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‘आवाम हमारे साथ है’: मसारत आलम भट्ट का इंटरव्यू

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April 26, 2025

‘आवाम हमारे साथ है’: मसारत आलम भट्ट का इंटरव्यू

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 यह आर्टिकल पहली बार 18 सितंबर 2010 को टाइम्स ऑफ इंडिया, क्रेस्ट एडिशन में प्रकाशित हुआ था।         

 

हमें कश्मीर के संघर्ष के मौजूदा चरण के बारे में बताइए। यह अतीत में हुए संघर्ष से कितना अलग है?

नहीं, इतना अलग नहीं है। फ़र्क बस इतना है कि इस बार कश्मीर की अवाम विश्व समुदाय और भारतीयों, दोनों को स्पष्ट संदेश देने में कामयाब हुई है—कि जम्मू और कश्मीर के लोगों को भारत से पूर्ण आज़ादी चाहिए। उनको पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए; वे चाहते हैं कि भारतीय सेना और सुरक्षा बल कश्मीर को छोड़कर वापस लौट जाएं। हमारा राष्ट्र पिछले 63 सालों से न्यायोचित उद्देश्य के लिए प्रयास कर रहा है लेकिन यह निर्णायक चरण है।

आपको ऐसा क्यों लगता है कि यह निर्णायक चरण है?

लोग अब इस लंबे समय से चली आ रही तानाशाही, धोखाधड़ी और कब्जे से तंग आ चुके हैं। इस बार उन्होंने अपनी आंखों से देखा है कि कैसे आठ साल के बच्चों तक को बेरहमी से पीट-पीट कर मारा जा रहा है। निहत्थे बच्चों को सड़कों पर बिना किसी वजह के गोली मारी जा रही है। तो अब लोगों में यह भावना है कि हमें एक बार में पूरी जी-जान लगाकर हिंदुस्तान को जड़ से उखाड़ फेंकना है। अगर वे रुकना चाहते हैं तो उन्हें हर एक कश्मीरी को जान से मारना होगा। और अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो भारतीय सशस्त्र बलों को कश्मीर छोड़कर जाना होगा।

इसका प्रयास तो पहले भी हो चुका है। आप इस बार सफलता कैसे प्राप्त करेंगे?

हम लोगों के बीच बातचीत चल रही है कि आंदोलन की रणनीति कैसे तैयार करनी है और लोगों के अंदर की ऊर्जा को कैसे काम में लेना है। खुशकिस्मती से आज़ादी का विचार इस बार राज्य के कोने-कोने तक फैला हुआ है और सब लोग इसमें शामिल हैं। यह आंदोलन अब हमारे दफ्तरों के बाहर निकल चुका है, हमारी संगठनात्मक व्यवस्था के परे जा चुका है। इसमें सभी शामिल हैं; आप दीवारों और सड़कों पर ‘जाओ भारत वापस जाओ’ लिखने का बस आह्वान करिए, या फिर फेसबुक पर जाकर लोगों से ऐसा करने को कहिए और देखिए अगले ही दिन आपको सारी सड़कों पर ग्रैफिटी मिलेगी और इंटरनेट पर ढेरों मैसेज मिलेंगे। लोग इस आंदोलन में बहुत भरोसे के साथ शामिल हो रहे हैं। हम भारत सरकार पर दबाव डालेंगे और उन्हें इस मुद्दे पर ध्यान देने के लिए विवश करेंगे और उनसे कश्मीर के लोगों से किया उनका वादा पूरा करवाएंगे, कि कश्मीर में जनमतसंग्रह करवाया जाएगा। तब लोग अपने भविष्य का फैसला खुद करेंगे—कि वे भारत के साथ रुके रहना चाहते हैं कि पाकिस्तान से जुड़ना चाहते हैं, या फिर दोनों से अलग आज़ाद मुल्क बनाना चाहते हैं।

लेकिन भारत द्वारा किए गए जनमतसंग्रह के वादे में स्वतंत्रता का विकल्प नहीं है।

भारत उत्पीड़क है, जिसने इस सरजमीन पर 1947 से कब्ज़ा कर रखा है। पहले तो भारत को यहां से दफा हो जाना चाहिए। फिर जम्मू और कश्मीर के लोगों ने अपने हालातों के कारण इतना सब कुछ देखा है कि वे इतने परिपक्व हो ही गए हैं कि राष्ट्र के तौर पर अपने भविष्य का फैसला खुद कर सकें। पर यह सब होने से पहले सबसे जरूरी यह है कि भारत जम्मू और कश्मीर को छोड़कर जाए।

आपने अतीत से क्या सीखा है? और आप भविष्य में क्या देख रहे हैं?

हमने अतीत से बहुत कुछ सीखा है—आंदोलन में सिर्फ गिलानी और मसारत को ही नहीं बल्कि पूरी आवाम को जोड़ने की ज़रूरत है। दुनिया के सामने अपना पक्ष साफ-साफ पेश करना जरूरी है। किसी तरह की अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए। यह हमारे ऊपर है कि हम इसे दीर्घकालिक कार्यक्रम बनाते हैं कि अल्पकालिक। लोगों को इसके लिए तैयार होना है। अपनी आज़ादी के लिए आवाम ने पहले ही बहुत कष्ट सहे हैं। 2011 तक हमारा नसीब बहुत बेहतर हो जाएगा। यह साल हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हमें भारत का लगातार विरोध करने की जरूरत है। हमारा सोशल नेटवर्क मजबूत है, क्योंकि हमारे लोग सब जगह फैले हुए हैं। यह पहली बार हो रहा है कि हम अपने दफ्तरों से बाहर निकलकर लोगों के साथ वक्त गुजार रहे हैं। हम अपनी भविष्य की रणनीति लोगों के विचारों को मद्देनजर रखते हुए बनाएंगे। मेरे और अन्य नेताओं के विचार इस मुकाम पर मायने नहीं रखते; यह स्पष्ट तौर पर जन-आंदोलन है। जून से 63 लोगों की हत्या हो चुकी है। फेसबुक ने अपनी भूमिका निभाई है, कश्मीरी प्रवासियों और भारत के लोगों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई है। इस सबका नतीजा यह निकलकर आया है कि विश्व समुदाय ने हमारी बात सुनी है।

पत्थरबाज़ी करने वालों की भूमिका का क्या?

पत्थरबाज़ी कश्मीर में कोई नई चीज़ नहीं है। 1980 के दशक में भी यह होता था लेकिन उस समय यह इतना व्यापक नहीं था। मैं अपने बचपन से पत्थरबाज़ रहा हूं। उन दिनों विरोध करने का एकमात्र तरीका पत्थर फेंकना ही था। सर्दियों में हम कांगर[1] फेंका करते थे। 1989–90 में हमारे पास बंदूकें आईं, और साथ ही आया भारत द्वारा किया गया टॉर्चर और दमन। प्रदर्शनकारियों की निहत्था होने के कारण बहुत मौतें हुई हैं। आप उनको गुस्सा या किसी भी अन्य तरीके की भावना अभिव्यक्त करने का मौका नहीं देते, बल्कि उन पर हमले करते हैं और फिर अपेक्षा करते हैं कि वे पत्थर फेंक कर प्रतिशोध भी न करें। अमरीका में लोग जूते, कोक-पेप्सी की बोतलें और कचरा फेंकते हैं। राजस्थान में मांगें पूरी न होने पर गुर्जरों ने भी पत्थरबाज़ी की थी।

लेकिन वे आम आदमी को निशाना क्यों बना रहे हैं?

हमने उनसे ऐसा करने को मना किया है। कुछ उपद्रवी लोग हैं और हम उन्हें कुछ दिनों में रोक लेंगे। हमने सिद्धांत बनाया है कि कोई भी पीड़ित व्यक्ति दूसरे पीड़ित व्यक्ति को परेशान नहीं करेगा। अगर ऐसा हुआ है तो हमें इस का खेद है और हम इसके लिए माफी मांगते हैं। हमें खबर मिली है कि लोगों को उत्पीड़ित करने के लिए और हड़ताल को तोड़ने के लिए अब इखवानियों[2] का इस्तेमाल किया जा रहा है।

आपके बीच भी कुछ गद्दार हैं, जो भारत का सहयोग कर रहे हैं। उनसे निपटने की क्या योजना है?

हमने उनसे और उनके परिवारवालों से अपील की है कि वे ऐसा करने से बचें—क्योंकि राष्ट्र गद्दारों और देशद्रोहियों को माफ नहीं करते। हमने उनसे बोला है कि उन्हें अपने लोगों से जंग नहीं करनी चाहिए। सारे पुलिसकर्मी हमारे खिलाफ नहीं हैं। नौकरशाह भी गद्दार हैं लेकिन उनसे हमें कोई खास खतरा नहीं है। मोमा काना और कुका परे जैसे गद्दारों ने सार्वजनिक घोषणा की है कि वे आंदोलन के खिलाफ कुछ नहीं करेंगे और अपने लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। जो हमारी बात नहीं सुनते उन्हें ऐसा करने का खामियाजा कभी न कभी भुगतना ही पड़ेगा। लोग उन्हें छोड़ेंगे नहीं। अगर लोगों को ऐसा लगा कि हमने उनके साथ गलत किया है तो वे हमें भी नहीं बख्शेंगे। हत्यारों को माफ करने का तो सवाल ही नहीं उठता। उनको दिल्ली में जगह मिलेगी . . . 2 गज ज़मीन के नीचे। गद्दारों को देखना चाहिए कि कुका परे जैसे देशद्रोही, सरकार के समर्थन और तमाम ताकत के बावजूद कैसे अपने घर में कैद हैं। उसको अपने खुद के गांव में भी जगह नहीं मिली। गद्दारों को अपने परिवार सहित फैसला करना है कि वे क्या करना चाहते हैं। क्या उन्हें अपने खाने में, बड़े घरों में और गाड़ियों में बच्चों के खून की बू नहीं आती? उन्हें ही फैसला करना होगा। हमारी लड़ाई सेना के साथ है, स्थानीय पुलिसवालों के साथ नहीं।

आपने कश्मीर छोड़ो अभियान क्या सोच कर शुरू किया?

हमको समझ में आ रहा था कि हमारा आंदोलन ठीक से संचालित नहीं हो रहा है और हम विश्व समुदाय तक स्पष्ट शब्दों में अपना संदेश नहीं पहुंचा पा रहे हैं—कोई आत्म-निर्णय की बात कर रहा था तो कोई स्वायत्तता की, कोई त्रिपक्षीय बातचीत की मांग रख रहा था तो कोई द्विपक्षीय बातचीत की। तो हमने नारा दिया कि भारत को जम्मू और कश्मीर छोड़ना पड़ेगा। अब 63 साल में पहली बार भारतीय संसद में गृह मंत्री ने आज़ादी की आवाज़ को मान्यता दी। पहली बार, सबसे बड़े विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने संसद में साफ शब्दों में कहा कि जम्मू और कश्मीर की जनता को नौकरियां या सड़कें नहीं बल्कि आज़ादी चाहिए। दूसरी बात यह है कि हमने जम्मू और कश्मीर में सभी को एकजुट किया है, चाहे वे छात्र हों, डॉक्टर हों, वकील हों या दुकानदार। हमारी रणनीति के अगले चरण के तहत हुर्रियत (जी) के अध्यक्ष सैयद अली शाह गिलानी ने भारत को 5 बिंदु दिए हैं, जिनको विश्वास निर्माण के उपायों के रूप में देखा जा सकता है। पहले, भारत को ग़ैर-फ़ौजीकरण का अनुपालन करना चाहिए और सारे राजनीतिक कैदियों को रिहा करना चाहिए। फिर ही हम आंदोलन के इस चरण पर लगाम लगाएंगे और बातचीत करेंगे। लेकिन अगर भारत इन पांच बिंदुओं का पालन करने में विफल रहता है तो हम आंदोलन को और तीव्र करेंगे। हड़ताल और कर्फ्यू अनंतकाल तक नहीं चल सकते। हम इसे और प्रचंड बनाएंगे। अगर भारत शांति बहाल करने के बारे में गंभीर है तो यही मौका है। उन्हें तुरंत ही ग़ैर-फ़ौजीकरण शुरू कर देना चाहिए।

भारत इस मुकाम पर क्या कह रहा है? क्या गुप्त चैनलों से कोई संदेश आ रहे हैं?

हम ट्रैक 2 पर क्यों जाएं? हम अपने लोगों को धोखा क्यों दें? हमें ईमानदार और स्पष्ट होना चाहिए और सब खुले तौर पर करना चाहिए।

लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं जो हड़ताल के लिए आपके आह्वान का समर्थन नहीं करना चाहते। आपके पार्टी के कार्यकर्ता इन असहमति की आवाज़ों को अक्सर दबा देते हैं। ऐसा क्यों?

हम असहमति का आदर करते हैं। लेकिन अगर वे असहमति के बहाने कुछ और हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं तो समस्या पैदा हो सकती है। हम लोगों की वास्तविक तकलीफों को सुनते भी हैं और उनसे निपटते भी हैं। हम लोगों से सुझाव भी ले रहे हैं। हालांकि हमें पीड़ा झेलनी है, हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि इस पीड़ा को कम से कम किया जा सके। किसी ने भी बिना पीड़ा सहे आज़ादी हासिल नहीं की है। अगर लोगों को लगता है कि वे बिना पीड़ा झेले आज़ादी हासिल कर लेंगे तो वे ख़ुद को बेवकूफ बना रहे हैं। भोजन वितरण और शिक्षा के लिए लोगों को स्थानीय स्तर पर समितियों का गठन करना चाहिए। वे गरीबों की मदद कर रहे हैं। उन्हें स्थानीय स्तर पर पढ़ाने का काम भी करना चाहिए। जब तक भारत हमारी मांगें पूरी नहीं करता, हमें डटे रहना होगा। ईद के बाद हालात और संगीन होंगे।

मीडिया की भूमिका क्या रही है?

मीडिया से हमें शिकायत है। हमारी मीडिया से दरख्वास्त है: मेहरबानी करके सच बोलें। सिर्फ अखबार बेचने के लिए न लिखें। लोग इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि किस अखबार ने कौन-सा मुद्दा उठाया है। तो मेहरबानी करके अपना व्यवहार ठीक करें। आज हमने पुलिस को चेतावनी दी है; कल हो सकता है हमें स्थानीय मीडिया को चेतावनी देनी पड़े। हम भारतीय मीडिया से पूछना चाहते हैं कि वे कश्मीर के लोगों के खिलाफ क्यों हैं? क्या हम इंसान नहीं हैं? उन्हें हमारी बातें सुननी चाहिए, हमारी कहानियां बतानी चाहिए। हमने एक राष्ट्र की तरह बर्ताव किया है; इसके लिए उन्हें कश्मीरियों की सराहना करनी चाहिए। हमारा समुदाय सहनशील है। फिर भी वे हमें बांटने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने पहले सिखों को और अब हमें बांटने की कोशिश क्यों की? हमको खबर मिली है कि वे शिया और सुन्नी के बीच हिंसा भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। अब हम परिपक्व हो चुके हैं; हम नहीं लड़ेंगे। हम भाई-भाई हैं।

क्या आप जम्मू और कश्मीर के लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे?

सब बुरे हालातों का सामना कर रहे हैं। मैं तीन महीनों से घर नहीं जा सका हूं। हमारे परिवारों ने भी बहुत पीड़ा झेली है। मगर हमने अपने समुदाय के लिए बलिदान दिया है। तो हमारे समुदाय को भी बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह दिखावा नहीं है। मैं यहां हजारों लोगों से मिला हूं और मैं यह दावे से कह सकता हूं कि मैं कभी किसी थके या हारे हुए कश्मीरी से नहीं मिला। आवाम हमारे साथ है। हम अपने भविष्य को बचाने के लिए इन सब चीज़ों से एक ही बार में क्यों नहीं निपट लेते? यह दिशाहीन आंदोलन नहीं है। हम सार्वजनिक प्रदर्शन को तीव्र बनाने के लिए मौके का इंतज़ार करेंगे। भारत के लिए उसको संभालना और मुश्किल होगा। यही भावना है, जो इस समय हमारे राष्ट्र पर राज कर रही है।    

 


[1] सर्दियों में गरम रहने के लिए सींक की टोकरी में रखी मिट्टी के हंडिया में जलते कोयले रखे जाते हैं।  

[2] भारत से जुड़े हुए मिलिटेन्ट यानी गद्दार

 

 

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मसारत आलम भट्ट
मसारत आलम भट्ट

लेखक

मसारत आलम भट कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष का एक प्रतिष्ठित और दृढ़ चेहरा हैं। सृनगर में जन्मे और पले-बढ़े मसारत आलम ने अपने युवा दिनों से ही कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए आवाज़ बुलंद करनी शुरू कर दी थी। वे उन चुनिंदा नेताओं में से हैं जिन्होंने लगातार सैन्य दमन, कारावास और निगरानी के...

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अक्षत जैन
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