आतंकवाद: उनका और हमारा

एकबाल अहमद आतंकवाद के विषय पर बात करके बताते हैं कि आतंकवाद को किन तरीकों से रोका जा सकता है: दोहरे मापदंडों के अतिरेक से बचें। अगर आप दोहरे मापदंड अपनाते हैं, तो आपको भी दोहरे मापदंडों से ही जवाब मिलेगा। इसका इस्तेमाल मत करें। अपने सहयोगियों के आतंकवाद का समर्थन न करें। उनकी निंदा करें। उनसे लड़ें। उन्हें सज़ा दें। कारणों पर ध्यान दें और उन्हें सुधारने की कोशिश करें। समस्याओं के मूल कारणों को समझें और हल निकालें। सैन्य समाधान से बचें। आतंकवाद एक राजनीतिक समस्या है, और इसका समाधान राजनीतिक होना चाहिए। राजनीतिक समाधान खोजें। सैन्य समाधान समस्याएं बढ़ाते हैं, सुलझाते नहीं। कृपया अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ढांचे को मज़बूत करें और उसे सुदृढ़ बनाएं।

आतंकवाद: उनका और हमारा

 

अनुवादक: अक्षत जैन 

1930 के दशक के दौरान और 1940 के दशक की शुरुआत तक, फिलिस्तीन में यहूदी अंडरग्राउंड को "आतंकवादी" कहा जाता था। फिर कुछ हुआ: लगभग 1942 में, होलोकॉस्ट की खबर फैलने के साथ-साथ पश्चिमी दुनिया में यहूदियों के प्रति उदार सहानुभूति उभरने लगी। 1944 तक, फिलिस्तीन के ज़ायोनिस्टों को, जिन्हें पहले आतंकवादी कहा जाता था, अचानक "स्वतंत्रता सेनानी" कहा जाने लगा। यदि आप इतिहास की किताबों में देखें, तो आपको कम से कम दो इज़राइली प्रधानमंत्री, जिनमें मेनाचेम बेगिन भी शामिल हैं, "वॉन्टेड" पोस्टरों में दिखाई देंगे, जिनमें लिखा था, "आतंकवादी, इनाम [इतना]।" मैंने जो सबसे बड़ा इनाम देखा, वह मेनाचेम बेगिन, आतंकवादी, के सिर पर 100,000 ब्रिटिश पाउंड का था।

1969 से 1990 तक, फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को एक आतंकवादी संगठन के रूप में केंद्रित किया गया। न्यूयॉर्क टाइम्स के अति-प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रकार विलियम सफायर ने कई बार यासिर अराफात को "आतंकवाद का प्रमुख" कहा है। 29 सितंबर 1998 को, मैंने एक तस्वीर देखी जो मुझे काफी दिलचस्प लगी: यासिर अराफात और इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दोनों ओर खड़े थे। क्लिंटन अराफात की ओर देख रहे थे, और अराफात एकदम चूहे जैसे शांत नजर आ रहे थे। कुछ साल पहले, अराफात की तस्वीरें एक खतरनाक रूप में आती थीं, जिसमें उनकी कमर पर बंदूक लगी होती थी। यही हैं यासिर अराफात। अगर आप उन तस्वीरों को याद करेंगे, तो अगली भी याद रह जाएगी।

1985 में, राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने व्हाइट हाउस में पगड़ी पहने, खूंखार दिखने वाले पुरुषों के समूह का स्वागत किया, को किसी और सदी से आए हुए लग रहे थे। मैं भी उन्हीं लोगों के बारे में द न्यू यॉर्कर के लिए लिख रहा था। रीगन ने उन्हें व्हाइट हाउस में बुलाने के बाद प्रेस से बात करते हुए इन विदेशी मेहमानों को "स्वतंत्रता सेनानी" कहा। ये अफगान मुजाहिदीन थे। उस समय, उनके हाथों में बंदूकें थीं, और वे "ईविल एम्पायर" (शैतानी साम्राज्य) से लड़ रहे थे। रीगन के लिए, ये लोग हमारे संस्थापक पिताओं के समान नैतिक थे।

अगस्त 1998 में, एक और अमेरिकी राष्ट्रपति ने ओसामा बिन लादेन और उसके आदमियों को अफगानिस्तान के शिविरों में मारने के लिए मिसाइल हमले का आदेश दिया। बिन लादेन, जिस पर अफगानिस्तान में 15 अमेरिकी मिसाइलें दागी गईं, कुछ साल पहले तक जॉर्ज वाशिंगटन और थॉमस जेफरसन के नैतिक समकक्ष माना जाता था। मैं बिन लादेन के विषय पर बाद में लौटूंगा।

मैं ये कहानियां इसलिए याद कर रहा हूं ताकि यह बताया जा सके कि आतंकवाद के प्रति आधिकारिक दृष्टिकोण काफी जटिल है, लेकिन इसके कुछ लक्षण निश्चित हैं। सबसे पहले, आतंकवादी बदलते रहते हैं। कल का आतंकवादी आज का नायक बन जाता है, और कल का नायक आज का आतंकवादी। एक लगातार बदलती छवि की दुनिया में हमें यह समझने के लिए होशियार रहना होगा कि आतंकवाद वास्तव में क्या है और क्या नहीं है। उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है यह जानना कि आतंकवाद के कारण क्या हैं और इसे कैसे रोका जा सकता है।

दूसरी बात, आतंकवाद के प्रति आधिकारिक दृष्टिकोण असंगति का रुख अपनाता है, जो किसी स्पष्ट परिभाषा से बचता है। मैंने आतंकवाद पर कम से कम बीस आधिकारिक दस्तावेज़ों की समीक्षा की है। इनमें से किसी में भी आतंकवाद की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई। ये सभी इसे भावनात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं ताकि हमारी भावनाओं को उकसाया जा सके, बजाय इसके कि हमारी बुद्धि का उपयोग हो। मैं आपको एक प्रतिनिधि उदाहरण देता हूं। 25 अक्टूबर 1984 को, राज्य सचिव जॉर्ज शुल्ट्ज़ ने न्यूयॉर्क सिटी के पार्क एवेन्यू सिनेगॉग में आतंकवाद पर एक लंबा भाषण दिया। सात पन्नों के राज्य विभाग के बुलेटिन में, आतंकवाद की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई। इसके बजाय हमें निम्नलिखित कथन मिलते हैं। पहला: "आधुनिक बर्बरता को हम आतंकवाद कहते हैं।" दूसरा: "आतंकवाद राजनीतिक हिंसा का एक रूप है।" तीसरा: "आतंकवाद पश्चिमी सभ्यता के लिए एक खतरा है।" चौथा: "आतंकवाद पश्चिमी नैतिक मूल्यों के लिए एक खतरा है।" क्या ये कथन हमारी भावनाओं को उकसाने के अलावा कुछ और करते हैं?

आतंकवाद की परिभाषा अधिकारी इसलिए नहीं देते क्योंकि परिभाषा देने का मतलब होता है विश्लेषण, समझ और कुछ सुसंगत मानदंडों का पालन करने की प्रतिबद्धता। यह आतंकवाद के प्रति आधिकारिक दृष्टिकोण की दूसरी विशेषता है। तीसरी विशेषता यह है कि परिभाषा की अनुपस्थिति अधिकारियों को आतंकवाद को वैश्विक खतरे के रूप में चित्रित करने से नहीं रोकती। भले ही वे आतंकवाद को परिभाषित न करें, लेकिन वे इसे अच्छी सामाजिक व्यवस्था, पश्चिमी सभ्यता के नैतिक मूल्यों, और मानवता के लिए खतरा घोषित कर सकते हैं। इसलिए, वे इसे दुनिया भर में समाप्त करने का आह्वान कर सकते हैं। आतंकवाद विरोधी नीतियां भी इसी कारण वैश्विक होनी चाहिए। न्यूयॉर्क में दिए गए अपने भाषण में जॉर्ज शुल्ट्ज़ ने कहा था: "हमारी क्षमता पर सवाल नहीं उठ सकता कि आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए जहां और जब आवश्यकता हो, हम बल का उपयोग कर सकते हैं।" इसके लिए कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। एक ही दिन अमेरिकी मिसाइलों ने अफगानिस्तान और सूडान पर हमला किया। ये दोनों देश एक-दूसरे से 2,300 मील की दूरी पर हैं, और इन पर एक ऐसे देश की मिसाइलों ने हमला किया जो लगभग 8,000 मील दूर है। मतलब, पहुंच पूरी दुनिया में है।

आतंकवाद के प्रति आधिकारिक दृष्टिकोण की चौथी विशेषता यह है कि वे न केवल वैश्विक पहुंच का दावा करते हैं, बल्कि एक प्रकार के सर्वज्ञ ज्ञान का भी। उनका दावा है कि उन्हें पता है कि आतंकवादी कहां हैं, और इसलिए, उन्हें कहां निशाना बनाना है। जॉर्ज शुल्ट्ज़ के शब्दों में, "हमें यह फर्क पता है कि कौन आतंकवादी हैं और कौन स्वतंत्रता सेनानी, और जब हम इधर-उधर देखते हैं, तो हमें इन्हें पहचानने में कोई दिक्कत नहीं होती।" बस ओसामा बिन लादेन को यह नहीं पता था कि वह एक दिन सहयोगी था और दूसरे दिन दुश्मन बन गया। यह बात ओसामा बिन लादेन के लिए बेहद उलझन भरी रही होगी। मैं उसके बारे में अंत में फिर बात करूंगा; वो भी एक रोमांचक कहानी है।

पांचवीं बात यह है कि आधिकारिक दृष्टिकोण कारणों को नजरअंदाज करता है। वे यह नहीं देखते कि लोग आतंकवाद का सहारा क्यों लेते हैं। कारण? कौन सा कारण? एक और उदाहरण: 18 दिसंबर, 1985 को द न्यूयॉर्क टाइम्स ने रिपोर्ट किया कि यूगोस्लाविया के विदेश मंत्री—आपको वो दिन याद होंगे जब यूगोस्लाविया था—ने अमेरिका के विदेश मंत्री से फिलिस्तीनी आतंकवाद के कारणों पर विचार करने का अनुरोध किया। राज्य सचिव जॉर्ज शुल्ट्ज़, और मैं द न्यूयॉर्क टाइम्स से उद्धरण दे रहा हूं, “का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने मेज पर जोर से मारा और दौरे पर आए विदेश मंत्री से कहा, ‘किसी भी कारण से इसका कोई संबंध नहीं है। बस।’ कारणों को देखने की ज़रूरत ही क्यों है?

आधिकारिक दृष्टिकोण की छठी विशेषता यह है कि आतंकवाद के प्रति हमारी नैतिक घृणा को चुनिंदा होना चाहिए। हमें उन समूहों के आतंकवाद की निंदा करनी है जिन्हें आधिकारिक तौर पर अस्वीकार किया गया है, लेकिन उन समूहों के आतंकवाद की प्रशंसा करनी है जिन्हें अधिकारी मंजूरी देते हैं। इसी वजह से राष्ट्रपति रीगन का बयान था, "मैं एक कॉन्ट्रा हूं।" हम जानते हैं कि निकारागुआ के कॉन्ट्रा किसी भी परिभाषा के अनुसार आतंकवादी थे, लेकिन मीडिया प्रचलित विचार का समर्थन करती है।

मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रचलित दृष्टिकोण सहयोगी सरकारों के आतंकवाद को ध्यान में नहीं रखता है। इस प्रकार, अमेरिका ने पिनोशे के आतंकवाद को माफ कर दिया, जिसने मेरे सबसे करीबी दोस्तों में से एक, ओरलैंडो लेटेलियर, चिली के राष्ट्रपति साल्वाडोर अलेंदे के शीर्ष राजनयिकों में से एक को 1976 में वाशिंगटन डीसी में कार बम विस्फोट में मार डाला। इसी तरह अमेरिका ने पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक के आतंक को भी माफ कर दिया, जिन्होंने वहां मेरे कई दोस्तों की हत्या कर दी। मैं बस यह कहना चाहता हूं कि मेरी सीमित समझ के अनुसार, जिया-उल-हक, पिनोशे, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, और इंडोनेशिया जैसी सरकारों द्वारा की गई राज्य प्रायोजित हत्याएं, पीएलओ या अन्य संगठनों द्वारा की गई हत्याओं से कम से कम हजार गुना ज़्यादा हैं।

इतिहास, दुर्भाग्यवश, ताकत को पहचानता है और उसे दृश्यता प्रदान करता है, कमजोरी को नहीं। इसलिए, ऐतिहासिक रूप से प्रभुत्वशाली समूहों को ही दृश्यता मिली है। हमारा समय—जो कोलंबस के साथ शुरू होता है—असाधारण रूप से बिना दर्ज किए गए नरसंहारों का युग रहा है। महान सभ्यताएं  मिटा दी गईं। माया, इंका, अज़टेक, अमेरिकी इंडियन, और कनाडाई इंडियन सभी नष्ट कर दिए गए। उनकी आवाज़ें आज तक नहीं सुनी गईं। हां, उनकी आवाजें तब सुनी जाती हैं, जब प्रभुत्वशाली ताकतों को नुकसान होता है, जब प्रतिरोध का कोई ऐसा रूप सामने आता है जो बढ़ती कीमत का संकेत देता है, जैसे कस्टर की हत्या हो या गॉर्डन को घेर लिया जाए। तभी आपको पता चलता है कि वहां इंडियन या अरब लड़ रहे थे और मर रहे थे।

इस विषय पर मेरी आखिरी बात यह है कि शीत युद्ध के दौरान, संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक के बाद एक निकारागुआ में सोमोसा और क्यूबा में बतिस्ता जैसे आतंकवादी शासनों का समर्थन किया। अमेरिका ने हर प्रकार के तानाशाहों को अपना मित्र बनाया है। निकारागुआ में यह कॉन्ट्रा थे, अफगानिस्तान में मुजाहिदीन।

अब, दूसरी तरफ का क्या? आतंकवाद क्या है? हमारा पहला काम होना चाहिए इसे परिभाषित करना, नाम देना, इसे "संस्थापक पिताओं के नैतिक समकक्ष" या "पश्चिमी सभ्यता के खिलाफ नैतिक आक्रोश" कहने के अलावा कोई और विवरण देना। वेबस्टर के कॉलेजिएट डिक्शनरी में यह कहा गया है: "आतंक एक तीव्र, दबाव डालने वाला डर है।" आतंकवाद को "आतंकित करने के तरीकों से शासन करने या किसी सरकार का विरोध करने के लिए इस्तेमाल" के रूप में परिभाषित किया गया है। यह सरल परिभाषा एक महान गुण रखती है: यह निष्पक्ष है। यह उस हिंसा पर केंद्रित है जिसका उपयोग अवैध रूप से, संविधान से परे, बलपूर्वक किया जाता है। और यह परिभाषा सही है क्योंकि यह आतंक को वही मानती है जो वह वास्तव में है, चाहे इसे कोई सरकार करे या कोई निजी समूह।

आपने ध्यान दिया? प्रेरणा (motivation) को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। हम यह चर्चा नहीं कर रहे कि उद्देश्य न्यायसंगत है या अन्यायपूर्ण। हम केवल सहमति, असहमति, वैधता, अवैधता, संवैधानिकता और असंवैधानिकता की बात कर रहे हैं। हम प्रेरणाओं को क्यों छोड़ देते हैं? क्योंकि प्रेरणाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे काम के दौरान मैंने आतंकवाद के पांच प्रकार पहचाने हैं: राज्य आतंकवाद, धार्मिक आतंकवाद (कैथोलिकों द्वारा प्रोटेस्टेंटों की हत्या, सुन्नियों द्वारा शियाओं की हत्या, शियाओं द्वारा सुन्नियों की हत्या), आपराधिक आतंकवाद, राजनीतिक आतंकवाद, और विपक्षी आतंकवाद। कभी-कभी ये पांच प्रकार एक-दूसरे में मिलते हैं और साथ-साथ चलते हैं। विरोध का आतंकवाद कभी-कभी विकृत आपराधिक आतंकवाद बन जाता है। राज्य का आतंकवाद निजी आतंक का रूप ले सकता है। उदाहरण के लिए, हम सभी लैटिन अमेरिका या पाकिस्तान के मृत्यु-दलों (death squads) से परिचित हैं, जहां सरकार ने अपने विरोधियों को मारने के लिए निजी लोगों का इस्तेमाल किया। यह पूरी तरह से आधिकारिक नहीं होता। इसका निजीकरण कर दिया जाता है। अफगानिस्तान, मध्य अमेरिका, और दक्षिण-पूर्व एशिया में सीआईए ने अपनी गुप्त गतिविधियों में नशे के सौदागरों का इस्तेमाल किया। नशे और हथियारों का अक्सर गहरा संबंध होता है। ये श्रेणियां अक्सर एक-दूसरे में घुलमिल जाती हैं।

आधिकारिक दृष्टिकोण इन पांच प्रकार के आतंकवाद में से केवल एक पर केंद्रित रहता है—राजनीतिक आतंकवाद। जबकि इससे मानव जीवन और संपत्ति का सबसे कम नुकसान होता है। सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाने वाला आतंकवाद है राज्य आतंकवाद। दूसरे स्थान पर धार्मिक आतंकवाद आता है, हालांकि, तुलनात्मक रूप से, धार्मिक आतंकवाद में कमी आई है। लेकिन अगर ऐतिहासिक रूप से देखें तो धार्मिक आतंकवाद ने बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाया है। तीसरे स्थान पर आपराधिक आतंकवाद आता है। रैंड कॉर्पोरेशन द्वारा ब्रायन जेनकिंस के एक अध्ययन (1978 से 1988 तक के दस सालों का विश्लेषण) से पता चला कि पचास प्रतिशत आतंकवाद का कोई राजनीतिक कारण नहीं था। कोई राजनीति नहीं। सिर्फ अपराध और विकृति (pathology)। इसके बावजूद ध्यान सिर्फ एक ही प्रकार पर रहता है—राजनीतिक आतंकवाद, चाहे वो पीएलओ हो या बिन लादेन, जिसे भी आप चुन लें।

आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं? आतंकवादियों के पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है?

मैं कुछ त्वरित उत्तर देना चाहता हूं। सबसे पहले, सुने जाने की आवश्यकता। याद रखिए, हम एक अल्पसंख्यक समूह, राजनीतिक या निजी आतंकवादियों की बात कर रहे हैं। सामान्यतः, कुछ अपवादों को छोड़कर, ये लोग सुने जाने और अपनी शिकायतों को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, फ़िलिस्तीनी, जिन्हें आज के समय के सबसे बड़े आतंकवादी कहा जाता है, 1948 में अपनी ज़मीन से बेदखल किए गए थे। 1948 से 1968 तक उन्होंने हर अदालत में न्याय की गुहार लगाई। उन्होंने हर दरवाज़े पर दस्तक दी। उन्हें उनके देश और ज़मीन से पूरी तरह वंचित कर दिया गया था, और कोई सुनने वाला नहीं था। अंततः निराश होकर उन्होंने आतंक का एक नया रूप खोजा: हवाई जहाज़ का अपहरण। 1968 से 1975 के बीच उन्होंने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। इस प्रकार का आतंकवाद लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को व्यक्त करने का एक हिंसक तरीका है। यह दुनिया को सुनने के लिए मजबूर करता है। आमतौर पर इसे छोटे, असहाय समूहों द्वारा अंजाम दिया जाता है, जो खुद को बेबस महसूस करते हैं। हम अभी भी फ़िलिस्तीनियों के साथ न्याय नहीं कर पाए हैं, लेकिन कम से कम अब दुनिया जानती है कि वे मौजूद हैं। यहां तक कि अब तो इसराइली भी उन्हें स्वीकार करते हैं। याद रखें 1970 में इसराइल की प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर ने क्या कहा था: "कोई फ़िलिस्तीनी नहीं हैं। वे अस्तित्व में नहीं हैं।"

अब वे निश्चित रूप से अस्तित्व में हैं।

दूसरी बात, आतंकवाद गुस्से का इज़हार है—असहाय महसूस करने, गुस्से में होने, और अकेले होने का नतीजा। आपको लगता है कि आपको पलटवार करना ही पड़ेगा। आपके साथ अन्याय हुआ है, तो आप उसे इसी तरह व्यक्त करते हैं। जब बेरूत में टीडब्ल्यूए जेट का अपहरण हुआ था, तब न्यू जर्सी की जूडी ब्राउन ने कहा कि उसने लगातार सुना कि वे लोग "न्यू जर्सी, न्यू जर्सी" चिल्ला रहे थे। उसे लगा कि वे उसे निशाना बना रहे हैं। लेकिन बाद में पता चला कि आतंकवादी अमेरिकी युद्धपोत न्यू जर्सी का जिक्र कर रहे थे, जिसने 1983 में लेबनानी नागरिक आबादी पर भारी गोलाबारी की थी।

एक और कारण है धोखे का एहसास, जो उस कबीलाई नैतिकता से जुड़ा है जिसमें बदला लेना ज़रूरी होता है। यह भावना बिन लादेन जैसे लोगों में दिखाई देती है। बिन लादेन एक ऐसा व्यक्ति है जो कभी अमेरिका का सहयोगी था और उसने अमेरिका को एक दोस्त के रूप में देखा। फिर उसने देखा कि उसका देश अमेरिका द्वारा कब्जा कर लिया गया और उसे धोखे का एहसास हुआ। यहां सही और गलत की बात नहीं है, मैं बस इस प्रकार की चरम हिंसा के पीछे की मानसिकता को समझाने की कोशिश कर रहा हूं।

कई बार यह बात भी होती है कि आपने खुद दूसरों के हाथों हिंसा का सामना किया है। हिंसक अत्याचार के शिकार लोग अक्सर खुद भी हिंसक बन जाते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि संगठित तरीके से यहूदी आतंकवादियों का उदय सिर्फ होलोकॉस्ट के दौरान और उसके बाद हुआ। यह काफी उल्लेखनीय है कि यहूदी आतंकवादियों ने अधिकतर निर्दोष लोगों या स्वीडन के काउंट बर्नाडोट जैसे यू.एन. शांति निर्माताओं को निशाना बनाया, जबकि स्वीडन का होलोकॉस्ट पर बेहतर रिकॉर्ड था। इरगुन, स्टर्न गैंग और हगनाह जैसे आतंकवादी समूहों के लोग होलोकॉस्ट के बाद उभरे। पीड़ित होने का अनुभव ही खुद में एक हिंसक प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है।

आधुनिक समय में, आधुनिक तकनीक और संचार के साधनों के साथ, हिंसा के लक्ष्य भी वैश्विक हो गए हैं। इस प्रकार, हिंसा का वैश्वीकरण उसी का एक हिस्सा है जिसे हम पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था और संस्कृति का वैश्वीकरण कहते हैं। हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि बाकी सब कुछ तो वैश्विक हो जाए और हिंसा न हो। हमारे पास अब स्पष्ट लक्ष्य हैं। हवाई जहाज का अपहरण कुछ नया है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय यात्रा भी अपेक्षाकृत नई है। अब हर कोई आपके निशाने पर हो सकता है, और इसलिए पूरी दुनिया भी। इस तरह से आतंक का भी वैश्वीकरण हो गया है।

आखिरकार, हमारे समय में आतंक के प्रसार के पीछे क्रांतिकारी विचारधारा की अनुपस्थिति एक महत्वपूर्ण कारण रही है। 19वीं सदी में मार्क्सवाद और अराजकतावाद के बीच बड़े बहस के बिंदुओं में से एक आतंक का उपयोग था। मार्क्सवादियों का तर्क था कि सच्चा क्रांतिकारी हत्या नहीं करता। सामाजिक समस्याओं का समाधान व्यक्तिगत हिंसा के कार्यों से नहीं होता। सामाजिक समस्याओं के लिए सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी की आवश्यकता होती है, और इसीलिए मुक्ति संग्राम को आतंकवादी संगठनों से अलग माना जाना चाहिए। क्रांतिकारियों ने हिंसा को पूरी तरह खारिज नहीं किया, लेकिन उन्होंने आतंक को क्रांति की एक व्यवहार्य रणनीति के रूप में खारिज किया। वर्तमान में वह क्रांतिकारी विचारधारा पीछे हट गई है। 1980 और 1990 के दशकों में, क्रांतिकारी विचारधारा ने पीछे हटकर वैश्विक व्यक्ति को जगह दे दी।

आम तौर पर, ये उन कई ताकतों में से हैं जो आधुनिक आतंकवाद के पीछे काम कर रही हैं।

इस चुनौती का सामना करने के लिए एक के बाद एक देशों के शासक पारंपरिक तरीकों से जवाब दे रहे हैं। पारंपरिक तरीका इसे गोलीबारी से हल करने का है, चाहे वह मिसाइलों से हो या किसी अन्य माध्यम से। इजरायल इस पर गर्व महसूस करता है। अमेरिका इस पर गर्व करता है। फ्रांस भी इस पर गर्व महसूस करने लगा, और अब पाकिस्तान भी इसे लेकर बहुत गर्व करता है। पाकिस्तानी कहते हैं, "हमारे कमांडो सबसे बेहतरीन हैं।" सच्चाई यह है कि यह तरीका काम नहीं करेगा। हमारे समय की एक केंद्रीय समस्या है: राजनीतिक सोच जो अतीत में जड़ें जमाए हुए है, जबकि समय बदल रहा है और नई वास्तविकताएं सामने आ रही हैं।

आइए एक बार फिर ओसामा बिन लादेन की ओर लौटते हैं। जिहाद, जिसे हज़ारों बार "पवित्र युद्ध" के रूप में अनुवाद किया गया है, दरअसल इस शब्द का मतलब वो नहीं है। अरबी में जिहाद का मतलब "संघर्ष करना" होता है। यह संघर्ष हिंसात्मक हो सकता है या अहिंसक। जिहाद के दो रूप होते हैं: जिहाद-ए-असग़र यानि छोटा जिहाद, और जिहाद-ए-अकबर यानि बड़ा जिहाद। छोटा जिहाद बाहरी हिंसा से जुड़ा होता है, जबकि बड़ा जिहाद आत्म-संघर्ष का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति अपने अंदर के विकारों से लड़ता है। मैं इसका इसलिए ज़िक्र कर रहा हूं क्योंकि इस्लामी इतिहास में, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंसात्मक जिहाद पिछले चार सौ वर्षों में लगभग समाप्त हो चुका था। इसे अचानक 1980 के दशक में अमेरिकी मदद से पुनर्जीवित किया गया। जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया, जो पाकिस्तान की सीमा पर है, तो ज़िया-उल-हक़ ने इसे एक अवसर के रूप में देखा और नास्तिक साम्यवाद के खिलाफ वहां जिहाद छेड़ दिया। अमेरिका ने इसे एक सुनहरा मौका माना और रीगन ने इसे 'ईविल एम्पायर' या ‘शैतानी साम्राज्य’ के खिलाफ एक लड़ाई का रूप दिया। पैसों की बारिश होने लगी। सीआईए के एजेंट मुस्लिम दुनिया में घूम-घूमकर लोगों को महान जिहाद के लिए भर्ती करने लगे। बिन लादेन उनकी शुरुआती बड़ी भर्ती में से एक थे। वह न सिर्फ अरब था, बल्कि सऊदी अरब का करोड़पति था, जो इस जिहाद में अपने पैसे लगाने के लिए तैयार था। बिन लादेन ने साम्यवाद के खिलाफ जिहाद के लिए सैकड़ों लोगों की भर्ती की।

मैंने पहली बार 1986 में ओसामा बिन लादेन से मुलाकात की थी। एक अमेरिकी अधिकारी ने मुझे उससे मिलवाने की सिफारिश की थी। वो अधिकारी शायद एक एजेंट था। मैंने उससे बात करते हुए पूछा कि वहां कौन से अरब लोग हैं जिनसे बात करना बहुत दिलचस्प होगा। वहां से मेरा मतलब था अफगानिस्तान और पाकिस्तान। अमेरिकी अधिकारी ने कहा, "तुम्हें ओसामा से मिलना चाहिए।" मैं ओसामा से मिलने गया। वह वहां था, धनी। अल्जीरिया, सूडान और मिस्र जैसी जगहों से लोगों की भर्ती कर रहा था। ठीक मिस्री मौलवी शेख अब्दुल रहमान की तरह, जिसे 1993 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बम विस्फोट के लिए दोषी ठहराया गया था। उस समय, ओसामा बिन लादेन अमेरिका का सहयोगी था। वह सहयोगी बना रहा। एक खास समय पर उसका रुख बदला। 1990 में अमेरिका ने सऊदी अरब में अपनी सेना भेजी। सऊदी अरब मुसलमानों के लिए पवित्र स्थान है, मक्का और मदीना का घर। वहां कभी विदेशी सैनिक नहीं थे। 1990 में, गल्फ युद्ध की तैयारी के दौरान, उन्होंने सऊदी अरब की रक्षा के नाम पर वहां प्रवेश किया। ओसामा बिन लादेन चुप रहा। सद्दाम हार गया, लेकिन अमेरिकी विदेशी सैनिक वहीं रह गए, काबा (मक्का में इस्लाम का पवित्र स्थल) की भूमि पर। बिन लादेन ने पत्र पर पत्र लिखकर कहा, "तुम यहां क्यों हो? निकल जाओ! तुम मदद करने आए थे, लेकिन अब भी रुके हुए हो।" अंततः उसने इन आक्रमणकारियों के खिलाफ जिहाद शुरू कर दिया। उसका मिशन अमेरिकी सैनिकों को सऊदी अरब से निकालना था। उसका पहले का मिशन रूसी सैनिकों को अफगानिस्तान से बाहर निकालना था।

ओसामा बिन लादेन के बारे में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वह एक कबायली समाज से आते हैं। उसके करोड़पति होने का कोई महत्व नहीं है। उसका नैतिकता का सिद्धांत कबायली है। कबायली नैतिकता में दो शब्द होते हैं: वफ़ादारी और बदला। तुम मेरे दोस्त हो, तुम अपना वचन निभाते हो, मैं तुम्हारे प्रति वफ़ादार हूं। अगर तुम अपना वचन तोड़ते हो, तो मैं बदला लेने के रास्ते पर चल पड़ता हूं। उसके लिए, अमेरिका ने अपना वचन तोड़ा है। वफ़ादार दोस्त ने उसके साथ विश्वासघात किया है। अब वे तुम्हारे पीछे आएंगे। वे बहुत कुछ करेंगे। यह अफगानिस्तान युद्ध के परिणाम हैं जो अब वापस आ रहे हैं। 

अमेरिका के लिए मेरी सिफारिश क्या है?

पहली बात, दोहरे मापदंडों के अतिरेक से बचें। अगर आप दोहरे मापदंड अपनाते हैं, तो आपको भी दोहरे मापदंडों से ही जवाब मिलेगा। इसका इस्तेमाल मत करें। इसराइली आतंक, पाकिस्तानी आतंक, निकारागुआ या एल सल्वाडोर के आतंकवाद को समर्थन देकर फिर अफगान या फिलिस्तीनी आतंकवाद की शिकायत करना सही नहीं है। यह तरीका काम नहीं करेगा। निष्पक्ष रहने की कोशिश करें। कोई भी महाशक्ति एक जगह आतंकवाद को बढ़ावा देकर, दूसरी जगह आतंकवाद को रोकने की उम्मीद नहीं कर सकती। इस सिमटे हुए संसार में यह काम नहीं करेगा।

अपने सहयोगियों के आतंकवाद का समर्थन न करें। उनकी निंदा करें। उनसे लड़ें। उन्हें सज़ा दें। गुप्त अभियानों और कम तीव्रता वाले युद्ध से बचें। ये आतंकवाद और ड्रग्स के पनपने की जमीन तैयार करते हैं। गुप्त अभियानों पर बनाई गई ऑस्ट्रेलियाई डॉक्यूमेंट्री ‘Dealing with the Demon’ में मैंने कहा था कि जहां भी गुप्त अभियान हुए हैं, वहां ड्रग की समस्या पैदा हुई है। अफगानिस्तान, वियतनाम, निकारागुआ, सेंट्रल अमेरिका जैसी जगहों पर गुप्त अभियान का ढांचा ड्रग व्यापार के लिए बहुत अनुकूल रहे हैं। गुप्त अभियानों से बचें, यह किसी का भला नहीं करते।

कारणों पर ध्यान दें और उन्हें सुधारने की कोशिश करें। समस्याओं के मूल कारणों को समझें और हल निकालें। सैन्य समाधान से बचें। आतंकवाद एक राजनीतिक समस्या है, और इसका समाधान राजनीतिक होना चाहिए। कूटनीति काम करती है। उदाहरण के तौर पर, राष्ट्रपति क्लिंटन के बिन लादेन पर हमले को देखें। क्या उन्हें पता था कि वे किस पर हमला कर रहे हैं? वे कहते हैं कि जानते थे, लेकिन वास्तव में नहीं जानते थे। एक समय उन्होंने गद्दाफ़ी को मारने की कोशिश की, लेकिन उसकी छोटी बेटी मारी गई। उस मासूम लड़की का कोई कसूर नहीं था। गद्दाफ़ी अभी भी ज़िंदा है। उन्होंने सद्दाम हुसैन को मारने की कोशिश की, लेकिन लैला बिन अत्तर, एक मशहूर कलाकार और निर्दोष महिला, मारी गई। उन्होंने बिन लादेन और उसके आदमियों को मारने की कोशिश की, और इसके बजाय 25 अन्य लोग मारे गए। उन्होंने सूडान में एक रासायनिक कारखाने को नष्ट करने की कोशिश की, और अब स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने एक दवा बनाने वाली फैक्ट्री को नष्ट कर दिया, जो सूडान की आधी दवाओं का उत्पादन करती थी।

अफ़ग़ानिस्तान के लिए भेजी गई मिसाइलों में से चार पाकिस्तान में गिर गईं। एक को मामूली नुकसान हुआ, दो पूरी तरह से नष्ट हो गईं, और एक पूरी सही सलामत है। पिछले दस सालों से अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाया हुआ था, क्योंकि पाकिस्तान बेवकूफी में परमाणु हथियार और मिसाइल बनाने की कोशिश कर रहा था। इसलिए अमेरिका ने मेरे देश पर तकनीकी प्रतिबंध लगा दिया। एक मिसाइल बिल्कुल सही-सलामत थी। आपको क्या लगता है पाकिस्तानी अधिकारी ने वाशिंगटन पोस्ट को क्या कहा? उन्होंने इसे "अल्लाह का तोहफ़ा" कहा। पाकिस्तान को अमेरिकी तकनीक चाहिए थी, और अब उनके वैज्ञानिक इस मिसाइल का ध्यान से अध्ययन कर रहे हैं। यह गलत हाथों में आ गई। राजनीतिक समाधान खोजें। सैन्य समाधान समस्याएं बढ़ाते हैं, सुलझाते नहीं।

आख़िर में, कृपया अंतरराष्ट्रीय क़ानून के ढांचे को मज़बूत करें और उसे सुदृढ़ बनाएं। रोम में एक आपराधिक अदालत है। अगर अमेरिका के पास कोई सबूत हैं तो फिर उसने सबसे पहले वहां जाकर बिन लादेन के खिलाफ वारंट क्यों नहीं लिया? संयुक्त राष्ट्र को लागू करें। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय को लागू करें। पहले वारंट हासिल करें, फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे पकड़ने के लिए कार्रवाई करें।

 

एकबाल अहमद
एकबाल अहमद

एकबाल अहमद (1933–1999) पाकिस्तानी लेखक और बुद्धिजीवी थे, जो युद्ध-विरोधी सक्रियता, विश्व स्तर पर प्रतिरोध आंदोलनों के लिए उनके समर्थन और मध्य पूर्व के अध्ययन में अकादमिक योगदान के लिए जाने जाते हैं। ब्रिटिश इंडिया के बिहार में जन्मे अहमद बचपन में ही पाकिस्तान चले गए। शुरुआती शिक्षा के बाद उन्होंने... एकबाल अहमद (1933–1999) पाकिस्तानी लेखक और बुद्धिजीवी थे, जो युद्ध-विरोधी सक्रियता, विश्व स्तर पर प्रतिरोध आंदोलनों के लिए उनके समर्थन और मध्य पूर्व के अध्ययन में अकादमिक योगदान के लिए जाने जाते हैं। ब्रिटिश इंडिया के बिहार में जन्मे अहमद बचपन में ही पाकिस्तान चले गए। शुरुआती शिक्षा के बाद उन्होंने फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। स्नातक होने के बाद उन्होंने छोटी अवधि के लिए सैनिक अधिकारी के रूप में काम किया। 1948 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए प्रथम कश्मीर युद्ध में वह घायल हो गए। इसके अलावा, उन्होंने अल्जीरियाई क्रांति में भाग लिया, और वियतनाम युद्ध एवं अमरीकी साम्राज्यवाद का अध्ययन किया। इसके बाद 1960 के दशक के मध्य में वह अमरीका लौट गए और वहां युद्ध विरोधी एक्टिविस्ट के रूप में पहचान बनाई। कबीर बाबर ने अहमद को उपमहाद्वीप में पैदा होने वाले सबसे उत्कृष्ट विचारकों में से एक कहा है। 20वीं शताब्दी की प्रमुख राजनीतिक घटनाओं और प्रवृत्तियों का विश्लेषण और आगामी घटनाओं को लेकर की गई उनकी भविष्यवाणियां बहुत हद तक तार्किक रही हैं। एडवर्ड सईद ने अहमद को उनके बौद्धिक विकास पर दो सबसे महत्वपूर्ण प्रभावों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया। इनमें विशेष रूप से सूचनात्मक रूप में दक्षिण एशिया पर उनके लेखन की प्रशंसा करना भी शामिल है। एकबाल अहमद उस पीढ़ी से हैं जिसने उत्कृष्ट सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का रुझान देखा, जिनमें से एकबाल अहमद भी एक थे। अहमद ने न केवल लिखा बल्कि सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लिया और फिलिस्तीन से वियतनाम तक लोगों की स्थिति में सुधार के लिए अथक प्रयास किया।