकता। वैसे वे ठोस अनुभवजन्य कार्यों को चुनौती दे सकते हैं। अगर ऐसा नहीं होगा तो उसे मृत प्रजातंत्र माना जाएगा। इसी को आदेशित विपक्ष कहा जाता है। वे कहेंगे, ‘तुम्हें आना चाहिए, जंतर-मंतर पर आओ, प्लीज आ जाओ, मैं रेल किराए में छूट दूंगा।’ और मेरा यह अनुभव है, मैं जंतर-मंतर जाता हूं, देखने के लिए इधर-उधर घूमता हूं कि कैसी जगह है, तभी एक पुलिस वाला मेरी तरफ आता है और कहता है, ‘हुजूर!’ मैं हुजूर जैसा लगता हूं! वह कहता है, ‘कुछ धरना चलाना है? मैं पण्डाल की व्यवस्था कर दूंगा, पानी के टेंक की व्यवस्था भी कर दूंगा, स्वीकृति भी दिलवा दूंगा। यदि आप जुलूस भी करना चाहते हैं तो हम रास्ता भी बना देंगे उसके लिए, बस जुलूस को उस रास्ते पर रखिएगा, जिससे पुलिस आराम से उसे नियंत्रित कर सके। चिंता न करें, हम सारी व्यवस्था कर लेंगे और यदि आपको जनता नहीं मिलती है तो हम उसे भी ले आएंगे। यहां बहुत-सी जनता इसी का इंतजार करती रहती है।’

यहां इसी तरह का विपक्ष है। विदेशियों को दिखाने के लिए। आओ और देखो कि हम स्वतंत्र हैं। यहां इतना प्रजातंत्र है कि पुलिस आपकी सुरक्षा करती है। पर ऐसा कोई भी, जो इस खेल में शामिल नहीं होना चाहता, जो अपना मुंह बंद रखता है, जब उसे समझाने की कोशिश चल रही हो, जिसका मतलब है कि उसकी विचार प्रक्रिया जारी है, वह राज्य के लिए खतरा है। जो कोई भी गंभीरता के साथ जाति को चुनौती देता है, वह राष्ट्रद्रोही है। आप सकारात्मक लाभ चाहते हैं, निश्चित ही यह उचित मांग है, और उसे हम पूरा करना भी चाहते हैं, पर हम तुम्हें इसके लिए संघर्ष करने को मजबूर करेंगे। मुक्ति कि मांग अधिकारिता लाभों से पूरी की जाती है। आवश्यक मांगें तो मानी ही जाएंगी पर अपनी सत्ता को मजबूत करके ही। इसमें वे कोई भेदभाव नहीं करते। नेताओं को जनता पर अधिकाधिक सत्ता चाहिए।

राज्य से अपनी दृष्टि की वैधता पाओ और लंदन जाने का मौका पाओ, तुम्हें जेनेवा ले जाया जाएगा, यहां वहां कहीं भी जाओ। हम सभी भेदभाव के शिकार हैं पर इस भेदभाव के लिए तुम्हें अतिरिक्त लाभ दिए जाएंगे, इसी तरह की अनेक चीजें की जाएंगी। इसलिए हम सब भी चुप्पी साधे रहते हैं। मगर यदि तुम बाबासाहब के दिखाए लक्ष्य पर अडिग रहते हो—जाति का विनाश चाहते हो, जाति की बेदखली राष्ट्रवाद से, राष्ट्रवादी इतिहास से, राज्य की नीतियों से, इस प्रकार की अन्य चीजों से चाहते हो—तो ज़ाहिर ही राष्ट्रद्रोही हो। क्योंकि जाति ही राष्ट्र है। राष्ट्र का संचालन ब्राह्मण स्वभाव से होता है।

उदाहरण के लिए, आजकल हिन्दू धर्म के खूब त्यौहार बनते हैं, जो हमारे भावों को अधिकाधिक उद्वेलित करता है। पहले जो त्यौहार एक दिन मनाया जाता था, अब तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसी तरह तीन दिन तक मनाया जाने वाला त्यौहार अब पूरे सप्ताह भर मनाया जाता है। पहले जहां दस त्यौहार होते थे अब सौ से ऊपर हैं। जिन्हें आप राष्ट्रीय पर्व कहते हैं, वे अब और ज्यादा हैं, और उन्हें सभी स्थानों पर सभी के द्वारा मनाया जाना ज़रूरी है। दीवाली मनानी ही होगी। दीवाली का किसी भी तरह का विरोध राष्ट्र विरोधी है। यदि कोई कहता है, हमारे पास पोंगल है, संक्रांति है, हमें और किसी से कुछ लेना देना नहीं, तो वे सारे लोग राष्ट्र विरोधी हो जाते हैं। धर्म अलग किया ही नहीं जा सकता और बुद्धिजीवी हमेशा इस तर्क को उचित ठहराने को तैयार रहते हैं। वे कहते हैं, ‘धर्म निरपेक्षता पश्चिमी ख्याल है, आप कैसे मनुष्य के उस जीवन को बांट सकते हैं, जिसमें धर्म निरपेक्षता और धार्मिकता दोनों शामिल हैं? हमें फ्रेंच लोगों जैसा क्यों होना चाहिए? यह हमारी विशेष तरह की आधुनिकता है। यह वैसी ही है, जैसे हम हैं। इसी तरह हम आगे भी रहेंगे। अब इसे किसी भी सामाजिक विज्ञान के दायरे में न लाओ।’

यह बौद्धिकों का गठजोड़ है और संचार तंत्र का भी, ये सभी मिलकर ब्राह्मण स्वभाव की रचना करते हैं। इस ब्राह्मणीय स्वभाव की प्रधानता में ही सारी विरोधी आकांक्षाओं, मांगों आदि को स्थान दिया जाता है। अपना मुंह खोलो तो उसमें रोटी डाल दी जाएगी और तुम्हारा मुंह बंद हो जाएगा। हमारे लोगों की स्थिति इतनी निम्न है कि ज़िंदा रहना भी एक समस्या बन जाती है। वे किसी भी कीमत पर कुछ भी पाने का प्रयास करते हैं। लोग पूर्व आधुनिक स्थिति में जीवन काट रहे हैं। जहां तक मैं समझता हूं, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण 15–20 प्रतिशत जनता का ही हुआ है; और ये वही 15–20 प्रतिशत ब्राह्मणीय वर्ग है।

पूरा प्रयास आधुनिकता और उसके लाभों को अपने लिए अपहृत करने का ही है, जिससे वे किसी और को न हासिल हो सकें। आधुनिकता विरोधी एवं वैश्वीकरण विरोधी बयानबाजी मुख्यतः यह कहने के लिए है कि, ‘देखो, मुझे आधुनिक होना है, मुझे वैश्वीकृत होना है, पर तुम क्यों इसकी मांग कर रहे हो? हम सभी के लिए एक ही सिद्धांत नहीं बना सकते। हमारे स्वभाव भिन्न हैं। मेरा स्वभाव है कि मैं जेनेवा से एम्सटरडम तक और साथ ही पेरिस से न्यूयॉर्क तक उडूं। यदि सारे इंडियन उड़ना चाहें तो यह कैसे सम्भव है?’ यही मूल सिद्धांत है, जिससे शासन किया जाता है और हमारे लोगों का जीवन नियंत्रित किया जाता है। यही मूलतः ब्राह्मणीय स्वभाव है।

मुझे डर है कि मैं ही अकेला व्यक्ति हूं, जो यूनिवर्सिटी, कॉलेज वगैरह में ब्राह्मणत्व की बातें करता रहता हूं। किसी लेक्चर के दौरान यदि तुम ब्राह्मण शब्द का दूसरी बार उपयोग कर लो तो पक्का है कि कोई तुम्हें पीट जाएगा। ऐसा ही हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुआ। मैं वहां के प्रशासकीय कर्मचारी कॉलेज में चर्चा कर रहा था, उन्होंने मुझे अपनी बात कहने के लिए बुलाया था। मैं वहां ‘राष्ट्रवाद बिना राष्ट्र’ के विषय पर अपनी बात रख रहा था, ऐसे में कुछ लोग आए और मुझे पीट गए। तब किसी ने कहा, नहीं, यह एक बौद्धिक चर्चा है, हम और भी चीजों पर चर्चा कर रहे हैं। ‘वह ब्राह्मणों का नाम क्यों ले रहा है’ उन्होंने कहा, ‘पूंजीवाद का नाम लो।’ ब्राह्मण ब्राह्मणत्व के विशेषाधिकार का आनंद ले रहे हैं, हम इस पर बात क्यों नहीं कर सकते? ‘हम विशेषाधिकारों का आनंद नहीं ले रहे हैं, हम बाबासाहब अंबेडकर के द्वारा बनाए गए संविधान के अंर्तगत ही कार्य कर रहे हैं, जहां सब बराबर हैं, तुम कुछ और ही कह रहे हो।’ इन सबमें एक चुप्पा गठजोड़ है। इन संस्थानों में यदि तुम ब्राह्मणत्व को चुनौती देते हो तो तुम ज़िंदा नहीं रह सकते, तुम्हें हाशिये पर फेंक दिया जाएगा।

आज मैंने बताया कि कैसे स्थानीय ब्राह्मण स्वभाव, उपनिवेशवाद, प्राच्यवाद और राष्ट्रवाद की मदद से राष्ट्र व्यापी हो गया। स्वाभाविक और स्वीकृत ब्राह्मणीय स्वभाव अविकल पहुंच वाला और सब पर नियंत्रण रखने वाला बना। यह ऐतिहासिक गाथा है। राष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशवाद ने ब्राह्मणत्व की भरपूर मदद की।

प्रश्न 6: आपने कहीं पर लिखा है कि पूर्व अवस्थित संस्कृति के चारों ओर राष्ट्र का मिथकीय निर्माण वास्तविक हो जाता है जब यह बहुसंख्य लोगों के लाभ के लिए होता है। यह शायद आपकी किताब ‘नेशनलिज़म विदाउट अ नेशन’ से है। राष्ट्र का मिथकीय निर्माण असल में क्षेत्रीय भाषा के आधार पर होना ज़्यादा अपेक्षित था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भारत के भाषाई क्षेत्रों में ब्राह्मणों ने कैसे राष्ट्रवाद को पनपने से रोका, जिससे वे उसकी जगह एक भारत की कल्पना गढ़ सकें?

इसका भी यही उत्तर है, जो हम पहले से कह रहे हैं, उपनिवेशी सरकार का ब्राह्मणों से लगाव, उपनिवेशी सरकार की ब्राह्मणीय कल्पना अधिकतर लोगों के लिए वास्तविकता बन गई। समानता प्रभावी धारणा बन गई। इंडिया में हर भाषाई क्षेत्र में भिन्न तरीके की जाति-व्यवस्था है, ब्राह्मण और अन्य जातियों के बीच समझौता हर क्षेत्र में अलग तरीके से हुआ है। व्यवहार भिन्न है। रसूख का तरीका भिन्न है। भाषाई तथा सांस्कृतिक कार्यकलाप भिन्न हैं। अब ये सारी भिन्नताएं धराशायी होकर एक ही कार्यसूची में शामिल हो पूर्ण रूप से एकाकार हो रही हैं। सभी को शूद्र या अतिशूद्र में बदल दिया गया है।

उन्होंने समस्या ही समाप्त कर दी। गैर-ब्राह्मणों को अस्तित्वहीन कर दिया। पेरियार ने हंगामा किया पर स्वयं राज्य बनाने की संस्थाओं में भाग नहीं लिया। अम्बेडकर अनुसूचित जाति के मुद्दों पर अड़े तो उन्हें वह दे दिया गया जो वे चाहते थे। उन्हें राज्य बनाने के काम में लगा दिया और सारी बंदूकें उनके कंधे पर रख दीं। यह अम्बेडकर थे, जिन्होंने संविधान बनाया, और अब तुम उसे चुनौती देने का दुस्साहस करते हो। इस तरह पिछड़ा वर्ग सब कुछ हार गया। मुस्लिम एक तरफ कर दिए गए। उन्होंने कुछ दलाल चुने, कुछ पादरी मद्रास में राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए, यह बहुत ही बढ़िया कहानी है। पादरी का नाम जेरोम डिसूजा था। पादरी के साथ ही लायोला महाविद्यालय, मद्रास में एक प्रोफेसर रामास्वामी भी थे, जो गैर-ब्राह्मण नेता और राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक थे। वह राजनीतिक जमावड़ा करने में दक्ष थे, इसके साथ ही वह ईसाई भी थे। परंतु राजाजी को जब ईसाई प्रतिनिधि चाहिए था तो वह पादरी के पास गए। तब वह आया और शेखी से बोला, ‘ईसाई कांग्रेस पार्टी के बडप्पन और उदारता पर भरोसा करते हैं, हम हमारी अल्पसंख्यक वाली मांग वापस ले लेते हैं।’

बंटवारे के साथ मुस्लिम तो चले गए। हमारे स्थानीय मुस्लिम और दलाल ही यहां थे, उन्होंने उनमें से एक को आगे बढ़ाया और उसने कहा, ‘हम भी हमारी अल्पसंख्यक वाली मांग वापस ले लेते हैं।’ इस तरह उन्होंने इसे भी खत्म कर दिया। ऐसे ही दलितों व अन्यों को घेरे में लेकर उन्होंने भारतीय राज्य गढ़ा, जिसमें ब्राह्मणीय प्रभुत्व अविवादित हो। ज़ाहिर है, ये सब उन्होंने धर्म निरपेक्षता, संविधान और समानता के वादों के पीछे छुपा दिया।

इसके भी पहले नागालैंड विभाजन चाहता था। उन्होंने जनमत संग्रह करवाया था। राष्ट्र संघ को भी आमंत्रित किया था, पर दिल्ली ने फिक्र नहीं की। उन्होंने कहा, ‘वे क्या चाहते हैं? विभाजन? सेना भेजो।’ वल्लभ भाई पटेल ने सेना भेज दी और मांग समाप्त कर दी। मणिपुर अलग होना चाहता था। मणिपुर ने भारत के आज़ाद होने से पहले चुनाव करवाकर विधानसभा स्थापित कर ली थी। उन्होंने राजा को हवाई जहाज से उठा लिया, उसे बंदूक दिखाई और कहा, ‘अपने दस्तखत करो।’

दक्षिण भारत में भी विभाजन की मांग उठी। तमिलनाडु ने विभाजन चाहा। तब उनमें से कुछ सहयोजित कर लिए गए और डी.एम.के ‘हम अब और विभाजन नहीं चाहते,’ योजना का हिस्सा बन गया। तो भारतीय राष्ट्रवाद में सिर्फ एक ही भारत है। यदि तुम कहते हो कि भारत एक नहीं है तो वे कहेंगे, तुम राष्ट्र विरोधी हो। यह राष्ट्र विरोधी क्यों हो गया? क्योंकि एक भारत जाति भारत भी है और साथ ही भ्रष्ट भारत भी।

कोई भी विखंडन राष्ट्र विरोधी है। इस तरह कोई भी भाषाई इलाके सशक्त नहीं हो पाए, जबकि यह निराकृत प्रश्न नहीं है। भारतीय ब्राह्मणीय स्वभाव समरसता और शांति का स्वाद नहीं ले पा रहा है, इसे लगातार चुनौतियां मिल रही हैं। भारतीय राष्ट्रवाद का प्रश्न, दूसरे शब्दों में उपमहाद्वीप में ब्राह्मणीय प्रभुत्व का प्रश्न अंतिम रूप से निराकृत नहीं है। यद्यपि ऐसा दिखता है कि हमारे विरुद्ध कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं, क्योंकि भाषा की महत्ता बढ़ती जा रही है। लोग अपनी भाषा में अपने विचार रखने लगे हैं, यहां कोई भी एक भाषा नहीं है। यहां एक ही भाषा के आग्रह के लिए प्रतिरोध है और इसी तरह हिन्दू धर्म के लिए भी। यहां बौद्ध धर्मी, वीरशैव धर्मी, लिंगायत सभी कहते हैं कि वे हिन्दू नहीं हैं। शैव तमिल दावा करते हैं कि वे हिन्दू नहीं हैं। इस तरह की और भी बहुत-सी बातें सामने आ रही हैं।

प्रश्न 7: पेरी एण्डरसन ने कहा, ‘तीन बड़े साम्राज्यों में से किसी ने भी इतनी भूमि को आच्छादित नहीं किया था, जितना कि नेहरू की “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” ने किया। मुगल और मौर्य आज के अफगानिस्तान तक फैले हुए थे, पर दक्खिन के पहले ही रुक गए थे और कभी भी मणिपुर के निकट तक नहीं पहुंचे थे’ भारतीय साम्राज्य ‘राष्ट्र’ कैसे बन गया?

यह याद रखा जाना चाहिए कि समानता, इंडिया में समानता के लिए संघर्ष जो दलित-बहुजन का संघर्ष है, ऐतिहासिक रूप से विभिन्नता से जुड़ी है। इंडिया वैभिन्यता वाला देश है। यदि आप इंडिया के 5000 वर्षों के इतिहास को देखेंगे तो पाएंगे कि उसमें राजनीतिक इकाई के वक्त कम ही हैं और जब हैं भी तो अस्थिर तथा अस्थायी ही हैं। मौर्य साम्राज्य, गुप्त साम्राज्य, मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य, इन साम्राज्यों के बीच में क्षेत्रीय राजाओं और क्षेत्रीय भाषाएं, क्षेत्रीय वास्तविकताएं हावी रहीं। क्षेत्रीय भाषा, संस्कृति, कला और वास्तुकला विकसित हुईं। यह काफी लंबा समय है। साधारणतः मौर्य, गुप्त और मुगल साम्राज्य बनते-बिगड़ते रहे।

मगर यह सब जब आखिरी साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य, तक आता है तो आधुनिकता में फंस विखंडित नहीं हो पाता है, और हमें राष्ट्र राज्य के रूप में प्राप्त होता है। ऐतिहासिक बाध्यताओं के कारण दलित और अन्य, जो समानता पर दावा कर रहे हैं, उन्हें सफल होने के लिए समानता की ताकतों के साथ जुड़ना ही होगा। मैं उत्तर-आधुनिक विभिन्नता को इंगित नहीं कर रहा हूं। मैं उपमहाद्वीप में भाषा और भाषाई क्षेत्र के ठोस निर्माण की ओर इंगित कर रहा हूं, जोकि यूरोप में हुए विकास के बहुत करीब था। यूरोप में आधुनिकता आई तो यूरोप ने ईसाइयत को तोड़कर राष्ट्र राज्य बनाया। इंडियन उपमहाद्वीप में आधुनिकता ने प्रवेश किया तो यहां उपस्थित विभिन्नताओं को दबा कर इंडियन साम्राज्य का उदय हुआ।

जब यूरोप में आधुनिकता का उभार हुआ तो ईसाइयत टूट गई। राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण हुआ। इंडिया में केवल क्षेत्रीय धर्म ही थे, यहां जब आधुनिकता का उदय हुआ तो हिन्दू धर्म ने इन सबको अपने में समा लिया। यह बड़ा विरोधाभासी था। राजनीति और धर्म के जरिए ब्राह्मणीय स्वभाव फिर से क्रियाशील हो गया।

एण्डरसन जो इंगित कर रहे हैं, वह ऐतिहासिक वास्तविकता है। मुगल साम्राज्य में भी दक्षिण कहीं नहीं था। अशोक के साम्राज्य में तमिल नाडु नहीं था। हम इससे बाहर थे, हम किसी भी साम्राज्य का हिस्सा नहीं थे। हमारे पास अपने खुद के चेरा, चोला थे, अन्य भी कई मिथक थे। यह सिर्फ अंग्रेजों के समय में हुआ कि हम इस नेहरू की खोजी हुई ‘इंडिया’ में मिला लिए गए। तो जब तुम्हें खोज का नतीजा नेहरू का ‘इंडिया’ प्राप्त होता है तो तुम इसे प्राचीन इतिहास तक खींच देते हो। तुम्हारे दिमाग में यह बैठ जाता है कि ‘इंडिया’ ही भारत है। यह ऐसा कभी नहीं था, यह हमेशा से आर्यावर्त ही था। ब्रह्मवर्त/आर्यावर्त। दूसरे सभी स्थान सिर्फ अभिशाप ही थे, उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता था, क्योंकि वहां ब्राह्मण प्रभुत्व नहीं था।

अब सभी स्थानों पर ब्राह्मण प्रभावशाली हैं तो ‘इंडिया’ भारत है। यही राष्ट्रवादी संकल्पना है। जब आप राष्ट्रवाद और लोक धारणा के प्रश्नों से जूझते हैं तो उसमें लोक का कोई बहुत मूल्य नहीं होता है। उदाहरणार्थ—नेहरू की खोज एक मिथक है, जो अधिकतम लोगों की धारणा से मेल खाती है, तभी वह राष्ट्रीय संकल्पना बनती है।

एरिक होब्सबौम ने इन्वेन्शन ऑफ ट्रेडिशन (परम्परा की खोज) नाम की किताब लिखी। यहां उसी का जिक्र किया जा रहा है। हम कैसे अपनी परम्पराओं का पुर्नसंधान कर अपनी वास्तविकताओं का पुर्ननिर्माण करते हैं। इसमें मेरा मानना है कि अगर कल्पना अधिसंख्य लोगों में कोई गूंज पैदा नहीं करती, तो वह राष्ट्र के नाम पर जालसाजी बन जाती है। यदि यह गूंज पैदा कर सके तो राष्ट्र निर्माण में सहयोगी बनती है। जालसाजी और निर्माण में यही अंतर है। लगता है कि निर्माण किया जा रहा है पर वास्तव में जालसाजी की जा रही है। जिस पर एक और समाजशास्त्री अर्नेस्ट गेलनर ने लिखा है। अब एक और पुस्तक, जिसकी अत्यधिक चर्चा होती है, वह बेनेडिक्ट एण्डरसन की है—नाम है ‘इमेजनरी कम्युनिटी’ (काल्पनिक समुदाय)। अयोध्या में यही बनाने की कोशिश की गई। ‘मेरी कल्पना यह कहती है कि राम का जन्म यहां हुआ था। मैंने अपने सारे गिरोह को राजनीतिक रूप से इकट्ठा किया कि वे कहें “हां, हां यहीं हुआ था”।’ ऐसे यह राष्ट्रीय संकल्पना बन गई और धीरे-धीरे सत्य भी। अब यहां जेएनयू के इतिहासकार वास्तविकता की बात करने लग जाते हैं और उनके साथ यही समस्या है। रोमिला थापर कहती हैं कि वहां कोई राम मंदिर नहीं था। वास्तविकता क्या है, वास्तविकता वही है जो हम राष्ट्र के रूप में जोर देकर कहते हैं। यही राष्ट्रीय इतिहास है। प्रभाकरन आतंकवादी हो सकता है, यदि वह ईलम का विभाजन करने में सफल हो जाता तो वह एक महान राष्ट्रवादी दृष्टा और नायक हो जाता। तो ताकत ही है जो यह सब बनाती है।

प्रश्न 8: बहुजनों के लिए आगे क्या रास्ता है? ऐसे भविष्य की रचना कैसे की जाए, जहां यह ब्राह्मण स्वभाव अपरिहार्य और देशव्यापी न हो?

आज दलित बहुजन का मतलब ब्राह्मणीय नायकत्व से संघर्ष करना है। दलित का मतलब जातीय रूप से दमित है, और जिस सिद्धांत से वह दमित है, वह ब्राह्मणत्व है। यद्यपि इसका उपयोग गैर-ब्राह्मण भी कर रहे हैं। दलित दमन को व्याख्यायित करने का यह बहुत ही नर्म तरीका है। अब बहुजन भी कहने लगे हैं कि उनका दमन ब्राह्मण कर रहे हैं। आज के संदर्भ में एक ही उद्देश्य के लिए लड़ाई ब्राह्मणीय प्रभुत्व को मजबूत करेगी, क्योंकि यह इंडियन साम्राज्य को चुनौती नहीं देगी। यह इंडिया की हजारों सालों से चली आ रही अनेकता के प्रति न्याय नहीं होगा।

तुम्हारे साथ संपूर्ण इंडिया का प्रतिरोध है। ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट, शेड्यूल ट्राइब फेडरेशन आदि का ब्राह्मण समूह स्वागत करता है, क्योंकि वे उनके नेतृत्व को चुनौती नहीं देते हैं। उनकी सभी मांगें कुछ छूटों के लिए ही होती हैं, जैसी कि हमारी राजीव गांधी फेलोशिप में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए, यह जेआरएफ के बराबर होनी चाहिए। बेशक ही हमने कभी यह मांग नहीं की कि प्राथमिक शिक्षा का विस्तार होना चाहिए, गांवों में सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए। ब्राह्मण समूह आत्मविश्वास से भरे प्रसन्न हैं, वे स्वयं इन योजनाओं का वित्त पोषण करेंगे।

दलित शब्द को जाति से बदल दिया गया है। अनुपमा राव की किताब का शीर्षक जाति का प्रश्न  है और उसका उपशीर्षक दलित और आधुनिक इंडिया की राजनीति है। वह कहती हैं कि वह जाति के सवाल से उलझ रही हैं, लेकिन उपशीर्षक तो कुछ और ही बतलाता है। जाति समस्या को दलित समस्या में लपेट देना और सारी समस्याओं  को नकार के कुछ लाभ ले लेना ब्राह्मणों के लिए स्वीकार्य स्थिति है। वे इसका पूरा आनंद लेते हैं, जश्न मनाते हैं। वे लोगों को विदेश यात्रा करने के अवसर प्रदान करते हैं और ऐसे बहाने करते हैं कि ‘सभी को संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए’ और इसी तरह के प्रपंच रचते रहते हैं।

यह निश्चित ही स्वागत योग्य है, पर इसका जाति उन्मूलन से कोई लेना देना नहीं है। इनकी कार्यसूची इतनी ही है कि इन समूहों के लिए और लाभ कैसे लिए जाएं। जबकि जिन्हें देश के विभिन्न इलाकों में पिछड़ा वर्ग कहा जाता है, वे अनेकता के लिए लड़ रहे हैं, अनेकता प्रदर्शित कर रहे हैं। अगर हम पूरी लड़ाई को आगे ले जाना चाहते हैं तो हमें अनेक धर्म, अनेक चलन, भाषाई प्रश्न, इन सभी को जोड़ना होगा। आप उन्हें बहुजन कहते हो, मैं उन्हें तमिल, तेलुगु, मलयाली कहता हूं। पहला केरलाई कौन है, पहला तेलुगु कौन है, पहला तमिल कौन है? दलित है। इन्होंने ही तो आखिर भाषा बनाई है। प्रकृति के साथ काम करते हुए भाषा का विकास किया है। यहीं हैं, जो एक भाषी हैं। इसका मतलब है कि उनकी निष्ठा और पूंजी सिर्फ वही भाषा है। दूसरे, जैसे तुम ऊपर जाते हो, वे विषमांगी हैं, बहुभाषी हैं। यह उनका गुण है।

तमिल नाडु में तमिल प्रकार के ब्राह्मणत्व से लड़ना ज्यादा आसान है, पर यदि आप उन्हें कश्मीरी ब्राह्मणों या कहीं और के ब्राह्मणों के साथ गिरोहबंदी के लिए छोड़ देते हो तो मुश्किल हो जाती है। इसी तरह अन्य तो ब्राह्मण राज्य और नीतियों में दखल देने लगते हैं, जो हम नहीं कर पाते हैं। अधिकतम हम छूट पा सकते हैं। अनेकता और समानता योजना के तहत मिलना निश्चित ही इंडियन नेतृत्व और ब्राह्मणीय नेतृत्व के लिए खतरा है। बेशक, एक संवेदनशील बौद्धिक कहेगा कि ओह, दलितों की नेतृत्व में हिस्सेदारी 25 फीसद है, 80 सांसद हैं, इसी तरह की अनेक बातें। यह सब औपचारिक है, पर मूल प्रश्न है कि कौन राज करता है और सिर्फ कौन राज करता है ही नहीं, बल्कि कैसे राज करता है? सारी नीतियां ब्राह्मणीय स्वभाव से ही पहचानी जाती हैं।

 

जी. आलोयसियस
जी. आलोयसियस

प्रोफेसर जी. आलोयसियस इतिहासकार और सामाजिक विज्ञानी हैं। उनका काम दुनियाभर में प्रसिद्ध है। वे उपमहाद्वीप के इतिहास का गैर-ब्राह्मणवादी दृष्टि से उल्लेख करते हैं। इस कारण वे उन चुनिंदा लेखकों में से हैं जो यह खुल कर कहते हैं कि इंडिया को एक देश नही होना चाहिए। उनके काम से हमें मालूम पड़ता है कि... प्रोफेसर जी. आलोयसियस इतिहासकार और सामाजिक विज्ञानी हैं। उनका काम दुनियाभर में प्रसिद्ध है। वे उपमहाद्वीप के इतिहास का गैर-ब्राह्मणवादी दृष्टि से उल्लेख करते हैं। इस कारण वे उन चुनिंदा लेखकों में से हैं जो यह खुल कर कहते हैं कि इंडिया को एक देश नही होना चाहिए। उनके काम से हमें मालूम पड़ता है कि इंडिया असल में कभी देश बना ही नहीं, बल्कि केवल एक नए तरह का ब्राह्मणवादी उपनिवेश बन कर रह गया। उनका काम इस नए उपनिवेशवाद से लड़ने में हमारी मदद करता है।